गांधी रोज़ मरते हैं बस हम देखते नहीं
एक समाज के लिए सबसे ख़तरनाक बात क्या होती है? इसका जवाब बहुत कुछ हो सकता है लेकिन गांधी जी के 'पीर पराई जाने रे' जीवन से समझा जाए तो यह जवाब मिलता है कि एक समाज के लिए सबसे ख़तरनाक बात यह है कि उस समाज के लोगों का मन अपने से अलग दूसरों के प्रति सोचना बंद कर दे। लोगों के मन में यह भाव पनपने लगना कि आगे बढ़ते हुए हम दूसरों के बारें में सोचेंगे तो कुछ नहीं होगा। अगर हमने ईमानदार जीवन जिया तो दुनियदारी में हम बहुत पीछे धकेल दिए जाएंगे।
ऐसे में पता भी नहीं चलता कि हम आगे बढ़ने के नाम हर रोज गांधी को मार रहे हैं। अपनी इंसानियत को तो मार ही रहे हैं, दूसरों का हक़ भी मार रहे हैं। उन लोगों और समूहों का औजार बन रहे हैं जो गरीब, बेसहारा, हाशिये के लोगों को कुचलकर आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे ही मौकों के लिए गांधी जी ने कहा था, "मैं तुम्हें एक ताबीज़ देता हूँ कि कुछ भी करने से पहले दबे और कुचले लोगों के बारे में जरूर सोचना कि उनपर तुम्हारे काम से क्या प्रभाव पड़ेगा।”
हमने दूसरों के बारे में सोचना बंद कर दिया है। इसलिए हमारे लिए केवल हमारे मन में बसी जीत और हार की धारणाएं मायने रख रही है। अगर समाज इस दौर से गुजर रहा हो तो उस समाज को नियंत्रित करने वाली सारी संस्थाएं भी जर्जर होने लगती है। संस्थाओं का निर्माण जिन प्रक्रियाओं पर होता है, उनमें धांधली होने लगती है। इसलिए चुनी हुई सरकारें तो दिखाई देती हैं लेकिन न ही चुनावी प्रक्रियाओं से ऐसा लगता है कि वाकई चुनाव हुआ है और न ही सरकार के कामों से ऐसा लगता है कि वह सरकारों वाले काम कर रही है।
ऐसे जर्जर होते समाज को कौन बचाएगा ? इसका जवाब ढूढ़ने निकले बहुत सारे लोग गांधी के शरण में जाते हैं। उस गांधी की जिसकी 30 जनवरी, 1948 को हत्या कर दी जाती है, जिनकी आज पुण्य तिथि है, शहीद दिवस है। जिनका नाम याद आते ही अहिंसा की याद आती है। हाड़-मांस के एक ऐसा इंसान जो बड़ी सी बड़ी लड़ाई जीतने के लिए अहिंसा के रास्ते को अपनाने की बात करता था। वह गांधी जिसकी अहिंसा की कसौटी यह नहीं थी कि कोई किसी पर हिंसा न करे। बल्कि यह थी कि दूसरों के प्रति उसके मन में करुणा और संवेदना हो ताकि दूसरों के होने से नफ़रत करने की बजाय दूसरों के बुरे गुणों से नफरत करे। इसलिए गांधी हिन्दू धर्म की ऐसी व्यख्याएं करते हैं, जो पूरी तरह से अहिंसा भी आधारित हैं। गांधी गौ हत्या को तो गलत मानते हैं लेकिन गाय के नाम पर इंसानों की हत्या से ज्यादा उचित समझते हैं गाय का मर जाना।
इसलिए गांधी के बारे में कहा जाता है कि गांधी के जीवन के बहुत सारे योगदानों में एक सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने परम्परा में रचे बसे हिन्दुस्तन को परम्परा में लपेटते हुए आधुनिकता में जोड़ दिया। इसके लिए उन्होंने पूरी तरह से परम्परा को नहीं ख़ारिज किया लेकिन परम्परा में वैसी छलनी लगाई जिससे परम्परा के बुरे तत्व बाहर निकल जाए। और यह छलनी थी मानवीय आधार पर सही और गलत की व्यख्या करना। इसलिए गांधी खुद को सनातनी हिन्दू भी कहते हैं और हिन्दू धर्म की बुराइयों पर जमकर हमले भी बोलते है। यही वजह है कि गांधी की हत्या उन्होंने की जिन्हें हिन्दू धर्म से ज्यादा हिन्दू धर्म की बुराइयों से लगाव था।
जो धर्म को ऐसे खांचें की तरह देखते थे जो इंसानों के बीच बंटवारे करने के काम आता था। ऐसा खांचा जिससे हिन्दू और मुस्लिम बनते हैं। ऐसा खांचा जिससे अपने लिए श्रेष्ठता बोध और दूसरों के लिए नीचता का भाव पनपता था। ऐसा खांचा जिससे अपने लिए पवित्रता और दूसरों के लिए गंदगी की समझ बनती थी। एक ऐसा खांचा जो धर्म में मौजूद इंसानियत की बजाए नफरत का भाव पनपाने में ज्यादा भूमिका निभाता था।
याद कीजिये गांधी के जीवन का अंतिम साल। गांधी के बंगाल के नोआखली का दौरा। हिंदुस्तान हिन्दू- मुस्लिम की नफ़रत के आंधी में डूबा हुआ था लेकिन गांधी अकेले खड़े होकर दोनों धर्म के बीच प्रेम बनाने की लड़ाई लड़ रहे थे। धर्म और असहमति के नाम से मॉब लिंचिंग में तब्दील होते जा रहे है भारत को अख़लाक़ के गांव के पंचायतो में ऐसे मुखिया की जरूरत है।
हिन्दू-मुस्लिम बैर फैलाकर कश्मीर को अलग-थलग कर देने वाली सरकार के खिलाफ गांधी जैसे विपक्ष के नेताओं की जरूरत है जो पुलिस दवारा रोके जाने पर चुपचाप लौट न आएं बल्कि वहीं पर सत्याग्रह छेड़ दें।
इस दौर में जब हर गली-मोहल्ला नफरतों में पल बढ़ रहा है तो ऐसी अगुवाई की जरूरत है जो आजादी से पहले वाले गांधी को नए संदर्भों में गढ़ पाए। जो भारत की रूह को समझता हो और भारत को मानवीय धरातल पर लाने के अनंतकालीन लड़ाई लड़ने का इरादा रखता है। जिसकी लड़ाई सरकारी तख्ता पलट करने से ज्यादा इसकी हो कि समाज के माहौल का बदलाव ऐसा हो जिसमें इंसानियत फल फूल सके।
हाल- फिलहाल संविधान पर सबसे बड़ा हमला नागरिकता संशोधन अधिनियम बनाने से हुआ है। पहली बार नागरिकता तय करने के लिए धार्मिक भेदभाव किया जा रहा है। यह कैसे हुआ ? किस नीयत से हुआ ? ज़रा इसको समझने की कोशिश कीजिये। इस कानून के आने से पहले किसी भी नागरिक से भारत की बड़ी परेशनियो के बारे में पूछा जाता तो वह रोटी-रोज़गार का नाम तो लेता लेकिन कभी भी नागरिकता का नाम नहीं लेता। लेकिन अब नागरिकता की लड़ाई लड़ी जा रही है। यही आज की सबसे बड़ी लड़ाई है। ऐसा क्यों हुआ? इसलिए क्योंकि हमारे बीच ऐसे लोग और ऐसे नेता पनप रहे हैं जो धर्म के नाम पर नफ़रत में डूबकर खुलेआम भेदभाव कर रहे हैं। जो लेते तो संविधान की शपथ हैं, लेकिन वास्तव में जिनका हमारे इस समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक संविधान में कोई विश्वास नहीं।
ऐसे लोग जिन्हें शाहीन बाग़ की प्रदर्शनकारी महिलाएं "बिकाऊ औरतें" लगती हैं, जिन्हेें भेदभाव से आज़ादी के नारे में बगावत नज़र आती है, जो बिल्कुल अंधे होकर जामिया के प्रदर्शनकारीयो पर गोलियां चलाने निकल पड़ते हैं।
हमारे कट्टरवादी नेताओं ने ऐसा माहौल बहुत मेहनत से बनाया है। अब भाजपा जैसी पार्टी को सरकारी तख्ता अपने पास बनाये रखने के लिए क्या चाहिए कि वह हिन्दू धर्म के नाम पर समाज में बंटवारा पैदा करती रहे और 30 फीसदी वोट भी हासिल कर सरकार बनाती रहे।
इसलिए इस समय ऐसे राजनीती की जरूरत है, जो गांधी के राजनीति की तरह गहरी हो, जो चुनावी हार-जीत तक सीमित न हो। जो जनता की बात को सुनकर केवल उसे लाउडस्पीकर तक डाल देने तक सीमित न हो। बल्कि ऐसी हो जो जनता को बदलने पर मजबूर करे, जो जनता को सोचने पर मजबूर करे कि वह क्या गलत कर रही है। क्या उसने 'पीर पराई जाने रे' को महसूस करना बंद कर दिया है ?
चलते -चलते आपको एक फेसबुक पोस्ट पर पूछे गए सवाल पर सोचने के लिए छोड़ जाता हूँ। सोचियेगा ज़रूर।
जिस गांधी को 50 सालों में अंग्रेज सरकार मार नहीं सकी, उसे हम आज़ाद भारत में 6 महीने भी ज़िंदा नहीं रख पाये।
क्यों ?
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।