EXCLUSIVE: सोती रही योगी सरकार, वन माफिया चर गए चंदौली, सोनभद्र और मिर्ज़ापुर के जंगल
चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगलों के जिस ऑक्सीजन से समूचा पूर्वांचल सांस लेता है, नौकरशाही ने उसका गला ही घोंट दिया। योगी सरकार सोती रही और उत्तर प्रदेश के जंगल साफ होते चले गए। नतीजा, काशी और कैमूर वन्य जीव अभ्यरण का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगलों में अब शेर, बाघ, मोर और काले हिरणों का शोर नहीं सुनाई देता। यहां कुछ सुनाई देता है तो धूल उड़ाते भारी वाहनों का भोपू और नदियों का सीना चीरकर बालू निकालती मशीनें। सब कुछ शासन और सत्ता की नाक के नीचे चलता रहा और योगी सरकार की नींद नहीं टूटी।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 14 जनवरी 2022 को भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की चौकाने वाली रिपोर्ट पेश की, जिसमें इस बात का खुलासा हुआ है कि चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर में बड़े पैमाने पर जंगल साफ हो गए हैं। यही नहीं, आजमगढ़, बिजनौर, खीरी, महराजगंज, मुजफ्फरनगर, पीलीभीत और सुल्तानपुर जिले का वन क्षेत्र भी घट गया है। यह स्थित तब है जब चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर जनपद के वनाधिकारी पौधरोपण के मामले में हर साल नया रिकार्ड बनाने के दावा करते रहे हैं। यूपी में सर्वाधिक जंगल सोनभद्र और चंदौली के चकिया व नौगढ़ प्रखंड में हैं। वन क्षेत्र घटने के मामले में मिर्जापुर दूसरे स्थान पर है।
काशी और कैमूर के जंगलों के बारे में गहन जानकारी रखने वाले पत्रकार पवन कुमार मौर्य कहते हैं, "भाजपा सरकार की दोषपूर्ण नीतियों के चलते लकड़ी तस्करों और भूमाफियाओं ने वनों को साफ कर दिया। योगी सरकार सोती रही और माफिया यूपी का जंगल चर गए। नतीजा, सूबे के जंगलों का दायरा सिकुड़ गया। यह स्थिति पहले नहीं थी। पिछले दो सालों में बनारस जैसे शहर को आक्सीजन मुहैया कराने वाले चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगलों का बड़े पैमाने पर चीरहरण किया गया।"
(काशी वन्यजीव प्रभाग का राजदरी जलप्रपात)
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने साल 2019 से 2021 के बीच यूपी के जंगलों का सर्वे किया तो सरकार और उनके नुमाइंदों के पौधरोपण के तमाम दावे मटियामेट हो गए। भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की द्विवार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2019 तक सोनभद्र का वन क्षेत्रफल 2540.29 वर्ग किमी था, जो साल 2021 में घटकर 2436.75 वर्ग किमी हो गया है। सिर्फ दो सालों में ही सोनभद्र के जंगली क्षेत्र का दायरा 103.54 वर्ग किमी घट गया। मौजूदा समय में यहां सघन वन क्षेत्र 138.32, कम सघन वन क्षेत्र 940.62 वर्ग किमी और खुला वन क्षेत्र 1357.81 वर्ग किमी है। देश के 112 अति पिछड़े ज़िलों में शामिल उत्तर प्रदेश के आठ ज़िलों में सोनभद्र और चंदौली भी शामिल हैं। मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक सोनभद्र का जंगल 103.54 वर्ग किमी और चंदौली का 1.79 वर्ग किमी कम हुआ है। चंदौली का नौगढ़ इलाका सोनभद्र से सटा है, जहां दो दशक पहले कुबराडीह और शाहपुर में भूख से कई आदिवासियों की मौत हो गई थी। भाजपा शासनकाल में जंगलों का चीरहरण होने से आदिवासियों के जीवन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
सोनभद्र की पहचान शुरू से ही घने जंगलों से रही है। विशिष्ट पहचान वाले यह जंगल अपने आप में खास हैं। वृहद जंगलों के कारण ही सोनभद्र क्षेत्रफल के लिहाज से प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला है। यह सूबे का पहला ऐसा जिला भी है जहां तीन से अधिक वन प्रभाग राबर्ट्सगंज, ओबरा, रेणुकूट हैं। कैमूर वन्य जीव प्रभाग का आधा क्षेत्र मिर्जापुर में भी है। साढ़े तीन वन प्रभाग होने के बावजूद यहां जंगलों का सुरक्षित न रहना चिंताजनक है। हालांकि श्रावस्ती, सिद्धार्थनगर, चित्रकूट, बलरामपुर, और बहराइच में वन क्षेत्र में थोड़ी बढ़ोतरी हुई है। फतेहपुर के जंगल पहले की तरह आबाद हैं।
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चंदौली के वरिष्ठ पत्रकार राजीव सिंह कहते हैं, "लगता है कि योगी सरकार पिछले पांच सालों तक नींद में थी और वन माफिया पूर्वांचल के जंगलों को चरते चले गए। कहां, एक तरफ तो अभियान चलाकर हर साल लाखों पौधे लगाए जाते रहे और दूसरी तरफ हरे पेड़ों को धड़ल्ले से काटने का सिलसिला जारी रहा। सोनभद्र और चंदौली के जंगल कहां और कैस लुप्त हो गए, इसका जवाब किसी के पास नहीं है?अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए वन विभाग के अफसर तेजी से होते नगरीकरण और विकास की दलील पेश कर रहे हैं तो विशेषज्ञ इसे वन माफिया की कारस्तानी बता रहे हैं। दोनों ही हालत में वन क्षेत्र का कम होना खासतौर पर बनारसियों के लिए चिंताजनक है, क्योंकि इन्हीं जंगलों से पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र के लोग सांस लेते हैं।"
(ख़ाली होते जा रहे चंदौली के वन)
सरकारी आंकड़ों पर गौर किया जाए तो साल 2021 में सोनभद्र में हरियाली और पर्यावरण संरक्षण के नाम पर 85 लाख पौधे रोपे गए। तीन सालों में लगातार चलाए गए महाअभियान में एक करोड़ 93 लाख पौधे रोपने के दावे किए गए, लेकिन भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की द्वि-वार्षिक रिपोर्ट ने योगी सरकार के पौधरोपण अभियान की हवा निकाल दी है। दूसरी ओर, सोनभद्र के प्रभागीय वनाधिकारी संजीव कुमार सिंह अब सफाई देते फिर रहे हैं। वह कहते हैं, "वन घटने के कई कारण हो सकते हैं। इन दिनों बड़े पैमाने पर विकास कार्य चल रहे हैं, जिसके लिए वनों को काटना पड़ता है। बदले में नए पौधे भी लगाए जाते हैं, लेकिन दोबारा पेड़ बनने में समय लगता है। फिलहाल रिपोर्ट आने पर ही कुछ स्पष्ट होगा।
भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की रिपोर्ट तो अब आई है, लेकिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने जंगलों की अंधाधुंध कटाई के बारे में सरकार को पहले ही अलर्ट कर दिया था। बीएचयू के रिर्सच स्कॉलर सुशील कुमार यादव की एक शोध रिपोर्ट पिछले साल ही नेशनल ज्योग्रॉफिक सोसाइटी ऑफ इंडिया के रिर्सच जर्नल में प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट में उन्होंने चंदौली के जंगलों का विस्तार से अध्ययन किया तो पाया कि साल 2010 के बाद से डेंस फारेस्ट एरिया में कमी आ रही है। चंदौली का घना वन क्षेत्र 4.05 फीसदी से कम होकर 2.55 फीसदी पर आ गया है, जो समूचे पूर्वांचल के लिए खतरे की घंटी है।
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शोध रिपोर्ट में कहा गया है, "जीवित प्राणियों के श्वसन, डेवलपमेंट, फूड चेन और एनर्जी के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे के लैडसेट सैटेलाइट डाटा में 2500 वर्ग किमी वाले चंदौली जनपद का बड़ा भू-भाग घने हरे जंगलों से आच्छादित है। इन जंगलों से बनारस सहित समूचे पूर्वांचल को शुद्ध ऑक्सीजन मिलती है। समय रहते जंगलों को नहीं बचाया गया तो पूर्वांचल की सांस भी अटक सकती है।"
(चंद्रकांता के नौगढ़ की एक शाम)
औद्योगिक गतिविधियों से दूर चंदौली जिले के नौगढ़, चकिया और शहाबगंज के हरे-भरे जंगल पूर्वांचल को ऑक्सीजन की सप्लाई करते रहे हैं। चंदौली के दक्षिणी इलाके में स्थित यह जंगल विंध्यन अपलैंड में आता है, जिसके विस्तार की चेन काफी लंबी है। मैदानी इलाकों में बड़े पैमाने पर अनाज का उत्पादन होता है, जहां उर्वरकों और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से बड़े पैमाने पर कार्बन डाई ऑक्साइड, मिथेन व अन्य जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है। इस प्रदूषण को चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगल ही नियंत्रित करते हैं। एक्टिविस्ट डॉ.लेनिन रघुवंशी कहते हैं, "एक पत्तीदार पेड़ एक सीजन में 10 लोगों के लिए वर्ष भर का ऑक्सीजन देता है। एक स्वस्थ्य पेड़ एक साल में 22 किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड सोखता है। औसतन एक पेड़ एक साल में 118 किलोग्राम ऑक्सीजन प्रतिवर्ष मुक्त करता है। जंगलों का लगातार सफाया होना समूचे देश के लिए चिंताजनक है।"
लॉयन का गढ़ थे ये जंगल
चंदौली के जंगल पहले शेरों और बाघों का गढ़ हुआ करते थे। ये वन पहले महाराजा बनारस की निजी संपत्ति हुआ करते थे। उन्होंने इसे एक अच्छे शिकारगाह के रूप में इस्तेमाल करने के मकसद से संरक्षित किया था। इन वनों को बचाने के लिए साल 1921 में बनारस स्टेट फ़ॉरेस्ट एक्ट बनाया गया। बाद में वनों को दो भागों में बांटा गया। पहला रेखांत वन, जिसमें लकड़ियों की कटाई पूरी तरह प्रतिबंधित थी। इसे शिकारगाह के रूप में उपयोग करने के लिए संरक्षित किया गया था। दूसरा था छूटांट वन। ये वन गांव की सीमा से लगे हुए थे। इस वन में लकड़ी काटने के लिए पांच रुपये प्रति कुल्हाड़ी सालाना शुल्क जमा करने की प्रथा थी। आजादी से पहले तक काशी वन्य जीव विहार के इलाके में काफी घने और रमणीक जंगल हुआ करते थे। इस जंगल में टाइगर और चौसिंघा मुख्य रूप से पाए जाते थे। गैंडे, बारहसिंघे जैसे जीवों का चित्रण राक पेंटिंग में कुछ साल पहले तक मौजूद रहा।
(औरवांटाड़ जल प्रपात का विहंगम दृश्य)
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री संपूर्णानंद ने 02 दिसंबर 1957 को चंद्रप्रभा वन्य जीव विहार के संरक्षण और संवर्धन के लिए एक नर, दो मादा शेर और एक बबर शेर इन जंगलों में छोड़वाए थे। इन शेरों को राजा-रानी और जयश्री नाम दिया गया था। कुछ साल तक ये वन्य जीव चंद्रप्रभाग से लगायात कैमूर वन्य जीव विहार में विचरण करते रहे। साल 1965 में काशी वन्य जीव विहार में इन जानवरों की गणना कराई गई तो इनकी संख्या 11 पहुंच गई थी। बाद में इस वन्य जीव विहार की सीमा छोटी पड़ने लगी और शिकार न मिलने की वजह से आसपास के वन क्षेत्रों में जाने लगे। नतीजा, साल 1970 में कुछ शिकारियों ने बब्बर शेर को मार डाला और दूसरे बाघ इस क्षेत्र को छोड़कर कहीं और चले गए। काशी वन्य जीव प्रभाग में साल 2001 में वन्य जीवों की गणना कराई गई तो गुलदार 14, भालू-133, चीतल-209, चिंकारा-223, चौसिंघा-09, सांभर-119 और 1697 जंगली सुअर पाए गए थे। नौगढ़ के गहिला और पंडी इलाके के जंगलों में पहले शेर विचरित किया करते थे जो भेड़-बकरियों का शिकार किया करते थे, लेकिन अब वो गायब हो चुके हैं।
मौजूदा समय में नौगढ़ के जंगलों में तेंदुआ, भालू, चिंकारा, चीतल, चौसिंघा, सांभर, लकड़बग्घा, लोमड़ी, जंगली सूअर, जंगली बिल्ली, सेही, खरगोस, बंदर, लंगूर, नीलगाय, बंदर आदि मौजूद हैं। वन्य जीवों के अलावा रंग-विरंगे पक्षी-मोर, चौखाड़ा, मुर्गा, तीतर, बटेर, चील, ब्रम्हीचील, राज गिद्ध, गिद्ध, जंगली कौवा, नीलकंठ, जंगली उल्लू, ब्राउन उड उल्लू, वया, कठभोड़वा, कोयल, जंगली मौना, तोता, बुलबुल का भी इस जंगल में बसेरा है। सरीसृप जीवों में अजगर, करैत, धामिन, पनिहां साप, गोह, गिरगिट, काला बिच्छू, भूरा बिच्छू आदि पाए जाते हैं तो जंगलों के बीच से निकलने वाली चंद्रप्रभा और कर्मनाशा नदियों में मछलियों की रोहू, भाकुर, नैन, कतला, मागुर, कोह, सिधरी, टेंगरा, सौर, वाम, सिंघी आदि प्रजातियां पाई जाती हैं। राजदरी और औरवाटांड के जल प्रपात की चट्टानों में गिद्धों की कालोनियां थी, जिनका वजूद अब मिटता जा रहा है।
झीलों-झरनों पर भी संकट
प्रख्यात उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री के "चंद्रकांता संतति" की कहानी चंदौली के नौगढ़, सोनभद्र और मिर्जापुर के वनों से जुड़ी हुई है। जिस जगह आज नौगढ़ का किला है वो पहले महाराजा सुरेंद्र सिंह और उनके पुत्र वीरेंद्र सिंह का महल हुआ करता था। वह नौगढ़ से विजयगढ़ (सोनभद्र) और चुनारगढ़ (मिर्जापुर) तक जिन रास्तों से होकर जाते थे उसकी प्राकृतिक छटा ऐसी थी जिससे तिलस्म का एहसास होता था। नौगढ़ वन विश्राम गृह के पास एक पत्थर की गुफाओं से होती हुई करीब एक हजार साल पुरानी सुरंग है जो विजयगढ़ तक जाती है। साल 1961 में इसके मुख्य द्वार को बंद कर दिया गया था। एक दूसरी सुरंग चुनारगढ़ तक जाती थी। इसे पहले नैनागढ़ गुफा के नाम से जाना जाता था। देवदरी जल प्रपात के पास एक काफी पुराना वृक्ष है जिसमें एक ही तने से पांच प्रजातियों के वृक्ष निकले हैं, जिसमें पीपल, पाक, वट, समी और गूलर के वृक्ष हैं। इसे पाकड़ पेड़ का नाम दिया गया है। मान्यता है कि इसी वृक्ष की वजह से इस स्थान को देवदरी के नाम पर रखा गया था। चंदौली और सोनभद्र के मनोरम झीलों व झरनों के वजूद पर भी अब संकट के बादल मंडराने लगे हैं।
(देवदरी के घाटों का एक दृश्य)
उत्तर प्रदेश के चर्चित आईएफएस अफसर रमेश चंद्र पांडेय ने चंदौली के नौगढ़ इलाके के जंगलों के महत्व पर एक विस्तृत शोध रिपोर्ट तैयार की है। करीब दो दशक पहले वह इस इलाके के प्रभागीय वनाधिकारी हुआ करते थे। रिपोर्ट के मुताबिक, "चंदौली के नौगढ़ वनों में मुख्य रूप से तेंदू, घौ, झींगन, खैर, ककोर आदि प्रजाति के वृक्ष हैं। यहां आसन, घौर, खैर, तेंदू, सलई, झींगन, पियार, महुआ, आंवला, ककोर, पलास, कोरैया साल, अर्जुन, जामुन के वृक्ष के निकट जलस्रोत पाए जाते हैं। इन जंगलों में बहेड़ा, हर्रा, कमरहटा, विजयसाल, चिलबिल, नीम, सेमल, ममरी, कदंब, अमलतास, फरई, महुली, वेलगोंधा, ढाक, कोरैया, मकोय, कुची के पेड़ों की बहुलता है।"
"काशी वन्य जीव अभ्यरण उत्तर प्रदेश का इकलौता ऐसा जंगल है, जो वनौषधियों से भरा हुआ है और अब वह भी संरक्षण के अभाव में विलुप्त होने की कगार पर है। नौगढ़ के जंगलों में सफेद मूसली, काली मूसली, नागर मोथा, चितावर, सतावर, दंतीमूल, पित्त पापड़, भ्रृंगराज, शिवलिंगी, असगंधा, अग्निमंथ, कंदरी, बड़ी हसिया, काकनासा, गुमची, भूमि आंवला, सहजना, टेसूफूल, अमरबेल, हरसिंगार, काद, धतूरा, वनतुलसी, इंद्र जौ, रोहिणी, धामिन, झींगन, कैरा, गुड़मार, केवटी, गंगेलुआ, काली गुलूशर, गुलाखड़ी, निशोदा, चौंघारा, मकरा, जमराली, कवनी गुल्फुला, साहुसमूली, पापड़ा, भृंगराज, अगड़ी, कालामेध, कलिहारी, मेद, चिरौंजी, मरोड़ फली, कमरहटा, विजयसाल, पिपली, वच, सेमल, आंवला, कढ़ी पत्ता, रीठा, कुसुम, जिंगकन, आम, बेर, आसन, अर्जुन, कटहटल, बरगद, गूलर, पीपल, जामुन, कचनार, अमलतास, इमली, खैर, बबूल, सिरिस आदि के पेड़ बड़े पैमाने पर आज भी मौजूद हैं। पहाड़ियों में काले रंग का लौह शिलाजीत भी यहां पाया जाता है, जो पत्थरों का मद होता है। जेठ और असाढ़ के महीने में जब विंध्य की पहाड़ियां गर्म होकर पिघलती हैं तब पत्थरों का रस एकत्र होकर ठोस रूप ले लेता है। इसे ही शिलाजीत कहते हैं। इलाकाई आदिवासियों का मानना है कि नौगढ़ के औरवांडांट इलाके में पाया जाने वाले शिलाजीत के विधि पूर्वक सेवन से हर तरह की बीमारियां ठीक हो सकती हैं।"
खदेड़े जा रहे आदिवासी
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर में वनों के सिकुड़ने की बड़ी वजह यह हैं जिन जंगलों में आदिवासियों बसेरा था, उसे मुहिम चलाकर मिटाया जा रहा है। जब इन्हें खदेड़ा जाने लगा तो वन माफिया ने घुसपैठ शुरू कर दी। नौगढ़ के औरवाटांड में आदिवासियों के बच्चों के लिए एक स्कूल का संचालन करने वाले जगदीश त्रिपाठी मौजूदा हालात से बेहद आहत हैं। वह बताते हैं, "चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में आदिवासियों की आठ जातियां रहती हैं जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, ओरांव या धांगर, पनिका, धरकार, घसिया और बैगा हैं। ये लोग जंगलों से तेंदू पत्ता, शहद, जलावन लकड़ियां, परंपरागत औषधियां इकठ्ठा करते हैं और इसे स्थानीय बाज़ार में बेचकर अपनी रोज़ी रोटी का इंतज़ाम करते हैं।
कुछ आदिवासियों के पास ज़मीन के छोटे टुकड़े भी हैं, जिन पर धान या सब्ज़ियों की खेती से उनकी ज़िंदगी गुज़रती है। मौजूदा समय में अपनी रोजी रोटी का इंतज़ाम करने का बेतरतीब तरीका इनकी ज़िंदगी को समझने के लिए मजबूर करता है।"
(ऐसी है सोनभद्र के आदिवासियों की ज़िंदगी)
जगदीश यह भी कहते हैं, "अंग्रेजी हुकूमत ने तो बकायदे कानून बनाकर आदिवासियों को जंगल से बेदखल कर करना शुरू दिया था, ताकि वो जंगलों के संसाधनों का इस्तेमाल अपने हितों के लिए कर सकें। आजादी के बाद भी जंगल का यह कानून लागू रहा और जंगल के निवासियों को अपने अधिकारों के लिए भारतीय राज्य से लगातार लड़ना पड़ा।"
चंदौली की सीमाएं जहां बिहार से जुड़ती हैं, वहीं सोनभद्र की मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार व झारखंड से। जंगलों का दायरा तेजी से घटना खतरे का अलार्म बजा रहा है। पिछले दो सालों से कोरोना महामारी ने जिस तरह से ऑक्सीजन की अहमियत को खड़ा किया है उससे अब हर किसी को पेड़-पौधों की उपयोगिता अच्छी तरह से समझ में आ गई है। इसके बावजूद यूपी की भाजपा सरकार ने वनों के संरक्षण के मामले को गंभीरता से नहीं लिया।
बर्बाद हो रही विश्व की बड़ी प्रयोगशाला
सोनभद्र और मिर्जापुर के जंगलों में भी पहले आदि मानव हुआ करते थे। कुछ ही बरस पहले यहां आदि मानवों द्वारा प्रयोग किए जाने औजारों की पूरी खेप खोज सोनभद्र से निकाली गई थी। वैज्ञानिकों के मुताबिक पुरातात्विक नजरिए से यह समूचा इलाका विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है। सोनभद्र में ही दुनिया का सबसे प्राचीन फासिल्स पार्क भी है, जिसमें स्ट्रोमेतोलाईट श्रेणी के जीवाश्मों का भंडार है, लेकिन खनन का भूत इन बेशकीमती पत्थरों को भी तहस-नहस कर रहा है। कई क्षेत्रों में भारी मशीनें लगाकर जमीन से बालू निकलने की हवस में जीवाश्मों को भी जमींदोज कर दिया गया।
कैमूर वन्य जीव क्षेत्र में अवैध खनन का सर्वाधिक असर यूपी और बिहार के करीब 40 जिलों में खेतों की सिंचाई करने वाली सोन नदी पर पड़ा है। खनन माफियाओं ने मंत्रियों और अधिकारियों की शाह पर समूची सोन को ही गुलाम बना दिया है। आलम यह है कि भारी बारिश के बावजूद सोनभद्र में सोन सूखी हुई है।
(मिर्ज़ापुर में नंगे होते जाते जंगल)
नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश और बिहार के सोन से सटे तमाम जनपदों में खेती-किसानी तो चौपट हो ही गई और वन्य जीव अभ्यारण्य का स्वरूप भी छिन्न-भिन्न होता चला गया। नंगा सच यह है कि जबसे सेंचुरी क्षेत्र में खनन शुरू हुआ तबसे अब तक दुर्लभ प्रजाति के हजारों हनुमान लंगूरों (एक विलुप्त प्रजाति) की मौत हो चुकी है। जंगलों के चीरहरण से सोनभद्र से सोन उजड़ती जा रही है
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, "पूर्वांचल के जंगलों का सफाया महीने-दो महीने में नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ दल भाजपा के कार्यकाल में बनारस के फेफड़ों को खत्म करने की गहरी साजिशें रची गईं, तभी हैरान करने वाला नतीजा सामने आया है। इसके पीछे दो तरह की चीजें हैं। पहला, अंधाधुंध विकास के प्रकृति विरोधी माडल ने पर्यावरण को लगातार क्षति पहुंचाई है। दूसरा, इलाके के वनवासियों को बेदखल करने के लिए भी जंगल काटे जा रहे हैं। पूर्वांचल के आदिवासियों के पास जल, जंगल, जमीन का नैसर्गिक अधिकार रहा है और यह सरकार उनसे अभिलेखों की मांग कर रही है। योगी सरकार की इन नीतियों का शिकार एक तरफ आदिवासी हो रहे हैं तो दूसरी ओर पूर्वांचल का पर्यावरण लगातार बिगड़ता जा रहा है। इसे लेकर जिस तरह का सांगठनिक विरोध होना चाहिए, उसका नितांत अभाव है। जंगलों की जिस प्राकृतिक संपदा को भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारी, सरकार और उनके पूंजीपति मित्र दोनों हाथों से लूटते चले जा रहे हैं, उससे ये जंगल कितने दिन टिक पाएंगे, दावे के साथ कह पाना कठिन है।"
"हैरान करने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में नौकरशाही से गांठ जोड़कर सत्ता से जुड़े तमाम लोग फर्श से अर्स पर पहुंच गए और उनकी शिनाख्त तक नहीं की जा सकी। चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर में सिर्फ प्राकृतिक ही नहीं, सामजिक संतुलन भी बिगड़ रहा है, जिससे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय स्थितियां गड़बड़ाती जा रही हैं। यह इलाका वन्य जीवों के लिए भी जाना जाता था और वह अब अपनी पहचान खोता जा रहा है। यही हाल रहा तो इस इलाके में सिर्फ नंगी पहाड़ियां ही देखने को मिलेंगी। व्यापाक और संगठित सोच वाले आंदोलन की जरूरत है, अन्यथा लोग देखते रह जाएंगे और आंखों के सामने ही सब कुछ खत्म हो जाएगा।"
(मिर्ज़ापुर के अहरौरा का एक दृश्य)
चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के अधिकांश आदिवासियों को जमीन का मालिकाना हक अभी तक नहीं मिल सका है। पर्यावरणविद महेशानंद भाई कहते हैं, "सरकारें आदिवासी विरोध को कुचलने के लिए झूठे मामले बनाकर आदिवासियों को जेल में डालती रहती हैं। चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर में होने वाला आदिवासी विरोध भी सरकार की इन कारगुज़ारियों से अछूता नहीं है। आदिवासियों का जन-जीवन आज भी एक ऐसे क्षेत्र की दास्तान है, जो जंगलों को उजाड़े जाने की कहानियां सुना रहा है। घने जंगलों के उजाड़े जाने की बात अभी तक सरकारें नकारती रही हैं जबकि सच्चाई ठीक इसके उलट है। नतीजा, सबके सामने है। उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक क्षेत्रफल वाला कैमूर और काशी वन्य जीव अभ्यारण्य अब लुप्त होने की कगार पर है। धन कमाने की हवस में ललितपुर से लेकर सोनभद्र से लगायात चकिया (चंदौली) तक फैले समूचे अभ्यारण्य को वन माफियाओं ने चर डाला है।"
एक तरफ जंगलों को नेस्तानाबूद करने का खेल जोरों से जारी है तो दूसरी ओर प्राचीन जीवाश्मों और आदि मानवों के विकास से जुडी पुरातात्त्विक धरोहरों की अद्भुत संपदा नष्ट को नष्ट करने का। जंगलों के चीरणहरण से जो हालात पैदा हुए हैं उससे हजारों एकड़ वन भूमि में जलस्तर तेजी से घटा है। जमीन की ऊपरी परत फट चुकी है और जंगलों के साथ अभ्यारण्य में मौजूद नदियां अब नालों में तब्दील होती जा रही है।
(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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