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अरब की रंग बदलती रेत पर बाइडेन का जादुई असर

इस बात को लेकर उम्मीद की जा रही है कि अमेरिका की मध्य पूर्व नीतियों में होने वाले सबसे नाटकीय और प्रतीकात्मक बदलाव सऊदी अरब को लेकर होगा, इन बदलावों में सऊदी को हथियारों की बिक्री में कटौती शामिल हो सकती है।
रिश्तों को फिर से क़ायम करने पर चर्चा करने को लेकर सऊदी अरब के किंग सलमान (बायें) ने तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोआन (आर) को 20 नवंबर, 2020 को बुलाया।
रिश्तों को फिर से क़ायम करने पर चर्चा करने को लेकर सऊदी अरब के किंग सलमान (बायें) ने तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप एर्दोआन (आर) को 20 नवंबर, 2020 को बुलाया।

किंग सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद द्वारा रियाद में आयोजित 2020 के G-20 शिखर सम्मेलन से दूर इज़रायल के प्रधानमंत्री,बेंजामिन नेतन्याहू और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस,मोहम्मद बिन सलमान (आमतौर पर एमबीएस के तौर पर लोकप्रिय) के बीच लाल सागर तट पर स्थित मेगा-शहर,नियोम में 22 नवंबर को हुई विवादास्पद बैठक ने दुनिया भर का ध्यान खींचा।

सामान्य परिस्थितियों में मीडिया लाइमलाइट के लिहाज़ से यह किसी शाहज़ादे के लिए बहुत अहम तो नहीं है। लेकिन,इस बात पर यक़ीन कर पाना मुश्किल है कि एमबीएस ने दिलेरी से काम लिया। किंग सलमान और एमबीएस,दोनों के लिए और ख़ासकर एमबीएस के लिए तो G-20 और भी अहम इसलिए था, क्योंकि उनके ख़ुद की रहनुमाई के तहत इस घटनाक्रम के ज़रिये सऊदी अरब को एक युवा, जीवंत समाज के तौर पर दुनिया के सामने रखने की संभावना है।

हालांकि, किंग सलमान ने तुर्की के राष्ट्रपति,रेसेप एर्दोगन को G-20 शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर फ़ोन किया,जो कि नेओम की बैठक से भी ज़्यादा ग़ैर-मामूली इशारा था। ग़ौरतलब है कि दोनों देशों के बीच परेशान चल रहे रिश्तों का 2018 में इस्तांबुल में सऊदी वाणिज्य दूतावास में पत्रकार,जमाल ख़शोगी की निर्मम हत्या और इसके लिए एर्दोगन का एमबीएस पर लगाये गये आरोप से गहरा रिश्ता है।

असल में बीस सऊदी अधिकारियों की ग़ैर-मौजूदगी में यह मुकदमा 25 नवंबर को इस्तांबुल में फिर से शुरू होना था। संयुक्त राष्ट्र के विशेष रिपोर्टर,अग्नेस कॉलमार्ड का निष्कर्ष तो यही था कि ख़शोगी "सोच-विचारकर की गयी एक पूर्व नियोजित हत्या के शिकार हुए थे",जिसके लिए सऊदी स्टेट ज़िम्मेदार था। "

इस बात की तो कत्तई संभावना नहीं है कि सऊदी के किसी भी संदिग्ध को न्याय का सामना करने के लिए तुर्की प्रत्यर्पित किया जा सकेगा; और सऊदी अरब ने इसे लेकर पहले ही पिछले साल गुप्त रूप से अपने यहां दिखावे वाले मुकदमे चलाये थे और उम्मीद जतायी थी कि इस घटना से पर्दा उठेगा। लेकिन,ख़शोगी को ज़द में लिये जाने और मार डाले जाने से पहले इस्तांबुल स्थित सऊदी वाणिज्य दूतावास में माइक़्रोफ़ोन लगा देने वाली तुर्की की खुफिया सेवा के पास इस पत्रकार के आख़िरी मिनट के अहम ऑडियो टेप था।

तुर्की के अभियोजकों ने एमबीएस और सऊदी अरब के ख़ुफ़िया सेवा के पूर्व डिप्टी चीफ़,अहमद असिरी के पूर्व वरिष्ठ सलाहकार, सऊद अल-क़हतानी पर " यातना दिये जाने के इरादे से इसे बेहद क्रूर तरीक़े से एक पूर्व-निर्धारित हत्या" का आरोप लगाया था। 18 अन्य अभियुक्तों पर "यातना दिये जाने के इरादे से बेहद क्रूर तरीक़े से इस पूर्व-निर्धारित हत्या " के आरोप हैं।

यक़ीनन, किंग सलमान और एमबीएस जानते हैं कि एर्दोगन के पास संभवतः बेहद मज़बूत सबूत हैं।

तुर्की के एक बयान में कहा गया है कि 20 नवंबर को किंग सलमान और एर्दोगन के बीच हुई यह बातचीत सऊदी-तुर्की रिश्तों को लेकर एक अहम क़दम है। इसमें कहा गया है, “तुर्की और सऊदी अरब के बीच के रिश्तों पर चर्चा की गयी, और सउदी अरब की अध्यक्षता में चल रही इस G -20 की शिखर बैठक के मौक़े पर दोनों नेताओं के बीच विचारों का आदान-प्रदान हुआ।द्विपक्षीय सम्बन्धों को बढ़ावा देने और दोनों देशों के बीच के मुद्दों के निपटारे को लेकर राष्ट्रपति एर्दोआन और किंग सलमान ने बातचीत के रास्ते खुले रखने पर सहमति जतायी।”

ठीक है कि बहुत कुछ अच्छा तो है,लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाक़ी है। ऐसा नहीं कि इस बातचीत के नतीजे के तौर पर सब कुछ ठीक ही हो गया हो,लेकिन अहम बात यह है कि इस्तांबुल में ख़शोगी के मुकदमे को अब मार्च तक के लिए टाल दिया गया है।

किंग सलमान की तरफ़ से एर्दोगन को किये गये फ़ोन और नेतन्याहू और एमबीएस के बीच नेओम में हुई उस मुलाक़ात को चल रहे उस एक के बाद एक घटनाक्रम के तौर पर देखा जा सकता है,जो अमेरिका के नये राष्ट्रपति,जो बाइडेन को ध्यान में रखते हुए रियाद की बदली हुई विदेश नीति के तौर पर उठाया गया पहला क़दम है।

बाइडेन और अपने नामांकित विदेशमंत्री,एंटनी ब्लिंकन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार,जेक सुलिवन ने साफ़ तौर पर यह संकेत दे दिया है कि अमेरिका की मध्य पूर्व नीति में नाटकीय बदलाव की उम्मीद की जा सकती है, इन बदालावों निम्नलिखित बातें शामिल होंगी,

•  मानवाधिकारों को लेकर सऊदी अरब और मिस्र पर ज़्यादा दबाव,

•  2015 के ईरान परमाणु समझौते को पुनर्जीवित करने को लेकर एक मिशन,

•  यमन में चल रहे युद्ध का अंत,

• ट्रम्प प्रशासन द्वारा यूएई को एफ़ -50 रडार की नज़र से बच निकलने वाले विमानों की बिक्री को लेकर जल्दबाज़ी पर नज़र,

• इस क्षेत्र में तुर्की की हस्तक्षेपवादी नीतियों को लेकर सख़्त रुख़ और,

• नेतन्याहू को कम रियायत देते हुए फ़िलिस्तीनी और इज़रायली अधिकारियों को बातचीत की मेज पर वापस लाने के प्रयासों को फिर से शुरू करना।

जहां तक सऊदी अरब का सवाल है,तो ब्लिंकेन ने सार्वजनिक रूप से राष्ट्रपति ट्रम्प के एमबीएस और मिस्र के राष्ट्रपति,अब्देल फ़तह अल-सीसी के साथ मधुर सम्बन्धों की आलोचना की है। ब्लिंकन ने कहा है कि ट्रम्प ने दरअस्ल "मूल रूप से यमन में युद्ध के साथ-साथ जमाल ख़शोगी की हत्या सहित बेशुमार नीतियों के विनाशकारी समूह को आगे बढ़ाने को लेकर एक खाली चेक थमा दिया है।"

अमेरिका भू-राजनीतिक नज़रिये से अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ-साथ यमन, लीबिया और सीरिया में संघर्ष विराम और शांति संधियों की ओर क़दम बढ़ाते हुए मध्य पूर्व के संघर्ष क्षेत्रों में स्थिरता लाने के लिए पहल करेगा। 2015 के ईरान परमाणु समझौते को आगे बढ़ाने वाली शुरुआती गुप्त वार्ता में अहम भूमिका निभाने वाले सुलिवन खुलेआम कह चुके हैं कि अपने कार्यकाल के पहले 100 दिनों के भीतर इस वार्ता को शुरू करना नयी सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक होगा।

बाइडेन प्रशासन क्षेत्रीय सहयोगियों को ईरान परमाणु समझौते को नुकसाने से उबारने की योजनाओं में हस्तक्षेप नहीं करने देगा। सही मायने में ईरान के इस अमेरिकी जुड़ाव को देखते हुए अपने पीछे हटने को आख़िर किस तरह समन्वित किया जाये,दरअस्ल यही मुद्दा नेतन्याहू-एमबीएस बैठक का एक मुख्य बिंदु था।

लेकिन,इस बात को लेकर उम्मीद की जा रही है कि अमेरिका की मध्य पूर्व नीतियों में होने वाले सबसे नाटकीय और प्रतीकात्मक बदलाव सऊदी अरब को लेकर होगा, इन बदलावोंमें सऊदी को हथियारों की बिक्री में कटौती शामिल हो सकती है।इस संदर्भ में किंग सलमान की तरफ़ से एर्दोगन को फ़ोन करने को तुर्की के साथ रिश्तों को सुधारने वाली सउदी अरब की महज़ एक पहल के तौर पर ही नहीं  देखा जा सकता है,बल्कि इसे बाइडेन प्रशासन की तरफ़ से पड़ने वाले अपेक्षित दबाव को पूरा करने को लेकर एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की पहल के तौर पर भी देखा जाना चाहिए और यह बात दोनों देश अच्छी तरह महसूस करते हैं।

सऊदी अरब का तुर्की के प्रति यह झुकाव,क़तर के साथ हाल ही में अपने विवाद के हल की तलाश की उसकी कोशिशों के साथ-साथ चल रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि सउदी इस बात को लेकर सचेत हैं कि ख़शोगी हत्या में कथित भूमिका को लेकर अमेरिका के लोगों की राय एमबीएस पर अब भी दबाव बढ़ा रही है और इसलिए, सउदी का यह मानना है कि एर्दोगन को शांत रखना ही फ़ायदेमंद है।

एर्दोगन के साथ किंग सलमान की बातचीत के बाद,सऊदी विदेश मंत्री ने तुर्की के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने की बात की और तुर्की के सामान पर किसी भी तरह के बहिष्कार के दावों को खारिज कर दिया। बदले में G-20 के अपने सम्बोधन में एर्दोगन ने सऊदी नेतृत्व की जमकर तरफ़दारी की। इस बात को पूरी तरह समझा जा सकता है कि दोनों देश प्रतिसपर्धा के बजाय उस सहयोग को बढ़ावा देना चाहते हैं, जो उनके हितों को आगे ले जाये।

इस मामले का सार यही है कि ट्रम्प (और उनके दामाद जेरेड कुशनर) ने एमबीएस को ताक़तवर बनाया,इस स्थिति ने अरब स्प्रिंग घटकों और मुस्लिम ब्रदरहुड,इज़रायल समर्थक नीतियों के प्रति सहानुभूति और ईरान के साथ दीर्घकालिक प्रतिद्वंद्विता के ख़िलाफ़ रियाद की दुश्मनी के तीन स्तंभों के आधार पर कट्टरपंथी नीतियों के साथ इस क्षेत्र को फिर से डिज़ाइन करने को लेकर एमबीएस को प्रोत्साहित किया।

हाल के सालों में एमबीएस की इस ज़बरदस्त पहुंच के पीछे अमिरात के उनके समकक्ष,मोहम्मद बिन ज़ायद (एमबीज़ेड) का दिमाग़ था,जिसके चलते एक तरफ़, सऊदी अरब, यूएई और मिस्र (और हाल ही में इज़राइल) साथ आ गये,तो दूसरी तरफ़ तुर्की, क़तर और ईरान हो गया।

लेकिन,मूल रूप से तुर्की और सऊदी अरब,दोनों ही ऐसे ताक़तवर खिलाड़ी हैं,जो इस क्षेत्र में होने वाले बदलावों पर असल डाल सकते हैं और अगर वे मिलकर कोशिश करें, तो यह कोशिश मध्य पूर्व की राजनीति का गेम चेंजर हो सकती है। आख़िरकार, सीरिया में साथ कार्रवाई करते हुए उन्होंने 2015 में बशर अल-असद को तक़रीबन घुटनों पर ला खड़ा कर दिया था, और रूस को हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित किया था।

कहने का मतलब यह है कि सऊदी अरब और तुर्की,दोनों ही मौजूदा स्थिति में एक-दूसरे के साथ दोस्ताने रिश्तों के साथ आगे बढ़ने की ज़रूरत को अच्छी तरह समझते हैं, क्योंकि ट्रम्प व्हाइट हाउस छोड़ने की तैयारी में हैं। ट्रम्प के  नहीं रहने के बाद न तो सऊदी अरब और न ही तुर्की इस क्षेत्र में अपने दम पर अपनी चला पायेंगे। तुर्की ईरान को दुश्मन की नज़र से नहीं देखता है, लेकिन सऊदी अरब तेहरान के क्षेत्रीय एजेंडे के ख़िलाफ़ अंकारा के समर्थन की उम्मीद ज़रूर करता है।

इसे देखते हुए सऊदी अरब और तुर्की के बीच एक बराबरी के रिश्ते तक पहुंच पाना तो मुश्किल ही लगता है, क्योंकि दोनों देश न सिर्फ़ अतीत का हिसाब-किताब लेकर चल रहे हैं, बल्कि निस्संदेह पिछले दशक से कम से कम तुर्की एक ऐसा ताक़तवर क्षेत्रीय खिलाड़ी तो बन ही गया है, जिसकी बराबरी संभवतः रियाद नहीं कर सकता है। इसलिए, दोनों देश अपने सम्बन्धों की बेहतरी को लेकर जूझते रह सकते हैं।

दोनों देशों को जो एक चीज़ जोड़ सकती है,वह है-संयुक्त अरब अमीरात के साथ सऊदी का रिश्ता। अगर सीधे-सीधे कहा जाये,तो सुन्नी मध्य पूर्व में एर्दोगन,एमबीएस और एमबीज़ेड की इन आकर्षक महत्वाकांक्षाओं के लिए पर्याप्त गुंज़ाइश नहीं है। मौजूदा हालात में अब्राहम समझौते इस क्षेत्रीय संतुलन को जटिल बनाने हए एक 'असरदार' कारक बन जाता है।

साभार: इंडियन पंचलाइन

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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