कैसे शिक्षा से आ सकता है बिहार में बदलाव?
जब 2011 में बिहार के नालंदा में मेरी संक्षिप्त मुलाक़ात नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से हुई तो उन्होंने अपने बचपन की याद को ताज़ा करते हुए कहा कि बिहार शिक्षा का प्राचीन केंद्र था। सेन ने मुझे बताया कि, "उनके दादा क्षिति मोहन सेन उन्हें पहली बार शिक्षा के इस प्राचीन केंद्र में लाए थे, तब-जब वे केवल दस साल के थे।" इस मुलाक़ात के समय सेन नालंदा विश्वविद्यालय के गवर्निंग बोर्ड के अध्यक्ष थे जो उस समय शिक्षा जगत में उभर कर आ रही था।
लेकिन जब उन्होंने अपनी बचपन की यात्रा की याद दिलाई तो वह समय शायद भारत आजादी के आंदोलन के शिखर पर था, ऐसा कुछ जिसने उनके भीतर किसी मजबूत राग को छेड़ दिया हो – यानी वर्तमान शिक्षा का यह काम कोई क्रांतिकारी बदलाव से कम नहीं था। अपनी आँखों में चमक लाते हुए, सेन ने बताया कि: "आज, ग्रामीण बिहार में लड़कियों को साइकिल पर स्कूल जाते हुए देखना बहुत आनंददायक लगता है।"
प्रख्यात अर्थशास्त्री और दार्शनिक जिन साइकिलों का ज़िक्र कर रहे थे, उनमें से कई राज्य सरकार द्वारा उपहार में दी गई थीं ताकि बिहार के अंदरूनी इलाकों में युवा लड़कियां स्कूल जा सकें। सेन के लिए, यह स्पष्ट था कि ये साइकिलें बिहार में "बदलाव का पहिया" बनेंगी।
युवाओं और उनके परिवारों के अलावा, साइकिल चलाने वाली लड़कियों का श्रेय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जाता है, जिन्होंने खासतौर पर ग्रामीण इलाक़ों में उत्थान की कुंजी के रूप में प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। दरअसल, बिहार में दशकों से स्कूलों और शिक्षकों की बेहद कमी थी। यह लेखक, 1976 में सीवान जिले के उस द्रोणाचार्य हाई स्कूल से खुद के पास होने याद करता है – जिसमें एक भी महिला छात्र नहीं थी।
इससे पहले की राज्य सरकारों ने खासकर ग्रामीण इलाकों में स्कूली शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी थी। बदलाव धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से 2005 में शुरू हुआ, जब नीतीश कुमार, जो खुद ट्रेनिंग से इंजीनियर थे, मुख्यमंत्री बने और साइकिल योजना शुरू की, शुरुआत में यह योजना केवल महिला छात्रों के लिए थी। राज्य सरकार ने वर्दी के लिए भी इसी किस्म की योजनाएं शुरू कीं और बाद के सालों में हजारों शिक्षकों की नियुक्ति की गई।
ग्रामीण बिहार के स्कूल पहले बिना किसी इमारतों के मुख्य रूप से खुली हवा या पेड़ों की छाया में चलाए जाते थे। खासकर गांवों में स्कूल भवनों के निर्माण की एक बड़ी कवायद शुरू हुई। केंद्र सरकार के स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए शुरू की गई मध्याह्न भोजन योजना को और अधिक गंभीरता से आगे बढ़ाया गया।
आज बिहार में 76,000 से अधिक स्कूल हैं। 2020-21 की यूडीआईएसई रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के विपरीत, बिहार में सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, जबकि उपरोक्त राज्यों में विलय, डी-मर्जर या स्कूलों को बंद करने के कारण गिरावट आई है। बिहार के 70 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में अब कंक्रीट की इमारतें हैं।
2008 और 2010 के बीच, छात्राओं को वर्दी में स्कूल जाते देखना भी एक अनोखी घटना थी - यहाँ तक कि एक चमत्कार भी। आजकल सुबह और दोपहर में देखना आम बात हो गई है। लगभग 12 वर्षों में, राज्य के स्कूलों में पुरुष और महिला छात्रों का अनुपात 50-50 तक पहुँच गया है। ड्रॉपआउट दर में भारी गिरावट आई है।
रोज़गार की संभावना
पिछले दशक के इन घटनाक्रमों को आज याद करने का भी एक कारण है। नवगठित इंडिया गठबंधन या इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इंक्लूसिव अलाइन्स, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, रोजगार और आजीविका के मुद्दों के आसपास अपना राजनीतिक एजेंडा तय कर रहा है। इसके ख़िलाफ़ भारतीय जनता पार्टी ने बार-बार अपने हिंदुत्व वैचारिक प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया है। हालाँकि, बिहार के अनुभव यह साबित करते हैं कि क्यों गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा और अन्य जरूरी सेवाएँ देश भर में मतदाताओं की प्रमुख मांग और अपेक्षा बनी हुई हैं।
बिहार ने हाल ही में जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट आने के बाद शिक्षा क्षेत्र को प्राथमिकता देना तय किया है, क्योंकि रपट में समाज के विभिन्न स्तरों में गरीबी और पिछड़ेपन के बारे में महत्वपूर्ण डेटा मिला है।
फरवरी में, नीतीश के भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन से अलग होने के बाद बिहार सरकार के पहले बजट में शिक्षा के लिए सबसे अधिक आवंटन (कुल परिव्यय 40,450 करोड़ रुपये) रखा गया, इसके बाद स्वास्थ्य, सड़क परिवहन और सामाजिक कल्याण क्षेत्र का स्थान रहा।
यह आवंटन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बढ़ती मांग का संकेत है, जो रोजगार और 'रोजगार की योग्यता' से भी जुड़ा हुआ है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तेजी से महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि ये प्रदेश प्रवासी कार्यबल के बड़े योगदानकर्ता हैं।
भाजपा के विपरीत, जो बार-बार भावनात्मक मुद्दे उठाती है, बिहार सरकार ने इस महीने की शुरुआत में शिक्षकों को 1.20 लाख नियुक्ति पत्र वितरित करने जैसी रोज़ी-रोटी संबंधी चिंताओं पर ध्यान केंद्रित किया है। इन शिक्षकों की भर्ती बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा कराई गई एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से की गई थी, जो जनता को शामिल किए जाने वाले शिक्षकों की गुणवत्ता के बारे में आश्वस्त करने का काम करती है।
राज्य सरकार शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए उचित तंत्र विकसित कर रही है। बिहार के शिक्षा मंत्री राजद के डॉ. चंद्र शेखर हैं, जो खुद एक प्रोफेसर और शिक्षक हैं। शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के॰के॰ पाठक को व्यक्तिगत रूप से ग्रामीण स्कूलों का नियमित निरीक्षण का जिम्मा सौंपा गया है। (अचानक निरीक्षण शिक्षकों और छात्रों के बीच सतर्कता की भावना पैदा करने का एक शास्त्रीय तरीका है।)
बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी महागठबंधन ने अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और आर्थिक रूप से गरीब वर्ग (ईपीएस) के लिए 75 प्रतिशत कोटा लागू किया है, जो अन्य राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया ब्लॉक के लिए एक खाका पेश करता है।
दरअसल, इंडिया गठबंधन में अन्य लोग शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, जिनमें आम आदमी पार्टी (आप) सरकार के पूर्व शिक्षा मंत्री, मनीष सिसौदिया भी शामिल हैं, जो जेल में हैं क्योंकि प्रवर्तन निदेशालय उनके खिलाफ कानूनी मुक़दमा चला रहा है। आप सरकार बयानबाजी और कार्रवाई के मामले में सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान केंद्रित करने वाली कुछ सरकार में से एक है। बिहार थोड़ा सा श्रेय का पात्र है। आख़िरकार, इसने शिक्षा के क्षेत्र में शून्य से काम शुरू किया है, यह तब किया जब पाठ्यक्रम और कक्षा में धार्मिक राजनीति के प्रवेश का युग है।
सीमाएँ
शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में है, जिसका अर्थ है कि केंद्र और राज्य इस विषय पर शक्ति और जिम्मेदारियाँ साझा करते हैं। राज्य में दो केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं-महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी और दक्षिण बिहार का केंद्रीय विश्वविद्यालय जो बोधगया में है। आरोप हैं कि भाजपा इन विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं और समर्थकों से भरने की होड़ में लगी है।
यह बात भी सब जानते हैं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के सत्ता में आने के बाद, अमर्त्य सेन और जॉर्ज येओ ने "राजनीतिक हस्तक्षेप" का हवाला देते हुए, विदेश मंत्रालय के तत्वावधान में चल रहे केवल दो विश्वविद्यालयों में से एक, नालंदा विश्वविद्यालय को छोड़ दिया था। वर्तमान में, नालंदा विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्री और पद्म भूषण से सम्मानित अरविंद पनगढ़िया और इतिहासकार अभय कुमार सिंह इसके चांसलर और अंतरिम कुलपति हैं।
इसके अलावा, केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल, राज्य विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं, लेकिन स्थानीय समाचार पत्र शायद ही कभी राज्यपाल के राज्य सरकार और उसके शिक्षा विभाग के साथ मतभेद में काम करने के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। राज्य में विश्वविद्यालयों के कामकाज के मामलों में अधिकार और क्षेत्राधिकार को लेकर अनावश्यक खींचतान चल रही है।
बेशक, बिहार की अन्य सीमाएँ हैं - जैसा कि हालिया जाति सर्वेक्षण से पता चलता है, विश्वविद्यालयों में समान शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण विशेषज्ञों और फ़ेकल्टी की कमी है। बिहार में सकल नामांकन अनुपात भी उच्च माध्यमिक स्तर पर काफी कम हो गया है। परिणामस्वरूप, न केवल छात्र विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा और मानविकी में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए राष्ट्रीय राजधानी या अन्य शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, बल्कि माध्यमिक स्कूली शिक्षा से परे शैक्षिक उपलब्धि की कमी भी छात्रों की तरक्की में बाधा बन जाती है।
लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया शिक्षक और लोककथाओं के शोधकर्ता हैं। विचार निजी हैं।
अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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