HEFA और NEP से होगा उच्च शिक्षा पर हमला, वंचित तबक़ों के छात्रों को होगा भारी नुकसान
दिल्ली और मुंबई में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT), यूपी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय सहित कई सरकारी शिक्षण संस्थान, भारी फीस बढ़ोतरी के खिलाफ छात्रों के विरोध के कारण चर्चा में हैं। कुछ संस्थानों में हाल ही में की गई फीस बढ़ोतरी से पैदा होने वाली चिंता इसका एकमात्र कारण नहीं है। वे सरकार की उस नीति से चिंतित है जिसके तहत सरकार सार्वजनिक शिक्षा से आर्थिक समर्थन वापस ले रही है। चूंकि अब यह प्रक्रिया चल रही है तो कहीं अधिक छात्र उच्च शिक्षा से बाहर हो जाएंगे।
सरकार बहुत लंबे समय से शिक्षा के बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण/निजीकरण की जमीन तैयार कर रही है, लेकिन हम मौजूदा संकट के निशान को 2016 से हुई फीस वृद्धि में ढूंढ सकते हैं। उस वर्ष, 12 सितंबर को, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एक नई उच्च शिक्षा वित्त पोषण एजेंसी को मंजूरी दी थी जिसका नाम हेफा (HEFA) था, जिसका जिक्र वित्तमंत्री के 2016-17 के बजट भाषण में किया गया था। वित्तमंत्री ने कहा, "हेफा [एचईएफए] फंडों का इस्तेमाल हमारे शीर्ष संस्थानों में बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए किया जाएगा और आंतरिक स्रोतों के माध्यम से इसे पूरा किया जाएगा।" संक्षेप में कहा जाए तो, सरकार ने प्रस्ताव दिया कि संस्थान अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए इससे उधार ले सकते हैं और छात्रों से महंगी फीस के ज़रिए इस लिए कर्ज़ को चुका सकते हैं।
आईआईटी बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली हेफा (HEFA) अनुदान लेने वाले पहले संस्थानों में से थे, यही वजह है कि उन्होंने छात्रों की फीस में भारी बढ़ोतरी की है। आईआईटी बॉम्बे के निदेशक सिर्फ इतना ही स्वीकार किया है। उन्होंने फीस बढ़ोतरी के लिए आंतरिक स्रोतों से धन जुटाने के लिए नीतिगत निर्देश को जिम्मेदार ठहराया है और संकेत दिया है कि फीस बढ़ोतरी एक वार्षिक प्रक्रिया बनने जा रही है। दिसंबर 2019 में, आईआईटी बॉम्बे के वार्षिक 82 करोड़ रुपए के घाटे के बावजूद, इसे हेफा (HEFA) का 41.5 करोड़ रुपए कर्ज़ चुकाना पड़ा।
हेफा (HEFA) से कर्ज़ लेने वाले संस्थानों को लिए गए कर्ज़ का लगभग दसवां हिस्सा हर वर्ष चुकाना होगा, जो संस्थानों को संसाधनों और गतिविधियों से ध्यान हटाने पर मजबूर करेगा, है, यानि उनका सारा समय पैसा चुकाने में खर्च होगा। हाल ही में एक बयान में, इलाहाबाद विश्वविद्यालय की जनसंपर्क अधिकारी जया कपूर ने भी स्पष्ट रूप से कहा कि भारत सरकार की ओर से विश्वविद्यालय के लिए धन पैदा करने और सरकार पर निर्भरता कम करने का एक स्पष्ट निर्देश आया है।
हेफा (HEFA) के साथ-साथ अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 भी चल रही है, जिसे वर्तमान में देश भर के विश्वविद्यालयों और संस्थानों पर थोपा गया है। हक़ीक़त में अपने चरित्र में एनईपी भी विश्वविद्यालयों की अकादमिक और प्रशासनिक स्वायत्तता के खिलाफ है। इसे इस तरह से गढ़ा गया है कि यह वित्तीय स्वायत्तता को बढ़ावा देती है और यहां तक कि उच्च शिक्षा के सार्वजनिक संस्थानों को निजी रास्ता अख़्तियार करने को प्रोत्साहित करती है। नतीजतन, आने वाले दिनों में और अधिक छात्रों को फीस वृद्धि के नोटिस मिलेंगे।
हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि उच्च शिक्षा की ऊंची लागतों के कारण वंचित समुदायों के अधिकांश छात्रों के शिक्षा के रास्ते बंद हो जाएंगे, जिनके लिए पहले से ही उच्च शिक्षा के संस्थानों पहुंचाना के कठिन काम है। अम्बेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्कल या एपीपीएससी जैसे संगठनों के द्वारा दायर आरटीआई के हालिया जवाब और संसद में उठाए गए सवालों पर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के जवाब, इस बहिष्कार की प्रवृत्ति का खुलासा कर देते हैं। वंचित समुदायों के आवेदकों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन भर्ती में यह संख्या मेल नहीं बैठा प रही है। आईआईटी में कई विभागों ने तो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय किसी एक भी छात्र को दाखिला दिए बिना प्रक्रिया बंद कर दी है।
2021 में, राज्यसभा में सांसद डॉ वी शिवदासन के एक सवाल के जवाब में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों में कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में शीर्ष सात आईआईटी में स्नातक छोड़ने वालों में से लगभग 63 प्रतिशत छात्र आरक्षित तबके से थे। वंचित समुदायों के छात्रों की ड्रॉपआउट की ऊंची दर दर्शाती है कि कैसे आरक्षण नीतियों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, क्योंकि न तो संस्थान और न ही सरकार कम विशेषाधिकार प्राप्त आवेदकों को उन्नत डिग्री से इनकार करने के लिए कदम उठा रही है। कई संस्थानों में एससी, एसटी और पिछड़े वर्ग के छात्रों के लिए काम करने वाले सेल नहीं हैं और न ही समान अवसर वाले सेल हैं, जैसा कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने आदेश दिया है। इसके विपरीत, फीस वृद्धि की बाढ़ छात्रों को शिक्षा क्षेत्र से बाहर निकलने का रास्ता दिखा रही है।
आईआईटी बॉम्बे में मौजूद विभिन्न फीस और बढ़ोतरी की तालिका
आईआईटी बॉम्बे वेबसाइट पर उपलब्ध सर्कुलरों और फीस संरचना के आधार पर बनाई गई तालिका
तालिका 1 के आंकड़े अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए ट्यूशन फीस में दी जा रही छूट को दिखाते हैं, जबकि जिमखाना शुल्क, चिकित्सा शुल्क, छात्रावास स्थापना शुल्क, आदि जैसे शुल्क - जो सभी छात्रों को देने होते हैं फिर चाहे वे किसी भी श्रेणी से क्यों न हों, उन्हे इस बढ़ी फीस का भुगतान करना होगा – जो तेजी से बढी है। वास्तव में, इस साल आईआईटी बॉम्बे में एससी और एसटी छात्रों की पढ़ाई की लागत 53.21 फीसदी बढ़ी है।
ध्यान दें कि आईआईटी बॉम्बे ने एम. टेक जैसे कार्यक्रमों में नए छात्रों के लिए ट्यूशन फीस में 500 प्रतिशत की वृद्धि की है। आईआईटी बॉम्बे के छात्रों ने हाल ही में खुलासा किया कि एम टेक कोर्स में कई सीटें कई "स्पॉट एडमिशन" राउंड (तालिका 2 देखें) के बावजूद खाली पड़ी हैं।
पीएचडी, एम टेक में प्रवेश का नमूना
स्रोत: आईआईटी-बी सर्कुलर्स।
1॰ फीस में उल्लिखित राशि के हिसाब से बढ़ोतरी होनी थी, लेकिन महामारी के कारण इसे लागू नहीं किया गया था।
2॰ 2022-23 से शैक्षणिक फीस और छात्रावास फीस का एकमुश्त भुगतान शामिल है लेकिन सेमेस्टर मेस के लिए एड्वान्स शामिल नहीं है।
3॰ इस राशि में एकमुश्त भुगतान शामिल नहीं है लेकिन इसमें सेमेस्टर मेस का एड्वान्स शामिल हैं
छात्रों द्वारा लगातार विरोध प्रदर्शन और लगातार भूख हड़ताल करने के बाद, आईआईटी बॉम्बे में प्रस्तावित फीस वृद्धि में काफी संशोधन किया गया है। नए एम. टेक छात्रों के लिए शिक्षण शुल्क 15,000 रुपये कम कर दिया गया है, और सभी श्रेणियों के छात्रों के लिए शैक्षणिक शुल्क - ट्यूशन फीस को छोड़कर, जो आरक्षित श्रेणी के छात्र भुगतान नहीं करनी पड़ती है- में 550 रुपये कम कर दिया गया है। पीएचडी के नए छात्रों के लिए शिक्षण शुल्क 1250 रुपये कम कर दिया गया है, और "एकमुश्त शुल्क" 1100 रुपये कम कर दिया गया है।
इसी तरह, आईआईटी दिल्ली ने छात्रों के लगातार विरोध के बाद फीस वृद्धि को आंशिक रूप से वापस ले लिया है। एक साथ देखा जाए तो, सरकार की तरफ से अनुदान देने के बजाय, एनईपी और एचईएफए कर्ज़, उन शैक्षणिक संस्थानों में बड़े पैमाने पर फीस बढ़ाएँगे जो इस तरह के कर्ज़ का इस्तेमाल करेंगे या नई शिक्षा नीति अपनाते हैं। इस प्रणाली में, सरकार को शिक्षा में निवेश करने की अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने से कोई नहीं रोक सकता है। इसलिए, सभी सरकारी वित्त पोषित संस्थान शीघ्र ही स्व-वित्तपोषित संस्थान बन सकते हैं। यह परिवर्तन एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय के विचार पर एक बड़ा हमला होगा और शिक्षा में अब तक हासिल की गई किसी भी समावेशिता या तरक्की को उलट देगा। फीस वृद्धि और प्रमुख संस्थानों में आरक्षण नीतियों का बार-बार उल्लंघन करने से वे अधिकांश भारतीयों के लिए दुर्गम हो जाएंगे, विशेषकर उन लोगों के लिए जो पहले से ही समाज द्वारा हाशिए पर डाल दिए गए हैं। एनईपी और एचईएफए इस तरह के अवांछित परिणाम का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
किशन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) में रिसर्च फेलो हैं।
अनघा, सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जेएनयू में पीएचडी में छात्र हैं और जेएनयूएसयू में स्कूल पार्षद हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
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