क्या उत्तर भारत में सामाजिक न्याय की राजनीति ख़त्म हो गयी है?
गुरुवार, 27 अप्रैल, 2023 को तड़के साढ़े चार बजे पूर्व सांसद आनन्द मोहन सिंह को जेल से रिहा कर दिया गया। उसे दलित आईएएस अधिकारी जी एम कृष्णैया की हत्या में दोषी पाया गया था और आजीवन कारावास की सजा मिली थी। आनन्द मोहन को रिहा किया जाएगा, इसकी चर्चा तो लगभग पंद्रह दिनों से चल रही थी लेकिन जिस हड़बड़ी में उसे रिहा किया गया वह राजनीति में कई अवसरवाद और वैचारिक दरिद्रता को प्रमाणित करता है। नीतीश व तेजस्वी सरकार के इस कार्यवाही को आईएएस एसोसिएशन ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
दरअसल जिन 27 लोगों को रिहा करने की अधिसूचना जारी हुई है उसमें आनन्द मोहन सिंह के अलावा एक 93 वर्षीय बुजुर्ग का नाम भी है जिनकी मौत लगभग छह महीने पहले हो गयी है। वैसे उस लिस्ट में दो लोगों की उम्र 30 से 40 वर्ष के बीच है। 10 लोगों की उम्र 40 से 50 वर्ष के बीच है। वहीं तीन लोगों की उम्र 50 से 60 वर्ष के बीच है। यानी 27 में से 15 कैदी की उम्र 60 वर्ष से कम है। दिलचस्प है कि उस लिस्ट में 69 साल के एक कैदी की उम्र 75 वर्ष लिखी हुई है, जो कोई और नहीं बल्कि आनन्द मोहन सिंह है। लेकिन बिहार सरकार का कहना है कि उन कैदियों ने अनिवार्यतः 14 वर्ष जेल में बिताए हैं।
सवाल है कि आज से लगभग 29 साल पहले एक दलित आईएएस अधिकारी की हत्या क्यों हुई और उस समय बिहार की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति कैसी थी? जब 1994 में अधिकारी जीएम कृष्णैया की हत्या हुई थी उस वक्त लालू प्रसाद यादव अपने राजनीतिक जीवन के चरम पर थे। मंडल की राजनीति के बाद लालू यादव बिहार में ही नहीं, बल्कि देश के सभी सवर्णों की नजर में सबसे बड़े खलनायक थे (तब तक मायावती सर्वणों के लिए इतनी बड़ी विलेन नहीं बनी थीं) जबकि उसके ठीक उलट लालू यादव दलितों- पिछड़ों व अल्पसंख्यक समाज के मसीहा थे जो उनकी आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते दिखते थे। जीएम कृष्णैया दलित जाति से आते थे और प्रशासन और समाज में अपनी ईमानदार और कर्तव्यपरायण होने के चलते बहुत ही अच्छी छवि थी। जिस छोटन शुक्ला की मुजफ्फरपुर में हत्या हुई थी उस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व उस समय के बिहार पीपुल्स पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष आनन्द मोहन सिंह कर रहे थे। चूंकि बिहार में जातीय संघर्ष चल रहा था और लालू यादव दलित-बहुजन व अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, इसलिए सवर्णों के उस हिंसक प्रदर्शन में कृष्णैया की काफी सोच-समझकर हत्या की गयी थी। अगर कृष्णैया की जगह दलित-बहुजन समाज का कोई भी अधिकारी होता तब भी वह हत्या अवश्यंभावी थी, उस समय सिर्फ सवर्ण अधिकारी की हत्या नहीं होती क्योंकि सामाजिक और राजनीतिक विभाजन इतना साफ व स्पष्ट था।
इसलिए सवाल उठता है कि हत्या के लगभग तीस वर्षों बाद मैन्युल में परिवर्तन करके आनन्द मोहन को क्यों छोड़ा गया है, और अगर छोड़ा गया है तो क्या यह फैसला अकेले नीतीश कुमार का है? आज जो बिहार की स्थिति है, उसमें यह बताना सरासर गलत होगा क्योंकि राजद के साथ मिलकर पिछले आठ-नौ महीने से राज्य की सरकार चल रही है जिसमें राजद सबसे बड़ी पार्टी है। आनन्द मोहन का बेटा राजद का विधायक है और आनन्द मोहन की पत्नी व पूर्व सांसद लवली आनन्द 2020 के विधानसभा चुनाव में राजद उम्मीदवार के रूप में चुनाव हार चुकी हैं। बिहार में बन रहे नए जातीय समीकरण के अनुसार जदयू और राजद को लगता है कि अगर आनन्द मोहन को समय से पहले रिहा कर दिया जाएगा तो इसका लाभ अगले लोकसभा चुनाव में मिल सकता है और आनन्द मोहन के चलते राजपूतों का एक तबका महागठबंधन को वोट कर सकता है (हालांकि इसे विडबंना के अलावा कुछ और कहा ही नहीं जा सकता है कि एक अपराधी के पीछे पूरा समाज गोलबंद हो जाए और उसे जेल से छोड़े जाने के लिए उस सरकार को वोट दे जिसे कोर्ट ने हत्यारा माना है)।
लालू-राबड़ी से इतर तेजस्वी की राजनीति
लालू-राबड़ी के शासनकाल तक आम धारणा यह बनाई गयी थी कि वह दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की सरकार है जिसमें इन समाज का हित सुरक्षित रखा जाता है। उस धारणा की पुष्टि इस बात से भी होती रही क्योंकि उनके कार्यकाल में दलित-बहुजनों के (जिसे लालू यादव स्वर व स्वाभिमान देना कहते थे) जितने भी नरसंहार हुए उतने नरसंहार बिहार में बाद के दौर में नहीं हुए। इनमें से अधिकांश नरसंहार ब्रह्मेश्वर सिंह ने नेतृत्व में काम कर रही रणवीर सेना के द्वारा किए गए जो भूमिहारों का सशस्त्र संगठन था और जिसे सत्ता और प्रशासन में बैठे सभी प्रमुख लोगों का आर्थिक और नैतिक समर्थन प्राप्त था।
वर्ष 2005 में लालू-राबड़ी को हटाकर पूरी तरह सत्ता परिवर्तन हुआ। नीतीश कुमार ने विभिन्न स्तरों पर राज्य की राजनीति को समावेशी बनाने की कोशिश की और दलितों को दो भागों में विभाजित किया। पिछड़ों की राजनीति तो पहले से ही पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों में बंटी हुई थी लेकिन नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ों को ताकत देकर बेहतर शुरुआत की।
नीतीश-तेजस्वी की सरकार ने जो कारा कानून में बदलाव किया है वह सामाजिक न्याय की राजनीति पर बहुत बड़ा धब्बा है। लेकिन नीतीश कुमार की राजनीति को जानने वाले इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें इस तरह की जातीय गोलबंदी और राजनीति से कभी परहेज नहीं रहा है। जब जॉर्ज फर्नांडीस, नीतीश कुमार और दिग्विजय सिंह ने समता पार्टी का गठन किया था तो उनके साथ कौन-कौन जातिवादी व सांप्रदायिक तत्व नहीं थे? उस समय के दस्तावेजों को देखें तो हम पाते हैं कि आनंद मोहन और लवली आनन्द उस मोर्चा का अनिवार्य हिस्सा रहे थे।
1995 के चुनाव में समता पार्टी के अलावा सवर्ण चरित्र के वे सभी लोग व पार्टियां उसमें शामिल थे जो मिलकर लालू यादव के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे। दुर्भाग्य से भाकपा माले भी उस गठबंधन का हिस्सा थी, जो उस चुनाव के बाद नीतीश कुमार के साथ आगे नहीं बढ़ पायी। फिर भी उस चुनाव में समता पार्टी को बड़ी असफलता हाथ लगी थी और उसके बाद का अधिकांश चुनाव नीतीश-जार्ज बीजेपी के साथ मिलकर ही लड़े थे, जिसमें समता पार्टी को अच्छी सफलता भी मिल रही थी। वह बिहार की राजनीति का ऐसा दौर था जिसमें लालू विरोध के नाम पर प्रत्येक राजनीतिक दल और सवर्णों का समूह लालू यादव के खिलाफ खड़े थे। जो भी दल या लोग उस समय लालू यादव के खिलाफ सबसे मुखर थे उनमें राजनीतिक रूप से सीपीआई-एमएल एकमात्र पार्टी थी जिसका राजनीतिक एजेंडा सामाजिक न्याय का रहा है और इसलिए आज भी उस पार्टी की दलितों व अतिपिछड़ों में किसी भी दल से अधिक विश्वसनीयता है।
राजद के नेतृत्व में लालू यादव के नहीं रहने के बाद यह तो प्रमाणित हुआ है कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली राजद में अब कड़े राजनीतिक फैसले लेना का माद्दा नहीं बचा है। लेकिन जिस रूप में राजद अपनी सबसे बड़ी थाती सामाजिक न्याय पर घुटना टेक दी है वह लालू यादव की राजनीतिक विरासत को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती है। हो सकता है कि आनन्द मोहन को रिहा करने का फैसला अकेले नीतीश कुमार का हो (जो संभव नहीं जान पड़ता है क्योंकि आनन्द मोहन की पत्नी लवली आनन्द और उसके बेटे प्रिंस आनन्द को राजद ने ही अपनी पार्टी से चुनाव लड़वाया था) लेकिन इतने बड़े फैसले पर सहमति देना राष्ट्रीय जनता दल की राजनीति की बड़ी हार है।
जिस रूप में बिहार की राजनीति करवट बदल रही है इससे लगता है राजद अब प्रतीकात्मक राजनीति करने की स्थिति में भी नहीं रह जाएगी! और यह सामाजिक न्याय की राजनीति में अंतिम कील होगा। हां, अच्छी बात यह है कि राजद के सबसे विश्वसनीय सहयोगी दल भाकपा माले इसे चुनिंदा रिहाई का नाम दे रही है और इसके खिलाफ पूरे राज्य में विरोध प्रदर्शन भी किया है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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