श्रीलंकाई तमिल समस्या की भूगोलीय राजनीति
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके श्रीलंकाई समकक्ष महिंदा राजपक्षे के बीच आभासी शिखर वार्ता कुछ हद तक अवास्तविक सी लगी। यह शिखर वार्ता अपनी तरह की पहली वार्ता थी जिसे मोदी ने किसी दक्षिण एशियाई नेता के साथ आयोजित किया था। उम्मीदें ज्यादा थीं। लेकिन इसमें कई खामियां उभर आई।
श्रीलंकाई तमिल समस्या जैसे प्रमुख मुद्दे पर 26 सितंबर को हुए शिखर सम्मेलन के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि, “प्रधानमंत्री मोदी ने श्रीलंका की सरकार से तमिल लोगों की समानता, न्याय, शांति और सम्मान के प्रति आकांक्षाओं को संबोधित करने का आह्वान किया और एकजुट श्रीलंका तथा श्रीलंका के संविधान में तेरहवें संशोधन के कार्यान्वयन के साथ सामंजस्य की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का भी आह्वान किया है। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने विश्वास व्यक्त जताया कि श्रीलंका लोगों से हासिल मज़बूत जनादेश के अनुसार और संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने के लिए श्रीलंका तमिलों सहित सभी जातीय समूहों की उम्मीदों को साकार करने की दिशा में काम करेगा।”
जाहिर है, इस वार्ता में राजपक्षे पिछली सरकार द्वारा लागू उस 13 वें संविधान संशोधन को लागू करने के मामले में प्रतिबद्धता जताने से किनारा कर गए, जो संशोधन 2015 में उनके सत्ता से बाहर जाने के बाद लाया गया था। इसके बजाय, उन्होंने "तमिलों सहित सभी जातीय समूहों की उम्मीदों" पर खरा उतरने की बात कही और कहा कि फरवरी के चुनाव में मिले “जनादेश” के मुताबिक और संबंधित संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार "राष्ट्रीय विमर्श" जारी रहेगा ताकि समस्या से निजात पाई जा सके।
दिलचस्प बात यह है कि राजपक्षे ने मोदी का ध्यान उन्हे मिले "बड़े पैमाने के जनादेश" की तरफ भी दिलाया, जो उन्हें मतदाताओं से चुनाव में मिला था। राजपक्षे ने कहा, "सभी के हितों के लिए काम करना हमारी जिम्मेदारी है।" संक्षेप में, उन्होंने बातों-बातों में मोदी को संदेश दे दिया कि सुलह प्रक्रिया में बहुसंख्यक सिंहली समुदाय की स्वीकार्यता का होना निहायत ही आवश्यक है- जिसका स्पष्ट अर्थ है कि दिल्ली गलत पेड़ को काट रही है। विडंबना यह है कि मोदी सरकार भी भारत में एक खास विचारधारा का पालन करती है।
सिंहली बहुसंख्यक समुदाय की पहले से मांग रही है कि 13 वें संविधान संशोधन को खत्म किया जाए। बहरहाल, मोदी ने फिर भी इसे आगे बढ़ाने का फैसला किया। प्रभावी रूप से, राजपक्षे ने मोदी की जोरदार मांग को पीछे धकेल दिया जिसमें उन्होने 13वें संशोधन के कार्यान्वयन को "आवश्यक" बताया था।
श्रीलंका की तमिल समस्या का ऐतिहासिक रूप से भू-राजनीतिक आयाम रहा है। भारत उस राजनयिक मैदान में एक स्टार कलाकार रहा है। भारतीय हस्तक्षेप ने अलग-अलग समय पर अलग-अलग रूप धारण किए हैं। 1970 के दशक के उत्तरार्ध के बाद से, एक दशक तक दिल्ली ने तमिल समस्या का इस्तेमाल राष्ट्रपति जे॰जे॰ जयवर्धने (1978-1989) जो पश्चिमी देशों के पक्षधर श्रीलंकाई नेता थे पर दबाव बनाने के लिए किया था।
लेकिन कोलंबो ने भारत की हस्तक्षेप करने वाली नीतियों को धता बताने के लिए बेहतरीन कूटनीतिक कौशल का प्रदर्शन किया था। 1980 के दशक के मध्य तक जयवर्धने ने शानदार ढंग से दिल्ली को पछाड़ते हुए अपनी पिछली भूमिका को यानि जिसमें वे तमिल उग्रवादी समूहों के संरक्षक के रूप में उभरे थे को बदल दिया और वे समुदाय के टर्मिनेटर बन कर उभरे, और इस प्रक्रिया में दिल्ली को व्यापक रूप से नुकसान हुआ और उसे खुद को श्रीलंकाई राष्ट्रीयता के प्रश्न से पूरी तरह से हटा लिया।
अगले दो दशकों में भारत के हिसाब से भू-राजनीति ने पीछे की सीट ले ली, जिसने छब्बीस साल के लंबे संघर्ष के बाद यानि 2008 में कोलंबो को सफलतापूर्वक तमिल अलगाववादी समूहों को हराने में मदद की।
अब मोदी सरकार का प्रवेश होता है। मोदी सरकार की विदेश नीति के हिसाब से चीन के खिलाफ उसकी दुश्मनी की बदौलत 2014 में भूराजनीति में लगभग रातोंरात बदलाव आ गया और उसकी वापसी शुरू हो गई। जनवरी 2015 में, श्रीलंका के इतिहास में पहली बार, बाहरी शक्तियों ने राजपक्षे जैसे कट्टर राष्ट्रवादी नेतृत्व को हटाने के लिए कोलंबो पर दबाव बनाया, जिसे दिल्ली और वाशिंगटन "चीन समर्थक" मानते हैं।
इस शासन बदलाव परियोजना की एक अनूठी विशेषता यह थी कि तमिल नेशनल एलायंस [टीएनए] के तहत संगठित तमिलों को कोलंबो में एक स्थापित सिंहला नेतृत्व वाली सरकार को उखाड़ फेंकने का जिम्मा दिया गया था। तमिल नेशनल एलायंस [टीएनए] आने वाले लंबे समय तक इस अपमान को झेलता रहेगा। यह रणनीति तमिल लोगों के हितों में नहीं थी कि वह खुद को एक भौगोलिक राजनीतिक परियोजना के पचड़े में डाले।
बीतीबातों के हिसाब से हालांकि 2015 की शासन परिवर्तन परियोजना की निरर्थकता जल्द ही उन पर हावी हो गई, और दिल्ली और वाशिंगटन ने श्रीलंका पर दोगुना दबाव बढ़ाने का फैसला किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कोलंबो में राजपक्षे की सत्ता में वापसी के बाद से चीन को किनारे करने के लिए यूएस-इंडियन “इंडो-पैसिफिक रणनीति” को आगे बढ़या गया है।
अब नया एजेंडा, राजपक्षे सरकार को चार देशों के समूह जिसमें (अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया शामिल है) की कक्षा में लाना है। लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रवादी नेता इन चार देशों के समूह और बीजिंग के बीच किसी का पक्ष लेने को तैयार नहीं हैं- वास्तव में एशियाई महाद्वीप के अधिकांश देश इसके पक्ष में नहीं हैं।
इसलिए कोलम्बो पर ढेर सारा दबाव बनाने के लिए तमिल समस्या का नए सिरे से इस्तेमाल करने की एक कोशिश है। यह श्रीलंका में "मानवीय हस्तक्षेप" के माध्यम से एक भूराजनीतिक एजेंडे की खोज में है। लेकिन महिंद्रा राजपक्षे एक लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए नेता हैं, जिन्हें 71 प्रतिशत वोटों का भारी जनादेश मिला है, और सत्ता में उनकी राजनीतिक वापसी का दिल्ली या वॉशिंगटन से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
पिछले सप्ताह हुई आभासी शिखर वार्ता से पता चल जाता है कि श्रीलंकाई राष्ट्रवाद दिल्ली की घुसपैठ की नीति के खिलाफ है। दिल्ली ने श्रीलंकाई धार्मिक प्रतिष्ठान को "बौद्ध संबंधों को बढ़ावा देने के लिए" 15 मिलियन डॉलर का अनुदान दिया है, लेकिन कोलंबो शक्तिशाली बौद्ध संत का फायदा उठाने के भारतीय इरादों के बारे में सतर्क रहेगा। 2014-2015 में श्रीलंकाई सरकार को अस्थिर करने की स्मृति अभी भी उनके मन में ताजा होगी।
श्रीलंका के आंतरिक मामलों में यूएस-भारतीय हस्तक्षेप का मुकाबला करने के मामले में कोलंबो पहले की तुलना में आज काफी बेहतर स्थिति में है। मौलिक रूप से, एक अंतर्विरोध है, जबकि श्रीलंका की विदेश नीतियां भू-आर्थिक विचारों से प्रेरित हैं, जबकि भारत और अमेरिका का एजेंडा सर्वोपरि रूप से भूराजनीतिक है, और उसका यह दृष्टिकोण है कि यह द्वीप एक "स्थायी विमान वाहक," है जिसे पूर्व भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने एक बार खुलकर बताया था।
हिंद महासागर क्षेत्र का चार देशों के समूह में शामिल होना अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति का एक आवश्यक हिस्सा है। श्रीलंका में अमेरिकी सेना की उपस्थिति अमेरिका को हिंद महासागर की समुद्री तटों को नियंत्रित करने में उनकी तथाकथित "द्वीप श्रृंखला रणनीति" को आगे बढ़ाने में सक्षम करेगी, जो चीन के विदेश व्यापार के लिए महत्वपूर्ण हैं।
शीर्ष अमेरिकी अधिकारी पिछले साल से श्रीलंका सरकार को धमकी दे रहे हैं कि जब तक कि वे इंडो-पैसिफिक रणनीति के साथ सहयोग नहीं करते है, तो 2007-2008 की अवधि में तमिल अलगाववादियों के खिलाफ युद्ध में उसका मानवाधिकार रिकॉर्ड उसके खिलाफ जाएगा और उसका खामियाजा नरक से भी बदतर होगा।
निसंदेह, राजपक्षे ने मोदी की द्विपक्षीय वार्ता/शिखर सम्मेलन के न्यौते को यह जानते हुए स्वीकार किया कि वे श्रीलंकाई तमिल समस्या को आभासी शिखर सम्मेलन में लाएँगे। इसलिए वे इस पर प्रतिक्रिया के लिए तैयार थे। दिल्ली को अब यह सोचना चाहिए कि दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अमेरिका की तरफदारी वाली इंडो-पैसिफिक रणनीति को लागू करना या उसे हांकना भारत के कितने हित में है।
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