20 सितंबर से "जलवायु हड़ताल" : भारतीय वैज्ञानिकों के लिए इसके क्या मायने हैं?
वर्ष 2017 में पहली बार विज्ञान के लिए वैश्विक मार्च आयोजित किया गया था, ऐसा इसलिए किया गया था क्योंकि कहीं न कहीं यह महसूस किया जा रहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र में विज्ञान विरोधी, बौद्धिक-विरोधी विचार बढ़ रहे है, जिसके परिणामस्वरूप ख़ासकर विश्व के उत्तरी छोर में दक्षिणपंथी सरकारों के चुनाव हुए हैं। इसे भारत में भी महसूस किया गया और इस तरह के आंदोलन को, विज्ञान के लिए मार्च को यहां के विज्ञान से जुड़े समुदाय से काफ़ी समर्थन मिला, विशेष रूप से विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों के बीच जो ख़ुद एक तरफ़ फ़ंड कटौती से लड़ रहे हैं, और दूसरी ओर, सरकार के ग़ैर-वैज्ञानिक मंत्रियों के विचित्र अवैज्ञानिक बयान से भी लड़ रहे हैं।
इस वर्ष, विज्ञान के लिए वैश्विक मार्च की तारीख़ को फिर से 20 सितंबर रखा गया है और इस दिन जलवायु हड़ताल/आंदोलन का आह्वान किया गया है, जिसके तहत एक सप्ताह तक विरोध और अन्य संबंधित गतिविधियों का आयोजन किया जाएगा। भारत में विज्ञान पर इस तरह के जुलूस/कार्यक्रम के लिए एकजुटता का आह्वान किया जाता रहा है। हालांकि, भारतीय वैज्ञानिकों के लिए जलवायु हड़ताल का क्या मतलब है? उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर वे इस आंदोलन में शामिल होते हैं, तो वह किस लिए होगा? इसके बारे में पहले स्पष्ट होना आवश्यक है इससे पहले कि हम बढ़ते उत्साह में इसमें कूद जाएँ क्योंकि भारी संख्या मे लोग इसमें शामिल होंगे।
20 सितंबर की जलवायु हड़ताल पिछले साल ग्रेटा थुनबर्ग के नेतृत्व में हुई "जलवायु के लिए स्कूल हड़तालों" के रुप में और होने वाली कार्यवाही के लिए युवाओं की एकजुटता और समर्थन के रूप में किया जाना है। हम सब विरोध करने वाले लोग तत्काल जलवायु सुधारने के लिए कार्रवाई की मांग कर रहे हैं और उन लोगों का भी आह्वान कर रहे हैं कि वे भी इसमें शामिल हों जो हमारे समय की सबसे ज़रूरी पर्यावरणीय समस्या के एक अवैज्ञानिक निराकरण के समाधन के पीछे छिपते रहे हैं, या फिर चुनावी मजबूरियों की आड़ लेते रहे हैं, ताकि उनके द्वारा वर्तमान और यहां तक कि तुरंत जलवायु कार्रवाई करने से बचा जा सके। जबकि विश्व के उत्तरी छोर में जलवायु में सुधार की कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए, यह बात भी पहली बार आंदोलन को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए।
जलवायु कार्रवाई के मुद्दे पर छात्र आंदोलन को आमतौर पर युवाओं के बीच कफ़ी समर्थन मिला है। इसमें कोई शक नहीं कि समस्या, निश्चित रूप से, वास्तविक है, और पिछले दशक में घटी घटनाओं की मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति उपयुक्त रूप से इसे उजागर करती रही है, इन ज़्यादातर घटनाओं को संभावित सर्वनाश करने वाली घटनाओं के रूप में पेश किया गया, इसके साथ ही स्कूल के पाठ्यक्रम में भी इस विषय को बड़े पैमाने पेश किया गया है। इसलिए इस मुद्दे के बारे में बड़े पैमाने पर जागरुकता पैदा हुई है, कम से कम पहली दुनिया की शिक्षित युवा आबादी के बीच तो ऐसा हुआ ही है फिर उस हद तक कहीं हुआ या नहीं।
लेकिन समस्या की वास्तविकता को पहचानना और मुद्दे की स्पष्ट जागरुकता अकेले ही इस मुद्दे पर बड़े पैमाने पर लामबंदी की गारंटी नहीं करती है। इस सब के साथ बेरोज़गारी और ग़रीबी की समस्याएँ भी वास्तविक हैं। हमने कई वर्षों से इन पर भी लामबंदी नहीं देखी है। लेकिन हमारे समय के पर्यावरण संकट, जलवायु परिवर्तन ने इसकी सबसे ज़रूरी अभिव्यक्ति पेश की है, जिसने इस तरह की लामबंदी को संभव बनाया है। यदि कोई इस घटना को क़रीब से देखता है, तो इसके कारण स्पष्ट हैं।
इस नए जलवायु आंदोलन में "वे" और "हम" को सहज बना दिया गया है, इसमें व्यापक नारे लगाए जा रहे हैं, जिसमें युवाओं को सभी तरह की राजनीति को संदिग्ध के रूप में देखना सिखाया गया है। इस बहस में "वे" वैश्विक पूँजी नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ भी करने या कहने से इनकार करते हैं जबकि वे इस स्थिति में या ऐसे पदों पर हैं कि वे कुछ कर सकें - जैसे कि सभी क़िस्म के जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना आदि शामिल है लेकिन वे बड़े पदों पर रहते हुए ऐसा भी नही कर पा रहे हैं। इसके परिणाम के रूप में वे वयस्क लोग हैं, या कम से कम वे सभी लोग है जो 40 वर्ष की आयु से ऊपर हैं। "हम" का मतलब कामकाजी जनता नहीं है। यह ग़रीब भी नहीं है। ये मोटे तौर पर बच्चे हैं। जिन लोगों को प्रदूषित और तेज़ी से गर्म होने वाली धरती विरासत में मिली है। समस्या का इस हद तक सरलीकरण कर दिया गया है कि सभी असमानता के मुद्दों हटा दिया गया है।
पर्यावरण संगठनों से आंदोलन को समर्थन, जिनमें से अधिकांश संगठन भी पर्यावरण की समस्या को काफ़ी सरल तरीक़े से ही देखते हैं, इसलिए, इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। पर्यावरणीय संकट सभी राष्ट्रीय सीमाओं, वर्गों और अन्य क्षुद्र मुद्दों पर पार पा लेता है, ऐसे मुद्दे जो हमें वास्तविक दुनिया में विभाजित करते है, अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण ग़ैर सरकारी संगठनों के बीच लोकप्रिय है। जलवायु कार्रवाई के एक मूल तत्व के रूप में समानता के मुद्दे को तेज़ी से हटा दिया गया है, जबकि यह कभी इन संगठनों के विचार का हिस्सा था। इसलिए, जीवाश्म ईंधन को अमेरिका, यूरोपीय संघ, भारत, चीन, अफ़ग़ानिस्तान और बुर्किना फ़ासो में भी तुरंत और पूरी तरह से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
इस आंदोलन में मौजूद सामान्य भावना को यह व्यापक पैमाने पर इसका सामान्यीकरण कर सकता है, और ऐसा भी विश्वास या स्वीकार करने वाले लोग हैं जो मानते हैं कि हम एक असमान दुनिया में रहते हैं। हालांकि ज़्यादातर मामलों में, यह समझ केवल जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की प्रकृति के विभिन्न पहलुओं तक फैली हुई है – इसलिए इस समस्या से जो प्रभावित होंगे वे ऐसे लोग होंगे जिनका इसे बढ़ाने में कोई योगदान नहीं होगा। यह समझ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के दौरान लिंग आधारित न्याय के लिए जलवायु कार्रवाई का होना और स्वदेशी लोगों के अधिकारों की बढ़ती समझ मुख्यधारा के आंदोलन में भी परिलक्षित होती है। हालांकि, इस आबादी की असुरक्षा को कैसे कम किया जाए के प्रश्न को अक्सर गलीचे के नीचे दबा दिया जाता है क्योंकि इसमें अधिक जटिल समस्याओं से निपटना शामिल होता है। क्या ग़रीब देश और उसकी आबादी खुद को बचाने के लिए और अपने लड़ने की हिम्मत में सुधार कर सकती हैं? क्या यह सब आधुनिक बुनियादी ढांचे और सुविधाओं तक पहुंच के बिना किया जा सकता है?
जलवायु कार्रवाई में इक्विटी के सवाल के भी कई आयाम हैं। उत्पादन का मौजूदा प्रमुख साधन/ढाँचा, यानी पूंजीवाद के लिए, जलवायु परिवर्तन का समाधान खोजना संभव हो सकता है। लेकिन क्या ऐसा समाधान न्यायसंगत होगा? धरती को बचाने का भार कौन उठाएगा? जेरी ब्राउन से जॉन केरी तक – जो अमेरिका में जलवायु सुधार की कार्रवाई की वकालत करने वाले समाजवादी नेता नहीं हैं। फिर भी, वे डोनल्ड ट्रम्प की तरह जलवायु की गंभीर समस्या को अस्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन उनके समाधान के रूप में, वे अनिवार्य रूप से ऊर्जा संक्रमण को समाधान के रूप में देखते हैं और जो वैश्विक पूँजी की क्षमता पर निर्भर हैं, ये समाधान वैश्विक आबादी के एक विशाल बहुमत को अनिश्चित भविष्य की तरफ़ ले जाते हैं। किसी भी तरह के साधन में सुधार किए बिना क्या उनकी भलाई में क्या सुधार होगा और क्या मौसम में परिवर्तनशीलता से लड़ने के लिए सुधार होगा। समस्या के ये पहलू आसान, सुलभ नारे नहीं बनाते है।
जब विरोध का विश्व स्तरीय आह्वान किया जाता है, तो यह भी सोचना होगा कि इसमें शामिल सभी लोगों और वर्गों के लिए इसका क्या मतलब है, जो उत्पीड़न करने वाली बातें हमें वास्तविक दुनिया में विभाजित करती हैं, उनके वास्तविक समाधान के बिना क्या वास्तविक एकजुटता संभव है। यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक एक जलवायु हड़ताल का आह्वान कर रहे हैं (यानी विरोध के एक दिन के लिए अपनी प्रयोगशालाओं और कक्षाओं को छोड़कर वे बाहर आएंगे) लेकिन वे ऐसा पारंपरिक कारणों से नहीं कर रहे हैं, अर्थात वेतन में वृद्धि या कम कार्यदिवसों आदि की मांग के लिए नहीं कर रहे हैं। बल्कि यह एक प्रतीकात्मक कार्यवाही है, राज्य से सवाल करने के लिए, जो किसी भी देश में जलवायु कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार संस्था है, ताकि वह अपने काम का संज्ञान ले सके, और एक महत्वपूर्ण वैश्विक समस्या पर अपने पैरों को खींचना बंद करे। यह विकसित देशों के मामले में तो समझ में आता है। जबकि ये देश अब तक के अधिकांश कार्बन उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं, इन देशों की सरकारें भी जलवायु कार्रवाई के बारे में सबसे अधिक आत्मसंतुष्ट हैं।
पेरिस समझौते के तहत विकासशील देशों के इच्छापुर्वक योगदान ने विकसित देशों के अपेक्षित योगदान को पीछे कर दिया है। जब पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, तब भी विकसित देशों का क्या इरादा था, अब इसे भी चार साल हो चुके हैं लेकिन आज भी यह असंभव नज़र आता है, क्योंकि कार्बन के सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक, अमेरिका ने समझौते से पीछे हटने के अपने इरादे का संकेत दिया है जो 2020 से प्रभाव में आना था। अन्य लोग भी अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा नहीं कर पाने के लिए अमेरिका की निष्क्रियता के पीछे छिप रहे हैं।
ऐसी स्थिति में, भारतीय वैज्ञानिकों और छात्रों द्वारा जलवायु हड़ताल का आह्वान करने के पीछे क्या रुख होना चाहिए? क्या उन्हें भी काम बंद करना चाहिए? क्या ऐसा करने पर, वे भारत सरकार के ख़िलाफ़ विरोध जता रहे होंगे? तो क्या यह विरोध इस आधार पर होगा कि भारत सरकार जलवायु परिवर्तन के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रही है। स्थानीय पर्यावरणीय मुद्दों पर इसके कई बदलावों के बावजूद, ईमानदारी से यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि भारत सरकार जलवायु परिवर्तन शमन में योगदान देने के मामले में अपने उचित हिस्से के तौर पर कम काम कर रही है। वास्तव में, यह अपने निष्पक्ष हिस्से से कहीं अधिक कर रही हो सकती है, लेकिन वह सब अनियोजित ढंग से किया जा रहा है, क्योंकि पहले से ही मंदी से ग्रस्त अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव और यहां तक कि बुनियादी सुविधाओं से वंचित लोगों पर भी इसका प्रभाव अत्यधिक नकारात्मक हो सकता है। इसलिए भारत में जलवायु बचाने के लिए विरोध हड़ताल में भाग लेने वालों की स्थिति व्हाइट हाउस के सामने विरोध करने वालों के समान नहीं हो सकती है या उनके मुद्दे समान नहीं हो सकते हैं।
यह भी याद रखना चाहिए कि जलवायु विज्ञान के क्षेत्र में, विकासशील देशों के वैज्ञानिकों को वैश्विक उत्तर के अपने समकक्षों के मुकाबले नियमित रूप से ऊपर उठ कर काम करना पड़ा है, ताकि हाल के वर्षों में यह सुनिश्चित किया जा सके कि वैश्विक उत्तर और वैश्विक दक्षिण देशों के बीच मूलभूत तथ्यों के बीच का अंतर उन्हें कमज़ोर नहीं कर दे और जलवायु विज्ञान के परिणामों का उपयोग अनुचित तरीक़े से ग़रीब देशों पर जलवायु कार्रवाई के बोझ को बढ़ाने के लिए नहीं किया जा सके।
इसलिए, इस मुद्दे की स्पष्ट समझ के साथ, जोकि सामने मुहँ बाए खड़ा है, के आधार पर जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक एकजुटता का आह्वान किया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन को संबोधित करना असमान रूप से स्वीकार्य है। लेकिन इसे ऐसे तरीक़े से किया जाना चाहिए जो विकसित और कम विकसित देशों के बीच, वैश्विक पूँजी और दुनिया के मेहनतकश लोगों के बड़े पैमाने के बीच विभाजन को पहचान सके। जलवायु परिवर्तन को एक न्यायसंगत तरीक़े से संबोधित करने के लिए सीमाओं के पार एकजुटता में एक साथ आना काफ़ी संभव है। लेकिन इसे नए युग के पर्यावरणीय आंदोलनों के साथ नहीं किया जा सकता है जो उन संस्थाओं द्वारा समर्थित हैं जिनकी समझ न केवल पर्यावरण संबंधी चिंताओं बल्कि इक्विटी और न्याय पर ख़राब समझ से ओत प्रोत रही है। तीसरी दुनिया में जलवायु कार्रवाई एक विज़न पर आधारित होना चाहिए न केवल ‘अतिआवश्यकता’ के आधार पर, जिसमें जलवायु परिवर्तन का एक न्यायसंगत समाधान होना चाहिए।
तेजल कानिटकर एनर्जी एनवायरनमेंट प्रोग्राम, स्कूल ऑफ़ नेचुरल साइंसेज़ एंड इंजीनियरिंग, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस स्टडीज (NIAS), बेंगलुरु से जुड़ी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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