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JNU में खाने की नहीं सांस्कृतिक विविधता बचाने और जीने की आज़ादी की लड़ाई

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र खाने के लिए नहीं, सांस्कृतिक विविधता के अनुरूप नागरिकों की जीने की आज़ादी और राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं।
jnu

देश का सर्वोत्कृष्ट विश्वविद्यालय JNU एक बार फिर नफरती राजनीति और गुंडागर्दी के निशाने पर है। नवरात्र के दौरान जगह जगह साम्प्रदायिक उकसावेबाजी की जो कोशिशें चल रही थीं, उसका सबसे बर्बर रूप 10 अप्रैल को रामनवमी के दिन JNU में सामने आया। वहाँ मेस में नॉन-वेज और वेज दोनों खाना बनता है, छात्र अपने चॉइस से खाते हैं। JNU जैसे विश्वविद्यालय में जहां देश और विदेश के विविध संस्कृति-खानपान के छात्र रहते हैं, यह और भी स्वाभाविक और तर्कसम्मत है तथा हमेशा से होता रहा है। 

लेकिन कल ABVP ने  छात्रों पर बलात अपना फ़ूड-कोड थोपने की कोशिश की और न मानने पर दिन भर तांडव किया। मेस सेक्रेटरी तथा दूसरे छात्रों के साथ मारपीट की, जिसमें छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष एन साईं बालाजी, मधुरिमा कुंडू, अख्तर इस्ता अंसारी समेत अनेक छात्र-छात्राएं घायल हो गए। हमेशा की तरह घटना के समय दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही और अब हमलावरों का बचाव कर रही है। छात्र गुंडों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर आज पुलिस HQ पर प्रोटेस्ट कर रहे हैं।

यह साफ है कि JNU के लोकतांत्रिक छात्रों की यह लड़ाई खाने के लिए नहीं है, बल्कि इस बात के लिए है कि इस देश में नागरिकों को खान-पान की आज़ादी रहेगी कि नहीं रहेगी? नागरिकों को अपनी संस्कृति के अनुरूप जीने का संवैधानिक अधिकार सुरक्षित रहेगा कि नहीं रहेगा? दुनिया के सर्वाधिक विविधतापूर्ण हमारे समाज में इस अधिकार पर हमला, पूरे देश पर एक खास कल्चरल-कोड थोपना, हमारी राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न करना है। JNU के छात्र भारत की जनता की सांस्कृतिक विविधता, उस विविधता के अनुरूप जीने की आज़ादी की रक्षा के लिए, राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं।

कितनी बड़ी विडंबना है कि जनता की सांस्कृतिक आज़ादी और राष्ट्रीय एकता के ख़िलाफ़ यह बर्बर राजनीति सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर हो रही है!

दरअसल, किसान आंदोलन के दौर के एक साल के ब्रेक के बाद, साम्प्रदायिक अभियान का यह ताज़ा सिलसिला शुरू तो हुआ था किसान आंदोलन खत्म होने के बाद UP चुनावों के पूर्व, लेकिन विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद इसमें अचानक तेजी आ गयी है। हाल के दिनों में भड़काऊ, दंगाई बयानबाजी और हरकतों की बाढ़ आ गयी है।

क्या यह विधानसभा चुनावों की विजय का जश्न है? आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों की तैयारी है?  2025 में संघ शताब्दी वर्ष के स्वागत में आज़ादी के 75 वर्ष के अमृतकाल को हिंदूकाल बना देने का अभियान है?

शायद यह सब कुछ है, लेकिन सर्वोपरि आर्थिक तबाही के खिलाफ जनअसंतोष की बढ़ती सुगबुगाहट से निपटने की सोची समझी रणनीति है। 

इसका एक पैटर्न है। संघ-भाजपा दो मोर्चों पर इसे अंजाम दे रहे हैं। एक ओर उनकी सरकारें नए नए विभाजनकारी कानूनों, शासन-प्रशासन-पुलिस की मुस्लिम विरोधी सेलेक्टिव कार्रवाईयों से वृहत्तर एजेंडा सेट करती है- बुलडोजर अब इसका सबसे बड़ा प्रतीक बन गया है, जो उत्तरप्रदेश से आगे बढ़कर दूसरी भाजपा सरकारों का भी प्रिय मॉडल बनता जा रहा है।

दूसरी ओर उसी वृहत्तर एजेंडा के किसी मुद्दे पर सड़क पर उतरकर अनगिनत ज्ञात-अज्ञात संज्ञा वाले नॉन-स्टेट एक्टर्स रोज जमीनी-स्तर पर कहीं न कहीं उत्पात मचाते हैं, जिसके नफरती message को  सोशल मीडिया और गोदी मीडिया की मदद से वायरल किया जाता है और पूरे समाज में माहौल को विषाक्त बनाया जाता है। जाहिर है, स्टेट और नॉन-स्टेट एक्टर दोनों एक टीम के बतौर काम करते हैं। पुलिस प्रशासन ऐसे हुड़दंगियों को संरक्षण देता है, होहल्ला होने पर कुछ दिखावटी कार्रवाई करता है और फिर कुछ दिनों में सब रफा दफा हो जाता है। बड़ी से बड़ी घटना हो जाने पर भी मोदी से लेकर नीचे तक रहस्यमय चुप्पी छाई रहती है।

अर्धसत्यों के नफरती आख्यान से रची गयी फ़िल्म द कश्मीर फाइल्स, जिसको स्वयं मोदी ने promote किया, के माध्यम से पूरा नेक्सस खुलकर सामने आ गया, भाजपा शासित राज्यों में उसे टैक्स फ्री किया गया, मुफ्त टिकट बांटे गए, सिनेमा हॉलों में नफरती नारेबाजी प्रायोजित की गई। 

दरअसल, अपने पहले कार्यकाल में ही आर्थिक मोर्चे पर मोदी ने नोटबन्दी जैसे विनाशकारी फैसलों से देश को गहरे आर्थिक संकट में ढकेल दिया था। विकास दर हो या  रोजगार, हर मोर्चे पर अर्थव्यवस्था को जबरदस्त झटका लग गया था। 2019 के चुनाव के पूर्व सरकार ने तमाम संस्थाओं का इस्तेमाल करके सच को सामने ही नहीं आने दिया और स्वामिभक्त गोदी मीडिया की मदद से अर्थव्यवस्था की एक बिल्कुल झूठी खुशनुमा छवि परोसी जाती रही। तब भी अगर पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक न हुआ होता तो 2019 के नतीजे शायद कुछ और होते। 

बहरहाल उसके बाद मोदी एंड कम्पनी को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी थी कि अब विभाजनकारी  एजेंडा पर ही bank करना पड़ेगा, विकास, रोजगार आदि के मोर्चे पर सकारात्मक कुछ होना नहीं है, उल्टे उस मोर्चे पर नाकामी से पैदा होने वाले असंतोष से निपटने के लिए भी उपाय करना होगा।

इस तरह पुलवामा, बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में मिली जीत के बाद 2019 के बाद मोदी-शाह की जोड़ी दूसरे कार्यकाल में पूरी तरह विभाजनकारी एजेंडा पर लौट गई। मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में धारा 370 के खात्मे से  मोदी द्वारा कश्मीर फाइल्स के प्रमोशन तक की-CAA NRC होते हुए- यही कहानी है।

इस फासीवादी अभियान पर 1 साल चले किसान आंदोलन ने पूरी तरह ब्रेक लगा दिया था। देश का पूरा एजेंडा ही बदल गया था, सरकार लाख कोशिश के बावजूद कोई विभाजनकारी एजेंडा नहीं चला पाई, मोदी सरकार बुरी तरह घिर गई थी।  नैरेटिव सेट करने की क्षमता, जो उसकी सबसे बड़ी ताकत है, वह उसके हाथ से छिन गयी थी। 

किसान-आंदोलन ने यह दिखा दिया कि कारपोरेट-हिंदुत्व से लड़ने का सबसे कारगर तरीका क्या है।

विधानसभा चुनाव में विपक्ष की कमजोरियों की वजह से भाजपा जीत भले गयी, लेकिन उसके नेता इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि असह्य होती महँगाई और जानलेवा बेरोजगारी के ख़िलाफ़ जनअसंतोष का लावा अंदर-अंदर उबल रहा है। 

सरकार डरी हुई है कि यहां भी किसी समय श्रीलंका जैसा विस्फोट हो सकता है। किसान नेता MSP के सवाल पर फिर आंदोलन की चेतावनी दे चुके हैं, मजदूरों ने हाल ही  में राष्ट्रीय हड़ताल आयोजित किया।

जैसी कि उम्मीद थी कैम्पस खुलते ही छात्र सड़कों पर उतरने लगे हैं।  वे NEP 2020 के तहत लागू किये जा रहे CUET जैसे नुकसानदेह प्रावधानों के ख़िलाफ़, शिक्षा और रोजगार के अधिकार के लिए मार्च कर रहे हैं। वे निजीकरण के खिलाफ मजदूर वर्ग की लड़ाई का समर्थन कर रहे हैं। वे नफरती अभियान के खिलाफ प्रतिरोध में उतर रहे हैं। सीतापुर के खैराबाद में खुले आम मुस्लिम महिलाओं से बलात्कार की धमकी देने वाले बजरंग मुनि की गिरफ्तारी की मांग करते हुए छात्रों ने दिल्ली में UP भवन पर प्रदर्शन किया, जहां पुलिस ने उनके साथ बर्बरता की, अनेक छात्र हिरासत में ले लिए, उनमें अनेक छात्राएं और LGBTQ समुदाय के लोग भी थे। 30 मार्च को  छात्रों ने JNU में जो मार्च किया उसे वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने झंडी दिखाई।

संघ-भाजपा के नीति नियामक इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि आने वाले दिनों में मोदी सरकार के खिलाफ आकार लेते जनाक्रोश की जो आहट है, छात्र युवा स्वाभाविक रूप से उसकी अगली कतार में होंगे।

हाल ही में जो तमाम उन्मादी वीडियो वायरल हो रहे हैं उनमें भाग लेने वालों के चेहरे देखिए, अधिकांश 15 से 25 साल के बीच के युवा। जाहिर है वे बेरोजगार तो हैं ही। अगर इन कार्यक्रमों से उत्तेजना का सुख और धर्मरक्षक होने का गौरवबोध (तथा सम्भवतः पारिश्रमिक भी) न प्राप्त हो रहा होता तो वे संभवतः कहीं रोजी-रोटी की जद्दोजहद कर रहे होते और बेरोजगारी के लिए सरकार को कोस रहे होते। सरकार विरोधी मुहिम का हिस्सा होते।

आज अचानक उन्मादी अभियान की जो बाढ़ आ गयी है, छात्रों-युवाओं के दिलो दिमाग में जो नफरत का जहर भरा जा रहा है, वह सर्वोपरि अभूतपूर्व महंगाई, बेरोजगारी के एजेंडा को पृष्ठभूमि में धकेल देने, आने वाले दिनों में जनअसंतोष के विस्फोट को contain करने, उसके diversion का अभियान है।

यह आने वाले दिनों में किसान-मजदूर-छात्र, युवा आंदोलन की जो आहट है, उसका काउंटर-नैरेटिव सेट करने की मुहिम है।

इस सौ मुंह और हजार बांह वाले ( Hydra- headed monster )  के खिलाफ लड़ने की रणनीति तो बहुआयामी होगी, लेकिन उसकी धुरी वही रास्ता है जो किसान-आंदोलन ने दिखाया है-जुझारू जनान्दोलन और प्रतिरोध का रास्ता। कारपोरेट, वित्तीय पूँजी व साम्राज्यवाद के खिलाफ मेहनतकश जनता के प्रगतिशील आर्थिक राष्ट्रवाद का काउंटर-नैरेटिव खड़ा कर इनके कारपोरेट- साम्प्रदायिक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मुकाबला करना होगा जिसमें इनके प्राण बसते हैं।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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