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लॉकडाउन से कामगारों के भविष्य तबाह, ज़िंदा रहने के लिए ख़र्च कर रहे हैं अपनी जमापूंजी 

पिछले चार महीनों में कमाई और नौकरियां नहीं रहने के चलते 80 लाख से ज़्यादा कामगारों ने अपने भविष्य निधि खातों से पैसा निकाल लिया है।
EPFO
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: द हिंदू

इस साल अप्रैल से लेकर जुलाई के बीच तक कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) से 30,000 करोड़ रुपये निकाले जा चुके हैं। ईपीएफ़ओ में श्रमिकों की बचत के 10 लाख करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि है और इस राशि का प्रबंधन ईपीएफ़ओ करता है। यह खुलासा ईपीएफओ के एक अनाम अधिकारी के हवाले से करते हुए एक प्रमुख वित्तीय समाचार पत्र में छपी हालिया रिपोर्ट में कहा गया, "अप्रैल और जुलाई के तीसरे सप्ताह के बीच निकाली गयी यह राशि आम तौर पर इसी अवधि के दौरान निकाले जाने वाली सामान्य राशि के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा है, और यह बात महामारी के चलते नौकरी चले जाने, वेतन में कटौती होने और इलाज पर होने वाले पर्याप्त ख़र्च को स्पष्ट करती है।” ऐसा अनुमान है कि पैसों के निकाले जाने का यह सिलसिला अभी जारी रहेगा और इस महीने के आख़िर तक एक करोड़ लोग अपनी सेवानिवृत्ति बचत निकाल चुके होंगे।

कामगारों की सुरक्षा देने में सरकार नाकाम

राम सेवक पाल उत्तरी पश्चिम दिल्ली के एक मझोले आकार के ऑटो पार्ट्स निर्माण इकाई में एक ख़राद मशीन ऑपरेटर के रूप में काम करते थे। बिहार के छपरा ज़िले के रहने वाले राम सेवक अपनी तनख़्वाह का आधा हिस्सा नियमित रूप से घर भेजते थे, जहां उनके बुज़ुर्ग माता-पिता और दो छोटी बहनें गांव में रहते हैं। उनके पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा है और राम सेवक की तरफ़ से हर महीने भेजी जानी वाली उस रक़म के सहारे ही राम सेवक के परिजन अपना जीवन यापन कर रहे थे। लॉकडाउन के बाद बाक़ी 150 श्रमिकों के साथ उन्हें भी काम पर आने से मना कर दिया गया। महीना ख़त्म हो रहा था, और वह अपने माता-पिता और बहनों के बारे में सोचकर घर वापस होना चाहते थे।

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “मैंने 6% मासिक ब्याज़ पर एक स्थानीय मनी लेंडर से 10,000 रुपये उधार लिये थे। मेरे दोस्तों ने सलाह दी थी कि मैं उसे चुकाने के लिए अपने पीएफ़ खाते से पैसे निकालने के लिए दरख़्वास्त दे सकता हूं। फिर, मैंने ऐसा ही किया।”

अपने भविष्य के लिए बचायी गयी इस रक़म के इस्तेमाल को लेकर उनके मन में दूसरा विचार तक नहीं आया। उनका कहना था,"अगर मेरे माता-पिता और बहनें आज भूखे हैं, तो भविष्य के लिए इन पैसों को बचाने का क्या मतलब।"

राम सेवक और उनके जैसे जिन लोगों से न्यूज़क्लिक ने बात की, वे सभी इस बात से सहमत थे कि सरकार ने अपनी "घोषणा" को अगर इस सख़्ती से लागू किया होता कि कारखाने के मालिकों की तरफ़ से मज़दूरी का भुगतान बंद नहीं किया जाये या किसी को भी उनकी नौकरी से बाहर नहीं किया जाय, तो चीज़ें अलग होतीं। एक अन्य कर्मचारी रवि कुमार, जो हर महीने उधार लेकर और बहुत कम ख़र्च में किसी तरह दो महीने के लंबे लॉकडाउन काटे, उनका कहना है, "सरकार के पास इतना साहस नहीं था कि वह नियोक्ताओं को भुगतान करने के लिए मजबूर कर सके, इसीलिए, हमें अपने भविष्य के लिए बचाये गये पैसे जैसे-तैसे ख़र्च करने पर मजबूर होना पड़ा।"

इस साल निकाली गयी सबसे ज़्यादा रक़म

ईपीएफ़ओ निकासी डेटा से पता चलता है कि तक़रीबन 80 लाख श्रमिकों ने 30,000 करोड़ रुपये की राशि निकाल ली है। यह रक़म औसतन क़रीब 37,500 रुपये प्रति श्रमिक है। हालांकि यह कोई बहुत बड़ी राशि तो नहीं है, लेकिन छपरा में दो महीने तक जीवित रहने के लिए चार से ज़्यादा लोगों वाले परिवार के लिए और दिल्ली में सूदख़ोरों को उधार पैसे चुकाने के लिहाज से यह रक़म बहुत बड़ी है।

पिछले पूरे वित्तीय वर्ष (2019-20) में ईपीएफ़ओ ने 150 लाख कामगारों / कर्मचारियों को 72,000 करोड़ रुपये का भुगतान किया था, जो सरकार की तरफ़ से चलाये जाने वाले इस संगठन में अपनी सेवानिवृत्ति की बचत को जमा किये हुए थे। साफ़ है कि इस वर्ष की यह निकासी ग़ैर-मामूली तौर पर ज़्यादा है और बेशक ऐसा लॉकडाउन के चलते लाखों श्रमिकों को हुए आय के नुकसान की वजह से हुआ है।

अपने आप में यह हैरतअंगेज बात है कि ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार इस तरह की संभावना की परिकल्पना पहले ही कर चुकी थी, और वास्तव में इस प्रवृत्ति को सक्रिय रूप से इसे प्रोत्साहित भी कर रही थी। ऐसा इस आधार पर कहा जा सकता है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लॉकडाउन घोषित होने के तुरंत बाद मार्च में घोषणा कर दी थी कि ईपीएफओ ग्राहक अपने ईपीएफ खातों से अपनी जमापूंजी का 75% या तीन महीने की राशि या तीन महीने की पगार, इन दोनों में से जो भी सबसे कम हों, उसे निकाल सकते हैं। इस छूट को उन कामगारों की परेशानियों को कम करने वाली एक बड़ी रियायत के रूप में दिखाया गया था, जिन्होंने अपनी कमाई और नौकरी गंवा दी थी।

जैसा कि रवि कुमार ने कहा है कि इससे बचा जा सकता था, अगर सरकार यह सुनिश्चित कर देती कि मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान उनकी मज़दूरी मिलती रहे। लेकिन, ऐसा लगता है कि सरकार के पास इसकी कोई योजना ही नहीं थी। इसके बजाय, सरकार चाहती था कि कामगार इस दरम्यान ख़ुद की बचत से अपना जीवन यापन करें।

भारत में सबसे बड़े ट्रेड यूनियनों में से एक, सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (CITU) के महासचिव तपन सेन कहते हैं, "24 मार्च को लगाये गये अनियोजित और कुप्रबंधित लॉकडाउन, और सरकार की तरफ़ से श्रमिकों की कमाई को बचाने से इनकार करने के चलते ही कामगारों को इन हालात से गुज़रना पड़ रहा है। श्रमिक आज ज़िंदा रहने के लिए अपने कल को गिरवी रख रहे हैं।"

घटती घरेलू बचत 

भारतीय रिज़र्व बैंक के हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि 31 मार्च, 2020 से 3 जुलाई, 2020 के बीच विभिन्न चरणों में लॉकडाउन के लागू होने वाली अवधि और उसके बाद दी जाने वली ढील के दौरान बैंकों के डिमांड डिपॉजिट में 6% से ज़्यादा की गिरावट आयी है, ऐसा इसलिए हुआ है,क्योंकि खाताधारकों ने लॉकडाउन के दौरान रोज़-ब-रोज़ के ख़र्चों को पूरा करने के लिए अपनी बचत के पैसे निकालने शुरू कर दिये। दूसरी ओर, इसी अवधि में जनता के पास जो पैसे हैं, उसमें क़रीब 10% की बढ़ोत्तरी हुई है। यह इस बात को फिर साबित करता है कि आम लोग, जो बिना नौकरी और कमाई वाले थे, उन्होंने मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए अपनी बचत का इस्तेमाल कर रहे हैं।

इस वर्ष जून में जारी आरबीआई बुलेटिन का हिस्सा रही एक विशेष रिपोर्ट में शामिल घरेलू बचत और देनदारियों के विश्लेषण से पता चला है कि सकल वित्तीय संपत्ति (बैंक जमा, एलआईसी पॉलिसी, निवेश आदि) 2018-19 में जीडीपी के 11.1% से घटकर 2019-20 में जीडीपी का 10.6% रह गयी है। चूंकि घरेलू बचत भारतीय अर्थव्यवस्था में सकल बचत का लगभग 60% है, और इस प्रकार, यह बचत "सकल निवेश के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता" है। इसलिए, आरबीआई इस गिरावट की प्रवृत्ति को चिंता पैदा करने वाले कारक की तरह देख रहा है। यह प्रवृत्ति उस घातक मंदी के कारण रही है, जिसने पिछले साल से भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी चपेट में लिए हुआ है, इसी कारण से परिवारों ने अपने उपभोग में कटौती की और जीवित रहने के लिए अपनी बचत का इस्तेमाल किया।

सेन ने उसी व्यापक परेशानी की ओर ध्यान दिलाया है, जिसे लॉकडाउन के लगाये जाने की वजह से देश के लोगों झेलना पड़ रहा है था। लॉकडाउन लगाते हुए लोगों की आर्थिक स्थिति की अनदेखी की गयी थी, जिससे कि 80% लोगों की कमाई पर चपत लग गयी।

सेन नाराज़गी के साथ सवाल करते हैं, “ईपीएफ़ओ के चार करोड़ ग्राहक हैं। इन ग्राहकों के पास आख़िरी विकल्प के रूप में उनकी यही बचत थी। मगर, सवाल है कि भारत के श्रमबल के उन 35-40 करोड़ अन्य श्रमिकों का क्या होगा, जिनके पास भविष्य निधि या कोई सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है ? क्या आप उनके बारे में सोच सकते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी कैसे बचायी होगी ? " 

अर्थव्यवस्था को गहरे रसातल में ले जाने वाले इस महामारी और इसके कुप्रबंधन ने भारत के आम लोगों की बड़ी संख्या को ग़रीबी के हवाले कर दिया है और ग़रीबी की इस प्रक्रिया में तेज़ी आ रही है। भविष्य निधि बचत और बैंक में जमाराशि का इस्तेमाल तो इसका एक लक्षण भर है।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

Lockdown Destroys Future as Workers Use Retirement Savings to Survive

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