सेहत के लिहाज से बिहार में बड़ी बदहाली बा भाई!
जब बिहार की कोई कहानी लिखी जाएगी तो उसमें कुछ पन्ने झोलाछाप डॉक्टरों के भी होंगे। दूर से देखने वाले लोग इन झोलाछाप डॉक्टरों को देखकर नाक भौं सिकोड़ लेंगे। पूरे भरोसे के साथ कहेंगे कि हिंदुस्तान कितना पीछे है। हिंदुस्तान में बिहार कितना पीछे है। उनकी बात में दम भी होगा। उनकी चिंताएं जायज होंगी। लेकिन जब कोई ठेठ बिहारी इन बातों को सुनेगा। तो सोचेगा की बात तो उनकी सही है। लेकिन सवाल तो यही है कि डॉक्टर और अस्पताल की कमी से जूझ रहे बिहार के लोग दवा कराने जाएं तो जाएं किसके पास?
जब बदन बुखार से तप रहा हो। पैर कुदाल चलाते हुए कट गया हो। सर तपती धूप की वजह से फट रहा हो। जेब में 2 जून की रोटी जुगाड़ने के पैसे मुश्किल से हो। तब दर्द से निजात पाने के लिए एक बिहारी जाए तो कहां जाए।
इस सवाल का हल्का जवाब यह है कि बिहारी झोलाछाप डॉक्टरों पर भरोसा कर दर्द से निजात पा ले। मायावी जवाब यह है कि तेजस्वी और नीतीश की हार जीत का इंतजार करे। और असल जवाब यह है कि खुद को बिहार की स्वास्थ्य बदहाली से रूबरू कराएं और पूरे 5 साल मुखिया से लेकर कलेक्टर तक मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सबका कॉलर पकड़कर कहे की बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं दिलवाना एक लोक कल्याणकारी राज्य का कर्तव्य है। और अगर आप इससे भागेंगे तो अच्छा नहीं होगा।
तो चलिए भारत और बिहार के नागरिक होने के नाते कुछ ऐसे आंकड़ों से रूबरू हो लीजिए जो बिहार की बदहाल स्वास्थ्य सुविधा से परिचय करवाते हैं।
* साल 2013 से 17 के आंकड़े का विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि बिहार में औसतन एक व्यक्ति तकरीबन 68 साल जीता है। जबकि पूरे भारत में यह आंकड़ा तकरीबन 69 साल का है। तकनीकी भाषा में इसे लाइफ एक्सपेक्टेंसी अट बर्थ रेट कहा जाता है। यानी बिहार में एक व्यक्ति के जीवन की औसत उम्र भारत में किसी व्यक्ति के जीवन की औसत उम्र से 1 वर्ष कम है।
* साल 2017 में 5 साल से कम उम्र के 1000 में से तकरीबन 37 बच्चे पूरे हिंदुस्तान में मर जाते थे। यही आंकड़ा बिहार में तकरीबन 41 बच्चों का था। तकनीकी तौर पर स्वास्थ्य क्षेत्र के इस इंडिकेटर को चाइल्ड मोर्टालिटी रेट कहा जाता है। गांव में चाइल्ड मोर्टालिटी रेट साल 2017 में पूरे भारत का 42 था। और ठीक इसी तरह बिहार के गांव की भी स्थिति थी। बिहार के गांव में 5 साल से कम उम्र के तकरीबन 1000 में से 42 बच्चे मर जाते थे। लेकिन शहरों के संदर्भ में देखा जाए तो पूरे भारत में जहां शहरी इलाकों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मामलों में 1000 में से केवल 25 बच्चे मरते थे वहीं पर बिहार के शहरी इलाकों की स्थिति बहुत बुरी थी। साल 2017 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार के शहरी इलाकों में 5 साल से कम उम्र के 1000 में से तकरीबन 34 बच्चे मर जाते थे।
* आबादी के लिहाज से देखा जाए तो बिहार भारत का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। साल 2019 तक अनुमान है कि तकरीबन साढ़े 12 करोड़ लोगों का निवास स्थान बिहार बन चुका है। पूरे भारत की जनसंख्या वृद्धि 2.1 फ़ीसदी के दर से कम है। यानी भारत में जनसंख्या वृद्धि नियंत्रित स्थिति में है। लेकिन बिहार की जनसंख्या वृद्धि 3.2 फ़ीसदी से ऊपर है। यानी बिहार में जनसंख्या एक तरह की परेशानी का रूप ले रही है।
* इस आबादी में बहुत बड़ी आबादी कम आय वाले लोगों की है। भारत में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय तकरीबन 1 लाख रुपये से ऊपर है। लेकिन बिहार में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय तकरीबन 35 और 36 हजार बीच में है। ऐसे में आप समझ सकते हैं की एक बहुत बड़ी आबादी के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का आसरा सरकारी अस्पताल ही बन सकते हैं।
* लेकिन सरकारी अस्पताल की हालत ऐसी है की साल 2019 का आंकड़ा कहता है कि प्रति महीने तकरीबन 9 हजार लोग ही सरकारी अस्पताल में इलाज करवा पाते थे। जो साल 2018 के तकरीबन 10 हजार लोगों की सरकारी अस्पताल तक पहुंच से भी कम था।
* प्राइमरी हेल्थ सेंटर से लेकर डिस्ट्रिक्ट हेल्थ सेंटर की कुल संख्या हर 10 लाख की आबादी पर बिहार में साल 2012 में 109 थी। साल 2019 में यह संख्या बढ़कर मात्र 114 तक पहुंची। यानी 7 साल की विकास यात्रा में हर 10 लाख की आबादी में केवल 5 हेल्थ सेंटर की बढ़ोतरी हुई। चूंकि बिहार बहुत बड़ा प्रदेश है। भूगोल बदलने के साथ परिस्थितियां और परेशानियां भी बदलती हैं। इसलिए health centre के लिहाज से आंका जाए तो हर जगह की स्थिति संतुलित नहीं है। जमुई और शिवहर ऐसे जिले हैं जहां हर एक लाख की आबादी पर तकरीबन 173 और 169 हेल्थ सेंटर हैं तो वहीं पर पटना सीतामढ़ी दरभंगा ऐसे इलाके हैं जहां पर हर एक लाख की आबादी पर तकरीबन 70 से 80 हेल्थ सेंटर मौजूद हैं।
* बिहार में health centre के लिहाज से 21 हजार सब सेंटरो की जरूरत है। हर 10 हजार पर एक। लेकिन हाल फिलहाल केवल 9949 सब सेंटर हैं। जोकि कुल जरूरी सब सेंटरों के मुताबिक केवल 46 फ़ीसदी के आसपास है। और हर 10 हजार के बजाय 55000 लोगों पर एक सब सेंटर है।
* तकरीबन 3548 प्राइमरी हेल्थ सेंटर की जरूरत है लेकिन मौजूदा समय में केवल 1899 प्राइमरी हेल्थ सेंटर है। जो कि कुल प्राइमरी हेल्थ सेंटर के केवल 53 फ़ीसदी के आसपास होते हैं।
* इससे भी जर्जर हाल community health centre यानी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का है। 887 community health centre की जरूरत बिहार को है। लेकिन केवल 150 community health centre बिहार में हैं। यह जरूरत के हिसाब से केवल 16.9 फ़ीसदी ही है।
* कई सारी रिपोर्ट का कहना है कि बिहार में एक भी ऐसा community health centre नहीं है, जो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो।
* वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद सालाना 10 फ़ीसदी बजट में बढ़ोतरी की दरकार को बिहार सरकार ने लागू नहीं किया है। हालाँकि 2014-15 में बजट का 3.8 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4 फ़ीसदी हो गया, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 फ़ीसदी हो गया. इस अवधि में कुल राज्य बजट में 88 फ़ीसदी की बढ़त हुई थी।
* बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 फ़ीसदी परिवार वहन करता है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 फ़ीसदी है।
* नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल, 2018 के अनुसार, बिहार की 96.7 फ़ीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है।
* विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार भारत के उन चार राज्यों में है, जहाँ स्वास्थ्यकर्मियों की बहुत चिंताजनक कमी है। एलोपैथिक डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में भी बिहार सबसे नीचे है। नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि दिल्ली में यही आँकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है।
* साल 2019 में सरकार द्वारा डॉक्टरों के लिए जारी पोस्ट केवल 6 हजार के आसपास हैं। इसमें से भी केवल 3 हजार के आसपास ही डॉक्टर कार्यरत हैं। यानी एक तो पहले से ही सरकार ने डॉक्टरों की संख्या कम आवंटित की है और दूसरी उनमें से भी आधी भरी नहीं गई है। खाली है।
* निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता के मामले में बिहार समूचे देश में अव्वल है। साल 2016 में द टेलीग्राफ़ द्वारा प्रकाशित नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर ब्रूकिंग्स इंडिया रिसर्च फाउंडेशन ने विश्लेषण किया। विश्लेषण से मिले नतीजे ऐसे थे - स्वास्थ्य पर औसतन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ख़र्च 348 रुपये है, जबकि राष्ट्रीय औसत 724 रुपये है। निजी अस्पतालों में भर्ती का अनुपात राज्य में 44.6 फ़ीसदी है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह 56.6 फ़ीसदी है। निजी अस्पतालों में दिखाने का अनुपात बिहार में 91.5 फ़ीसदी है। इसमें राष्ट्रीय अनुपात 74.5 फ़ीसदी है। बिहार की सिर्फ़ 6.2 फ़ीसदी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है। इसमें राष्ट्रीय औसत 15.2 फ़ीसदी है। स्वास्थ्य पर बहुत भारी ख़र्च के बोझ तले दबे परिवारों का आँकड़ा 11 फ़ीसदी है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 13 फ़ीसदी है। सैंपल सर्वे के आँकड़े कुछ साल पुराने हैं। अगर मान लिया जाए कि कुछ सुधार हुआ होगा, तब भी यह सवाल है कि इतनी बड़ी खाई किस हद तक पाटी गयी होगी।
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