कोविड-19: कैसे जी-हुज़ूरिया मीडिया लोकतंत्र को अंदर से खोखला कर रही है
जब अप्रैल और मई में महामारी की दूसरी लहर भारत में फैल रही थी, उस दौरान (28 अप्रैल 2021 से) कोविड-19 से हर 30 सेकंड में कम से कम एक भारतीय दम तोड़ रहा था। उस दौरान भारत ने रोज़-ब-रोज़ बढ़ रहे संक्रमण और मौतों ने एक नया रिकॉर्ड बनाया। ऑक्सीज़न और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की भारी क़िल्लत, निम्न प्रशासनिक नियंत्रण, और केंद्र और राज्यों के बीच की कलह ने कई ऐसे लोगों की जान ले ली, जिन्हें शायद बचाया जा सकता था।
इस हताश कर देने वाले मंज़र के बावजूद मुख्यधारा की मीडिया का एक तबका सरकार का समर्थन करने वाली सुहानी ख़बरें चलाता रहा। जैसा कि हाल के सालों में अक्सर हुआ है कि भारत की प्रतिष्ठा को बनाये रखने के नाम पर चलाये जा रहे नये आख्यान का दुष्प्रचार ख़ूब किया जा रहा है। हालांकि, दूसरी लहर के दौरान फ़र्क़ यह था कि इस आख्यान को किसी वैचारिक मुद्दे के साथ पेश नहीं किया जा रहा था। दूसरे शब्दों में मीडिया हिंदू धर्म, हिंदुत्व या अर्थव्यवस्था पर सरकार के रुख़ का बचाव करने में मशगूल नहीं थी, बल्कि यह ज़रूरी स्वास्थ्य सेवाओं को मुहैया नहीं करा पाने के चलते भारत के लोगों की होने वाली मौत की वजह बनती महामारी से निपटने में सरकार की नाकामी पर पर्दा डाल रही है।
हालांकि, वैचारिक मुद्दों पर मीडिया सहज ही सरकार का समर्थन करने को लेकर हर चंद कोशिश कर सकता है, मगर परेशान होने वाली बात तो यह है कि मीडिया का एक तबका बड़े पैमाने पर फैली दहशत और घोर निराशा के बावजूद हालात को ऐसे दिखा रहा था जैसे ज़मीनी हक़ीक़त इतनी बुरी नहीं है जितनी बताई जा रही है।
मसलन, जब बिहार में गंगा के तट पर लाश बहकर आये, तो एक बड़े अंग्रेज़ी समाचार चैनल, टाइम्स नाउ ने 10 मई को उस स्थल की ग्राउंड रिपोर्टिग की। लेकिन, उसी शाम प्रसारित होने वाले अपने प्राइम शो 'इंडिया अपफ़्रंट' में इसके एंकरों ने अपने दर्शकों को आश्वस्त करते हुए शो की शुरुआत आम तौर पर उसी तरह की, जैसा कि वह करते हैं और कहा कि चीज़ें "कुछ दिन पहले जितनी बुरी तो नहीं दिख रही हैं"। तब तक नदी के 1, 140 किलोमीटर के इलाक़े में तक़रीबन 2, 000 लावारिश लाशें मिल चुकी थीं। भारत में आधिकारिक तौर पर 1 मई से 10 मई के बीच लगभग 38, 000 और 11 मई से 20 मई के बीच लगभग 41, 000 लोग जानें गंवा चुके थे।
सवाल है कि मीडिया इस हद तक पहुंचा कैसे? इसकी एक संभावित व्याख्या तो यह समझने में निहित है कि आम लोगों को सपने बेचने वाले नेता दुनिया को देखते कैसे हैं। पिछले शोध से तो यही पता चलता है कि इस तरह के कई नेता मध्यवर्ती संस्थाओं या सार्वजनिक चर्चाओं के केन्द्र रहे संस्थाओं को संदेह की नज़रों से देखते हैं, जिनमें न्यायपालिका, विधायिका, अन्य संस्थाओं और ख़ास तौर पर मीडिया को शामिल किया जा सकता है। लोकप्रियता पर सवार सरकार इन मध्यवर्ती संस्थानों को अभिजात्य संरचनाओं के हिस्से के रूप में देखते हैं और उन्हें वे लोगों की आंकांक्षाओं और उन आकांक्षाओं को पूरा करने वाले इन नेताओं की इच्छा के बीच एक बाधा की तरह पेश करते हैं। हालांकि, किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे मध्यवर्ती संस्थान सत्ता के विकेन्द्रीकरण को धरालत पर लाते हैं। वे सरकार की उस हर उस शाखा पर क़ाबू बनाये रखने में मददगार होते हैं, जिसे ये नेता अभिशाप समझते हैं। सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत रखने के लिए वे लोगों के साथ सीधी-सीधे, कदाचित निजी और बिना किसी मध्यवर्ती संस्था के सम्बन्ध स्थापित करने को लेकर इन संस्थानों के आसपास काम करना चाहते हैं।
इस सम्बन्ध को बढ़ावा देने का एक तरीक़ा तो यह होता है कि लोगों के साथ एकतरफ़ा संवाद सुनिश्चित किया जाये और इसकी मेजबानी ख़ुद करें। पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने यही करने की कोशिश की थी और इस समय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी इसे अपने मन की बात के एकालाप के ज़रिये और भी अधिक असरदार ढंग से अंजाम दे रहे हैं। इससे ख़्वाब दिखाने वाले ये नेता, विशेषज्ञों की आलोचनात्मक विश्वेशण से बच जाते हैं और उन्हीं मुद्दों को लेकर बात कर लेते हैं, जिन्हें वे ज़रूरी समझते हैं। अहम बात तो यह है कि इस तरह का एकतरफ़ा संवाद उन्हें "अपने लोगों" के लिए उस तरह से संदर्भ गढ़ने देता है, जो इन नेताओं और उनके समर्थकों के लिए सबसे माक़ूल होता है।
आजकल सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर सीधा सम्बन्ध बना पाना काफ़ी आसान हो गया है। जो पारंपरिक मीडिया उनके हिसाब से नहीं चलत, चाहे वे घरेलू हों या विदेशी, उन्हें सच्चाई को तोड़-मरोड़कर पेश करने वाले के तौर पर प्रस्तुत कर दिया जाता है।
नियंत्रण और संतुलन के नहीं होने से भारत के संस्थान इस समय काफ़ी कमज़ोर हो चुके हैं। पारंपरिक मीडिया को पूरी तरह दरकिनार करने के बजाय भारत के ये ख़्वाब दिखाने वाले नेता मुख्यधारा के ज़्यादातर मीडिया घरनों को अपने संचार तंत्र के भीतर ले आते हैं। कई रिपोर्टों में इस बात को रेखांकित किया गया है कि किस तरह भारतीय मीडिया का एक बड़ा तबका सरकार समर्थक पूर्वाग्रह रखता है। इस तरह, लोगों के प्रति सरकारों को जवाबदेह ठहराने का एक अहम साधन बेमानी हो जाता है।कोई भी आलोचनात्मक विचार, चाहे वह कितनी भी रचनात्मक क्यों न हो, उसे राष्ट्र-विरोधी क़रार दे दिया जाता है।
परिस्थितियों का विचार किये बिना यह मीडिया संस्कृति सरकार का बचाव करती है, जवाबदेही तय करने की ज़रूरत को धीरे-धीरे ख़त्म कर देती है और विपक्ष के दायरे को सीमित कर देती है। साथ ही साथ विपक्षी दलों की राजनीति की साख को भी धक्का पहुंचाती है। उदाहरण के लिए, जहां एक तरफ़ देश महामारी की पहली लहर के बाद निम्न क्षमता निर्माण के चलते मेडिकल ऑक्सीज़न की कमी से जूझ रहा था, वहीं उन्हीं टीवी न्यूज़ चैनल पर इस बात की चर्चा चलायी जा रही थी कि ऑक्सीज़न की कमी को दूर करने के लिए किस तरह से एक टास्क फोर्स का गठन किया गया और समस्या को प्रबंधित करने के लिए केन्द्र सरकार की सराहना की जा रही थी। जो कमियां सामने आयीं, उनका सारा का सारा दोष राज्य सरकारों के दोषपूर्ण प्रशासन के मत्थे मढ़ दिया गया। उन चैनल के ये दावे “सूत्रों” पर आधारित थे। दिलचस्प बात है कि 10 मई की रात, जिस समय यह कार्यक्रम प्रसारित हुआ था, तब तक टास्क फ़ोर्स ने कोई प्रेस नोट भी जारी नहीं किया था।
भारत में सरकार की आलोचना करने के लिए विपक्षी दलों की हर दिन खिंचाई की जाती है और उन्हें अभिजात्य, राष्ट्र-विरोधी और बेअसर ठहरा दिया जाता है। हाल ही में अंग्रेज़ी और हिंदी मुख्यधारा के मीडिया के तबकों की तरफ़ से कांग्रेस पार्टी की तब आलोचना की गयी थी, जब भाजपा ने एक "टूलकिट" बनाने को लेकर कांग्रेस पर इस बात का आरोप लगाया था कि कांग्रेस के समर्थक उस टूलकिट का इस्तेमाल भारत को बदनाम करने के लिए कर सकते हैं। भाजपा ने विपक्ष पर आरोप लगाते हुए कहा था कि इसके ज़रिये भारत सरकार की छवि को धूमिल करने के लिए कोविड-19 संकट का इस्तेमाल किया जा रहा है।
अन्य चैनलों के बीच एक प्रमुख हिंदी न्यूज़ चैनल, ज़ी न्यूज़ पहले तो एक डिस्क्लेमर दिया कि यह चैनल इस टूलकिट की वैधता का सत्यापन नहीं करता है। हालांकि, इसके बावजूद इस चैनल ने भाजपा का कांग्रेस पर भारत की छवि को धूमिल करने के "इरादे" के उन तरीक़ों को अपनाने के आरोपों को विस्तार के साथ बताया। इस चैनल ने इस तरह के आरोपों के ख़िलाफ़ कांग्रेस के बचाव का ज़िक़्र ही नहीं किया (इस न्यूज चैनल द्वारा अपने यूट्यूब चैनल पर अपलोड किये गये स्निपेट के आधार पर)। बाद वाला वीडियो इस बात का एक ज़रूरी उदाहरण है कि किस तरह महत्वपूर्ण नियंत्रण और संतुलन का कोई मायने नहीं रह गया है, क्योंकि मीडिया के प्रभावशाली तबका इस कथानक के सभी पक्षों को सामने रखने के 'चेक एंड बैलेंस' सुनिश्चित करने के बजाय विपक्ष विरोधी आरोपों की वैधता को स्थापित करते रहते हैं। जब तक कुछ ऑनलाइन मीडिया घरानों ने इस बात को मज़बूती के साथ रखा कि कि वह 'टूलकिट' तो फ़र्ज़ी थी, तब तक काफ़ी नुक़सान हो चुका था। आरोपों के आधार पर गढ़ी गयी विपक्ष विरोधी अवधारणा, जिसका कोई ठोस सबूत तक नहीं, लोकतांत्रिक लोकाचार की सेहत और निर्वहन के लिहाज़ से चिंता का कारण है।
जिन लोगों ने हाल ही में महामारी के दौरान अपने परिजनों को खोया है, वे परेशान हैं, यह बात कई लोगों के निजी विवरणों से स्पष्ट होती है। ऐसे में संचार तंत्र जनता का ध्यान भटकाने के लिए किसी बलि के बकरे की तलाश में है। इसी बीच टाइम्स नाउ ने तब एक ऐसा शो प्रसारित कर दिया, जिसमें किसान विरोध और कोविड-19 के चलते होने वाली मौतों के बीच के रिश्ते को लेकर बात की गयी। एक बार फिर नोवल कोरोना वायरस की उत्पत्ति का मामला केन्द्रीय विषय बना दिया गया है और मीडिया चैनलों ने लोगों का ध्यान पूरी तरह से चीन पर केंद्रित करने के लिए एक सामयिक और प्रभावी विषय ढूंढ लिया है।
दर्शकों की सहायता से चल रही डिजिटल मीडिया कंपनी, न्यूज़लॉन्डी ने 13 मार्च को अपने नियमित शो 'टीवी न्यूज़ेंस' में ज़ी न्यूज़ की एक ख़बर पर चर्चा की थी। भाजपा के एक नेता ने राजभवन वेबसाइट से एक ख़बर उठायी और उसे घुमाकर कांग्रेस पार्टी पर निशाना साध दिया। जैसे ही यह न्यूज़ स्टोरी ट्विटर पर ट्रेंड करने लगी, ज़ी न्यूज़ ने इसे खोजी पत्रकारिता के एक हिस्से के रूप में पेश कर दिया। वह न्यूज़ स्टोरी एक ऐसा किस्सा थी, जो कि राजभवन के आतिथ्य सत्कार से जुड़ा हुआ था, इसमें कहा गया था कि राजभवन के कर्मचारियों ने किस तरह एक बार पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पसंदीदा ब्रांड की सिगरेट के लिए इंदौर से नई दिल्ली की लिए उड़ान भरी थी, क्योंकि राजभवन में उस ब्रांड का सिगरेट नहीं था। एंकर ने नेहरू के लिए सिगरेट की व्यवस्था किये जाने पर लगे ईंधन, उड़ान, और दूसरी लागतों का अनुमानित हिसाब प्रस्तुत किया। उस शो में उस पैसे के मौजूदा मूल्य के बारे में बात की गयी, जो आधी सदी पहले ख़र्च किये गये थे। इस "न्यूज़" स्टोरी ने ग़लत समय का चुनाव करते हुए अपनी रिपोर्टों में अस्पतालों में चल रही ऑक्सीज़न की कमी, कोविड-19 से बड़ी संख्या में होने वाली मौतों, धीमी टीकाकरण, अन्य अहम मुद्दों को कम अहमियत देने का एक और अवसर मुहैया करा दिया।
भारत में कोविड-19 से भारी संख्या में हुई मौतें इसलिए देखी गयी हैं, क्योंकि स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे की गंभीर क़िल्लत है। इतनी बड़ी संख्या में हुई मौत की ज़िम्मेदार आख़िर भारत सरकार हीं तो है। केंद्र सरकार ने पिछले साल आपदा प्रबंधन अधिनियम के ज़रिये महामारी के प्रबंधन को अपने हाथ में ले लिया था। 2020 में ज़रूरी दवाओं की ख़रीद और उनकी आपूर्ति केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में थीं। हाल ही में (ज़्यादातर) वैक्सीन का वितरण (कम आपूर्ति के साथ) का काम केंद्र सरकार के हाथों में वापस आ गया है। टीकों की ख़रीद और टीकों को लेकर अलग-अलग मूल्य नीतियों को दूर करने के सिलसिले में केंद्र की ज़िम्मेदारी पर सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से की गयी टिप्पणी ही असल में उम्मीद की एक किरण बनी है।ऐसे में फिर सवाल यह पैदा होता है कि मीडिया समूहों ने इस संकट के लिए राज्यों को पूरी तरह ज़िम्मेदार कैसे ठहरा दिया ? जब मुद्दों को भावनात्मक मैदान पर चलाया जाता है, तो तार्किकता गडमड हो जाती है। ऐसे में दुःखी लोगों का ग़ुस्से में मीडिया के बनाये बजूके पर पिल पड़ना स्वाभाविक है। एक जटिल मुद्दे के जवाब में एक बकवास तर्क को फैलाया जाता है, और इस प्रक्रिया में गढ़ा गया दुश्मन निशाना बन जाता है।
यह आम लोगों को समस्या का समाधान ढूंढ़ने से रोकता है और इससे भी बदतर बात तो यह है कि लोगों में संतुष्टि और जीत की झूठी भावना भर देता है। सरकार के समर्थन में गढ़ी जाने वाली इस अवधारणा को निरंतर बनाये रखा जाता है और इससे तर्कों की पेंचीदगी बढ़ जाती है और तार्किकता उलझ जाती है। एक जीवंत प्रेस के बारे में तो यही माना जाता है कि वह तार्किकता को बढ़ावा देता है और निर्वाचित प्रतिनिधियों और उन सभी लोगों से सवाल करता है, जो सत्ता में हैं।
इसका एक अन्य उदाहरण व्यापक रूप से देखे जाने वाले टीवी चैनल-रिपब्लिक है। लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट ने एक लेख (एक और लेखक के साथ लिखित लेख) में दिखाया है कि 2017 और 2020 के बीच रिपब्लिक टीवी ने सरकार या सत्ताधारी दल की आलोचना करने वाली प्रत्येक आठ बहसों के मुक़ाबले 100 बहस विरोधी दलों पर करायी थी।
हालांकि, हम ख़ास तौर पर इसके निराशावादी स्वर के कारण "डेमोक्रेसी डिवोरिंग इटसेल्फ़: द राइज़ ऑफ़ द इनकम्पेटेंट सिटिजन एंड द अपील ऑफ़ राइट विंग पॉपुलिज़्म" शीर्षक वाले इस पेपर से सहमत नहीं हैं, जिसके लेखक इर्विन स्थित कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान और मनोवैज्ञानिक विज्ञान पढ़ाने वाले शॉन रोसेनबर्ग हैं, अपने इस पेपर में वह एक मुनासिब कारण बताते हैं। उन्हें लगता है कि दोषपूर्ण जवाबदेही प्रणाली बनाने वाले दक्षिणपंथी ये नेता हाल में इसलिए उभार पर हैं, क्योंकि अभिजात वर्ग-विशेषज्ञ और सार्वजनिक हस्तियों का नियंत्रण "उन संस्थानों पर से खो रहा है, जिन्होंने पारंपरिक रूप से लोगों को उनके सबसे अलोकतांत्रिक आवेगों से बचाया है।"
जब किसी विनियमित सार्वजनिक क्षेत्र में अपने दम पर लोगों को राजनीतिक फ़ैसले लेने के लिए छोड़ दिया जाता है, तो लोग सरल-सा दिखने वाले लोकलुभावन पेशकशों की ओर झुक जाते हैं। एक आम ग़लतफ़हमी यह है कि चुनाव और चुनावी जीत लोकतांत्रिक राजनीति की अंतिम परिणति को दर्शाती है। जबकि इसके उलट असली बात तो यह है कि चुनाव लोकतंत्र के निर्माण की दिशा में चला गया पहला क़दम है। रोसेनबर्ग बताते हैं कि लोकतंत्र महती प्रयास का नतीजा होता है और इसके लिए ईमानदारी से सार्वजनिक भागीदारी की आवश्यकता होती है। यह इस बात की मांग करता है कि लोग बड़ी मात्रा में सूचनाओं का अध्ययन करें, वैध सूचनाओं को फ़र्ज़ी सूचनाओं से अलग करें, विचारशील, अनुशासित और तार्किक बनें। वह निराशावादी रूप से कहते हैं कि मनुष्य सिर्फ़ इसी काम के लिए नहीं बने हैं। लेकिन, अगर ऐसा है, तब तो ख़्वाब दिखाने वाले लोगों को इसका स्पष्ट फ़ायदा मिलना ही है ?
इस बात को लेकर आशावादी होने के कई कारण है ऐसा नहीं है। भारत में कई सामाजिक-राजनीतिक और लोकतांत्रिक आंदोलन हुए हैं। देश को इस विचार को फिर से ज़िंदा करने की ज़रूरत है कि राजनीति सही मायने में सामाजिक बदलाव लाने का एक साधन है। किसी एक नेता को बेहिसाब समर्थन देना आसान है, लेकिन लोकतंत्र की मांग है कि नागरिक अपने लिए सोचे, और सख़्ती के साथ सोचे ! दूसरे शब्दों में कहें, तो अस्पताल के बेड और ऑक्सीज़न की कमी आज देश को परेशान कर रही है, लेकिन कल एक और संकट पैदा हो सकता है। ख़्वाब दिखाने वाले नेताओं को जब तक जवाबदेह नहीं ठहराया जायेगा, वे अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ते रहेंगे। किसी नागरिक का राजनीतिक विचार-विमर्श से अवगत होना उसका अधिकार और संवैधानिक ज़िम्मेदारी दोनों है।
मुंबई स्थित विहंग जुमले डेटा विश्लेषक हैं। विग्नेश कार्तिक के.आर. लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में डॉक्टरेट रिसर्चर हैं। इनके विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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