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कैसे कथित 'गौ रक्षक' डेयरी फ़ार्मिंग को नुकसान पहुंचा रहे हैं

सरकार की नीतियों के अंधाधुंध तरीक़े से लागू होने की वजह से स्वयंभू 'गौ रक्षक' मज़बूत हो गए हैं और वे मेव मुस्लिम डेयरी किसानों और पशुपालकों को उनकी आजीविका के एकमात्र स्रोत से वंचित कर रहे हैं।
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प्रतिनिधि छवि। छवि सौजन्य: PTI

अलवर(राजस्थान)/नूंह(हरियाणा)/नईदिल्ली: नूंह जिले के बाई गांव के रहने वाले दीन मोहम्मद के पास 70 से ज्यादा गायें हैं। प्रत्येक गोजाति वाले पशु का एक नाम होता है, जैसे रसूली, जुबैदा, कुम्मा, आदि। जैसे ही बुजुर्ग किसान उनका नाम पुकारते हैं, वे दूध देने के लिए आगे आ जाती हैं। 

मोहम्मद का परिवार करीब तीन पीढ़ियों से पशुपालन के माध्यम से अपनी आजीविका कमा रहा है। लेकिन, कठोर और सख्त गोजातीय संरक्षण अधिनियमों को लागू करने से, जिस कानून में अधिकांश धाराएं डेयरी फार्मिंग क्षेत्र के खिलाफ हैं, गाय एक ऐसा शब्द बन गया है जो कृषि संबंधी खतरे और मेवात में गरीब डेयरी किसानों के परिवारों के लिए भी खतरा बन गया है - जो राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमा से सटी आबादी को प्रभावित कर रहा है।

गोरक्षा के बहाने गाय पालने वाले किसानों और व्यापारियों की नृशंस हत्याओं और हमलों की घटनाओं ने उनमें अराजकता पैदा कर दी है और इसलिए, यहां गाय को कानून और व्यवस्था का मुद्दा माना जाता है।

चूंकि यह इलाका मेव मुसलमानों का घर है, इसलिए पिछले कुछ समय से यह गौरक्षकों की निगरानी के साए में है। इलाके का हर-एक परिवार औसतन एक या दो गाय और भैंस पालता है। इस प्रकार, अधिकांश घरों में गौशाला होती है। हर घर डेयरी के काम में लगा हुआ है और सभी घरों में गाय, भैंस या बकरियां हैं, जिनसे लोग अपनी आजीविका कमाते हैं।

मोहम्मद ने आरोप लगाया कि "गौ रक्षा" के नाम पर किए जा रहे हमलों और लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं का उद्देश्य "ग्रामीणों को उनकी आजीविका के एकमात्र स्रोत - डेयरी फार्मिंग" से वंचित करना है।

खेत में चर रही अपनी गायों की निगरानी करते हुए, वृद्ध लेकिन कमजोर नहीं किसान ने कहा कि गौरक्षा के नाम पर हमलों के पैटर्न और लगातार हमलों की ऐसी घटनाओं पर राज्य सरकार की "संदिग्ध चुप्पी" से लगता है कि ये हिंसा की घटनाएं कोई अलग-थलग और सहज नहीं हैं।  

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "यह सब हमले छोटे पैमाने के नरसंहार और यहां तक कि धर्म-आधारित सफाई के विनाश की एक सोची-समझी योजना का हिस्सा है।"

मुस्लिम बहुल मेवात क्षेत्र राजस्थान में भरतपुर और अलवर से लेकर हरियाणा के गुरुग्राम, फरीदाबाद, पलवल और नूंह और उत्तर प्रदेश के आगरा और मथुरा तक फैला हुआ है। पहले मेवात के नाम से जाना जाने वाला नूंह अब हरियाणा के 22 जिलों में से एक है।

स्थानीय लोग गौरक्षा के नाम पर लिंचिंग के पीछे कई कारण बताते हैं, लेकिन मुसलमानों की एक बड़ी आबादी को आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित करना इसका एक प्रमुख कारक उभर कर आया है।

सामाजिक कार्यकर्ता और किसान नेता, उमर मोहम्मद पाडला ने बताया कि मेवात में लोगों का मुख्य व्यवसाय डेयरी और कृषि खेती है, लेकिन हक़ीक़त यह कि अरावली की तलहटी में अर्ध-शुष्क इलाके को "जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है।"

उन्होंने आगे बताया कि, “यहां की खेती, बारिश के पानी पर निर्भर करती है क्योंकि पानी की कमी वाले इस इलाके में भूजल की सिंचाई उपयुक्त नहीं है। रोजगार की स्थिति दयनीय है। काऊ-विजिलांटिज्म की उभरती घटनाओं ने डेयरी फार्मिंग को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। यहां हर घर में औसतन दो-तीन गाय हुआ करती थीं, लेकिन अब लोगों ने गाय पालना बंद कर दिया है। इसने डेयरी फार्मिंग पर गंभीर असर डाला है।

अधिक उत्पादन करने वाली भैंसों को पालने के बजाय लोग गायों को पालना क्यों पसंद करते हैं? पाडला ने बताया कि गाय पालने में लागत कम आती है और भैंस की तुलना में यह सस्ती आती है। “एक दुधारू भैंस की कीमत कहीं 1-1.5 लाख रुपये के बीच होती है जबकि एक गाय की कीमत 40,000 रुपये से 50,000 रुपये के बीच होती है। कम खर्च के कारण मेवात के लोग गाय पालना पसंद करते हैं। 

पाडला ने कहा कि कोई भी कानून, गायों की बिक्री और खरीद या ला-लेजाने पर रोक नहीं लगाता है यदि कानून की जरूरतों को पूरा कर दिया जाता है, उन्होंने कहा कि विभिन्न गांवों के निवासी अपने मवेशियों (कम संख्या में, आम तौर पर एक-दो) का व्यापार आपस में करते हैं, यानी घरों के बीच; और इसलिए, रसीद काटने की कोई व्यवस्था नहीं है।

“जब मवेशियों को कहीं ले जाया जाता है, वे बिना खरीद की रसीद के कारण पकड़े जाते हैं। लेकिन वैध दस्तावेजों न होने को निर्णायक सबूत नहीं माना जा सकता है, यह आरोप भी लगाना गाकट है कि गायों को वध करने या तस्करी के लिए ले जाया जा रहा है। 

उन्होंने आरोप लगाया कि, 'यदि कोई ‘गौ रक्षकों’ को पैदा देने से इनकार कर देता है, तो उन्हें अक्सर पीटा जाता है और जान भी ले ली जाती है।'

लेखक और मेवात विकास सभा के प्रमुख सिद्दीक अहमद मेव का दावा है कि यहां मुसलमान हिंदुओं से ज्यादा गाय पालते हैं। 

उन्होंने आगे कहा कि, “मेओ मुसलमानों के पास गायों की सबसे अच्छी नस्लें होती हैं, जिनमें थारपारकर और राठी शामिल हैं। लेकिन अब स्थिति इतनी खराब हो गई है कि लोग 'गाय' का नाम लेने से भी डरते हैं। डेयरी किसान अपने मवेशियों को खरीदने या बेचने के लिए कहीं नहीं जाते हैं। वे अपने गांवों में हिंदू व्यापारियों से दुधारू गायें खरीदते हैं जो उन्हें राजस्थान और हरियाणा के विभिन्न जिलों से लाते हैं। यहां तक कि आजकल व्यापारी भी ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाते हैं जिससे उनकी जान को खतरा हो। व्यापारियों द्वारा अक्सर मवेशियों के साथ गांवों का दौरा नहीं करने के कारण, डेयरी किसानों को गायों की अच्छी नस्ल भी नहीं मिल रही है। 

अहमद ने कहा कि इससे किसानों ने डेयरी फार्मिंग बंद कर दी है और आजीविका के अन्य स्रोत ढूंढने लगे हैं। उन्होंने कहा, "चूंकि अधिकांश आबादी शैक्षिक सुविधाओं और उधयोगों की कमी होने के कारण अशिक्षित और बेरोजगार है, इसलिए वे या तो भारी वाहन चालक और कंडक्टरों के रूप में काम करने के लिए बाहर चले जाते हैं।"

अहमद ने दावा किया कि मेव मुसलमानों के लिए गाय उतनी ही पाक़ है जितनी कि हिंदुओं के लिए। उन्होंने कहा कि जानवर को काटने की बात तो भूल ही जाइए, जब वह मर जाता है तो हम उसे दफना देते हैं। उन्होंने दावा किया, "मेवात के मुस्लिम डेयरी किसान दलितों को खाल उतारने आदि के लिए अपनी मरी हुई गायें भी नहीं देते हैं।"

अगर ये सच है तो ऐसा क्यों है? अहमद, यहां मेव समुदाय के इतिहास को संदर्भित करते हैं। "हालांकि मेओ, एक राजपूत समुदाय से है, लेकिन वे 15वीं या 17वीं शताब्दी में इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे, फिर भी वे हिंदू धर्म के कुछ रीति-रिवाजों का आज भी पालन करते हैं। भले ही वे मुसलमान हैं, फिर भी वे हिंदू जाति व्यवस्था को मानते हैं और राम, कृष्ण और अर्जुन जैसी शख्सियतों को अपने वंश का मानते हुए खुद को राजपूत कबीले का हिस्सा मानते हैं। वे सदियों से गाय पालने में लगे हुए हैं, और यह व्यवसाय एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चला आ रहा है। यही कारण है कि वे कभी भी गौ-तस्करी या गाय-वध में लिप्त नहीं होते हैं। उनकी आजीविका गायों पर निर्भर करती है और उनके पास उनके लिए प्यार के अलावा कुछ नहीं है,” उक्त बातें अहमद ने बताई, जिन्होंने ‘मेवात एक खोज’ पुस्तक लिखी है।

न्यूज़क्लिक ने इस इलाके के कई डेयरी किसानों से मुलाकात की, जिन्होंने दावा किया कि उनके पास चार-पांच और कुछ के पास 50 से अधिक गायें हुआ करती थीं, लेकिन उन्होंने संख्या को घटाकर सिर्फ एक या दो कर दिया है। इसके कई कारण मौजूद हैं – जिसमें कच्चे माल की आसमान छूती कीमतें, दूध की कम कीमतें और काऊ-विजिलांटिज्म कुछ प्रमुख कारणों में से है।

उन्होंने कहा कि, “हमले के डर से, हम खुद गाय खरीदने के लिए हरियाणा और राजस्थान के पड़ोसी जिलों में नहीं जाते हैं। हम गोवंश से जुड़े पशुओं को व्यापारियों के माध्यम से बेचते या खरीदते हैं, जो हमारे गांवों में अक्सर नहीं आते हैं। आपूर्ति कम होने से गायों की कीमत बढ़ गई है। हम उनके द्वारा उत्पादित दूध से ज्यादा कमाई नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके रखरखाव का खर्चा बढ़ गया है। इसलिए हम गायों को केवल दूध की खपत के लिए रखते हैं। बछड़ों के पैदा होने पर ही झुंड बड़ा हो जाता है।”

हारून और कामरू, जो नूंह जिले के विभिन्न गांवों से दूध इकट्ठा करते हैं और इसे डेयरी केंद्रों को बेचते हैं, ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में दूध उत्पादन में भारी गिरावट देखी गई है।

“हम दो-तीन गाँवों से हर दिन 600-700 लीटर दूध इकट्ठा करते थे, लेकिन यह मात्रा घटकर अब 250-300 लीटर प्रतिदिन रह गई है, क्योंकि कई कारणों से लोग अब पशुपालन में रुचि नहीं ले रहे हैं, विशेष रूप से 'गौ रक्षकों' द्वारा फैलाया गया आतंक का राज इसका बड़ा कारण है।”

उन्होंने कहा कि "बर्बर, मनमाना और अनुचित" मवेशी संरक्षण जैसे कानूनों के लागू होने से, मवेशियों को पशुओं की बड़ी उम्र के बाद भी बनाए रखने का दायित्व आ गया है - जिससे खतरनाक बीमारियां फैल रही हैं।

जो परिवार कभी दूध बेचकर और दैनिक ग्रामीण मजदूरी से कभी-कभार दिहाड़ी कमाते थे, वे अब घोर गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं

समुदाय के नेताओं और पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने आरोप लगाया है कि "मेवात क्षेत्र में मुस्लिम समुदाय को अपराधियों, पशु तस्करों और कसाई के रूप में ब्रांड करने का एक व्यवस्थित प्रयास रहा है। 

“टूटी सड़कें, बुनियादी ढांचे की कमी, बेरोजगारी और खराब स्वास्थ्य सुविधाएं जैसे मुद्दे हमारे गांव को परेशान करते हैं, लेकिन कोई इस बारे में बात नहीं करता है। वोट बैंक की राजनीति ने बहस को हिंदू-मुस्लिम, गौ रक्षा, गौ तस्करी और गोवध पर केंद्रित कर दिया है.

राजस्थान के भरतपुर जिले में गटमिका गाँव को "गाय तस्करों का गाँव" कहा गया है, और गाँव के 200 से अधिक लोगों पर गौ तस्करी का आरोप लगाया गया है। ग्रामीणों ने इस पीड़ा को साझा किया कि गौरक्षकों ने कैसे अल्पसंख्यक समुदाय के एक सदस्य को एक अभियुक्त के रूप में देखते हुए तुरंत भीड़ हिंसा (न्याय के लिए कानून और व्यवस्था अधिकारियों से संपर्क करने के बजाय) का सहारा लिया - चाहे कथित अपराध कोई भी हो!

इलाके में पुलिस और राजस्व अधिकारियों के साथ बातचीत से अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ उच्च स्तर के पूर्वाग्रह का पता चलता है। इस स्पष्ट पूर्वाग्रह, और धार्मिक प्रोफाइलिंग के कारण डेयरी किसानों के खिलाफ गाय तस्करों के रूप में कई झूठे मामले दर्ज किए गए हैं, जिससे व्यवस्थित उत्पीड़न हुआ है। मध्यम और निचले क्रम के पुलिसकर्मियों के साथ बातचीत से पता चला कि वे भी स्वयंभू "गौ रक्षकों" के नेरेटिव को आगे बढ़ा रहे हैं।

'गौरक्ष पुलिस चौकियां' स्थापित करने के उद्देश्य पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में, उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा पशु व्यापार बाजारों को विनियमित करने और सीमा पार तस्करी पर अंकुश लगाने के लिए 2017 में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम को संशोधित करने के बाद पशु चौकियों की स्थापना की गई थी। 

"गौ रक्षकों" के साथ पुलिस की मिलीभगत का पता इस बता से चलता है, जब उन्होंने कहा कि गौहत्या और तस्करी के उद्देश्यों के लिए "फिरोजपुर, झिरका और नूंह (हरियाणा) से सीमावर्ती इलाकों में जाने वाले वाहनों की जांच के लिए चौकियों की स्थापना की गई थी"।

मेवात में मॉब लिंचिंग के मामलों के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने कहा कि गाय की तस्करी के दौरान ये घटनाएं "अलग-थलग घटनाएं" थीं, क्योंकि पीड़ितों के पास पशु बाजार द्वारा जारी की गई कोई खरीद की रसीद नहीं थी, जिसे कि गोजातीय संरक्षण कानूनों द्वारा अनिवार्य किया गया था।

सरकार की ढुल-मुल नीति और उसे अंधाधुंध लागू करने से ऐसी स्थिति पैदा हुई है, जिसमें पशुपालकों के पास अपने अनुत्पादक मवेशियों को छोड़ने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा है।

मवेशियों की घटती संख्या के कारण चारे का गंभीर संकट पैदा हो गया है। जब आवारा पशु दुधारू पशुओं के लिए रखे गए चारे को खा जाते हैं/या जब फसल खा ली जाती है, तो इन आवारा पशुओं को बेरहमी से पीटा जाता है। ऐसे में मवेशियों की रक्षा करने वाले कानून उनके लिए अभिशाप साबित हो रहे हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

How Cow Vigilantism is Hitting Mewat’s Dairy Farming Hard

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