बिहार में 87 फीसदी कोरोना रिकवरी का दावा कितना सच, कितना चुनावी स्टंट!
पिछले माह बेलगाम कोरोना संक्रमण और स्वास्थ्य सुविधाओं की भीषण बदहाली की वजह से शर्मनाक स्थिति का सामना करने वाली बिहार सरकार ने अब दावा किया है कि राज्य में पिछले दो हफ्ते से रोज एक लाख से अधिक लोगों की कोरोना जांच हो रही है। इस वजह से जहां एक ओर संक्रमण की दर घट कर दो फीसदी से भी कम हो गयी है, वहीं मरीजों के स्वस्थ होने की दर भी 87 फीसदी तक पहुंच गयी है। मगर राज्य सरकार के इस दावे पर कई सवाल उठ रहे हैं।
कहा जा रहा कि बिहार के स्वास्थ्य विभाग ने कोरोना जांच के लिए कम भरोसेमंद तरीके रैपिड एंटीजेन टेस्ट को अपनाया है और राज्य में रोज लगभग 95 फीसदी टेस्ट इसी तरीके से हो रहे हैं। इस मसले को लेकर पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका की भी सुनवाई हो रही है और अदालत ने स्वास्थ्य विभाग को नये सिरे से शपथ पत्र दाखिल करने कहा है।
बिहार में कोरोना संक्रमण पर नजर रखने वाली केंद्रीय टीम भी इस स्थिति से बहुत संतुष्ट नहीं है।
बिहार सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के अनुसार यह सच है कि 14 अगस्त से अब तक राज्य में रोज एक लाख से अधिक लोगों के सैंपल कोरोना टेस्ट के लिए लिये जा रहे हैं। जबकि इस वक्त देश में हो रही जांच के लिए रोजोना नौ लाख सैंपल लिये जा रहे हैं। इस लिहाज से राज्य में कोरोना जांच की तस्वीर बेहतर नजर आ रही है। मगर जहां इस अवधि में पूरे देश में संक्रमण की दर आठ से नौ फीसदी के करीब है, बिहार में संक्रमण की दर दो फीसदी के आसपास पहुंच गयी है। इस वजह से रिकवरी रेट भी 87 फीसदी के आसपास चला गया है। राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग का यह दावा इसी वजह से संदेह पैदा करता है।
वरिष्ठ पत्रकार मनीष शांडिल्य जो पिछले एक डेढ़ महीने से राज्य में कोरोना जांच बढ़ाने को लेकर अभियान चला रहे हैं, कहते हैं। सरकार के आंकड़े तो सुनने में अच्छे लग रहे हैं, मगर देश के संक्रमण दर में और राज्य के संक्रमण दर में इतना फर्क हो यह बात विश्वसनीय नहीं लगती। वे कहते हैं, जबकि जुलाई के आखिरी हफ्तों में रोज 20 हजार के करीब टेस्ट हो रहे थे, तब भी रोज दो हजार से अधिक मरीज मिल रहे थे, आज जब रोजाना एक लाख से अधिक टेस्ट हो रहे हैं, तब भी संक्रमित मरीजों का आंकड़ा दो हजार के आसपास है। जबकि डब्लूएचओ के सीरो सर्वे के मुताबिक राज्य के सात जिलों में 18.81 फीसदी लोग संक्रमित होकर खुद ही ठीक हो चुके हैं। एक तरफ तो जांच में सिर्फ 0.1 फीसदी लोग कोरोना संक्रमित बताये जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ 18.81 फीसदी का आंकड़ा है। यही फर्क राज्य के टेस्टिंग की विसंगतियों को उजागर करता है।
वैसे तो पिछले एक माह से राज्य में कोरोना से संबंधित आंकड़ों को लेकर पारदर्शिता में काफी कमी आयी है। स्वास्थ्य विभाग यह साफ-साफ नहीं बता रहा है कि रोजाना जो एक लाख से अधिक सैंपल लिये जा रहे हैं, उनमें कितने कोरोना के सबसे विश्वसनीय टेस्ट आरटी-पीसीआर विधि से लिये जा रहे हैं, कितने कम विश्वसनीय रैपिड एंटीजन और दूसरे तरीकों से। मगर 12 अगस्त को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद पीएम मोदी को वीडियो कांफ्रेंसिंग के दौरान सूचित किया कि राज्य में फिलहाल रोजाना कुल 6100 आरटी-पीसीआर टेस्ट करने की क्षमता है। इनमें 4900 सरकारी अस्पतालों में और 1200 निजी लैबों में। उन्होंने केंद्र से आरटी-पीसीआर टेस्ट मशीनों की मांग की थी। बाद में खबर आयी कि केंद्र सरकार बिहार को 12 मशीनें उपलब्ध कराने वाली हैं और राज्य सरकार खुद भी ऐसी 10 नई मशीनें खरीदने जा रही है। मगर खबर लिखे जाने तक सिर्फ खरीद की चर्चा ही हो रही थी, कब खरीदी जायेंगी और कब इंस्टाल होंगी। कब इनकी मदद से जांच शुरू होगा, कहना मुश्किल है। यह जरूर कहा जा रहा है कि राज्य सरकार का लक्ष्य रोजाना 20 हजार आरटी-पीसीआर टेस्ट करने का है।
इसके अलावा पटना हाईकोर्ट में दाखिल एक जनहित याचिका पर चल रही सुनवाई के दौरान राज्य के स्वास्थ्य विभाग ने अदालत को सूचना दी है कि राज्य के कुल 53 टेस्ट सेंटरों में से सिर्फ आठ सरकारी केंद्रों में आरटी-पीसीआर टेस्ट की सुविधा है, इनके अलावा चार निजी लैब आरटी-पीसीआर टेस्ट कर रहे हैं।
माना जा रहा है कि कोरोना टेस्ट को लेकर राज्य सरकार का पूरा जोर रैपिड एंटीजन टेस्ट पर है और इन आंकड़ों से ऐसा लगता है कि राज्य में 90 से 95 फीसदी टेस्ट इसी विधि से हो रहे हैं। जबकि यह विधि कोरोना जांच के लिए सबसे कम विश्वसनीय मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस विधि के जरिये 50 फीसदी मामलों में फाल्स निगेटिव रिजल्ट आता है। इसलिए आईसीएमआर ने निर्देश दिया है कि अगर किसी कोरोना जैसे लक्षण वाले मरीज का रैपिड एंटीजन टेस्ट निगेटिव आये तो उसे आरटी-पीसीआर विधि से कंफर्म करने की जरूरत है। मगर ऐसे लक्षण वाले कितने मरीजों की रोज दुबारा आरटी-पीसीआर विधि से जांच करायी जा रही है, इस संबंध में स्वास्थ्य विभाग कोई जानकारी नहीं देता।
27 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर “बिहार अंडर वाच-सेंट्रल टीम लुक्स एट होम आइसोलेशन, टेस्टिंग प्रोटोकॉल” में भी इस बात को लेकर केंद्रीय टीम ने चिंता व्यक्त की है। सेंट्रल टीम का कहना है कि जहां देश में अधिकतम 30 से 40 फीसदी टेस्ट रैपिड एंटीजन विधि से हो रहे हैं, वहीं बिहार में इसकी संख्या काफी अधिक है। वे भी यह जानना चाहते हैं कि क्या लक्षण वाले मरीजों का फोलोअप आरटी-पीसीआर विधि से हो रहा है।
सेंट्रल टीम ने इस बात पर भी आपत्ति जताई है कि राज्य के सभी कोविड अस्पताल खाली हैं, जबकि ज्यादातर मरीज होम आइसोलेशन में हैं। उनका कहना है कि अगर केस में गिरावट आ रही है, राज्य में अभी मुश्किल से 18-19 हजार मरीज हैं तो उन्हें अस्पताल के बदले घरों में क्यों रखा जा रहा है।
राज्य में कोरोना से मुकाबले की लचर स्थिति को लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता बीनू कुमार ने पटना हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की है। इस याचिका में उन्होंने सरकार के एफिडेविट पर सवाल उठाया है कि राज्य में सिर्फ आठ केंद्रों में ही आरटी-पीसीआर टेस्ट क्यों हो रहे हैं। राज्य में सिर्फ 3810 ऑक्सीजन सिलिंडर, 38 वेंटीलेटर, 3100 बेड ही कोरोना के लिए रिजर्व हैं। उन्होंने हमसे बातचीत में कहा कि किसी रोगी को उसी स्थिति में रोगमुक्त माना जाना चाहिए जब उसका आरटी-पीसीआर टेस्ट, चेस्ट एक्स-रे और चेस्ट का सीटी स्कैन हो। ताकि यह समझा जा सके कि कोरोना ने उसे कितना नुकसान पहुंचाया है। मगर अभी बिना टेस्ट के मरीजों को स्वस्थ बता दिया जा रहा है। ऐसे में 87 फीसदी मरीजों के स्वस्थ होने का दावा कितना विश्वसनीय माना जा सकता है। इस मुकदमे में हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को फिर से काउंटर एफिडेविट दाखिल करने के लिए कहा है।
दिलचस्प है कि राज्य में अक्तूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। जहां राज्य में कोरोना के संक्रमण की भयावह स्थिति को लेकर विपक्षी दल चुनाव की तारीख आगे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। वहीं सत्ता पक्ष समय से चुनाव चाहता है, वह चुनावी अभियान में जुट भी गया है। चुनाव आयोग ने भी समय पर चुनाव कराने की घोषणा कर दी है और तैयारियों में जुट गयी है। ऐसे में राज्य में कोरोना से जुड़े आंकड़ों की संदिग्धता और रिकवरी रेट के दावे खुद संदेह के घेरे में हैं और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इसके जरिये राज्य में चुनाव के पक्ष में माहौल तो नहीं बनाया जा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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