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आर्थिक आरक्षण: मनुवादी व्यवस्था की ऐलानिया वापसी

जिस तरह आरक्षण की बंदरबांट की जा रही है। जिस तरह से सरकारें काम कर रही हैं और न्यायपालिका जिस तरह के निर्णय दे रही है उससे तो लगता है अब घोषित तौर पर मनुवादी व्यवस्था की वापसी हो रही है।

SC

गरीब सवर्णों को नौकरी और शिक्षा में आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है। यह महत्वपूर्ण फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायधीशों की बेंच ने बहुमत के आधार पर किया है। इसमें तीन न्यायमूर्ति इसके समर्थन में हैं और दो विरोध में। जस्टिस दिनेश माहेश्वरीजस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाया। वहीं मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और जस्टिस एस. रवीन्द्र भट ने इस आरक्षण से अपनी असहमति जताते हुए असंवैधानिक ठहराया।

इस बेंच के पांचों जज सवर्ण समाज से ही हैं। इसमें अनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से कोई नहीं है।

गौरतलब है कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने दलित (अजा)आदिवासी (अजजा) और ओबीसी के लिए आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्याय के तहत इनका प्रतिनिधत्व देने के लिए की थी ताकि इन समुदायों और सवर्णों के बीच गैर-बराबरी कम हो सके। लेकिन सवर्णवादी मानसिकता के लोगों ने इसे आर्थिक स्थिति से जोड़ कर देखा और गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की मांग रखी जिसे संसद में अनुमोदित कर दिया गया। वर्ष 2019 में संविधान में 103वां संशोधन करके आर्थिक रूप से पिछड़े (ईडब्ल्यूएस) को आरक्षण देने के लिए क़ानून बनाया गया था। इस पर लोगों ने आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट में 40 याचिकाएं दायर की थीं। किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने भी  अपनी सहमति दे दी। अब गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण जारी रहेगा और इसमें से दलित-आदिवासियों को बाहर रखा जाएगा।  

यहाँ न्यायमूर्ति रवींद्र भट की बात काबिले-गौर है। वे कहते हैं सामाजिक रूप से वंचित वर्गों और जातियों को उनके आवंटित आरक्षण कोटा के अन्दर रखकर पूरी तरह से इसके दायरे से बाहर रखा गया है। यह उपबंध पूरी तरह से मनमाने तरीके से संचालित होता है। संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त पिछड़े वर्गों को इसके दायरे से पूरी तरह से बाहर रखना कुछ और नहीं बल्कि भेदभाव है और समता के सिद्धांत को कमजोर और नष्ट करता है।

आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन न कि आर्थिक स्थिति

संविधान में आरक्षण ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को दिया गया है न कि आर्थिक स्थिति के आधार पर। आरक्षण ग़रीबी दूर करने का साधन नहींदलित-आदिवासी-ओबीसी के लिए  सामाजिक न्याय हेतु सामाजिक-शैक्षणिक क्षेत्र में प्रगति और राजनीति में प्रतिनिधत्व का माध्यम है।  

इसलिए यदि  आर्थिक आधार पर आरक्षण देना चाहते हैं तो पहले जाति खत्म करें। भारत के संविधान का अनुच्छेद 16(4) और 16(5) पिछड़ी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को विशिष्ट और पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए आरक्षण प्रदान करता है।

7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान संसद में किया। इसके मुताबिक पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण देने की बात कही गई। जो पहले से चले आ रहे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले 22.5 फीसदी  (क्रमश: 15 और 7.5) आरक्षण से अलग था।

मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का विरोध करते हुए पत्रकार इंदिरा साहनी सुप्रीम कोर्ट पहुँच गईं। इस बीच सरकारें बदलती रहीं। पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने सवर्णों के गुस्से को शांत करने के लिए 25 सितम्बर 1991 को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान कर दिया। दोनों मामलों की सुनवाई के लिए नौ सदस्यीय संविधान पीठ बनी।

संविधान पीठ ने इंदिरा साहनी केस में फैसला देते समय  इस आरक्षण को खारिज कर दिया। नौ जजों की पीठ ने कहा कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद ये क़ानून  बना था कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षणजाट आरक्षणगुर्जर आरक्षणमुस्लिम आरक्षण को रद्द कर दिया था। फिर सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण पर मुहर कैसे लगा दी। इस हिसाब से तो आरक्षण 59.5 फीसदी हो जायेगा।

बाबा साहेब ने आरक्षण का प्रावधान किया  था वह दो तरह का था एक राजनीतिक और दूसरा सामाजिक और शैक्षणिक। उसमे आर्थिक आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था। उनका उद्देश्य सामाजिक उत्थान था। इसके लिए राजनीति में प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर वरिष्ठ दलित साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम कहते हैं –“मैं सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से स्तब्ध हूँ। इसका कारण यह है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता। और यह निर्णय कोर्ट का ही दिया हुआ था। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई थी उस समय ओबीसी जनसंख्या में 54 फीसदी था लेकिन उन्हें 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था। इस तरह यह सीमा 49.5 तक बन गयी थी और 50 फीसदी से ऊपर नहीं जाने पाई। ऐसे में सामान्य वर्ग के आर्थिक पिछड़े लोगों को 10 फीसदी आरक्षण दिया जाता है तो एक तो यह संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होता है। दूसरी बात एकोनोमिकली वीकर सेक्शन (EWS) की जो अवधारणा है वह समानता के जो मूल्य या सिद्धांत हैं उनका उल्लंघन करता है। क्योंकि जिनकी वार्षिक आय आठ लाख रूप से कम है वे आर्थिक रूप से कमजोर माने गए हैं। ये तो एक तरह से उच्च जातियों को लाभ पहुँचाना है। निश्चित रूप से यह न्याय संगत नहीं हो सकता। लोकतान्त्रिक नहीं हो सकता। मैं स्तब्ध हूँ।

क्या ख़त्म हो जाएगा संविधान प्रदत्त आरक्षण?

अभी देश में जिस तरह की फासीवादी व्यवस्था है वह अनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग यानी दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों-अल्पसंख्यों के हित में नहीं है। ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे इनको मिलने वाला आरक्षण समाप्त किया जा रहा है। एक तो सरकारें धीरे-धीरे सरकारी उपक्रमों का निजीकरण कर रही हैं जिससे आरक्षण के साधन ख़त्म होते जा रहे हैं। ये अलग बात है कि सरकार की मेहरबानी से अडानी-अंबानी जैसे उद्योगपति और अमीर होते जा रहे हैं। अब सरकार सवर्णों को भी आरक्षण दे रही है आर्थिक आधार पर। मुख्यधारा के मीडिया के साथ-साथ न्यायपालिका जैसा लोकतंत्र का स्तम्भ भी उनके साथ है ऐसे में कथित निम्न कहे जाने वाले समुदायों और हाशिये के लोगों से अप्रत्यक्ष रूप से आरक्षण छीना  जा रहा है। धीरे-धीरे आरक्षण समाप्त होने के कगार पर है।

सुप्रीम कोर्ट के जज कह रहे हैं कि आरक्षण का मकसद सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जाना है लेकिन यह अनिश्चितकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए ताकि वह निहित स्वार्थ न बन जाए। न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने अपने फैसले में कहा कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद आरक्षण की व्यवस्था पर फिर से विचार करने की जरूरत है।

स्पष्ट है कि इस तरह की टिप्पणी करने वाले जजों ने कभी जातीय उत्पीड़न नहीं झेला। दलितों-आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों को नहीं सहा। उनके प्रति  सवर्ण समाज द्वारा नफरतभेदभाव और शोषण को नहीं सहा। क्या जिन एससी/एसटी/ओबीसी को जो आरक्षण का प्रावधान किया गया था उसका लाभ सबको मिल पायाक्या आरक्षण से सम्बंधित प्रावधानो का सही तरीके से कार्यान्वन किया गया?  अगर नहीं तो फिर आरक्षण की अनिश्चित्कालीनता  पर बात क्यों की जा रही हैयहां सवाल तो न्यायधीशों  से लेकर सत्ताधारियों की नीति और नीयत पर भी उठते हैं।

बिलक़ीस बानो के बलात्कारियों  से लेकर छावला गैंग रेप के बलात्कारियों को जिस तरह बरी किया जा रहा है। जिस तरह आरक्षण की बंदरबांट की जा रही है। जिस तरह से सरकारें काम कर रही हैं और न्यायपालिका जिस तरह के निर्णय दे रही है उससे तो लगता है अब घोषित तौर पर मनुवादी व्यवस्था की वापसी हो रही है।

ऐसे में संविधान की रक्षा बहुत जरूरी है। लोकतंत्र को बचाना बहुत जरूरी है। और इसके लिए दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों-अल्पसंख्यों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए एक साथ सड़क पर आकर अपनी आवाज़ उठाना जरूरी है  तभी बचेगा आरक्षण और हमारे संवैधानिक अधिकार भी।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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