यूपी: आज़मगढ़ उपचुनाव के नतीजे बताएंगे, हवा का रुख किस ओर है
आज़मगढ़ उपचुनाव के लिए प्रचार बंद हो चुका है, कल 23 जून को वहां मतदान होना है। 1978 में आज़मगढ़ के ऐसे ही एक उपचुनाव ने सत्तारूढ़ जनता पार्टी के पराभव और इंदिरा गांधी की पुनर्वापसी की पटकथा लिखी थी, तब कांग्रेस उम्मीदवार मोहसिना किदवई मुख्यमंत्री राम नरेश यादव के इस्तीफे से खाली हुई सीट पर जनता पार्टी को हराकर पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस की इकलौती सांसद बनी थीं, क्योंकि उसके ठीक पहले हुए 1977 के आम चुनाव में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का पूरी तरह सफाया हो गया था।
वैसे इस बार राजनीतिक सन्दर्भ बिल्कुल अलग है। पर चुनाव नतीजों से यह जरूर पता लगेगा कि हवा का रुख किधर है। उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल के नेता अखिलेश यादव के इस्तीफे से खाली हुई आज़मगढ़ सीट पर, जहां सभी 10 विधानसभा सीटें हाल ही में हुए चुनाव में सपा ने जीती हैं, अगर कोई उलटफेर हुआ तो इसका सन्देश 2024 की भाजपा विरोधी राजनीतिक मुहिम के लिए भयानक (devastating) होगा।
अगर UP चुनाव के बाद के पिछले 3 महीने के चरम ध्रुवीकरण के तूफानी दौर के बाद भी,योगी के नेतृत्व में पूरी कैबिनेट उतारकर भाजपा बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाती, तो उसके रणनीतिकारों के लिए 2024 के लिए यह चिंता का सबब बनेगा। बसपा अगर बेहतर प्रदर्शन कर पाती है तो इसे मायावती जी चंद रोज पहले किये गए अपने दावे का confirmation बताएंगी कि, " बसपा ही भाजपा का मुकाबला कर सकती है। (हालांकि, भाजपा के विरुद्ध लड़ाई में उनकी प्रतिबद्धता लोगों की नजरों में संदिग्ध हो चुकी है।)
गठबंधन की जीत संकेत होगी कि 2024 के लिए विपक्ष की उम्मीद जिंदा है।
पिछले दो चुनावों में, 2014 और 2019 में लगातार 2 बार समाजवादी पार्टी ने, पहले मुलायम सिंह और फिर अखिलेश यादव ने यहां जीत हासिल की थी।
BSP भी न सिर्फ आजमगढ़ सीट पहले 2 बार जीत चुकी है, बल्कि देश में उसका पहला MP भी आज़मगढ़ से ही चुना गया था, मा. कांशीराम और मायावती जी के सांसद बनने से भी पहले बसपा के रामकृष्ण यादव 1989 में ही यहां से जीते थे। बसपा के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली यहीं की एक सीट से विधायक बनते रहे हैं और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी मुलायम सिंह के खिलाफ ढाई लाख से ऊपर वोट पा चुके हैं।
भाजपा भी पहले दो बार यह सीट जीत चुकी है। भाजपा के उम्मीदवार निरहुआ को 2019 में साढ़े तीन लाख से ऊपर वोट मिल चुका है। इसीलिये विश्लेषक बसपा और भाजपा को lightly नहीं ले रहे हैं।
इस लिहाज से लोग अचंभित हैं कि जहां स्वयं योगी और उनका पूरा मंत्रिमंडल प्रचार में उतरा हुआ था, वहीं अखिलेश यादव आज़मगढ़ गए ही नहीं, जबकि वे यहीं से सांसद थे और उनके इस्तीफे से खाली हुई सीट पर ही यह चुनाव हो रहा है। यह अपने स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा और जीत का आत्मविश्वास है या पराजय का डर?
सपा प्रत्याशी-चयन को लेकर अंतिम क्षण तक उहापोह में रही। पहले माना जा रहा था कि डिम्पल यादव प्रत्याशी हो सकती हैं, लेकिन अचानक जिस तरह गुमनाम सुशील आनन्द का नाम घोषित किया गया था, लोगों की प्रतिक्रिया थी कि यह तो पहले ही हार मान लेने और वाक-ओवर देने जैसा है। सुशील आनन्द पूर्व सांसद बलिहारी बाबू के बेटे हैं जो बामसेफ-बसपा के मूल कैडर के नेता रहे हैं। बहरहाल, अंततः पूर्व सांसद, मुलायम सिंह के भतीजे धर्मेंद्र यादव को सपा ने उतारा।
2024 के निर्णायक चुनाव से ठीक पहले हो रहा यह चुनाव बताएगा कि विधानसभा चुनाव के बाद पिछले 3 महीने का जो तूफानी घटनाक्रम गुजरा है, उसके फलस्वरूप राजनीतिक परिदृश्य में किस तरह का बदलाव आया है?, विशेषकर, विधानसभा चुनाव में जीत के बाद ताबड़तोड़ तमाम साम्प्रदायिक मुद्दों को हवा देते हुए और अल्पसँख्यकों के प्रति चरम दमनात्मक रवैया अपनाकर भाजपा जो रात-दिन ध्रुवीकरण के खेल में लगी है, उस पर समाज कैसे react कर रहा है। यह भी देखने की बात होगी कि अग्निपथ योजना के बहाने बेरोजगारी के खिलाफ नौजवानों के फूटते आक्रोश तथा जानलेवा महंगाई का चुनाव पर क्या असर होता है।
1857 में वीर कुंवर सिंह के शौर्य का साक्षी रहा आज़मगढ़, तब से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक आज़ादी की लड़ाई का अग्रणी केंद्र रहा। अपनी विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक संरचना और राजनीतिक इतिहास के चलते आज़ादी के बाद यह कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलन का गढ़ रहा। कभी इसे कम्युनिस्ट आंदोलन का उत्तर-भारत का केरल कहा जाता था। अपनी अंतर्निहित कमजोरियों के चलते 80 के दशक से Identity Politics के उभार का मुकाबला करने में नाकाम कम्युनिस्ट धारा बेहद कमजोर होती चली गयी।
सोशलिस्ट धारा चौधरी चरण सिंह की BKD, जनता पार्टी और जनता दल में कायांतरित होते हुए मूलतः अस्मितावादी राजनीति की वाहक बन आज समाजवादी पार्टी के रूप में हमारे सामने है। जाहिर है मूल समाजवादी धारा के चाल, चरित्र और चेहरे से बहुत अलग है आज की समाजवादी पार्टी।
बहरहाल चौतरफा तबाही बरपा कर रही भाजपा के खिलाफ प्रदेश और जिले में मुख्य प्रतिद्वंद्वी के बतौर खड़ी सपा को तमाम वामपंथी- लोकतान्त्रिक ताकतें भी समर्थन कर रही हैं।
विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से राज्यसभा और विधान-परिषद चुनाव तक अनेक आशंकाएं तैरती रहीं कि सपा के महागठबंधन सहयोगी एक साथ रहेंगे या गठबंधन बिखर जाएगा। लेकिन सपा के लिए राहत की बात है कि फिलहाल उन्हें साथ बनाये रखने में सफल हुई है, केवल एक सहयोगी केशवदेव मौर्य के नेतृत्व वाला महान दल अलग हुआ है लेकिन उसका प्रभाव क्षेत्र बिल्कुल अलग है। आज़मगढ़ की दृष्टि से महत्वपूर्ण SBSP के ओमप्रकाश राजभर, जनवादी पार्टी के संजय चौहान, सपा में शामिल स्वामी प्रसाद मौर्य, साथ ही RLD के चौधरी जयंत सिंह ने वहां प्रचार किया है।
सबसे crucial था आज़म खान का आज़मगढ़ जाना और प्रचार करना। पिछले दिनों लगातार उनकी नाराजगी की खबरें आ रही थीं। उनकी व्यक्तिगत नाराजगी से अधिक महत्वपूर्ण मुस्लिम समुदाय के अंदर यह गहराता अहसास है कि जब भी मुसलमानों पर साम्प्रदायिक आधार पर दमन हो रहा है, सपा उनके साथ मजबूती से खड़ी नहीं हो रही है, यह अहसास विधानसभा चुनाव के बाद और बढ़ा है। इसी अलगाव का फायदा उठाने के लिये आज़मगढ़ में मायावती जी ने एक मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार उतार दिया जो इसी क्षेत्र की एक विधानसभा से कई टर्म विधायक रहे हैं। आज़मगढ़ में मुसलमानों की लगभग 16% आबादी है जो दलित और यादव समुदाय के अतिरिक्त तीसरा सबसे बड़ा सोशल ब्लॉक है। इन हालात में आज़म खान का आज़मगढ़ में प्रचार करना मानीखेज़ है। यह शायद इस चुनाव का मुख्य निर्धारक तत्व बनेगा कि मुस्लिम मतदाता किस तरह व्यवहार करते हैं।
चुनाव में कांग्रेस ने प्रत्याशी खड़ा नहीं किया है। उसका यह फैसला भाजपा विरोधी वोटों के बिखराव को कम करेगा, इसका सपा को लाभ मिल सकता है।
इस बीच मुख्यमंत्री योगी का भी आज़मगढ़ दौरा हुआ, उन्होंने ध्रुवीकरण के अपने चिरपरिचित जुमले को उछाला, " यह चुनाव आज़मगढ़ को आतंकवाद का गढ़ बनने से बचाने का अवसर है। " उन्होंने आजमगढ़ के मतदाताओं से " विकास की प्रक्रिया से जुड़ने और आज़मगढ़ को आर्यमगढ़ बनाने की दिशा में बढ़ने की अपील" की।
अग्निपथ योजना को स्वयं योगी ने ही चुनाव में मुद्दा बना दिया। सम्भवतः उन्हें यह feedback हो कि इस सवाल पर भाजपा के अपने सामाजिक आधार के युवाओं में भी नाराजगी है। चुनावी सभा में विस्तार से इसकी चर्चा करते हुए योगी ने कहा कि विपक्षी दल नौजवानों को बरगला रहे हैं, जबकि पूरी दुनिया में इसकी तारीफ हो रही है! सच्चाई यह है कि देश के अंदर भाजपा इस सवाल पर पूरी तरह अलग-थलग पड़ गयी है, इसीलिये दुनिया में तारीफ का झूठा राग अलापना पड़ रहा है।
इस योजना के मूल मन्तव्य को भाजपा के दो बड़े नेताओं ने खुद ही स्पष्ट कर दिया, जब केंद्रीय मंत्री किशन रेड्डी ने कहा कि हम अग्निवीर को सेना से निकाले जाने के बाद नाई और धोबी की ट्रेनिंग दे सकते हैं, कैलाश विजयवर्गीय ने फरमाया कि अग्निवीर बाद में भाजपा कार्यालय के सिक्योरिटी गार्ड बन सकते हैं। यह साफ हो चुका है कि सेना में पहले जैसी नियमित भर्तियां अब नहीं की जाएंगी। ठेके की यह भर्ती नौजवानों के रोजगार के सपने के साथ तो क्रूर मजाक है ही, देश की सुरक्षा के साथ भी खिलवाड़ है।
सरकार ने अगर यह योजना वापस नहीं ली तो 2024 के चुनाव पर इसका क्या असर पड़ेगा, आज़मगढ़ उपचुनाव के नतीजों से इसका भी संकेत मिलेगा।
आज़मगढ़ अतीत में तो विपक्षी और गैर-भाजपा राजनीति का गढ़ रहा ही है, मोदी-शाह-योगी की तिकड़ी के लिए भी यह एक दशक से चुनौती बना हुआ है। पूर्वांचल में विपक्ष की राजनीति के इस अभेद्य दुर्ग के चुनाव- नतीजों की ओर स्वाभाविक है सबकी निगाह लगी हुई है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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