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जम्मू-कश्मीर के भीतर आरक्षित सीटों का एक संक्षिप्त इतिहास

क्या आयोग ने अपनी सिफारिशों में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से आने वाले प्रवासियों के संबंध में सभी राजनीतिक, ऐतिहासिक, क़ानूनी एवं मानवीय पहलुओं को ध्यान में रखा है?
jammu and kashmir
फाइल फोटो।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन आयोग के काम के पूरा हो जाने का काफी लंबे अर्से से इंतजार था, क्योंकि यह 5 अगस्त 2019 का ही नतीजा है कि जिसने तत्कालीन राज्य की संवैधानिक हैसियत को बुनियादी रूप से बदल कर रख दिया। समूचे जम्मू-कश्मीर में नब्बे निर्वाचन क्षेत्रों को चित्रित करने के अधिकार-पत्र के अलावा, जिस पर निश्चित तौर पर काफी ध्यान दिया गया था, पैनल ने कश्मीरी प्रवासियों के लिए विधानसभा में कम से कम दो सीटों के प्रावधान की सिफारिश की है (इसमें से एक महिला सीट शामिल है)। इसने यह भी सिफारिश की है कि पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से आने वाले विस्थापितों को भी विधानसभा में कुछ प्रतिनधित्व प्राप्त हो। प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर विधानसभा में प्रत्यक्ष तौर पर निर्वाचित सीटों पर अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के संबंध में चुनावी आरक्षण का प्रावधान पहले से ही मौजूद है।

राजनीति विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए प्रवासियों को नामांकित किये जाने की सिफारिशें, उपमहाद्वीप के अशांत इतिहास, अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून, परिभाषा और अंत में विधायी प्रक्रिया में मनोनीत सदस्यों के अधिकारों के संदर्भ में सुझाव के व्यापक दायरे के बारे में दिलचस्प मानक एवं व्यावहारिक प्रश्न खड़े होते हैं।

विधानसभा में सीटों के नामांकन का प्रावधान एक आम बात है। 1952 से लेकर 2020 के बीच में, भारत की संसद के निचले सदन में एंग्लो-इंडियन समुदाय के सदस्यों के लिए दो सीटें आरक्षित की गई थीं। जनवरी 2020 में, संसद और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन आरक्षित सीटों के प्रावधान को खत्म कर दिया गया था। इसी प्रकार, कला, साहित्य, विज्ञान और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में योगदान के लिए राष्ट्रपति द्वारा संसद के उपरी सदन में बारह सदस्यों को नामित किया जाता है।

जम्मू-कश्मीर में राजशाही काल में भी नामांकित किये जाने की प्रथा मौजूद थी। पहली जम्मू-कश्मीर विधानसभा, जिसे प्रजा सभा के तौर पर जाना जाता है, अक्टूबर 1934 में राजशाही के दौरान गठित की गई थी। इसमें 75 सदस्य शामिल थे, जिसमें से 33 को विभिन्न समुदायों के द्वारा एक मताधिकार के द्वारा चुना गया था, जिसमें आबादी के तीन प्रतिशत से अधिक का प्रतिनधित्व शामिल नहीं था। शेष को मनोनीत किया गया था। यहाँ तक कि ख़ारिज कर दिए गए जम्मू-कश्मीर के संविधान में भी यह प्रावधान था कि राज्यपाल की राय में “यदि विधानसभा के भीतर महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनधित्व नहीं है तो वे महिलाओं को सदस्य के तौर पर नामित कर सकते हैं, लेकिन दो से अधिक नहीं।”

हालाँकि, हाल ही में प्रवासियों के लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नामांकित किये जाने की सिफारिशों की अपनी विशिष्टता हैं। इस संदर्भ में, सबसे पहले अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अनुशासन के आलोक में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से आने वाले प्रवासियों की स्थिति के संदर्भ में और अधिक जांच किये जाने की आवश्यकता है। आयोग 1947 में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से विस्थापित समुदायों के लिए “शरणार्थियों” के बजाय “प्रवासी” शब्द का इस्तेमाल करने के मामले में अपनी जगह पर सही है।

1947 में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर के प्रवासियों को नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ होने वाले रक्तपात के माहौल में पड़ोसी पंजाब प्रांत में विस्थापित होना पड़ा था। जबकि अधिकांश मुस्लिम विस्थापन जम्मू के मैदानी इलाकों और पड़ोसी पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान) और उसके आसपास के इलाकों में केंद्रित था, वहीं पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर के विभिन्न हिस्सों से 31,619 हिंदू एवं सिख परिवारों का भी विस्थापन हुआ था। बाद में 26,319 परिवारों ने जम्मू-कश्मीर के भीतर ‘बसने के विकल्प’ को चुना था, जिसमें 3,600 परिवारों ने शहरी क्षेत्रों (मुख्य रूप से जम्मू, उधमपुर और नौशेरा) और 21,116 ने ग्रामीण इलाकों को चुना था। समुदाय के एक हिस्से ने देश के विभिन्न हिस्सों में शरण ली, जिसमें भारतीय पंजाब के गुरुदासपुर जिले के पठानकोट इलाके सहित, हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले के योल क्षेत्र, उत्तर प्रदेश में आगरा शहर और नई दिल्ली में लाजपत नगर के इलाके में शरण ली।

उपमहाद्वीप में विभाजन से प्रभावित ऐसे कई परिवारों के लिए सबसे पहली प्राथमिकता पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से विस्थापित इन समुदायों के जीवन में स्थिरता और सुरक्षा की भावना को बहाल करने बनी हुई थी। हालांकि, पिछले तीन दशकों के दौरान, वृहत्तर राजनीतिक जागरूकता के हिस्से के रूप में उनके वंशजों ने अपना राजनीतिक मुकाम बनाने का प्रयास किया है। वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब या सिंध जैसे प्रान्तों से आने वाले प्रवासियों की तुलना में इन समुदायों को नियंत्रण रेखा के उस पार छोड़ दी गई अपनी संपत्तियों एक एवज में मुआवजे के बजाय राहत प्रदान की गई। इसके पीछे यह तर्क है कि चूँकि भारत उस क्षेत्र को देर-सवेर वापस हासिल कर लेने के लिए प्रतिबद्ध है, ऐसे में मुआवजा देने से उनका दावा कमजोर पड़ जायेगा। इन समुदायों को 1960 के दशक में जम्मू-कश्मीर की शीतकालीन राजधानी जम्मू शहर के पश्चिमी हिस्से में पुनर्वासित किया गया था, जबकि दिल्ली में इन्हें जिस पॉकेट में बसाया गया वह दक्षिणी दिल्ली का लाजपत नगर क्षेत्र था।

जेएंडके के भीतर, इन समुदायों के लिए पुनर्वास के क्षेत्रों को जातीयता, भाषाई और संभवतः तत्कालीन राजनीतिक अभिजात वर्ग की प्राथमिकताओं के आधार पर निर्धारित किया गया था। वर्तमान में पाकिस्तान- नियंत्रित कश्मीर का बड़ा हिस्सा तब के जम्मू प्रान्त का हिस्सा हुआ करता था, जो 1947 से पहले कश्मीर प्रांत की तुलना में काफी अधिक आबादी वाला था। वास्तव में देखें तो 1947 विस्थापित होने वाले हिंदूओं और सिखों का बड़ा हिस्सा अंतर-प्रांतीय था। अधिकांश विस्थापित होने वाले मुसलमानों के लिए हकीकत भिन्न थी, क्योंकि वे पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर में बसने के बजाय पड़ोसी पाकिस्तानी पंजाब में जाकर बस गये थे। हालांकि, मुज़फ्फराबाद जिले से आने वाले हिन्दू और सिख प्रवासी जो कि प्रशासनिक दृष्टि से 1947 से पहले कश्मीर प्रांत का हिस्सा थे, उनको कश्मीर घाटी में नहीं बसाया गया, जहाँ पर हिंसा के बाद उन्हें मजबूरीवश अपना घरबार छोड़कर आना पड़ा था। उन्हें जम्मू शहर से तकरीबन 300 किमी दूर पीर पंजाल के पहाड़ी क्षेत्रों में बसाया गया, जो सांस्कृतिक एवं भाषाई लिहाज से तुलनात्मक रूप से समान प्रकृति का था।

अपने अधिकारों की वकालत करते हुए, पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से आने वाले प्रवासियों के वंशज अक्सर “शरणार्थी” शब्द का इस्तेमाल करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून को नियंत्रित करने वाले वर्तमान सैद्धांतिक ढांचे के संदर्भ में इस शब्द को समझने के लिए बेहतर समझदारी की जरूरत है। इसमें प्रतिवाद यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून के विभिन्न प्रासंगिक प्रावधान असल में द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभव के आधार पर हैं, खासकर यूरोप के संदर्भ में प्रधान रूप से मौजूद हैं। उदाहरण के लिए, 28 जुलाई 1951 को संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में शरणार्थियों की स्थिति को निर्धारित करने के लिए अपनाया गया सिद्धांत शरणार्थियों के मुद्दों पर मूलभूत सिद्धांत है। शरणार्थियों की स्थिति के संबंध में 1951 के सम्मेलन और 1967 के प्रोटोकोल के तहत शरणार्थियों की स्थिति को निर्धारित करने के लिए प्रक्रियाओं एवं मानदंडों पर उद्धृत हैंडबुक और दिशानिर्देशों में, धारा 88 में कहा गया है, “शरणार्थी स्थिति के लिए यह एक सामान्य आवश्यकता है कि एक आवेदक जिसके पास अपनी राष्ट्रीयता हो, लेकिन वह अपनी राष्ट्रीयता वाले देश से बाहर रह रहा है। इस नियम का कोई अपवाद नहीं है। जब तक कोई व्यक्ति अपने गृह देश के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के भीतर है, तब तक अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा उस मामले में प्रभावी नहीं हो सकती है।”

इस संदर्भ में, ऐतिहासिक कालचक्र महत्वपूर्ण हो जाता है। ब्रिटिश शासन के खात्मे के साथ रियासत के शासक हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान दोनों से एक विराम समझौते का प्रस्ताव रखा। भारत ने जेएंडके सरकार के साथ पूर्व वार्ता पर जोर दिया, लेकिन सिंह ने इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया। 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विराम समझौते के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। एक बेहद अनुभवी पत्रकार एवं इस इतिहास के महत्वपूर्ण चरणों के प्रत्यक्षदर्शी रहे स्वर्गीय ओम सर्राफ ने एक बार इस लेखक को बताया था कि 15 अगस्त 1947 की सुबह, उन्होंने जम्मू-कश्मीर के डाक एवं टेलीग्राफ विभाग के कार्यालयों के ऊपर पाकिस्तानी झंडे” देखे थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि विराम समझौते के तहत, लाहौर प्रशासनिक सर्किल के भीतर काम करने वाले राज्य के केंद्रीय कार्यालयों का कामकाज पाकिस्तान के अधिकार-क्षेत्र में आता था।

हालाँकि, 1947 की अंतिम तिमाही में हालात तेजी से बदल गये। 21 अक्टूबर 1947 को, रियासत के लिए एक संविधान निर्मित करने के लिए रियासत के शासक ने पंजाब उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बक्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया था। जम्मू-कश्मीर पर जबरन कब्जा करने के लिए महसूद कबीले के द्वारा कुख्यात छापेमारी ने तत्कालीन शासक के पास 26 अक्टूबर 1947 को भारत में विलय होने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। इस प्रकार पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से बड़ी मात्रा में पलायन इस तिथि के बाद हुआ। भारतीय स्थिति यह है कि पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर सहित समूचा जम्मू-कश्मीर, रियासत द्वारा हस्ताक्षरित परिग्रहण के साधन के चलते भारत का हिस्सा बन गया था। इसलिए, परोक्ष रूप से भारतीय स्थिति के अनुरूप, पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर के प्रवासियों की राष्ट्रीयता में कोई बदलाव नहीं हुआ , जब वे प्रवासित हुए - जो कि शरणार्थी का दर्जा प्राप्त करने के लिए एक पूर्व शर्त थी। नवंबर 1947 में पलायन के समय वे भारतीय नागरिक थे और यही कारण है कि जिस किसी ने भी पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से पलायन किया, उसे शरणार्थियों के तौर पर नहीं माना गया।

इसके अलावा, पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीरी प्रवासियों के बीच में भी कौन प्रवासियों की स्थिति में है इसे परिभाषित करना अपने-आप में एक अबूझ पहेली बनी हुई है। इस श्रेणी से आने वाले लोगों में सबसे युवा व्यक्ति, जिनका जन्म पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर में जन्म हुआ हो, उनकी उम्र भी आज के दिन 75 वर्ष होगी। वस्तुतः, नामांकन (विधासनभा में) के लाभार्थियों में भारत के विभिन्न हिस्सों में पैदा हुए दूसरी या तीसरी पीढ़ी के लोग होंगे। यहाँ पर उन जन्में लोगों के माता-पिता का भी प्रश्न उठता है, जिनमें से एक पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से सम्बद्ध नहीं होगा जबकि दूसरा होगा। जाहिर है, पितृसत्तात्मक मॉडल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करेगा, जो नागरिकों को लिंग के आधार पर राज्य के द्वारा किसी भी प्रकार के भेदभाव से संरक्षित रखता है। इन प्रश्नों के अलावा भी, प्रस्तावित जम्मू-कश्मीर विधासनभा में नामांकन की संख्या को सुनिश्चित करने का मुद्दा अपनी जगह पर बना हुआ है। परिसीमन आयोग ने इस बरे में कोई निश्चित संख्या नहीं सुझाई है।

जम्मू-कश्मीर के संविधान के मसौदे को तैयार करते समय, क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष चुनावों के लिए 100 सीटों को निर्धारित किया गया था। इनमें से 25 पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर के लिए आरक्षित थीं, जिन्हें बाद में एक प्रतिवाद के साथ 24 सीट कर दिया गया, जम्मू-कश्मीर के निरस्त कर दिए गए संविधान की धारा 48 में कहा गया है, ‘धारा 47 में शामिल होने के बावजूद, इसे तब तक लागू नहीं किया जायेगा जब तक कि पाकिस्तान के कब्जे वाले राज्य के क्षेत्र पर इतना कब्जा नहीं हो जाता है, तब तक उस क्षेत्र में रहने वाले लोग अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकते हैं – विधानसभा में (ए) [24 सीटें] रिक्त रहेंगी और तब तक विधानसभा की कुल सदस्यता की गणना में इसे शामिल नहीं किया जायेगा; और (बी) उक्त क्षेत्र को धारा 47 के तहत क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र के परिसीमन में शामिल नहीं किया जायेगा।

कश्मीरी विस्थापितों को मनोनीत करने के सुझावों की यदि बात करें तो मसला कम जटिल है। कश्मीर घाटी से पलायन सिर्फ 32 साल पुरानी बात है, जबकि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से पलायन का इतिहास 75 साल पुराना है। जम्मू-कश्मीर विधानसभा के अलावा, कश्मीरी पंडित समुदाय को संसद के दोनों सदनों में निर्वाचित किया गया था। उदाहरण के लिए, नेशनल कांफ्रेंस के दिग्गज, दिवंगत पीएल हांडू ने 1989 में अनंतनाग संसदीय क्षेत्र से कम मतदान होने की वजह से चुनाव जीता था। इसी प्रकार डीपी धर, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गाँधी के कार्यकाल के दौरान, विशेषकर 1971-72 के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच में शिमला समझौते के दौरान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1972 में उन्हें संसद के उपरी सदन के सदस्य के बतौर निर्वाचित किया गया था।

अंत में, और ज्यादा महत्वपूर्ण तौर पर, विधायिका में दो श्रेणियों के तहत मनोनीत सदस्यों के विधायी अधिकार स्पष्ट नहीं हैं। राज्य विधान सभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षण के मामले को संविधान के निरस्त अनुच्छेद 333 के तहत समाप्त कर दिया गया था, जिसमें अस्पष्टता ने कई विवादों को जन्म दे दिया है, विशेष रूप से अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान की स्थिति आने पर। उच्चतर न्यायालयों को इस संवैधानिक मुद्दे पर अपना फैसला सुनाना चाहिए क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने वाली राजनीतिक कार्यकारिणी के द्वारा अपनी संख्या बढ़ाने के लिए नामांकन प्रावधान को औजार के तौर पर इस्तेमाल में लाया जा रहा है।

इस प्रकार की अस्पष्टता जम्मू-कश्मीर के लिए असाधारण असरकारक हो सकती है क्योंकि ताजा-तरीन परिसीमन के बाद से राजनीतिक दलों के बीच में प्रतिद्वंदिता और भी अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाने की संभावना है। जम्मू-कश्मीर में 2002 के बाद से कोई भी पार्टी अपने दम पर सरकार बना पाने की स्थिति में नहीं रही है। 2002 के बाद से, क्षेत्रीय पार्टियों जैसे कि नेशनल कांफ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को सरकार बनाने के लिए अन्य दलों के समर्थन की जरूरत पड़ी है। 2002 में पीडीपी और 2009 में एनसी ने सरकार बनाने के लिए कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन किया, जबकि 2015 में पीडीपी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था।

जहाँ एक तरफ परिसीमन आयोग के काम से संबंधित अधिकांश चर्चा में 90 सीटों के परिसीमन पर मुख्य जोर बना हुआ है, वहीं दूसरी तरफ दो भिन्न प्रवासी समूहों के लिए आरक्षण के सुझाव पर, खासकर पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर पर, लक्षित समूहों की, उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास के बारीक पहलुओं सहित मानवीय कानून एवं प्रतिनधित्व वाले लोकतंत्र पर अंतर-संबधित वृहत्तर समझदारी की दरकार है।

लेखक जम्मू-कश्मीर पर दो पुस्तकों के लेखक हैं, जिनमें कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012 से प्रकाशित एक्रॉस द एलओसी शामिल है। व्यक्त किये गये विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें--

A Brief History of Reserved Seats in J&K

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