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बाबरी ध्वंस से राम मंदिर तक, भारतीय राजनीति की बदलती दशा और दिशा

बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने फिरकापरस्त ताकतों को सत्तासीन किया और अब मंदिर के उद्घाटन का उपयोग ध्रुवीकरण को और गहरा करने और उससे चुनावों में लाभ लेने के लिए किया जा रहा है।
mandir masjid

स्वाधीन होने के बाद भारत ने जो दिशा और राह चुनी, उसकी रूपरेखा जवाहरलाल नेहरु के ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ भाषण में थी। नेहरु ने कहा, “भारत की सेवा का अर्थ है लाखों-लाख पीड़ितों की सेवा। भारत की सेवा का अर्थ है निर्धनता, अज्ञानता, रोग और अवसर की असमानता को समाप्त करना। हमारी पीढ़ी के महानतम व्यक्ति की अभिलाषा तो यही है कि हर आंख से हर आंसू पोंछा जाए। यह हमारे बस की बात न भी हो, तब भी, जब तक आंसू हैं और पीड़ा है, हमारा काम खत्म नहीं होगा।”

और इसी सन्दर्भ में उन्होंने भाखड़ा नंगल बांध का उद्घाटन करते हुए अपने भाषण में आधुनिक भारत के मंदिरों की बात कही। ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ अख़बार ने लिखा, “अत्यंत भावपूर्ण शब्दों में प्रधानमंत्री ने इन स्थानों को मंदिर और आराधना स्थल बताया जहां हजारों लोग, अपने दसियों लाख बंधुओं के कल्याण की खातिर एक बड़ी रचनात्मक गतिविधि में रत हैं।”

“आधुनिक भारत के मंदिर”- यह वाक्यांश उस थीम को अपने में समेटे हुए था जो सार्वजनिक क्षेत्र की परिकल्पना का आधार थी और जिस थीम के भाग के रूप में वैज्ञानिक समझ को बढ़ावा देने के लिए शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की गई, अस्पताल बनाए गए और संस्कृति के उन्नयन के लिए विभिन्न अकादमियों का गठन किया गया। “आधुनिक मंदिरों” के निर्माण का सिलसिला करीब चार-पांच दशक तक चलता रहा।

सन 1980 के दशक में इस प्रक्रिया को पलट दिया गया। इस दशक में अल्पसंख्यकों की खातिर शाहबानो फैसले को पलटने के सरकार के निर्णय से विघटनकारी राजनीति के एक लम्बे दौर की शुरुआत हुई। सांप्रदायिक ताकतों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रचार युद्ध छेड़ दिया। इसके साथ ही, पिछड़ों और दमितों के कल्याण के लिए सकारात्मक कदम के रूप में मंडल आयोग की रपट लागू करने के निर्णय ने मंदिर राजनीति, जो पहले से ही हिन्दू राष्ट्रवादियों के रणनीतिक एजेंडा का हिस्सा थी, को जबरदस्त बल दिया।

नेहरु के ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ का निर्माण करने की बजाय, मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजे जाने लगे। बाबरी मस्जिद को लेकर खड़ा किया गया विवाद, इसी अभियान का हिस्सा था। सन 1980 में संघ परिवार में एक नए सदस्य का जन्म हुआ। वह सदस्य थी बीजेपी। कुछ दिन तक यह नई पार्टी गांधीवादी समाजवाद में आस्था रखने का नाटक करती रही। इसका नेतृत्व नर्म नेता का मुखौटा पहने अटलबिहारी वाजपेयी की हाथ में था। वाजपेयी संघ की विचारधारा में पूर्ण आस्था रखते थे। “हिन्दू तनमन, हिन्दू जीवन”, उन्होंने अपने बारे में लिखा था। लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से अपने असली हिन्दू राष्ट्रवादी चेहरे को ढंक कर रखा। बाद में उनकी जगह लालकृष्ण अडवाणी ने ले ली। अडवाणी ने “मंदिर वहीं बनाएंगे” का नारा बुलंद किया।

संघ परिवार लोगों को यह समझाने में सफल रहा कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था जहां बाबरी मस्जिद थी। मंडल आयोग की रपट के लागू होने से राम रथयात्रा को और ताकत मिली। यात्रा अपने पीछे खून की एक गहरी रेखा छोड़ती गई। सन 1990 के आसपास, देश के विभिन्न हिस्सों में इस यात्रा के गुजरने के बाद हुई हिंसा में करीब 1,800 लोग मारे गए। लालू प्रसाद यादव द्वारा अडवाणी की गिरफ़्तारी के साथ यह यात्रा समाप्त हो गई।

सन 1992 के 6 दिसंबर को चुने हुए कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया। उन्हें बाकायदा इसका प्रशिक्षण दिया गया था और उन्होंने इसकी रिहर्सल भी की थी। जिस समय मस्जिद तोड़ी जा रही थी, मंच पर अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती भी थे। मंच से “एक धक्का और दो, बाबरी मस्जिद तोड़ दो” और “ये तो केवल झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है” जैसे नारे लगाए जा रहे थे।

बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद मुंबई, भोपाल, सूरत और कई अन्य शहरों में भयावह सांप्रदायिक हिंसा हुई। और अंततः हमारी न्याय प्रणाली ने हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों के समक्ष समर्पण करते हुए इस मामले का निर्णय ‘आस्था’ के आधार पर सुना दिया। फैसले में उन लोगों के नाम लिए गए जिन्होंने मस्जिद के ध्वंस का नेतृत्व किया था मगर उन्हें उनके अपराध की कोई सजा नहीं दी गई। न्यायपालिका ने मस्जिद की पूरी जमीन “हिन्दू पक्ष” को दे दी।

अपनी इस सफलता से आल्हादित संघ परिवार ने देश से और विदेशों से भी भारी धनराशि एकत्र की और उससे बना भव्य राममंदिर अब तैयार है। इसका उद्घाटन पूरे हिन्दू कर्मकांडों के साथ स्वयं प्रधानमंत्री करेंगे। औपचारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया के हाथों यह मंदिर जनता के लिए खुलेगा। जब तक बाबरी मस्जिद थी, तब तक वह बीजेपी के चुनाव अभियान का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थी। उसके बाद से ‘भव्य राममंदिर’ का निर्माण पार्टी के चुनाव घोषणापत्रों और वायदों का अहम हिस्सा रहा है। गुजरे सालों में मुसलमान अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं, देश का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण हुआ है और बीजेपी की चुनावी ताकत में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है।

वर्तमान स्थिति का सारगर्भित वर्णन लेखक ए एम सिंह ने इन शब्दों में किया है: “सत्ता में आने के बाद से, बीजेपी के राजनैतिक आख्यान ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाया है। और बीजेपी सरकार ने इसी दिशा में कई कदम भी उठाए हैं। संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया गया और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित किया गया। भारत की नागरिकता को हिंदुत्व के सिद्धांतों के आधार पर पुनर्परिभाषित कर, बीजेपी सरकार ने हमारे संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के मूल्य के भविष्य और उसकी विरासत को किरच-किरच कर दिया है।” अपने मोहल्लों में सिमटे मुसलमान, समाज के हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है।

मंदिर के उद्घाटन के मौके का इस्तेमाल हिन्दुओं को गोलबंद करने के लिए किया जा रहा है। अमेरिका और अन्य देशों में अप्रवासी भारतीय इससे जुड़े कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। देश के भीतर, आरएसएस और उसके परिवार के सदस्य हिन्दुओं को इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि या तो वे नए मंदिर के उद्घाटन कार्यक्रम में जाएं या उस दिन स्थानीय मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करें।   

इस समारोह में किसे आमंत्रित किया गया है और किसे नहीं, इसको लेकर भी कुछ विवाद सामने आये हैं। पहले मंदिर ट्रस्ट ने बाबरी मस्जिद के ध्वंस के मुख्य आर्किटेक्ट अडवाणी और उनके नजदीकी सहयोगी मुरलीमनोहर जोशी से कहा कि इन दोनों नेताओं की उम्र और अयोध्या में उस समय जबरदस्त ठंड पड़ने की सम्भावना के चलते उन्हें कार्यक्रम में नहीं आना चाहिए। बाद में शायद इस मसले पर पुनर्विचार हुआ और विहिप ने दोनों को आमंत्रित किया।

बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने फिरकापरस्त ताकतों को सत्तासीन किया और अब मंदिर के उद्घाटन का उपयोग ध्रुवीकरण को और गहरा करने और उससे चुनावों में लाभ लेने के लिए किया जा रहा है। लोगों को अयोध्या ले जाने के लिए बड़ी संख्या में विशेष रेलगाड़ियों और बसों का इंतजाम हो रहा है।

यह वह समय है जब हमें नेहरु के ‘आधुनिक भारत के मंदिरों’ की संकल्पना और वैज्ञानिक समझ के विस्तार और विकास के प्रयासों को याद करना चाहिए। इस समय धार्मिकता और अंधश्रद्धा को जबरदस्त बढ़ावा दिया जा रहा है। जब हमने औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों को तोड़ा था, तब हमने यह संकल्प लिया था कि ‘अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति’ हमारा फोकस होगा। परन्तु आज राजनीति अयोध्या के राममंदिर के आसपास घूम रही है। और उसके बाद, काशी और मथुरा तो बाकी हैं ही। ऐसे में ‘अंतिम व्यक्ति’ की किसे चिंता है? नेहरु ने ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ में जो वायदे किये थे, वे सब भुला दिए गए हैं। और देश की हर समस्या, हर असफलता के लिए नेहरु को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

साभार : सबरंग 

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