आपदाएं हमारे काम करने के तरीक़े से जन्म लेती हैं : मानसून त्रासदी पर विशेषज्ञों की राय
कुल्लू: गुरुवार, 13 जुलाई, 2023 को कुल्लू जिले में हाल ही में बादल फटने से आई बाढ़ के बाद मलबे के बीच एक क्षतिग्रस्त वाहन। (पीटीआई फोटो)
हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बरसात के मौसम के दौरान इस साल की तबाही सड़क चौड़ीकरण, बांध निर्माण और अन्य खराब गतिविधियों जिसमें तेजी से की जा रही निर्माण गतिविधियां शामिल हैं, के कारण हुई है, जिससे पहाड़ी ढलान कमजोर हो गए हैं और बड़े भूस्खलन हुए हैं। बढ़ते तापमान के कारण मूसलाधार बारिश से समस्याएँ और भी बढ़ गईं हैं।
इन दोनों पहाड़ी राज्यों में आपदा की भयावहताअभूतपूर्व है। सड़कें धंसने या भूस्खलन होने से कालका और शिमला, कुल्लू और मनाली, चंडीगढ़ और मनाली, मनाली और लेह, देहरादून और हरिद्वार आदि के बीच महत्वपूर्ण सड़क संपर्क बाधित हो गए हैं। अकेले उत्तराखंड में कुल 170 रूट बंद करने पड़े हैं।
पुल बह गए हैं और जम्मू-कश्मीर में निर्माणाधीन रामबन सुरंग फिर से अवरुद्ध हो गई है, जिसमें कई मजदूर फंस गए हैं। पिछले साल भी इस सुरंग का एक बड़ा हिस्सा ढह गया था, जिससे कई श्रमिकों की मौत हो गई थी।
नंदा देवी बायोस्फीयर में मुनस्यारी के आसपास के गांवों से और भी अधिक चिंताजनक खबरें मिल रही हैं, जिनके स्थानीय लोगों ने सोशल मीडिया पर बताया कि बैगिनी ग्लेशियर फट गया है। उन्हें संदेह है कि जुन्ना नाला में भारी मात्रा में पानी बहने के कारण ऐसा हुआ है। इस तरह की घटना की अभी तक कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है।
सरकारी सूत्रों का दावा है कि बारिश कम होने के बाद वैज्ञानिकों की एक टीम इस बात की पुष्टि करेगी कि क्या ऐसा हुआ था।
स्थानीय लोगों के अनुसार, सड़क निर्माण में तेजी ने भारत-चीन सीमा के पास मुनस्यारी ग्लेशियर को अस्थिर कर दिया है। उनका दावा है कि बैगिनी ग्लेशियर पर ट्रैकिंग करने वाले पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है, जो बेतरतीब निर्माण में योगदान दे रही है।
भूविज्ञानी डॉ. सीपी राजेंद्रन ने बार-बार चेतावनी दी थी कि हिमालय इलाके में बाढ़ बार-बार आने वाली घटना बन गई है। वे नदियों के पास के गांवों और कस्बों में भारी तबाही ला रही हैं, जैसा कि 2013 की बाढ़ के दौरान देखा गया था, जिसने केदारनाथ, गौरीकुंड और इस इलाके के अन्य गांवों को नष्ट कर दिया था।
डॉ. राजेंद्रन कहते हैं कि, “सरकारी प्रोत्साहन और इस प्रवाह को बढ़ाने के लिए तेजी से बुनियादी ढांचे के निर्माण के साथ, पहाड़ियों में वाणिज्यिक पर्यटन के कारण पर्यटकों की संख्या में वृद्धि ने सूक्ष्म-पर्यावरणीय स्थितियों को प्रभावित किया है। इस इलाके को पहले से ही जंगल की आग, वनों की कटाई, जल स्रोतों की हानि और मिट्टी के नुकसान से जूझना पड़ रहा है। यह स्पष्ट था कि वे अब हम अनियमित मानवजनित गतिविधि का खामियाजा नहीं भुगत सकते हैं।''
सरकार इस दृष्टिकोण पर विचार करने को भी तैयार नहीं है। पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक, पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक डॉ. रवि चोपड़ा को उम्मीद थी कि जब उन्हें चार धाम सड़क के निर्माण की देखरेख के लिए सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकार प्राप्त समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तो वह और उनकी टीम हिमालय की रक्षा में योगदान देगी।
अपनी नई भूमिका के दो महीने के भीतर ही, चोपड़ा को एहसास हो गया कि सरकारी मशीनरी, जिसमें भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) और सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय और उनके नौकरशाह, इंजीनियर और ठेकेदार शामिल हैं, उनके सुझावों में दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। पीछे मुड़कर देखें तो, अगर सरकार ने विशेषज्ञों की बात सुनी होती तो शायद आपदा का स्तर कम हो गया होता।
डॉ. चोपड़ा कहते हैं कि, “हिमालयी इलाका भूवैज्ञानिक, भूकंपीय और पारिस्थितिक रूप से बहुत संवेदनशील है। किसी भी बुनियादी ढांचे के विकास की गतिविधि को भूविज्ञान, भूकंपीय स्थितियों और इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी द्वारा लगाई गई बाधाओं का सम्मान करना चाहिए।
उनका कहना है कि, “जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली चरम घटनाओं ने मौजूदा खतरों में एक नया आयाम जोड़ दिया है। मौजूदा बुनियादी ढांचा परियोजनाएं इन बाधाओं को नजरअंदाज करती हैं। दुख की बात है कि स्थानीय पारिस्थितिकी और लोग डेवलपर्स की उदासीनता और घमंड की कीमत चुका रहे हैं।''
सोनी कहते हैं कि, उत्तर भारत की नदी प्रणालियों का बारीकी से अध्ययन करने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी डॉ. विक्रम सोनी ने बाढ़ के मैदानों पर निर्माण पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की जरूरत पर बार-बार जोर दिया है। “सतलुज और ब्यास ने इतना कहर बरपाया है क्योंकि उनके बाढ़ के मैदानों पर अंधाधुंध निर्माण की अनुमति दी गई थी। मानसून के दौरान, जब नदी का प्रवाह बढ़ जाता है, तो उसका वेग भी बढ़ जाता है। सड़क निर्माण के दौरान मलबा और अन्य गंदगी फेंके जाने से स्थिति और खराब हो गई है।''
उनका मानना है कि मौसम का मिजाज बदल गया है और वेस्टर्न डिसटरबेन्स को पश्चिम से आने वाला मानसून कहा जाना चाहिए। इसी घटना के कारण पिछले साल पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर बाढ़ आई थी। उनका कहना है कि पाकिस्तान, चीन और भारत तक फैले काराकोरम ग्लेशियरों का विस्तार हो रहा है जबकि हिमालय के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। सोनी कहते हैं, ''पानी कहीं से तो आना ही है, और यह वेस्टर्न डिसटरबेन्स के कारण बढ़ी बारिश से है।''
पुरस्कार विजेता वास्तुकार गौतम भाटिया का कहना है कि चीन ने भी पिछले कुछ वर्षों में अभूतपूर्व बाढ़ का सामना करना पड़ा है। भाटिया कहते हैं, ''चीन की नदियों की तुलना में हमारी नदियाँ छोटी धाराएँ वाली हैं, लेकिन हमारी समस्या दोषपूर्ण पर्यावरणीय मंजूरी और खराब इंजीनियरिंग डिज़ाइन की है।''
उनका कहना है कि, ''चार धाम सड़क परियोजना को कभी भी मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए थी। हिमाचल प्रदेश को पार करने वाले ऐसे कई चार-लेन राजमार्गों का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए था क्योंकि वे पानी के विशाल तट बना रहे हैं जिनमें पानी इकट्ठा होता है। सरकार पुराने पुलों को बदलने के लिए आर्मी इंजीनियरिंग कोर का इस्तेमाल करती है, लेकिन नए पुल उसी डिज़ाइन पर आधारित होते हैं, जबकि आज परिस्थितियाँ बहुत अलग हैं। यातायात का बोझ बढ़ गया है, न ही बढ़ती पर्यावरणीय चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए डिज़ाइन पर काम किया गया है।''
भाटिया कहते हैं कि समस्या यह है कि चुनाव भारत में योजना का एजेंडा तय करते हैं। “पिछले 15 या 20 वर्षों में, भारतीय शहर और परिदृश्य नष्ट हो गए हैं, राजमार्गों के दोनों तरफ दुकानों से बड़े बाज़ार बन गए हैं जो फास्ट-ट्रैक सड़कों के उद्देश्य को विफल करते हैं। दुनिया में कहीं भी ऐसी प्रथाओं की अनुमति नहीं दी जाती है।''
भारत के निर्माण के पैमाने की चीन से तुलना करते हुए वे कहते हैं, ''चीनी बुनियादी ढांचा भारत से दस गुना बड़ा है, लेकिन वे पारिस्थितिक मानकों का पालन करते हैं। भारत में, केंद्र सरकार तय करती है कि क्या करना है, और राज्यों को उसके दिशानिर्देशों का पालन करना पड़ता है। यहां सड़कें बनाने का पूरा उद्देश्य भारी रिश्वत कमाना है- हमारी आपदाएं हमारे काम करने के तरीके से पैदा होती हैं।''
उदाहरण के लिए, वे कहते हैं, भारत अभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका के राजमार्ग निर्माण की होड़ में लगा हुआ है, एक मॉडल जो उसने 20वीं सदी में अपनाया था, और जबकि दुनिया का ध्यान रेल यात्रा और शिपिंग लेन के निर्माण पर केंद्रित हो गया है, भारत समय के साथ नहीं चल पा रहा है।
आर्किटेक्ट संदीप कुमार, जो प्लुरल डिज़ाइन कंसल्टेंट्स चलाते हैं, इस बात से भयभीत हैं कि सरकार हिमालय में पारिस्थितिक रूप से अस्वस्थ निर्माण की अनुमति कैसे दे सकती है। “यह एक युवा पर्वत श्रृंखला है जो अभी पक्की नहीं हुई है। जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ भ्रष्ट आचरण ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां भविष्य में चीजें और खराब हो सकती हैं।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीनू पॉल ने बार-बार चेतावनी दी है कि हिमालय की तलहटी में बसे शहर, जैसे कि हलद्वानी, ऋषिकेष, हरिद्वार, परवाणू, चंडीगढ़ और मोहाली में पिछले सप्ताह जैसी भारी बाढ़ कभी नहीं देखी गई है।
पॉल कहते हैं कि, “तलहटी घाटियों और पहाड़ियों की प्राकृतिक जल निकासी का जरिया हुआ करती थीं। जब तलहटी में बसे इन शहरों के नालों, जलधाराओं और झरनों पर अतिक्रमण अनियंत्रित हो गया, तो जलमार्ग खुद ही अवरुद्ध हो आगे। भारी बारिश के दौरान पानी को निकालने की जरुरत होती है, लेकिन चूंकि पानी को निकालने का जब कोई रास्ता ही नहीं है, तो बाढ़ आ जाती है।''
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने बार-बार चेतावनी दी है कि उत्तराखंड का 51 प्रतिशत हिस्सा "बहुत उच्च संवेदनशीलता क्षेत्र" है। इसलिए भूस्खलन बढ़ेगा, साथ ही बाढ़ भी बढ़ेगी। इन वैज्ञानिकों ने 2023 में उत्तराखंड के 300 से अधिक भूस्खलन घटनाओं का दस्तावेजीकरण किया है। ऐसी स्थिति में, शमन उपाय भी काम नहीं करेंगे।
राजेंद्रन इस बात से सहमत हैं: “स्थायी विकास के लिए सरकारों को कई सिफारिशें दी गईं, लेकिन सभी को नजरअंदाज कर दिया गया। सरकार को अब इन सुझावों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, ताकि कुछ सुधार हो सके। यदि हम हमेशा की तरह व्यवसाय का रुख अपनाते हैं, तो आने वाले वर्षों में बाढ़ की गंभीरता बढ़ने की संभावना है।''
डॉ. चोपड़ा के अनुसार, ऐसी गंभीर स्थिति को "केवल एक हद तक" उलटा जा सकता है। वे कहते हैं कि, "ढलानों को सुरक्षित बनाया जा सकता है, लेकिन जो मिट्टी बह गई है, उसे वापस नहीं लाया जा सकता है और नंगी चट्टानों पर वनस्पति नहीं उगती है।"
लेकिन क्या वर्तमान सरकार इससे बहुत कम सबक लेना चाहती है? अफसोस की बात है कि महज एक हफ्ते में लाखों करोड़ रुपये की संपत्ति बह जाने और 75 लोगों की मौत के बावजूद, सरकार की नव-उदारवादी नीतियां पर्यावरण और लोगों के जान-माल के साथ खेलती रहेंगी।
सरकार संसद के मानसून सत्र में वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन कर लाखों हेक्टेयर हरित क्षेत्र, जिसे वन माना जाता है, को आरक्षित करना चाहती है। यह केवल पर्यावरण और नागरिकों की आजीविका के प्रति प्रतिबद्धता की कमी को दर्शाता है। जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए वन महत्वपूर्ण हैं। अफसोस की बात है कि उनमें से जो भी थोड़ा-बहुत बचा है, उस पर कुल्हाड़ी का खतरा मंडरा रहा है। पहाड़ी राज्यों के लोगों का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।
लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
Disasters Built Into how we Work, Say Experts on Monsoon Tragedy in Hill States
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