बीच बहस: नीतीश कुमार का शीर्षासन या समाजवाद का!
नीतीश कुमार ने सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। अगर इसे लगातार शपथ लेने वाली शर्तों की कसौटी पर कसा जाए तो यह उनका चौथी बार शपथ ग्रहण है। लेकिन इस बार वे इस सरकार के ऐसे दूल्हा हैं जिसे अगवा करके भाजपा ने शादी रचाई है। जो बात कभी उनके साथ मंत्री रहे गिरिराज सिंह कहा करते थे कि हम तो इस बारात के नपुंसक दूल्हा हैं अब शायद वही बात नीतीश कुमार सोच रहे होंगे। शायद यही कारण है कि 2015 में नीतीश कुमार को चुनाव जिताने वाले प्रशांत किशोर ने उनके मुख्यमंत्री बनने पर टिप्पणी करते हुए कहा है, `` नीतीश कुमार ने एक थके और राजनीतिक रूप से छोटे हो चुके नेता के रूप में बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है। लगता है कि बिहार को कुछ दिन और ढीली ढाली सरकार से काम चलाना होगा।’’
नीतीश कुमार का यह शीर्षासन उनके इस मंत्रिमंडल में दिखाई पड़ा जब उनकी सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री ने शपथ नहीं ली। उसकी वजह साफ है कि एनडीए के इस गठबंधन में एक भी मुस्लिम विधायक नहीं चुना गया है। यह एक विडंबना है कि जिस बिहार में मुस्लिमों की 16 प्रतिशत आबादी है और नीतीश के एनडीए में भी मुस्लिम विधायक और मंत्री शामिल होते थे, वहां से आज उनकी जगह समाप्त होती जा रही है। यह अलगाव उस राज्य में हो रहा है जहां की सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष राजनीति पर कई विश्लेषकों को गर्व हुआ करता था। हालांकि जनता दल (एकीकृत) ने 11 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे भाजपा नेताओं की प्रचार शैली ऐसी रही कि उसमें से एक भी नहीं जीत सका।
उल्टे एआईएमआईएम के पांच के पांचों विधायक मुस्लिम समुदाय से हैं और राजद ने 8 और कांग्रेस ने 4 विधायक जितवाए हैं। लेकिन विडंबना यह है कि महागठबंधन सरकार से बाहर है इसलिए वह किसी मुस्लिम विधायक को सत्ता दिला नहीं सकता। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए कि 2017 में खुर्शीद फिरोज नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण मंत्री हुआ करते थे। उससे पहले जब नीतीश ने 2015 में राजद के साथ सरकार बनाई थी तब अब्दुल बारी सिद्दीकी उनके वित्त मंत्री थे। नीतीश कुमार भले ही भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला रहे थे लेकिन वे यह कहते थे कि तीन सी (C) यानी क्राइम, करप्पशन और कम्युनलिज्म से कोई समझौता नहीं करेंगे।
इस बीच वे अपनी गांधीवादी कार्यक्रमों से समाजवादियों के धर्मनिरपेक्ष तबके को भी लुभाने की कोशिश करते थे। पिछले साल जब महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर 2-3 अक्तूबर को उन्होंने बाढ़ के दौरान भी पटना में कार्यक्रम आयोजित किया तो देश भर के गांधीवादी और सेक्यूलर लोग भी जुटे। उस कार्यक्रम में नीतीश कुमार और सुशील मोदी दोनों मौजूद थे। नीतीश कुमार ने सांप्रदायिकता पर प्रहार और समाजवादियों की धर्मनिरपेक्ष परंपरा का उल्लेख करते हुए ऐसा भाषण दिया कि तमाम लोगों को लगने लगा कि वे जल्दी एनडीए छोड़ सकते हैं। हालांकि यह कुछ लोगों की खुशफहमी ही थी जो नीतीश की चतुर राजनीति को समझते हुए भी नहीं समझ रहे थे।
या तो वे ऐसा सोचने वाले लोग बेहद चालाक होते हैं या बहुत भोले होते हैं जो नीतीश कुमार के शराबबंदी कार्यक्रम और महात्मा गांधी पर लिखी गई किताबें बंटवाने से उनके विद्रोह की गलतफहमी पाल लेते हैं।
दरअसल नीतीश कुमार संघ परिवार के राजनीतिक चिड़ियाघर की एक दर्शनीय प्रजाति हैं जिसे उन लोगों ने अब बाड़े में पूरी तरह कैद कर लिया है। नीतीश ने उनका इस्तेमाल सत्ता में बने रहने के लिए किया तो संघ भाजपा ने पिछड़ी दलित जातियों और महिलाओं में उनका इस्तेमाल अपने वैचारिक और राजनीतिक विस्तार के लिए किया। नीतीश कुमार भले समाजवादी आंदोलन से राजनीति में आए और कभी मधु लिमए जैसे लोगों के खास हुआ करते थे लेकिन उन्होंने अपना उद्देश्य हर कीमत पर सत्ता में बने रहना बना लिया। यही वजह है कि कभी मधु लिमए के घर पर बार बार जाने वाले नीतीश बाद के दिनों में वे चंपा लिमए को भी देखकर किनारा कर लिया करते थे। वे जेपी आंदोलन में भी शामिल थे लेकिन उनका लक्ष्य न तो संपूर्ण क्रांति करना था न ही समतामूलक समाज बनाना था। उनका इरादा मंडल की लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुंचना और उस पर काबिज रहना था। नीतीश ने समाजवादी लक्ष्य के लिए अपने को इस्तेमाल होने देने की बजाय समाजवादी कार्यक्रमों को अपने लिए इस्तेमाल कर लिया। चाहे स्त्रियों के लिए आरक्षण हो या फिर महादलितों के लिए विशेष अवसर, यह सब हैं तो समाजवादी एजेंडा लेकिन असली समाजवादी यहीं ठहरता नहीं। वह उसके आगे एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष योजना भी लेकर चलता है और एक आर्थिक ढांचा भी तैयार करता है जिसके आधार पर समाजवादी समाज टिक सके। लेकिन नीतीश कुमार ने वैसा करने का प्रयास नहीं किया और इसी नाते वे आज शीर्षासन कर रहे हैं।
आज अगर नीतीश कुमार शीर्षासन कर रहे हैं तो इसके साथ शीर्षासन कर रही है समाजवाद की वह विचारधारा जिसने अपने लिए उन जैसे लोगों का कंधा चुना था। समाजवाद की दिक्कत यह रही कि उसने अपने प्रयोग के लिए कोई राज्य तैयार ही नहीं किया। यहां सरदार पटेल का वह ताना याद आता है जो उन्होंने जेपी के मारा था। उत्तर प्रदेश और बिहार जहां भी उसकी गुंजाइश थी वहां का नेतृत्व या तो भाजपा की चुनौती से जूझता रहा या फिर अपने परिवार के बोझ तले थकता रहा। नीतीश परिवारवाद के बोझ से जरूर मुक्त थे लेकिन वह भाजपा की दोस्ताना चुनौती के शिकार हो गए। यहां समाजवाद की दिक्कत यह भी रही कि वह आंदोलन और सत्ताधारी दलों के साथ एक रिश्ता कायम नहीं कर सका। उसके सत्ताधारी दलों पर आंदोलन का अंकुश खत्म हो गया। इस तरह आंदोलन जहां दमन का शिकार हो गया वहीं सत्ताधारी दल तमाम तरह के समझौतों के लिए अभ्यस्त हो गए।
समाजवादियों के समक्ष एक चुनौती थी संघ परिवार के मुकाबले राष्ट्रवाद का वैकल्पिक आख्यान विकसित करने की। वह आख्यान जिसे रचने का प्रयास कभी महाराष्ट्र के समाजवादी नेता शाने गुरुजी ने किया था। शाने गुरुजी ने महाराष्ट्र में जन्मे और लगातार बढ़ते जा रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुकाबले राष्ट्र सेवा दल बनाया था, जिसे वे संघ के विरुद्ध पूरे देश में प्रचारित करना चाहते थे। लेकिन पता नहीं क्यों वह संगठन महाराष्ट्र और दक्षिण के कुछ राज्यों में सीमित होकर रह गया। वह बिहार में भी एक हद तक ही पहुंचा। राष्ट्र सेवा दल का नेतृत्व आज जीएन देवी जैसे प्रतिबद्ध समाजवादी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाशास्त्री और नृतत्वशास्त्री के हाथ में है लेकिन वे उसे दक्षिण भारत में फैलाने में लगे हैं। पता नहीं उत्तर भारत में बनी संघ परिवार की चुनौती को कब वे स्वीकार करेंगे?
समाजवादी विचार आंदोलन की दूसरी दिक्कत यह रही कि उसने स्वाधीनता संग्राम की बड़ी विरासत को छोड़कर अपनी सारी शक्ति जाति की राजनीति में झोंक दी। अच्छी बात थी कि वह हिंदू समाज की जातिगत संरचना को तोड़ने या उदार बनाने के लिए काम कर रहा था। लेकिन इस दौरान कब वह जातिवादी हो गया उसे पता ही नहीं चला। उसके महत्वपूर्ण नेता जातिगत आधार बनाने लगे और फिर उस आधार का इस्तेमाल अपने परिवार के लिए करने लगे। इस तरह से इस आंदोलन का जो आधार उच्च जातियों के पढ़े लिखे लोगों में था वह भी छीज गया। दूसरी ओर मध्य जातियों में इसका जो आधार बना उसे विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं ने सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक सीमित कर दिया और बाद में उसे खंड खंड करके भाजपा ने लपक लिया।
आज संघ परिवार की हिंदुत्व की चुनौती भारतीय लोकतंत्र और उसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र के लिए बहुत बड़ी हो गई है। उसे राजनीतिक अस्पृश्यता से नहीं निपटा जा सकता। उसे लंबे समय तक बड़ी लड़ाई लड़नी होगी। संघ ने क्षेत्रीयता के कंधे पर सवार होकर दिल्ली की सत्ता हासिल की है। तब क्षेत्रीय दलों ने उसे अयोध्या, 370 और कामन सिविल कोड जैसे एजेंडे को बाहर रखने पर मजबूर कर रखा था। लेकिन आज वे उसे लागू करके क्षेत्रीय दलों के मंच से ही छाती ठोंक रहे हैं। भले ही अब भाजपा केंद्रीय सत्ता के लिए क्षेत्रीय दलों पर निर्भर नहीं है लेकिन वह उन्हें छोड़ना नहीं चाहती। वजह साफ है कि वह दीर्घकालिक एजेंडे के तहत उनका हिंदूकरण करते रहना चाहती है। नीतीश कुमार उसी हिंदूकरण के शिकार हैं। अगर लोहिया के नजरिए से देखें तो एक ओर हिंदू बनाम हिंदू की लड़ाई है। यानी एक ओर उदार हिंदू रहेंगे तो दूसरी ओर कट्टर हिंदू। लेकिन उसी के साथ वह मुस्लिम बनाम मुस्लिम की भी लड़ाई है। भारत के उदार मुस्लिमों को भी उदार हिंदुओं के साथ खड़ा होना होगा। उदार हिंदू और कट्टर मुस्लिम का गठबंधन नहीं चलेगा।
कई बार हंसी आती है जब दिग्विजय सिंह जैसे समझदार नेता नीतीश कुमार से एनडीए छोड़कर कांग्रेस और महागठबंधन का दामन थामने का आह्वान करते हैं। संघ और समाजवाद के बीच तनी हुई रस्सी पर नीतीश ने बहुत दिनों तक कलाबाजी कर ली। अब भाजपा उन्हें शीर्षासन करा रही है। उन्हीं के साथ भाजपा समाजवादी विचार को भी शीर्षासन कराना चाहती है। अब यह उस विचार की ताकत है कि वह इस दबाव को झटक कर सीधे खड़ा हो सकता है या नहीं?
समाजवाद अपने बल पर तभी खड़ा हो सकता है जब वह विश्वसनीय आर्थिक विमर्श विकसित करे। ऐसा विमर्श जो यह भरोसा दिला सके कि पूंजीवादी आर्थिक योजना के बाहर भी एक आर्थिक ढांचा बनाया जा सकता है और वहां लोगों को समता और समृद्धि हासिल हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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