EXCLUSIVE: "बनारसी साड़ी कारोबार को निगलने बनारस आ गए कॉरपोरेट घराने"
बनारस अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब और बनारसी साड़ी के लिए दुनिया भर में मशहूर है। आरोप है कि बनारसी साड़ी बुनने वाले ‘फनकारों’ की विरासत छीनने के लिए देश के बड़े पूंजीपति मैदान में उतर गए हैं। पेश है हमारी EXCLUSIVE रिपोर्ट :
बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है और यहां डबल इंजन की सरकार भी। पूंजीवादी नीतियों के चलते हथकरघा और पावरलूम के कारखाने आम बुनकरों के हाथों से छिनने लगे हैं। यह स्थिति तब है जब बनारस की एक तिहाई आबादी की आजीविका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से बनारसी साड़ी के कारोबार पर टिकी है। आर्थिक संकट से जूझ रहे बुनकरों की विरासत को बचाने की चिंता न सरकार को है, न ही इनकी तंजीमों को।
आरोप है कि बनारस के पारंपरिक साड़ी कारोबार पर कब्ज़ा करने के लिए देश के बड़े कारोबारी टाटा की टाइटेन कंपनी लिमिटेड ने अब यहां बड़े पैमाने पर बुनकरी का धंधा शुरू कर दिया है। इस धंधे को नया नाम दिया है ‘वीवरशाला’। पिछले साल बनारस के रामनगर में दो वीवरशालाएं खोली गईं, जिनका अब विस्तार किया जा रहा है। पिछली वीवरशालाओं में जहां बुनकरों की तादाद बढ़ाई जा रही है, वहीं तीसरी वीवरशाला बनारस के जैतपुरा में खोलने की तैयारी है। दो अन्य वीवरशालाएं दक्षिण भारत में और एक अन्य झारखंड में खोली गई है। रामनगर में हथकरघे पर बनने वाली प्योर सिल्क की साड़ियां ‘तनीरा (Taneira)’ ब्रांड के नाम से दुनिया भर में बेची जा रही हैं। इन साड़ियों को बेचने के लिए टाटा की टाइटेन कंपनी ने देश भर में 48 रिटेल आउटलेट भी खोल रखे हैं। कंपनी ने इस साल के आखिर तक क़रीब 100 से अधिक आउटलेट खोलने की योजना बनाई है।
बनारस में अंगिका ब्रांड की साड़ियों को खुद प्रमोद करती हैं अंगिका कुशवाहा
आधुनिक तकनीक से साड़ियों की बुनाई कराने के लिए टाटा की टाइटेन कंपनी ने रामनगर की दो संस्थाओं को अपने साथ जोड़ा है। इनमें एक है अंगिका हथकरघा विकास उद्योग सहकारी समिति लिमिटेड और दूसरी आदर्श सिल्क बुनकर सहकारी समिति लिमिटेड। अंगिका हथकरघा विकास उद्योग सहकारी समिति के संचालक अमरेश कुशवाहा बनारस की उन शख्सियतों में से एक हैं जो पारंपरिक तरीकों से प्योर सिल्क और सोने-चांदी की ज़री से साड़ियों की मैन्युफैक्चरिंग कराते हैं। इनके यहां 'कढ़ुआ' और 'उचन' तकनीक से हथकरघे पर साड़ियां बुनी जाती हैं।
अमरेश कुशवाहा
विलुप्त हो चुकी रंगकाट साड़ियों की मैन्युफैक्चरिंग करने वाले अमरेश कुशवाहा कहते हैं, "अंगिका हथकरघा विकास उद्योग सहकारी समिति, बुनी हुई बनारसी साड़ियों की भव्यता और महिमा को बनाए रखने के लिए उल्लेखनीय प्रयास करती है। हम सोने-चांदी की ज़री से साड़ियां बुनते हैं, जिनकी कीमत एक से तीन लाख रुपये तक होती हैं। डिमांड के मुताबिक, टाटा और अंबानी की कंपनियां हमसे ही साड़ियां खरीदती हैं और तनीरा ब्रांड के आउटलेट पर बेचती हैं।
बनारस के रामनगर में वीवरशाला खोलकर खुद ही साड़ियों की बुनाई कराने वाले तनीरा ब्रांड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अंबुज नारायण बनारस के बुनकरों को बड़ा सब्जबाग दिखा रहे हैं। वह कहते हैं, "हमने भारतीय हाथकरघा समुदायों के शिल्प कौशल में सुधार लाने में मदद की है। वीवरशाला की पहल पारंपरिक कारीगरी को संरक्षित रखने और इनके विकास को बढ़ावा देने में कारगर साबित होगी। हमारी दोनों वीवरशालाओं में बुनकर 20 फीसदी ज़्यादा आउटपुट दे सकेंगे। आने वाले दिनों में हम अपने प्रोजेक्ट को बनारस के बाहर दूसरे शहरों में भी लेकर जाएंगे और बुनकरों का कौशल बढ़ाने में मदद करेंगे। वीवरशालाओं के माध्यम से हम बनारसी बुनाई के उत्पादन को बढ़ावा देना चाहते हैं। इसका मकसद बुनाई तकनीकों का आधुनिकीकरण करना और आने वाली पीढ़ियों के लिए हाथ से बुनाई की पारंपरिक प्रक्रियाओं को संरक्षित करते हुए उत्कृष्टता के लिए बुनकरों के साथ एकजुट होना है। बुनकरों को रोज़ाना 600 से 800 रुपये मेहनताना दिया जा रहा है। हुनरमंद बुनकरों के साथ उन लोगों को भी जोड़ा जा रहा है जो बनारसी साड़ियों की बुनाई का काम छोड़ चुके हैं।"
टाटा की वीवरशाला में बनारसी साड़ियों की बुनाई करते बुनकर
टाइटेन कंपनी लिमिटेड के प्रबंध निदेशक सीके वेंकटरमन भी 'वीवरशाला' को मील का पत्थर बताते हैं और दावा करते हैं, "हम वाराणसी के बुनकर समुदायों की तरक्की व उनके कल्याण के लिए पुख्ता काम करेंगे। टाइटेन कंपनी ने ‘स्वदेशी’ शिल्प को संरक्षित करने और बुनकर समुदाय को सक्षम बनाने के लिए नई पहल शुरू की हैं। हमने ऐसी बुनकरशाला बनाई है जो बुनकरों के लिए बुनियादी ढांचे और कार्यस्थल सुविधाओं के उन्नयन पर ज़ोर देती है और उन्हें हर तरह से सक्षम बनाती है। उन्हें सम्मान के साथ आरामदायक और अच्छी तरह से संरचित वातावरण में काम करने के लिए प्रेरित करती है। बनारस में जल्द ही कई और वीवरशालाएं खोली जाएंगी, ताकि बुनकरों की माली हालत में सुधार हो सके।"
“मुनाफे के मकसद से आए हैं टाटा-अंबानी”
काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव बनारसी साड़ियों के कारोबार के जानकार है। वह कहते हैं, "टाटा की कंपनी टाइटेन के अधिकारी भले ही समाजसेवा, कला और संस्कृति को संरक्षित करने की लोकलुभावन बातें करते हों, लेकिन इनका असल मकसद सिर्फ़ मोटा मुनाफा कूटना होता है। दुनिया भर में साड़ी का कारोबार एक लाख करोड़ रुपये के पार है, जिसमें उत्तर भारत का हिस्सा सिर्फ़ 15 हज़ार करोड़ है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 37 करोड़ भारतीय महिलाएं जिनकी उम्र 25 साल से अधिक है, वे सालाना औसतन 3,500 से 4,000 रुपये साड़ी खरीदने पर खर्च करती हैं। अनुमान है कि साल 2031 तक इन महिलाओं की संख्या 45.5 करोड़ और 2036 तक 49 करोड़ हो सकती है।"
टेक्नोपार्क की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रदीप कहते हैं, "साड़ी उद्योग 25 साल से ज़्यादा उम्र वाली महिलाओं को फोकस में रखकर काम करता है। बनारसी साड़ी और रेशम उत्पादों सहित साड़ी उद्योग का सालाना कारोबार 3000 करोड़ से 5000 करोड़ रुपये के बीच है। वाराणसी इलाके का साड़ी व्यवसाय 2.5 लाख बुनकरों सहित दस लाख से अधिक लोगों के लिए रोज़गार सृजित करता है। साल 2025 तक उत्तर भारत में साड़ी का कारोबार छह फीसदी की दर से बढ़ सकता है। इस रिपोर्ट को ध्यान में रखकर टाटा और अंबानी की कंपनियां बनारसी साड़ी उद्योग के धंधे से मुनाफा कूटने के लिए मैदान में उतर आई हैं।"
अंबानी भी टाटा से पीछे नहीं!
कपड़ों की बिक्री के मामले में अंबानी की कंपनी रिलायंस टाटा से पीछे नहीं हैं। टाइटेन कंपनी लिमिटेड की तर्ज पर मुकेश अंबानी की कंपनी रिलायंस रिटेल लिमिटेड ने बनारस में बनारसी साड़ियों की बुनाई खुद कराने के लिए योजना बनाई है। इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए क़रीब दस एकड़ ज़मीन तलाशी जा रही है। फिलहाल रिलायंस रिटेल लिमिटेड बनारस से साड़ियां खरीद कर ‘स्वदेश’ ब्रांड के नाम से बेच रहा है। बनारसी साड़ी उद्योग और बनारस की हस्तकला को बढ़ावा देने की बात कहते हुए उद्योगपति मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी काफी उत्साहित नज़र आ रही हैं।
नीता अंबानी ने एक अप्रैल 2023 को मुंबई के बांद्रा कुर्ला में एक कल्चरल सेंटर एनएमएससी (Nita Mukesh Ambani Cultural Centre) खोला है। उद्घाटन के मौके पर नीता अंबानी ने टाइटेन कंपनी की तरह ही लुभावनी बातें कहीं। दावा किया कि वह देश की सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करना चाहती हैं, ताकि युवा वर्ग के हुनर को एक नई पहचान मिल सके। नीता-मुकेश अंबानी के कल्चरल सेंटर के धमाकेदार लॉन्च के मौके पर बॉलीवुड, हॉलीवुड और खेल जगत की हस्तियों के अलावा देश के अग्रणी फैशन डिज़ाइनर अबू जानी, संदीप खोसला, अनामिका खन्ना, अनीता डोंगरे, अनुराधा वकील, मनीष अरोड़ा, मनीष मल्होत्रा, राहुल मिश्रा, रितु कुमार, सब्यसाची मुखर्जी, संजय गर्ग, तरुण तहिलियानी भी पहुंचे थे। बताया जा रहा है कि नीता अंबानी ने भी टाटा की तर्ज पर बनारस में बुनकरशाला खोलने की बड़ी योजना तैयार की है।
व्यापारियों की नींद हराम!
भारत में बनारसी साड़ी सबसे ज़्यादा मशहूर है। इसके बाद राजस्थान के कोटा का नाम आता है। मध्य प्रदेश की चंदेरी की शुरुआत 13वीं सदी में हुई थी। साड़ियों की 41 फीसदी बिक्री त्यौहार और शादियों के मौसम में होती है। क़रीब-क़रीब 23 हज़ार 200 करोड़ की साड़ियां इसी सीज़न में बिक जाती हैं। इसी मुनाफे के लिए रिलायंस रिटेल, टाटा समूह और बिरला समूह अलग-अलग ब्रांड के ज़रिए इस सेक्टर में मौजूद हैं। पहले कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के थोक व्यापारी और खुदरा विक्रेता बनारस से साड़ियां खरीदते थे और अपने स्थानीय बाज़ारों में बेचते थे। साड़ी के कारोबार में उतरकर कॉरपोरेट कंपनियों ने स्थानीय खुदरा विक्रेताओं की नींद हराम कर दी है।
बुनकर दस्तकार अधिकार मंच के मुखिया इदरीश अंसारी कहते हैं, "बनारस की तंजीमों को अभी तक यह जानकारी नहीं है कि उनके धंधे में कॉरपोरेट की घुसपैठ हो चुकी है। जिस दिन पता चलेगा, उनके होश फाख्ता हो जाएंगे। बनारसी अलमस्त ज़िंदगी जीने वाले मिडिल क्लास बुनकरों को अब गुलामों की तरह काम करना होगा। बुनकरों की साड़ियों में खामी निकालकर पैसा ऐंठने वाले बेईमान गद्दीदारों के शोषण ने ही कॉरपोरेट घरानों को बनारसी साड़ी कारोबार में घुसपैठ करने का मौका दिया है। बनारस में टाटा और अंबानी की बुनकरशालाएं कुछ ही सालों में गद्दीदारों का खात्मा करने के क़रीब पहुंच जाएंगी।"
सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए इदरीश बताते हैं, "यूपी के 34 जिले हथकरघा बाहुल्य हैं। राज्य में हथकरघा, बुनकरों और बुनकर सहकारी समितियों की संख्या क्रमश: 1.91 लाख, 0.80 लाख और 20,421 है। मऊ, अंबेडकर नगर, वाराणसी, मेरठ, कानपुर, झांसी, इटावा, संतकबीरनगर आदि जिले पावरलूम बाहुल्य हैं। टाटा-अंबानी बनारस के बाद हथकरघा बहुल इलाकों में वीवरशालाएं खोलकर साड़ी कारोबारियों का कारोबार निगल जाएंगे। जब कॉरपोरेट घराने कुटीर उद्योग के क्षेत्र में कूदेंगे तो कलाकार, मज़दूर, बुनकर की आजीविका दांव पर लग जाएगी। बुनकर बंधुआ मज़दूर बन जाएंगे। तब बुनकरों, तंजीमों और गद्दीदारों को कॉरपोरेट के आगे घुटने टेकने पड़ेंगे। कुछ साल और इंतज़ार कीजिए, बनारस का समूचा साड़ी कारोबार अंबानी और टाटा के हाथ में चला जाएगा।"
बनारसी साड़ी कारोबार से जुड़े अक्षय कुशवाहा, इदरीश अंसारी की बातों को हास्यास्पद मानते हैं। कॉरपोरेट घरानों के कामकाज की तारीफ करते हुए वह कहते हैं, "बनारसी फैब्रिक की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धा ज़रूरी है। ज़्यादातर लोग पावरलूम पर नकली साड़ियां बना रहे हैं, जिससे बनारसी साड़ी कारोबार की साख पर बट्टा लग रहा है। बनारस में हर महीने 40 हज़ार टन नकली धागा साड़ियों में खप रहा है। क़रीब दो लाख पावरलूम पर क़रीब तीन लाख बुनकर काम करते हैं, जिनके हाथों से बनी लाखों नकली साड़ियां बाज़ार में पहुंच रही हैं।"
अक्षय कहते हैं, "बनारस में दस लाख से अधिक लोग किसी न किसी रूप में साड़ी कारोबार से जुड़े हैं। जब तक विश्व बाज़ार में बनारसी साड़ियों की डिमांड नहीं होगी, तब तक इस कारोबार से न बुनकरों का भला होगा, न कारोबारियों का। बनारसी साड़ी के धंधे में जब कॉरपोरेट घराने उतरेंगे, तभी बुनकरों का शोषण और उत्पीड़न बंद होगा। कॉरपोरेट कंपनियों ने रामनगर में वीवरशाला खोलने की योजना तभी बनाई जब उन्होंने बाज़ार में गद्दीदारों के शोषण की पुख्ता जानकारी जुटाई। ज़्यादातर गद्दीदार न तो बुनकरों पर ध्यान दे रहे थे और न ही ग्राहकों का। नकली सिल्क की साड़ियां असली बताकर बेची जा रही थीं। कॉरपोरेट घराने जब खुद साड़ियां बुनवाने लगेंगे तो लूट-खसोट करने वाले गद्दीदारों का खेल हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा। बाज़ार में सिर्फ़ वही लोग टिकेंगे जो करघे पर सिर्फ़ असली साड़ियां बुनेंगे।"
बनारस के रामनगर में टाटा की वीवरशाला
छिन सकती है गद्दी
‘बनारस की गद्दी’ कोई शाही गद्दी नहीं है, बल्कि ये उस जगह का नाम है जहां बनारसी साड़ी सबसे पहले बिकने के लिए आती हैं। बनारस में हज़ारों ‘गद्दियां’ हैं और इन पर बैठने वाले ‘गद्दीदार’। बनारसी साड़ियां जुलाहे बुनते हैं, जिनमें अधिकतर मुसलमान हैं और इनके परिवार का दाना-पानी हाथ की कारीगरी से ही चलता है। बनारसी साड़ी को कलाकारों के हाथों से निकल कर बाज़ार और ग्राहक तक पहुंचने के लिए कई हाथों से गुज़रना पड़ता है।
बुनकर, बनारसी साड़ियां लेकर इन इन गद्दीदारों के पास आते हैं और वह मोल-तोल करके उनकी कीमत तय करते हैं। कमीशन पांच-छह फीसदी अथवा इससे ज़्यादा हो सकता है। किस साड़ी को बनने में कितना समय लगा, उसमें ज़री का काम कितना है और किस तरह के धागे का इस्तेमाल हुआ ये ही उस साड़ी की गुणवत्ता और कीमत को तय करता है। गद्दीदार अधिकतर कच्चा माल ही खरीदते हैं और माल बिक जाने के बाद ही उसे अंतिम रूप देते हैं। अंतिम रूप का मतलब साड़ी में धागों की कटाई और फिर पॉलिश है। गद्दी और रिटेल शोरूम में अंतर यही है कि शोरूम में वो साड़ी मिलती है, जिसकी फिनिशिंग हो चुकी होती है। बनारस में बुनकरों और गद्दीदारों का रिश्ता चोली-दामन की तरह रहा है। बनारस के एक गद्दीदार ने न्यूज़क्लिक के लिए यहां तक कहा कि टाटा-अंबानी पहाड़ की मनिंद हैं। वो अपने लिए टैक्स में छूट, ब्याजमुक्त ऋण और करोड़ों की कर्ज़माफ़ी करा सकते हैं। मामूली गद्दीदार इनके आगे भला कहां टिक पाएंगे?
बनारस के साड़ी कारोबार से जुड़ा एक तबका ऐसा भी है जो चाहता है कि कॉरपोरेट घराने मजबूती के साथ यहां आएं और बुनकरों की डूबती नैया को पार लगाएं। इन्हीं में एक हैं अंगिका कुशवाहा। प्योर बनारसी साड़ी कारोबार के क्षेत्र में अंगिका तेज़ी से उभरता एक नाम है। 27 वर्षीया इस महिला फनकार ने एक हज़ार से अधिक बुनकरों को अपने साथ जोड़ा है। रामनगर में गंगा नदी के किनारे क़रीब-क़रीब साढ़े तीन सौ हथकरघों पर सात सौ बुनकर दुर्लभ और अनूठी दस्तकारी वाली साड़ियों की बुनाई करते हैं। अंगिका कहती हैं, "एक दशक पहले तक बनारसी साड़ी के कारोबार में सिर्फ़ इसीलिए मंदी रही क्योंकि सिंथेटिक धागों पर ज़्यादातर नकली साड़ियां ही बुनी जा रही थीं। रिटेलरों ने नकली साड़ियों को प्योर सिल्क बताकर दक्षिण के लोगों को बेचना शुरू कर दिया। नतीजा, बनारसी साड़ियों के कद्रदानों ने बनारस आना ही छोड़ दिया। बनारस में पहले सवा लाख करघे थे और इस समय सिर्फ़ आठ-दस हज़ार बचे हैं।
बनारस के ज़्यादातर बुनकर सूरत, बेंगलुरु और मुंबई चले गए। हैंडलूम की साड़ियां बुनने वाले पावरलूम पर आ गए। इनके पलायन के लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है तो सिर्फ़ बनारसी साड़ियों के गद्दीदार। उन्होंने बुनकरों पर ध्यान नहीं दिया। शोषण की पटकथा लिखते रहे। खुद इमारतें खड़ी करते चले गए और साड़ियां बुनने वाले बुनकरों को कायदे की छत भी नसीब नहीं हो सकी।"
अंगिका यह भी कहती हैं, "तकनीकी उन्नति किसी भी उद्योग के सफलता की कुंजी है। केंद्रीय रेशम बोर्ड, अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड, अखिल भारतीय हथकरघा बोर्ड, वन निगम, राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम, खादी ग्रामोद्योग समेत तमाम संस्थाएं बनारसी साड़ी कारोबार को आगे बढ़ाने में जुटी हैं। काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ रूरल टेक्नोलॉजी (CART) भी एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर थक चुकी है। इस कारोबार को कोई विश्व बाज़ार में नहीं पहुंचा सका। इसकी वजह यह है कि बनारसी साड़ी उद्योग में लगे ज़्यादातर लोगों को नवीनतम तकनीक, औजारों और उत्पादन तकनीकों का पर्याप्त ज्ञान नहीं है। बुनियादी ढांचे की कमी, खराब वित्तीय स्थिति, कम पूंजी और लगातार बिजली कटौती के चलते बनारसी साड़ी उद्योग विश्व बाज़ार में मजबूत ब्रांड नहीं बन पाया है। टाटा की कंपनी टाइटेन जिस तरह से अपनी वीवरशालाओं की ब्रांडिंग कर रही है उस तरह से बनारसी साड़ी कारोबार की आज तक ब्रांडिंग नहीं हुई। टाटा और अंबानी समूह की कंपनियां प्रोसेस ओरिएंटेड काम करती हैं। बनारसी साड़ी उद्योग में कॉरपोरेट घरानों की धमाकेदार दस्तक से नकली और घटिया काम करने वालों को दिक्कतें जरूर होंगी। बनारस के साड़ी कारोबारियों ने अपनी गुणवत्ता नहीं सुधारी तो लॉन्ग टर्म में साड़ी के पारंपरिक पेशे से उनका रिश्ता हमेशा के लिए टूट सकता है और कॉरपोरेट घरानों का दखल बढ़ सकता है।"
कॉरपोरेट से कैसे मुकाबला करेंगे बुनकर?
बनारस में बुनकरों के उत्थान और उनके बच्चों को शिक्षित करने के लिए मुहिम चला रहे वल्लभ पांडेय टाटा-अंबानी जैसे कॉरपोरेट घरानों की दस्तक को शुभ संकेत नहीं मानते। वह कहते हैं, "कॉरपोरेट कंपनियां पहले लॉलीपॉप दिखाती हैं और बाद में मुनाफे के लिए शोषण की पटकथा लिखना शुरू कर देती हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बुनकरों की तादाद मुट्ठी भर है और वो संगठित भी नहीं है। ये बुनकर चाहकर भी कॉरपोरेट कंपनियों से नहीं लड़ पाएंगे। बनारस के बहुतेरे गद्दीदार बुजुर्ग बुनकरों के सम्मान की कद्र करते हैं। अडानी-अंबानी जैसे कॉरपोरेट घराने बनारसी साड़ी कारोबार को निगलने बनारस आ गए हैं। इनकी कंपनियां कुछ ही सालों में बुनकरों को निचोड़कर रख देंगीं। वो इनका इस्तेमाल तभी तक कर पाएंगी, जब तक उनका शरीर, हिम्मत और हुनर बरकरार रहेगा। ऐसे में बनारस के फनकारों को गुलामी करनी पड़ेगी अथवा भूखों मरना पड़ेगा।"
एक्टिविस्ट वल्लभ पांडेय यह भी कहते हैं, "बनारसी साड़ी कारोबार में कॉरपोरेट घरानों के उतरने से हस्तकला के सभी लघु उद्योगों पर खतरा बढ़ेगा। देर-सबेर ये घराने कारपेट और चिकन के कपड़ों के धंधे में भी उतर आएंगे तब हाल और भी ज़्यादा बुरा हो जाएगा। साड़ियों के बाद हस्तकला के सभी उपक्रम पर कॉरपोरेट घरानों का कब्ज़ा होते देर नहीं लगेगा। बुनकरशालाएं खोलकर टाटा और अंबानी बनारसी साड़ियों के उत्पादक बन गए हैं तो बुनकर उनके मज़दूर। साड़ियों के इस धंधे में बीच की सभी कड़ियों को वो तोड़ते जा रहे हैं। जब देश के नामी कॉरपोरेट घराने खुद साड़ियां बुनवाने और खुद बेचने लग जाएंगे तो गद्दीदार कहां जाएंगे? "
आंसुओं में छलका बुनकरों का दर्द
एक समय वह भी था जब बनारसी रेशम साड़ी बाज़ार का बादशाह हुआ करता था, लेकिन 1991 में व्यापार बाधाओं को हटाने और पावरलूम के आगमन ने उन्हें तहस-नहस कर दिया। बनारस के बुनकरों का दर्द अब आंसू बनकर रह गया है। पीलीकोठी के कटेहर इलाके के बुनकर दशकों से हथकरघे पर बनारसी साड़ी की बुनाई करते हैं। अब्दुल कलाम और इनके बेटे समेत आठ लोग हथकरघे पर साड़ियों की बुनाई करते हैं। अब्दुल बताते हैं, "बाज़ार की प्रतिस्पर्धा में गद्दीदारों पर दबाव बढ़ता जा रहा है। चीनी माल के बाज़ार में उतरने से बनारसी साड़ी की धाक और चमक फीकी पड़ती जा रही है। बनारसी साड़ी के बाज़ार में चाइना के धागे और नकली साड़ियों के थोक में उतरने से बुनकरों की रोजी-रोटी पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।"
बनारस में बुनकरों की सबसे घनी आबादी पीलीकोठी, बड़ी बाज़ार, छित्तनपुरा, लल्लापुरा, बजरडीहा, सरैया, बटलोइया, नक्खीघाट आदि मुहल्लों में है। पीलीकोठी के जियाउल रहमान, कलीमुद्दीन, हाफिज, मोजाम्मिन हसन, टीपू सुल्तान, सगीर, हसीन अहमद, वसीम समेत सैकड़ों बुनकर सरकारी उदासीनता के दस्तावेज़ में शामिल हैं। इनकी नाराज़गी इस बात से है कि सरकार इनकी ज़िंदगी को आसान बनाने को तैयार नहीं है। बनारसी साड़ियों के एक बड़े विक्रेता सूर्यकांत बताते हैं, "ब्रोकेड, जरदोजी, ज़री मेटल, गुलाबी, मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी और रियल ज़री की बनारसी साड़ी की आज भी ज़बरदस्त डिमांड है। प्योर सिल्क का साड़ियों को अब चाइना सिल्क की सस्ती साड़ियों से चुनौती मिल रही है। समझ नहीं आ रहा कि हम करें भी तो क्या?”
"गांव के लोग" की संपादक अपर्णा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, "बनारस के बुनकरों के दुखों ने उनको भीतर से इतना तोड़ दिया है कि वे अपनी दर्दबयानी करने में भरोसा नहीं करते। कुरेदने पर वे अपनी तकलीफ़ भरे हालात और साधारण ज़िंदगी की चुनौतियों और संकटों की बातें कह देते हैं, लेकिन उनकी हताशा और निराशा उनके चेहरे को भिगा देती है। आमतौर पर लल्लापुरा, अलईपुर और बजरडीहा जैसे इलाकों की बड़ी आबादी रोज़ कमाने-खानेवालों की है। लेकिन पिछले डेढ़ साल में हर काम तहस-नहस हो गया है। मेहनत करने वाले लोगों में सरकारी या गैर-सरकारी खैरात की आदत नहीं है। इसलिए वे इस या उस राजनीतिक पार्टी की जय-जयकार में दिलचस्पी नहीं रखते बल्कि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि आज सत्ता पर काबिज़ लोगों ने माहौल को ज़हरीला बना दिया है जिसकी सबसे भयानक कीमत मेहनतकश लोगों ने चुकाई है। नतीजा, किसी ने रिक्शे में जीवन की राह तलाशी, कोई मज़दूरी करने लगा और कुछ ने आत्महत्या कर ली। परिवार के परिवार तबाह होते रहे। कई बार यह भी सुनने में आया कि बच्चों की भूख से तड़पकर किसी-किसी ने कबीरचौरा और बीएचयू के अस्पतालों में खून बेचकर रोटी का जुगाड़ किया। लोग इतने बेहाल, बदहवास और नाउम्मीद हो गए हैं कि निराशा और हताशा उनका स्थाई भाव बन गया है।"
"बुनकरों के साथ नाइंसाफी क्यों?”
बनारसी साड़ी को न सिर्फ़ जीआई टैग मिला है, बल्कि इसे बनारस के 'एक ज़िला एक उत्पाद (ओडीओपी)' में भी शामिल किया गया है। फिर भी बुनकरों की हालात जस की तस है। बनारस के बुनकर बिरादराना तंजीम बारहो के सरदार हासिम सरकार से सवाल करते हैं, "पीएम नरेंद्र मोदी जब लोकल फॉर वोकल पर ज़ोर देने की बात करते हैं तो बनारसी साड़ी कारोबार के साथ नाइंसाफी क्यों की जा रही है? इस इंडस्ट्री को सरकार की मदद की दरकार है। जल्द ही चीन से आयातित होने वाले रेशम और सिल्क पर पाबंदी नहीं लगाई गई तो आने वाले सालों में प्योर बनारसी साड़ी के बाज़ार का क्या हश्र होगा, अंदाज़ा लगाना कठिन है।"
बनारसी साड़ी कारोबार में कॉरपोरेट की दस्तक पर अपनी राय देते हुये बनारस के जाने-माने समाजसेवी डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "टाटा-अंबानी की बुनकरशालाओं के खेल को व्यापक अर्थों और संदर्भों में समझने की ज़रूरत है। बनारसियों को बार-बार गुजरात मॉडल के किस्से सुनाए जाते हैं। मोदी सरकार का गुजरात मॉडल, टाटा, अंबानी जैसे बड़े पूंजीपतियों को मुफ्त में ज़मीन और गरीबों की कीमत पर सस्ती बिजली और टैक्स में छूट देने का परिणाम है। गुजरात मॉडल अच्छा है तो वहां का किसान, मज़दूर और बुनकर बुरी हालत में क्यों है? भाजपा सरकार पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों का तो बकाया माफ़ कर रही है, और उन्हें तमाम रियायतें और अनुदान भी दे रही है, लेकिन कुटीर उद्योगों को तबाह कर देना चाहती है। बनारस के बुनकर आज अपनी ही विरासत और दस्तकारी को बचाने के लिए संघर्ष करते नज़र आ रहे हैं। कॉरपोरेट के घुसपैठ से बनारसी साड़ी कारोबार का ताना-बाना तहस-नहस हो जाएगा। ऐसे में बनारस की संस्कृति, हस्तशिल्प और बुनकरों की आजीविका को बचाना बेहद ज़रूरी है। इसके लिए बुनकरों, किसानों, मज़दूरों को एकजुट होकर पूंजीवादी तंत्र की साज़िशों को नाकाम करना होगा।"
(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)
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