आज़ादी@75: जेपी से लेकर अन्ना तक... भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की पड़ताल
15 अगस्त, 2021 को आज़ाद भारत अपने जीवन के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। यह हमारी सामूहिक राष्ट्रीय उपलब्धि है कि तमाम उथलपुथल के बावजूद हम अपनी आजादी और लोकतंत्र को बचाये रखने में सफल हुए हैं, यह हमें उन पुरखों के अगणित बलिदानों की भी याद दिलाता है जिनकी बदौलत हमें आज़ादी हासिल हुई और जिनकी कुर्बानियों के कारण हमारे देश में लोकतंत्र अब तक अक्षुण्ण है।
पर आज़ादी के 75वें वर्ष के इस मुकाम पर, जब हम राष्ट्रीय गौरव और हर्ष के एक ऐतिहासिक क्षण से रूबरू हैं, हमारा गणतंत्र अपने जीवन की सबसे कठिन चुनौती का सामना कर रहा है। जिस तरह सत्ता शीर्ष के सीधे संरक्षण में नफरत और उन्माद का माहौल बनाया जा रहा है तथा संसदीय लोकतंत्र की सारी संस्थाओं को कुचला जा रहा है, उसने एक साथ 1947 के साम्प्रदायिक विभाजन की विभीषिका और आपातकाल के काले दिनों की याद ताजा कर दी है। मोदी सरकार ने हमारी आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष को विषाक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
क्या अपने धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र पर मंडराते खतरे से हम देश को बचा पाएंगे? इस प्रश्न के उत्तर पर ही एक आज़ाद, आधुनिक राष्ट्रराज्य के रूप में हमारी भविष्य की यात्रा निर्भर है। यह तय है कि भारत अगर धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा तो वह लोकतंत्र और गणतंत्र भी नहीं रह पाएगा, न ही अपनी एकता और सम्प्रभुता को बचा पायेगा।
इस अभूतपूर्व चुनौती का मुकाबला करने की दिशा में 75 साल की यात्रा के अनुभव हमारे लिए जरूरी सबक और कार्यभार पेश करते हैं। 1947 में एक आधुनिक राष्ट्रराज्य बनने की जो यात्रा शुरू हुई, उस गौरवपूर्ण लेकिन उथलपुथल भरी यात्रा के दौरान जिन आकांक्षाओं ने हमारी आज़ादी और लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाये रखने, उसे ऊंचाई और विस्तार देने, उस पर आए दबावों और खतरों का मुकाबला करने में इस महादेश को सक्षम बनाया, वे समय समय पर बड़े जनांदोलनों का स्वरूप ग्रहण करती रही हैं। इस मौके पर उनको याद करना प्रासंगिक होगा।
बेशक नकारात्मक और विध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ भी dialectically साथ साथ चलती रही हैं। आज यह संघर्ष एक निर्णायक मुकाम पर पहुंच गया है, जहां एक ओर समाज को आगे ले जाने वाली ताकतें assert कर रही हैं, जिनकी कमान संभाली है किसानों, मेहनतकशों, उत्पीड़ित समुदायों, छात्र युवा, लोकतान्त्रिक चेतना से लैस नागरिक समाज ने, दूसरी ओर यथास्थिति और प्रतिक्रिया की ताकतें इतिहास के चक्के को पीछे ले जाने में लगी हैं, जिन्हें कॉरपोरेट पूँजी की शह और खुला समर्थन प्राप्त है।
हमारे लिए जहां यह उपलब्धि है कि अपनी सम्प्रभुता और territorial integrity बनाये रखने में देश सफल रहा है, वहीं सामाजिक आर्थिक विकास तथा human development की कसौटी पर कई समतुल्य देशों की तुलना में हम काफी पिछड़ गए।
इसीलिए हमारे जैसे समाज मे जनांदोलन पूरी तरह justified हैं ताकि राज और समाज को जनाकांक्षाओं के अनुरूप गढ़ने की यात्रा- डॉ. आंबेडकर के शब्दों में राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र बनने की यात्रा निरन्तर आगे बढ़ती रहे और समाज की अग्रगति को बाधित करने वाली ताकतों को पीछे धकेला जा सके। ऐसे जनांदोलनों से मोदी जैसों को होने वाला दर्द समझा जा सकता है और आंदोलनकर्ताओं को आंदोलनजीवी कहकर उनका मजाक उड़ाना स्वाभाविक है।
आज़ाद भारत का इतिहास अनगिनत जनांदोलनों का रंग-बिरंगा कोलाज है, जो हमारे लोकतंत्र की रक्षा करने और उसे विस्तार देने के भारतीय जनगण के विविधतापूर्ण प्रयासों का प्रतिबिंब है।
वैसे तो सभी आंदोलनों ने अपने-अपने दायरे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों का उनमें अहम मुकाम है, जिनके फलस्वरूप केंद्रीय सत्ता बदल गयी।
राजनीतिक दृष्टि से जिन आंदोलनों ने हमारे लोकतंत्र की यात्रा में युगान्तकारी भूमिका निभायी उनमें सन् 74 का आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है, जिसे बिहार आंदोलन या जेपी आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है।
गुजरात में इंजीनियरिंग कालेज में मेस की बढ़ी फीस से शुरू होकर यह बिहार पहुंचा, छात्र-युवा आंदोलन से शुरू होकर इसने पूर्ण राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया और समूचे उत्तर भारत को अपनी चपेट में ले लिया, आपातकाल लगा और अंततः 77 के चुनाव में लोकप्रिय जनउभार के फलस्वरूप इंदिरा गांधी की ‘प्रतापी सत्ता’ का अंत हो गया। ( उत्तर भारत में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली, स्वयं इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी अपना चुनाव हार गए थे!)। आंदोलन के शीर्ष नेता, 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो जय प्रकाश नारायण ( JP ) ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया, सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया, शांतिपूर्ण वर्ग-संघर्ष की बात की, लोकतान्त्रिक सुधार के लिए Right to recall से लेकर रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने तक का नारा गूंजा। छात्रों युवाओं की एक पूरी पीढ़ी आंदोलन के आदर्शवाद से प्रभावित होकर आंदोलन में कूद पड़ी, यहां तक कि उनमें से अनेक गांवों में जाकर बोधगया महंत के खिलाफ भूमि-आंदोलन में भी जूझे और दमन का सामना किया।
बाबा नागार्जुन, रामधारी सिंह दिनकर से लेकर धर्मवीर भारती तक अनगिनत साहित्यकार, बुद्धिजीवी इस आंदोलन से जुड़े और अपना योगदान दिया।
इंदिरा गांधी के निरंकुश राज का अंत कर लोकतंत्र बहाल करने में उस आंदोलन की भूमिका आज मोदी के फासीवादी राज के खिलाफ लड़ रहे भारतीयों के लिए प्रेरणास्रोत है। उस आंदोलन की लड़ाकू भावना, उसके नारों-मुद्दों, उसकी mass mobilisation की स्ट्रेटेजी से आज के लोकतंत्र के योद्धा बहुत कुछ सीख सकते हैं।
पर, अंततः व्यवस्था परिवर्तन के नारे से शुरू हुए आंदोलन का सत्ता परिवर्तन में अंत हो गया। दरअसल, इस आंदोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह थी कि यह मूलतः छात्र-युवाओं व मध्यवर्गीय तबकों का आंदोलन रह गया। किसानों और मजदूरों की भागीदारी इसमें नहीं हुई क्योंकि सम्पूर्ण क्रांति के नारे के बावजूद उनके हित में आर्थिक ढांचे और नीतियों में बदलाव का आंदोलन के पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था।
दूरगामी दृष्टि से एक बेहद नुकसानदेह political development का भी यह आंदोलन माध्यम बना। शीर्ष नेतृत्व के विचारधारात्मक विभ्रम और राजनीतिक अवसरवाद का फायदा उठाकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस आंदोलन का इस्तेमाल कर अपनी लोकतांत्रिक छवि बनाने और बड़ी राजनीतिक ताकत बनने में सफल हो गया। पहली बार वह केंद्रीय सत्ता में साझीदार बनने में सफल हो गया।
बोफोर्स सौदे में भ्रष्टाचार के सवाल पर 80 के दशक में वीपी सिंह ने "मूल्य-आधारित राजनीति" के नारे के साथ राजनीतिक जन-अभियान का नेतृत्व किया। देश के संसदीय इतिहास की सबसे प्रचण्ड बहुमत की राजीव गांधी की सरकार (लोकसभा में 514 में 404 सीटें) को अपदस्थ करने में यह मुहिम जरूर कामयाब रही, पर एक नई वैकल्पिक राजनीति का वायदा मृग मरीचिका ही साबित हुआ। रोजगार को संविधान में मौलिक अधिकार बनाने का वायदा भी पूरा न हो सका। बिना किसी नीतिगत बुनियादी बदलाव के कार्यक्रम के, गैर-कांग्रेसवाद की राजनीतिक रणनीति पर आधारित इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भी भाजपा शामिल होने और एक बड़ी ताकत बन कर उभरने में कामयाब हुई। यहां तक कि वीपी सिंह सरकार उसकी बैसाखी पर निर्भर थी जिसे अंततः रामजन्मभूमि के सवाल पर उसने गिरा दिया। मंडल आयोग का लोकतान्त्रिक सुधार का एजेंडा जरूर लागू हुआ जिसका परवर्ती राजनीति और समाज पर दूरगामी असर पड़ा। माना जाता है कि आडवाणी ने रथयात्रा के माध्यम से कमण्डल अभियान, मंडल की काट के लिए शुरू किया था।
भ्रष्टाचार के खिलाफ 21वीं सदी के देश के सबसे बड़े आंदोलन जिसे लोकपाल आंदोलन और अन्ना आंदोलन के रूप में जाना गया, का हश्र सबसे भयावह हुआ। अन्ना आंदोलन में post-ideology दौर के नाम पर विचारधारा के महत्व को नकार दिया गया और दावा किया गया कि हम न वाम हैं, न दक्षिण हैं, हमारे लिए मुद्दा महत्वपूर्ण है। अरुंधति राय और अन्य हलकों से उठ रही इस मांग को कि कारपोरेट और मीडिया जो कि कारपोरेट का ही औजार बन गया है, उन्हें भी लोकपाल के दायरे में शामिल किया जाय, स्वीकार नहीं किया गया। कोई और बुनियादी नीतिगत बदलाव इसके एजेंडा में था ही नहीं।
नेतृत्व के कोर में मौजूद pragmatism और अवसरवाद का फायदा उठाकर और सम्भवतः सांठगांठ कर संघ-भाजपा की ताकतों ने इस पूरे आंदोलन का अपने राजनीतिक उभार के लिए पूरी तरह इस्तेमाल कर लिया, मोदी के राज्यारोहण में इसने निर्णायक भूमिका निभाई। वैकल्पिक राजनीति के नाम पर आंदोलन के गर्भ से निकली आप पार्टी राजनीतिक अवसरवाद का मूर्तिमान स्वरूप है।
दरअसल 74 का आंदोलन, बोफोर्स के मुद्दे पर आंदोलन तथा अन्ना आंदोलन, तीनों ही भ्रष्टाचार के सवाल पर केंद्रित थे, जाहिर है भ्रष्टाचार के मुद्दे की जबरदस्त emotive appeal होती है, पर उसे आर्थिक ढांचे और नीतियों में अंतर्निहित भ्रष्टाचार के सवाल से काटकर केवल superstructural level पर सीमित कर दिया जाय तो वह एक खोखला नारा बन कर रह जाता है। पर यह अवसरवादी राजनीति को सूट करता है और ऐसे आंदोलन में हर तरह की प्रतिक्रियावादी ताकतों के लिए प्रवेश करना और उसका राजनीतिक इस्तेमाल करना आसान हो जाता है। विचारधारा-विहीन, भ्रष्टाचार विरोध के आंदोलन सरकार बदलने में जरूर कामयाब हुए लेकिन व्यवस्था परिवर्तन और वैकल्पिक राजनीति का उनका वायदा हर बार छलावा ही साबित हुआ।
जारी...अगली किस्त में विचारधारा-प्रेरित, मुद्दा व अस्मिता आधारित तथा तबकायी जनांदोलनों के बारे में पढ़िए।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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