मैरिटल रेप को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट सख्त, क्या अब ख़त्म होगा महिलाओं का संघर्ष?
मैरिटल रेप को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट की टिप्पणी सुर्खियों में है। अदालत ने इसे अपराध माने जाने को लेकर दाख़िल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि वैवाहिक दुष्कर्म के मामले में प्रथम दृष्टया सजा मिलनी चाहिए और इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने ये बात तब कही हैं जब भारत में मैरिटल रेप कानूनी रूप से अपराध नहीं है और इसलिए आईपीसी की किसी धारा में न तो इसकी परिभाषा है और न ही इसके लिए किसी तरह की सज़ा का प्रावधान है।
आपको बता दें कि मैरिटल रेप पर केन्द्र सरकार कानून बनाए, इस मांग को लेकर पिछले कई सालों से महिलावादी संगठनों-कार्यकर्ताओं का सड़क से लेकर कोर्ट तक लंबा संघर्ष जारी है। ऐसे समय में दिल्ली हाईकोर्ट का ये फैसला आंखें खोलने वाला है, खासकर उन लोगों के लिए जो हिंदू विवाह अधिनियम की दुहाई देते हैं।
क्या है पूरा मामला?
अख़बार हिन्दुस्तान की एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार, 11 जनवरी को गैर सरकारी संगठन आरआईटी फांउडेशन और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन द्वारा दाखिल की गईं ययाचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि विवाहिता हो या नहीं, हर महिला को असहमति से बनाए जाने वाले यौन संबंध को न कहने का हक़ है। याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा 375 की संवैधानिकता को यह कहते हुए चुनौती दी है कि यह विवाहित महिलाओं के साथ उनके पतियों द्वारा किए गए यौन उत्पीड़न के मामले में भेदभाव करती है।
रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि 'महज इसलिए कि विवाहित महिलाओं के पास किसी भी उत्पीड़न के खिलाफ कानून में विभिन्न दिवानी और आपराधिक विकल्प मौजूद हैं, यह वैवाहिक दुष्कर्म को गंभीरता से नहीं लेने या इसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकता है।'
सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि महत्वपूर्ण बात यह है कि एक महिला, महिला ही होती है और उसे किसी संबंध में अलग तरीके से नहीं तौला जा सकता। न्यायालय ने सरकार से सवाल किया कि एक विवाहित महिला की गरिमा अविवाहित महिला की तुलना में कैसे अलग है।
उच्च न्यायालय ने कहा, "यह कहना कि, अगर किसी महिला के साथ उसका पति जबरन यौन संबंध बनाता है तो वह महिला भारतीय दंड संहिता की धारा 375 (बलात्कार) का सहारा नहीं ले सकती और उसे अन्य फौजदारी या दीवानी कानून का सहारा लेना पड़ेगा, ठीक नहीं है।"
जस्टिस राजीव शकधर और जस्टिस सी. हरि शंकर की पीठ ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के तहत पति पर अभियोजन चलाने से छूट ने एक दीवार खड़ी कर दी है और अदालत को यह देखना होगा कि यह दीवार संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन की रक्षा) का उल्लंघन करती है या नहीं।
बता दें कि गैर सरकारी संगठनों ने आईपीसी की धारा 375 की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी है कि यह विवाहित महिलाओं के साथ उनके पतियों द्वारा किए गए यौन उत्पीड़न के मामले में भेदभाव करती है।
बलात्कार का कोई भी कृत्य दंडनीय लेकिन वैवाहिक और गैर-वैवाहिक संबंध में अंतर
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक इससे पहले सोमवार को एक याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता करुणा नंदी ने यह तर्क भी दिया था कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानना विवाहित महिलाओं के सम्मान, व्यक्तिगत और यौन स्वायत्तता और आत्म-अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करता है।
तब कोर्ट ने कहा था कि जहां महिलाओं के यौन स्वायत्तता के अधिकार के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है और बलात्कार के किसी भी कृत्य को दंडित किया जाना चाहिए, लेकिन वहीं गुणों के आधार पर वैवाहिक और गैर-वैवाहिक संबंध के बीच अंतर होता है क्योंकि वैवाहिक संबंध में जीवनसाथी से उचित यौन संबंध की अपेक्षा रखने का कानूनी अधिकार होता है। यही कारण है आपराधिक क़ानून में वैवाहिक बलात्कार को जगह नहीं दी गई है।
जस्टिस सी. हरि शंकर ने सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से कहा कि गैर-वैवाहिक संबंध और वैवाहिक संबंध को समान दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। जस्टिस हरिशंकर ने कहा, "एक लड़का और लड़की चाहे कितने ही करीब हों, किसी को भी यौन संबंध बनाने की उम्मीद करने का अधिकार नहीं है। प्रत्येक को यह कहने का पूर्ण अधिकार है कि मैं तुम्हारे साथ यौन संबंध नहीं बनाऊंगा/बनाऊंगी, लेकिन अपने स्वभाव और गुणों के कारण वैवाहिक संबंध इससे अलग होेते हैं।"
अदालत ने सवाल किया कि शादीशुदा जोड़े को बलात्कार के अपराध से दी गई छूट क्यों कई वर्षों तक क़ानून में बनी रही, जबकि बदले हुए हालात इसके विपरीत थे। साथ ही अदालत ने टिप्पणी की कि इसका एक संभव कारण भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का व्यापक दायरा था जिसमें हर तरह के अनिच्छुक यौन संबंधों को बलात्कार माना गया था।
जस्टिस शंकर ने इस बात पर भी जोर दिया कि बलात्कार का अपराध दंडनीय है और इसके लिए 10 साल की सजा का प्रावधान है। उन्होंने कहा कि वैवाहिक बलात्कार के मामले में मिली छूट को हटाने के मुद्दे पर ‘गंभीरता से विचार’ करने की जरूरत है।
क्या है रेप और मैरिटल रेप की कहानी?
आईपीसी की धारा 375 के मुताबिक़, कोई व्यक्ति अगर किसी महिला के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध, मर्ज़ी के बिना, मर्ज़ी से, लेकिन ये सहमति उसे मौत या नुक़सान पहुंचाने या उसके किसी क़रीबी व्यक्ति के साथ ऐसा करने का डर दिखाकर हासिल की गई हो या फिर मर्ज़ी से, लेकिन ये सहमति देते वक़्त महिला की मानसिक स्थिति ठीक नहीं हो या फिर उस पर किसी नशीले पदार्थ का प्रभाव हो और लड़की सहमति देने के नतीजों को समझने की स्थिति में न हो और फिर भी यौन संभोग करता है तो कहा जाएगा कि रेप किया गया।
हालांकि इसमें एक अपवाद भी है। 11 अक्टूबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 18 वर्ष से कम उम्र की पत्नी से शारीरिक संबंध बनाना अपराध है और इसे रेप माना जा सकता है। कोर्ट के अनुसार, नाबालिग पत्नी एक साल के अंदर शिकायत दर्ज करा सकती है।
इस क़ानून में शादीशुदा महिला (18 साल से ज्यादा उम्र) के साथ उसका पति ऐसा करे तो उसे क्या माना जाएगा, इस पर स्थिति साफ नहीं है। इसलिए मैरिटल रेप पर बहस हो रही है।
सरकार का मैरिटल रेप को लेकर ढीला रवैया!
गौरतलब है कि ट्रिपल तलाक जैसे मुद्दे पर अपनी वाहवाही करने वाली केंद्र की मोदी सरकार शुरुआत से ही मैरिटल रेप के मामले में ढीला रवैया अपनाए हुए है। केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में 'मैरिटल रेप' को 'अपराध करार देने के लिए दायर की गई याचिका के जवाब में 2017 में कहा कि इससे 'विवाह की संस्था अस्थिर' हो सकती है।
दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा था, "मैरिटल रेप को अपराध नहीं क़रार दिया जा सकता है और ऐसा करने से विवाह की संस्था अस्थिर हो सकती है। पतियों को सताने के लिए ये एक आसान औज़ार हो सकता है।"
तब की महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने 2016 में मैरिटल रेप पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "भले ही पश्चिमी देशों में मैरिटल रेप की अवधारणा प्रचलित हो, लेकिन भारत में ग़रीबी, शिक्षा के स्तर और धार्मिक मान्यताओं के कारण शादीशुदा रेप की अवधारणा फ़िट नहीं बैठती।"
कई लोग इस मामले में हिंदू विवाह अधिनियम की दुहाई भी देते हैं। जो पति और पत्नी के लिए एक-दूसरे के प्रति कुछ ज़िम्मेदारियां तय करता है और सहवास का अधिकार देता है। क़ानूनन ये माना गया है कि सेक्स के लिए इनकार करना क्रूरता है और इस आधार पर तलाक मांगा जा सकता है।
जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी मैरिटल रेप के लिए की थी अलग से क़ानून बनाने की मांग
एक तरफ रेप का क़ानून है और दूसरी तरफ़ हिंदू मैरेज एक्ट– दोनों में परस्पर विरोधी बातें लिखी है, जिसकी वजह से 'मैरिटल रेप' को लेकर संशय की स्थिति बनी है। मैरिटल रेप में अक्सर महिलाएं घरेलू हिंसा क़ानून का सहारा लेती हैं, जो उनका पक्ष को मज़बूत करने के बजाय कमज़ोर करता है। इसके तहत दोषी पाए जाने पर पति को अधिकतम तीन साल की सज़ा या जुर्माना और सुरक्षा जैसे मदद के प्रावधान हैं, जबकि बलात्कार के क़ानून में अधिकतम उम्र क़ैद और जघन्य हिंसा होने पर मौत की सज़ा का प्रावधान है।
गौरतलब है कि निर्भया रेप मामले के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी मैरिटल रेप के लिए अलग से क़ानून बनाने की मांग की थी। उनकी दलील थी कि शादी के बाद सेक्स में भी सहमति और असहमित को परिभाषित करना चाहिए। मैरिटल रेप पर अब तक कई जनहित याचिकाएं कोर्ट में दाखिल हो चुकी हैं। कई बार महिलाओं की आपबीती सुनकर खुद कोर्ट ने सख्त टिप्पणियां की हैं, लेकिन अभी तक इस पर कोई अलग से कानून नहीं बन पाया है। शायद आपको याद हो कि दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान एक्टिंग चीफ़ जस्टिस गीता मित्तल और सी हरि शंकर की बेंच ने कहा था कि शादी का ये मतलब बिल्कुल नहीं की पत्नी सेक्स के लिए हमेशा तैयार बैठी है।
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