सरकारी विज्ञापनों की बाढ़ में बहाए जा रहे बेहिसाब पैसों की लोकतांत्रिक लिहाज़ से जांच-पड़ताल
राजनीतिक नेताओं की ओर से प्रचार के लिए इस्तेमाल किये जा रहे बेशुमार सरकारी विज्ञापन लोकतंत्र के लिए ख़तरा हैं। अनुराग तिवारी लिखते हैं कि यह समय विज्ञापन में सरकारी ख़र्च पर क़रीब से नज़र डालने और लोकतांत्रिक नज़रिये से इस मुद्दे का विश्लेषण करने का बिल्कुल सही समय है।
मद्रास हाई कोर्ट ने हाल ही में अपने एक आदेश में कहा था कि सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए बेहद सावधानी और सतर्कता बरतनी चाहिए कि सरकारी धन का इस्तेमाल राजनीतिक नेताओं की ओर से प्रचार के मक़सद से तो नहीं किया जा रहा है।
हालांकि, अदालत ने यह बयान तमिलनाडु में स्कूली छात्रों को बांटे जाने वाले स्टेशनरी सामान पर सरकारी पदाधिकारियों की तस्वीरों की छपाई के सम्बन्ध में एक बहुत ही ख़ास मुद्दे के सिलसिले में दिया था। सरकारी विज्ञापनों के इर्द-गिर्द होने वाली इस बहस का प्रासंगिक विश्लेषण करने के लिहाज़ से निश्चित ही तौर पर यह यह विषय एक सटीक प्रारंभिक बिंदु है।
ऐसा करने से यह लेख न सिर्फ़ सरकारी विज्ञापनों के ख़िलाफ़ उठाये गये आम आर्थिक तर्कों के इर्द-गिर्द घूम सकेगा, बल्कि उस बहस पर भी ध्यान केंद्रित कर सकेगा, जो लोकतंत्र को घेरे में लेने वाली अहम चिंताओं को सामने रखती है।
जब से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को राज्य में कोविड-19 महामारी से ठीक से नहीं निपट पाने को लेकर बढ़ती चिंताओं के चलते इस साल मार्च में भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने दिल्ली बुलाया था, तब से ऐसा लगता है कि उनके प्रशासन की ओर से देश में एक अजीब सी मिसाल क़ायम की जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी योगी और उनके 'नंबर 1 उत्तर प्रदेश' अभियान के होर्डिंग से अटी पड़ी है और आदित्यनाथ को उनके "अविश्वसनीय कार्य" की सराहना करते हुए अख़बारों में ऐसे विज्ञापनों की भरमार है, जो समाचार रिपोर्टों की तरह दिखते हैं।
परेशान करते घटनाक्रम
विज्ञापन में इतने बड़े निवेश के पीछे का मक़सद अगले साल की शुरुआत में होने वाला उत्तरप्रदेश का चुनाव हो सकता है। हालांकि, दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस लिहाज़ से ऐसी दो ख़ास अभूतपूर्व घटनाक्रम हुए हैं।
सबसे पहला घटनाक्रम तो यही है कि इन विज्ञापनों में से ज़्यादतर विज्ञापन उत्तर प्रदेश के बाहर केंद्रित हैं और दिल्ली और कर्नाटक जैसे देश के उन विभिन्न हिस्सों में फैले हुए हैं, जहां के लोगों को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर ध्यान केंद्रित कराने वाले विज्ञापनों को कोई मतलब ही नहीं है।
इस लिहाज़ से दूसरा घटनाक्रम यह है कि जिन सूबों में भारतीय जनता पार्टी सत्तारूढ़ है, वहां के मुख्यमंत्रियों ने इस मौक़े को भुना लिया है और इसी रास्ते पर वे भी चल पड़े हैं। इस सिलसिले में होड़ लेने वालों के शीर्ष पर पुष्कर सिंह धामी (उत्तराखंड), हिमंत बिस्वा सरमा (असम) और जयराम ठाकुर (हिमाचल प्रदेश) हैं, जहां तक मैंने देखा है कि राष्ट्रीय स्तर के अख़बारों के साथ-साथ कम से कम मध्य दिल्ली उनकी उपलब्धियों के बखान करते विज्ञापनों से अटे-पड़े हैं।
ये विज्ञापन इस मायने में अलग हैं कि ये जानबूझकर ऐसे पेश किये जा रहे हैं, जैसे कि ये पत्रकारों ने इन्हें लिखा है। उनके इर्द-गिर्द डिस्केलमर ऐसे होते हैं, जो साफ़-साफ़ तब तक दिखायी नहीं पड़ते जब तक कि बारीकी से उस पर ग़ौर नहीं किया जाता। जब तक आप इस पर ग़ौर नहीं कर लेते, तबतक विज्ञापन और समाचार रिपोर्टों के बीच फ़र्क़ कर पाना मुश्किल होता है। इस तरह, इन विज्ञापनों से दर्शकों/पाठकों के मन में भ्रम पैदा होने की संभावना ज़्यादा होती है। जिस तरह टीवी, अख़बारों, पत्रिकाओं और सड़कों पर विज्ञापनों की बौछार है, उससे तो उनके मन में झूठी धारणायें ही घर करेंगी।
इससे इस इस तरह के मंसूबों की नैतिकता और उन क़ीमतों को लेकर कई अहम सवाल पैदा होते है, जो बतौर लोकतंत्र हम इस समय चुका रहे हैं।
लोकतंत्र के लिए ख़तरा?
इन सरकारी विज्ञापनों को लेकर जो आलोचनायें हैं, उनका विश्लेषण अब तक महज़ आर्थिक लिहाज़ से ही हुआ है। दलील यह दी जाती है कि सरकार की ओर से प्रचार गतिविधियों को लेकर जिस बड़े पैमाने पर सरकारी ख़र्च किया जाता है, उसका इस्तेमाल अगर कल्याण या विकास कार्यों पर किया जाता, तो बेहतर होता।
हालांकि, राजनीतिक और ख़ास तौर पर लोकतांत्रिक नज़रिये से इन ऐडवर्टोरियल (अख़बार या पत्रिकाओं में संपादकीय या निष्पक्ष पत्रकारिता लेख की शैली में किसी उत्पाद को लेकर दी जाने वाली जानकारियां) की भरमार पर विचार करना उपयोगी हो सकता है। इस लिहाज़ से कम से कम तीन ऐसे अहम सवाल हैं, जिन्हें उठाया जा सकता है।
पहला सवाल तो यही उठता है कि जानकारी के लिहाज़ से जिन विज्ञानपनों का कोई मतलब नहीं है, ऐसे में ये बेशुमार सरकारी विज्ञापन चुनावी मैदान में उतर रहे दूसरे राजनीतिक दलों की गुंज़ाइश को कम नहीं कर देते हैं? छोटे-छोटे ऐसे क्षेत्रीय दल, जो विज्ञापन देने को लेकर ज़रूरी वित्तीय संसाधन जुटा पाने में ख़ुद को मुश्किल में घिरे पाते हैं, उन्हें साफ़ तौर पर नुक़सान होता है क्योंकि वे संसाधन संपन्न बड़े राजनीतिक दलों की बनायी जा रही धारणा से मुक़ाबला नहीं कर पाते हैं।
दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस तरह के विज्ञानप नागरिकों के बीच सूचना की खाई को बढ़ावा नहीं देते और मतदाताओं के लिए जानकारियों से बनने वाली राय की कमी की गुंज़ाइश नहीं बनाते, जिस वजह से ये मतदाता इन विज्ञापनों के ज़रिये सीमित और सशर्त जानकारी के साथ अपने मतपत्र का इस्तेमाल करते हैं?
तीसरा सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे विज्ञापनों का सरकारी योजनाओं से जुड़ी जानकारियों को हासिल करने के लिहाज़ से कोई मतलब भी है और अगर है, तो वह क्या है ?
इन विज्ञापनों के "सूचनात्मक" होने का टूटता भ्रम
सरकारें उठते सवालों का जवाब यह दावा करते हुए दे सकती हैं कि ये विज्ञापन राज्य की ओर से चलाये जा रहे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के बारे में "सूचना और जागरूकता" फ़ैलाने में मददगार होते हैं।
हालांकि, इस तरह की दलील में सच्चाई बहुत ही कम होती है, झूठ ज़्यादा होता है। इनमें से ज़्यादातर विज्ञापन आमतौर पर सरकार के मुखिया की छवि को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाले होते हैं। मिसाल के तौर पर, उत्तर प्रदेश सरकार को लेकर टाइम मैगज़ीन में प्रकाशित एक विज्ञापन में लिखा है, "नकारात्मक स्थिति में सकारात्मक होना भोलापन नहीं है। यही नेतृत्व है। इसका उदाहरण यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ से बेहतर भला कोई और क्या हो सकता है।
इसके अलावा, यह मान्यता कि इन विज्ञापनों से कुछ जानकारियां हासिल की जा रही हैं, सवाल है कि इस मान्यता का आधार क्या है, इसे कौन तय करेगा कि इन विज्ञापनों में की गयी घोषणायें सच हैं या झूठी हैं या फिर जोड़-तोड़ वाली नहीं हैं? क्या इसे निष्पक्ष रूप से प्रमाणित कर पाना संभव है? ठीक है कि आदित्यनाथ नकारात्मक स्थिति में भी जितने सकारात्मक हैं, उतना कोई दूसरा नेता नहीं हो सकता, मगर सवाल तो वही है कि आख़िर यह दावा कर कौन रहा है ?
मानक तय करने की ज़रूरत पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी
हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू ने पिछले साल “ऐडवर्टाइज़मेंट मेक्स अस अनहैप्पी” यानी "विज्ञापन हमें दुखी करता है" शीर्षक से एक दिलचस्प रिपोर्ट प्रकाशित की थी। वारविक यूनिवर्सिटी के एंड्रयू ओसवाल्ड की अगुवाई में शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया कि विज्ञापनों और लोगों की समग्र खुशी के बीच विपरीत सम्बन्ध होता है। रिपोर्ट में पाया गया कि जितना ज़्यादा आप विज्ञापन करेंगे, इस बात की संभावना उतनी ही ज़्यादा होगी कि आपके नागरिक नाखुश हों।
इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ज़्यादतर चुप ही रहा है,ऐसा इसलिए,क्योंकि सुप्रीम कोर्ट इन विज्ञापनों के कथित तौर पर 'सूचनात्मक' होने को अहमियत देने के लिए मजबूर है। 2015 में सत्ता में रह रहे लोगों की ओर से राजनीतिक लाभ हासिल करने के मक़सद से करदाताओं के पैसे के इस्तेमाल को रोकने के सिलसिले में सख़्त नियम बनाने की मांग करते हुए शीर्ष अदालत में एक जनहित याचिका दायर की गयी थी,जिसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को और जटिल बना दिया था।इस आदेश की चर्चा तो बहुत हुई,लेकिन यह विरोधाभासी है।
जहां एक ओर, 2015 में अपने मूल फ़ैसले में अदालत ने कहा था कि "व्यक्तियों को सामाजिक लाभ योजनाओं के साथ जोड़ना लोकतंत्र की भावना के विपरीत है", वहीं दूसरी ओर अदालत ने विज्ञापनों में प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और भारत के मुख्य न्यायाधीश की तस्वीरों को लगाने की अनुमति दे दी थी।" 2016 के अपने एक आदेश में इन तस्वीरों का विस्तार राज्यों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों और यहां तक कि कैबिनेट मंत्रियों तक कर दिया था।
इस लेख में उठायी गयी इन लोकतांत्रिक चिंताओं का जवाब देने में प्रिंट मीडिया विज्ञापन नीति, 2020 भी नाकाम रहा है।
अब समय आ गया है कि लोकतांत्रिक नज़रिये से सबूतों को जुटाकर इस मामले को सुलझाया जाये।
(अनुराग तिवारी ग्लोबल गवर्नेंस इनिशिएटिव (GGI) में 'इम्पैक्ट फ़ेलो' हैं और दामोदरम संजीवय्या नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, विशाखापत्तनम में क़ानून के पूर्वस्नातक कक्षा के अंतिम वर्ष के छात्र हैं। इनके विचार निजी हैं।)
यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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