राजस्थान के दलित छात्र की मौत पर बीएचयू के आक्रोशित स्टूडेंट्स और अधिवक्ताओं ने निकाले विशाल कैंडल मार्च
राजस्थान के जालोर जिले के सायला स्थित एक निजी स्कूल में कथित तौर पर शिक्षक के मटके से पानी पीने के मामले में छात्र की बेरहमी से पिटाई करने के बाद हुई मौत का मामला इस राज्य की सरहद पार कर बनारस पहुंच गया है। इस घटना को लेकर समूचे पूर्वांचल में जबर्दस्त आक्रोश है। मंगलवार की शाम बीएचयू गेट से स्टूडेंट्स और प्रबुद्धजनों ने कैंडिल मार्च निकाला तो अधिवक्ताओं ने कचहरी पर मौन जुलूस। इस दौरान पूर्वांचल के दलित संगठनों ने आरोपी को फांसी और जयपुर स्थित हाईकोर्ट परिसर से मनु की प्रतिमा हटाने की मांग उठाई है। प्रदर्शनकारियों ने कहा है कि देश एक ओर आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और दूसरी ओर मनुवाद व छुआछूत को बढ़ावा देने वाले सवर्णों की फौज दलितों को प्रताड़ित करने से बाज नहीं आ रही है।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान में नौ वर्षीय दलित बच्चे इंद्र कुमार मेघवाल को कथित तौर पर मटकी छूने के कारण बेरहमी से पीटा था। यह घटना बीते 20 जुलाई की है, जिसके बाद पीड़ित छात्र की तबीयत खराब हो गई थी। करीब 25 दिन के इलाज के बाद शनिवार को बच्चे ने अहमदाबाद में दम तोड़ दिया था। पुलिस ने इस मामले में आरोपी शिक्षक छैल सिंह (40) को गिरफ्तार कर लिया है। मेघवाल की हत्या से देश भर दलितों और प्रबुद्धजनों में भारी गुस्सा है। पूर्वांचल में पीड़ित परिवार को न्याय, सरकारी नौकरी और मुआवजा दिलाने के लिए मांग की जा रही है।
बीएचयू में विशाल कैंडल मार्च
बनारस में 16 अगस्त 2022 की शाम लंका स्थित बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) गेट से विशाल कैंडिल मार्च निकाला गया, जिसमें बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स, शिक्षक, कर्मचारी और शहर के प्रबुद्धजन शामिल हुए। कैंडल मार्च के मद्देनजर लंका गेट पर बड़ी संख्या में पुलिस के जवान तैनात किए गए थे। यह मार्च पहले बीएचयू गेट से रविदास गेट होते हुए रविंद्रपुरी तक प्रस्तावित था, लेकिन ट्रैफिक और सुरक्षा कारणों से प्रदर्शनकारियों को आगे नहीं जाने दिया गया। पुलिस के जवान प्रदर्शनकारियों के आगे दीवार की तरह खड़े हो गए। सुरक्षा बलों का कहना था कि प्रशासन ने मार्च निकलाने की अनुमति नहीं दी है। काफी देर तक जद्दोजहद के बाद बीएचयू परिसर में कैंडिल मार्च निकालने पर सहमति बनी।
शाम करीब 6.30 बजे सैकड़ों लोग अपने हाथों में मोमबत्ती लेकर भाजपा सरकार और आरएसएस के खिलाफ नारेबाजी करते हुए निकले। कैंडिल मार्च में बड़ी संख्या में बीएचयू के स्टूडेंट्स, कर्मचारी और शिक्षकों के अलावा बनारस के प्रबुद्धजन भी शरीक हुए। महिलाएं और बच्चे भी हाथों में दलित छात्र इंद्र कुमार मेघवाल का चित्र और छुआछूत के विरोध में नारे लिखे तख्तियां लेकर चल रहे थे। बीएचयू में सालों बाद विशाल कैंडल मार्च निकला था। नारेबाजी करते हुए लोग जब बीएचयू परिसर में एमएमबी चौराहे पास स्थित महिला छात्रावास के सामने पहुंचे तो वहां भारी भीड़ जमा हो गई। तिराहे के पास मेघवाल के चित्र पर मोमबत्तियां जलाकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
कैंडिल मार्च का नेतृत्व बीएचयू कर्मचारी यूनियन के काशीनाथ, पूर्णिमा अहिरवार सुभाष चंद्र साहनी, बृजेश भारती, गौरव आदि लोग कर रहे थे। भगत सिंह छात्र मोर्चा के मानव उमेश, आलोक विद्रोही, उत्कर्ष, अमित, राहुल ने भी कैंडल मार्च में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कैंडिल मार्च के बाद श्रद्धांजलि, सभा में तब्दील हो गया।
सवर्णों के लिए मुनावाद ब्रह्मास्त्र
जातीय विद्वेष के चलते राजस्थान के स्टूडेंट इंद्र कुमार मेघवाल को पीटकर मार डालने पर रोष व्यक्त करते हुए समाजवादी जनपरिषद के महामंत्री अफलातून ने कहा, ''भारत सरकार और राज्य सरकार आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर आजादी के अमृत महोत्सव का आयोजन कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ दलितों को ऊंची जातियों के साथ पानी पीने तक का अधिकार नहीं है। राजस्थान में ऊंची जाति के शिक्षक के मटके से पानी पीने पर मौत की सजा इसलिए दी गई, क्योंकि वहां मनुवाद और पति की मौत पर सती बनने वाली फूलकुंवर की प्रवृत्ति अभी जिंदा है। पौराणिक ग्रंथों की दकियानूसी मान्यताओं, शोषित समाज के मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ और महिलाओं के आत्मसम्मान की थोपी नैतिकता का रिवाज धर्म के आवरण में छिपा हुआ है। पापाचार, कुरीति, आडंबर और छुआछूत को कुचलने में कामयाबी इसलिए नहीं मिल पा रही है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दलों के लिए मनुवाद ब्रह्मास्त्र की तरह है।''
राजस्थान हाईकोर्ट परिसर में 28 जुलाई 1989 को उच्च न्यायिक सेवा एसोसिएशन ने लायंस क्लब के आर्थिक सहयोग से लगवाई गई मनु की प्रतिमा विवाद का जिक्र करते हुए अफलातून ने कहा, ''मनु के विवादित स्टैच्यू को हटाने के लिए हाईकोर्ट ने निर्देश भी दिया, लेकिन भाजपा के अनुषांगिक संगठन विश्व हिन्दू परिषद के नेता आचार्य धर्मेंद्र ने इस फैसले को चुनौती देते हुए अंतरिम रोक का आदेश हासिल कर लिया। बाद में कोई भी सरकार ने मनु की प्रतिम हटावाने का साहस नहीं दिखा सकी। साल 2015 में हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई तो हुई, लेकिन तीन दशक गुजर जाने के बावजूद जातिवाद और छुआछूत को बढ़ावा देने वाली मनु संस्कृति के कलंक को मिटाया नहीं जा सका। स्टूडेंट इंद्र कुमार मेघवाल की हत्या मनुवादियों की गंदी सोच को परिलक्षित करती है। मनुवादी सोच के दुष्परिणाम के चलते देश के एक नौनिहाल को अपनी जान से हाथ धोड़ना पड़ा है।''
छुआछूत का मुद्दा उठाते हुए अफलातून ने यह भी कहा, ''डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि मनुस्मृति वर्ण और जातियों की ऊंच-नीच भरी व्यवस्था को शास्त्रीय आधार प्रदान करती है। भारत का संविधान सबको समानता का अधिकार देने वाला संविधान है। इंद्र कुमार मेघवाल की मौत के बाद पूरे देश में यह मुद्दा फिर से जीवित हो गया है। समाज में असमानता को स्थापित करने वाली मनुस्मृति को मोदी-योगी की सरकार तबज्जो दे रही है। इसी के चलते बीते दिनों बनारस के सुइलरा गांव में विजय गौतम नामक दलित बच्चे पर चार किलो चावल चुराने का झूठा इल्जाम लगाकर दबंगों ने बुरी तरह पीटा, जिससे उसकी मौत हो गई। पुलिस ने आरोपितों पर एक्शन लेने के बजाए पीड़ित पक्ष के लोगों को ही दफा 151 में जेल भेज दिया। समाज में असमानता को स्थापित करने वाले कारक समाज में जब तक मौजूद रहेंगे, तब तक देश में समानता, समता और बंधुत्व स्थापित करने की बात बेमानी साबित होती रहेगी।''
अभी भी मौजूद है ऊंच-नीच की दरार
श्रद्धांजलि सभा में इतिहासकार डा.आनंद यादव ने कहा, ''नौनिहाल इंद्रकुमार मेघवाल को सिर्फ इसलिए पीटकर मार डाला गया, क्योंकि उसने ऊंची जाति के टीचर की मटकी से पानी पी लिया था। उसकी मौत ने इस बात को शिद्दत से तस्दीक किया है कि मनुवाद और सामंतवाद अभी जिंदा है। आजादी के बाद छुआछूत संबंधी कई कड़े कानून बनाए गए, लेकिन गांव के अनपढ़ लोग भी ऊंची जातीय ऊंच-नीच के घृणा को आज तक त्याग नहीं पाए। सिर्फ राजस्थान ही नहीं यूपी के पूर्वांचल में जाति के आधार पर शोषण और उत्पीड़न का उदाहरण हर जगह देखने को मिल जाता है। समाज में स्पष्ट रूप से ऊंच-नीच की दरार अभी मौजूद है। आज भी जाटव, चमार अथवा दुसाध समझकर अपमानित होने वाले या दुख झेलने वाले कम नहीं हैं। चतुर लोगों ने जाति और वर्ण का भेद जानबूझकर पैदा किया है। इसमें वो लोग सबसे आगे हैं जो सुविधाभोगी है।''
''स्वतंत्र देश में हर कोई इज्जत और प्रतिष्ठा के साथ जीना चाहता है, लेकिन मनुवाद के पोषक नहीं चाहते कि उनके नाम के आगे जातिसूचक नाम लगा रहे। जब तक राष्ट्र में एक नियम, समान आर्थिक सुविधा, समान समाज नीति, एक भाषा का पालन नहीं कराया जाएगा तब तक अस्पृश्यता का दहशत बना रहेगा। इंद्र कुमार के मुद्दे पर दलित समाज आक्रोषित होकर आंदोलन की राह पकड़ रहा है तो इसके लिए कोई और नहीं सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है।''
शिक्षाविद डा. सुनील कुमार ने इंद्र कुमार मेधवाल की मौत के लिए मनुवाद को बढ़ावा देने वाली उन प्रवृत्तियों को दोषी ठहराया जो सत्ता के पाजामें में नाड़े की तरह बंधी हुई है। डा. कुमार ने कहा, ''आज भी गांवों के दूसरे छोर पर अछूतों की बस्ती, बंधे हाथ, पिघलती आंखों से गूंगे की तरह अपने मालिकों के आदर्शों का पालन करने के लिए विवश है। अपने अधिकार के लिए वे अपनी आवाज नहीं उठा सकते। अपनी रक्षा के लिए अपनी भुजाओं का उपयोग करना जैसे भूल गए हों। मनुवादी व्यवस्था की दलदल में फंसे लोगों की पथराई आंखें कभी भविष्य का सपना नहीं देख सकतीं। सैकड़ों हजारों सालों से उनके जीवन का ढांचा आज भी वैसा ही है। गांव का वही कोना...दासता की वही जंजीरें...वही अपमान और दया में मिले चंद बासी टुकड़े...बदले में जानवरों की तरह काम और सिर्फ काम। देश का अंधा-गूंगा कानून आखिर शोषित समाज के साथ कब न्याय करेगा? ''
मायावती ने किए कई ट्वीट
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने दलितों, आदिवासियों और उपेक्षितों समुदाय की सुरक्षा में नाकाम गहलौत सरकार को भंग करते हुए राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग उठाई है। अपने सिलसिलेवार ट्वीट में उन्होंने कहा, ''राजस्थान के जालोर जिले के सुराणा में निजी स्कूल के नौ साल के दलित छात्र द्वारा प्यास लगने पर मटके से पानी पीने के कारण सवर्ण जाति के जातिवादी सोच के शिक्षक ने उसे इतनी बेरहमी से पीटा कि शनिवार को उसकी इलाज के दौरान मौत हो गई। इस हृदय विदारक घटना की जितनी निंदा और भर्त्सना की जाए वह कम है।''
क्यों गूंगा हो जाता है क़ानून?
मानवाधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाली प्रज्ञा सिंह ने कहा, ''मेधवाल की मौत ने समूची जाति व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा किया है। साथ ही यह भी बता दिया है कि देश के दलित और पिछड़े समाज के लोग अस्पृश्यता की दहशत और ऊंच-नीच के आतंक से आज भी उतने ही सहमें हुए हैं जितने की मनुस्मृति में रेखांकित किए गए थे। हमारी हजारों सालों की संस्कृति और संस्कार, तमाम लोकतंत्र, आर्थिक-औद्योगिक नीति क्रांति, विज्ञान युग व कंप्यूटर के तिलिस्म के बावजूद मनु की वर्ण व्यवस्था की लकीरों को लांघने की कोई सार्थक योजना नहीं बना पाए। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के संविधान में जो प्रावधान है, वे खानापूर्ति से अपने लक्ष्य को पार कर लेते हैं। दलितों को अस्पृश्य मानने पर संविधान में दंड का प्रावधान है। इसके बावजूद मेधवाल जैसे तमाम मासूम रोज कहीं न कहीं, अस्पृश्यता और अपमान के शिकार हो रहे हैं। पर क्या मजाल है कि संविधान और उसका कानून अपने दंड देने के अधिकार का उपयोग कर सके।''
बीएचयू बहुजन इकाई की रिसर्च स्कालर आरती कुमार ने कहा, ''देश में यह कैसा कानून है जो ऊंची जाति के घड़े का पानी पीने भर से जान ले लेता है और बाद में चश्मदीद गवाहों के अभाव में गूंगा हो जाता है। राजस्थान से लेकर पूर्वांचल तक में यही स्थिति है। समाज के सवर्णों ने वर्ण-व्यवस्था की विसंगति को अपनी धरोहर समझा, जिसके चलते पीढ़ियों से शोषित समाज के लोग अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। इंद्र की मौत मनुवादी व्यवस्था की एक छोटी सी घटना है। भारतीय समाज में करोड़ों लोग ऊंच-नीच और अस्पृश्यता के बुल्डोजर से रोज कुचले जा रहे हैं, बरना गांवों में कमजोर तबके की औरतों के साथ ताकतवर लोग बलात्कार नहीं कर पाते। इन अत्याचारों से ज्यादातर वो लोग जुड़े होते हैं जो दलितों को अछूत मानकर उनके हाथ का पानी तक नहीं पीते, पर उन्हीं अछूतों के शरीर से वासना बुझाने में उन्हें पता नहीं कैसे सुख की अनुभूति होती है। दरअसल, यह एक बड़ी साजिश है। इंद्र कुमार जैसे छोटे से बच्चे को सिर्फ इसलिए पीट-पीटकर मार डाला गया क्योंकि दलितों के मन में एक दहशत और आतंक कायम करना मकसद था।''
टस से मस नहीं हुई वर्ण व्यवस्था
अपने नायाब आंदोलनों से सरकार के दोषपूर्ण नीतियों पर करारा प्रहार करने वाले बनारस के हरीश मिश्र ने कैंडिल मार्च में न सिर्फ अपनी उपस्थित दर्ज कराई, बल्कि भाजपा सरकार पर करारा प्रहार भी किया। कहा, ''आजादी के बाद एक उम्मीद जगी थी कि अशिक्षा के दानव को मारकर दलितों की दासता दूर की जा सकेगी, लेकिन सामंवादी सरकारों ने ऐसा नहीं होने दिया। एक तरफ हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं और दूसरी ओर, जातिवाद, ऊंच-नीच और अस्पृश्यता अट्ठहास कर रही है। जिन लोगों ने इन साजिशों को चीरकर नया आकाश रचने की बात सोची उन्हें अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा। आखिर यह कैसी आजादी और कैसा अमृत महोत्सव है? डा.भीमराव अंबेडकर ने आजादी की लड़ाई के साथ अस्पृश्यता निवारण की भी घोषणा की थी। कई मुद्दों पर गांधी जी के साथ टकराए भी। वह यह भी कहा करते थे कि सिर्फ नाम बदल लेने से जीवन की शर्तें नहीं बदलतीं।''
उन्होंने आगे कहा, ''नंगा सच तो यह है कि अस्पृश्यता की गहरी जड़ें जमाए बैठी वर्ण व्यवस्था अभी टस से मस नहीं हुई है। दलितों और पिछड़ी जातियों के ज्यादतर लोग जहां थे, वहीं आज भी हैं। फर्क सिर्फ इतना पड़ा है कि किसी इंद्र कुमार की मौत के बाद चेताना जागती है, हलचल मचती है और फिर शांत हो जाती है। साधन संपन्नता से साथ-साथ सवर्णों के अत्याचारों के तरीके बदलते रहे हैं। बनारस के कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी ''ठाकुर का कुंआ'' के गंगू के जीवन में वही गंदा पानी आज भी है। गंगू आज भी ठाकुर की एक खंखार पर अपने अस्तित्व को ढहता हुआ पाती है। इंद्र कुमार की कत्ल करने वाले कथित द्रोणाचार्य तो साजिश की योजनाएं अपनी छल-कपट से बना ही लेते हैं और न्याय की चौखट पर बेदाग हो जाते हैं।
कैंडिल मार्च में शामिल एक्टिविस्ट आबिद शेख ने न्यूजक्लिक से कहा, ''देश में शोषित समुदाय की स्थिति एक जैसी है। भाजपा सरकार हिन्दू संस्कृति इतना असर हुआ है कि देश के ईसाई, मुसलमान, सिख और बौद्ध धर्म भी वर्ण व्यवस्था के शिकार हो गए। उन्होंने भी अपने समाज में इस कुत्सित प्रथा को पाला-पोसा और अपना लिया। जिन लोगों ने अच्छी पढ़ाई की, उन्होंने वास्तव में देखा कि समता, न्याय, बंधुता की कल्पनाएं सिर्फ संविधान के पन्नों में ही कैद हैं। आजादी का कुछ गिने-चुने नए सामंतों की वस्तु बनकर सिमट गई है। अमृत महोत्सव तो सिर्फ वही लोग मना रहे हैं जो आर्थिक रूप से आजाद हैं। ऐसी विसंगतियों के बीच सदियों से छले गए, दबाए गए शोषितों की आवाज अब पुनर्जागरण के स्वर को उभारने लगे हैं। एक ओर जहां आक्रोश है, वहीं विद्रोह भी है। भारतीय इतिहास हमारे अनुकूल कतई नहीं रह गया है, जिसमें हर किसी को मनचाही गाथाएं लिखने की आजादी है। यह आजादी तो सिर्फ अमृत महोत्सव मनाने वाले विशिष्ट वर्ग या वर्ण को मिली हुई है और लगता है कि उन्हें ही निरंतर मिलती रहेगी।''
अधिवक्ताओं ने भी निकाला मौन जुलूस
बनारस में मंगलवार को दलित बालक इंद्र कुमार द्वारा सवर्ण शिक्षक की मटकी का पानी पीने की गई बर्बर पिटाई से हुई मौत के खिलाफ अधिवक्ताओं मोमबत्ती लेकर मौन जुलूस निकाला। आक्रोशित अधिवक्ता बनारस कचहरी के गेट नंबर तीन पर इकट्ठा हुए। उनके हाथों में दलित छात्र इंद्र कुमार मेघवाल की फोटो थी। एक हाथ में फोटो और एक हाथ में मोमबत्ती लेकर अधिवक्ताओं ने गेट नंबर तीन से गोलघर चौराहे होते हुए अंबेडकर पार्क तक गए। मौन जुलूस निकालने वाले अधिवक्ता अपने हाथों में तख्तियां लिखे लिए हुए थे, जिस पर हत्यारों को फांसी दो आदि नारे लिखे हुए थे। मौन जुलूस का नेतृत्व वरिष्ठ अधिवक्ता रामदुलार व नित्यानन्द राय कर रहे थे। मौन जुलूस में राजेश प्रजापति, सैयद अफाक हुसैन शान, सुरेंद्र कुमार, साहिल अहमद, सुभाष प्रसाद पटेल, अनूप कुमार, रमेश चंद्र शास्त्री, मुकुंद कुमार कश्यप, सुशील कुमार मौर्य, चंदन, विनोद कुमार, अशोक कुमार उपाध्याय समेत तमाम अधिवक्ता थे। बाद में अधिवक्ताओं ने प्रशासन के माध्यम से राष्ट्रपति व मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा है।
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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