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गिग वर्करों पर कैसा रहा लॉकडाउन का प्रभाव?

गिग वर्कर अस्थायी कर्मी होता है। पर परंपरागत अस्थायी कर्मचारियों की भांति उनकी स्थिरता नहीं होती। एक सर्वे के मुताबिक राष्ट्रीय लॉकडाउन में ढील के बाद भी 69.7 प्रतिशत कर्मियों की कोई आय नहीं थी, जबकि 20 प्रतिशत को 500 रुपये से 1500 रुपये मिल रहे थे।
गिग वर्कर
Image courtesy: The Economic Times

सभी जानते हैं कि लॉकडाउन की वजह से भारत के प्रवासी मजदूरों को बहुत भारी संकट से गुज़रना पड़ा। पर अधिकतर लोगों को नहीं मालूम कि श्रमिकों के एक नए वर्ग, गिग वर्कर्स (Gig workers) को किस संकट का सामना करना पड़ रहा है। इनका संकट भी कम गंभीर नहीं है।

आख़िर कौन हैं ये गिग वर्कर?

गिग वर्करों में शामिल हैं स्विग्गी, ज़ोमेटो, अमेज़ॉन, फ्लिपकार्ट (Swiggy, Zomato, Amazon, Flipkart) जैसी कम्पनियों के होम-डिलिवरी बॉयज़ (home-delivery boys) और इस प्रकार के तमाम ई-कॉमर्स (e-commerce) संस्थाओं व कूरियर सेवाओं के कर्मी। फिर, इनमें आते हैं उबर और ओला के वाहन चालक। इनमें से एक हिस्से को ‘प्लैटफॉर्म वर्कर’ कहा जाता है, जैसे अमेज़ॉन कर्मचारी या अमेज़ॉन टर्क। कई कर्मी ‘ऑन-कॉल’ कर्मी हैं, जो कई तरह की सेवाएं देने वाली कम्पनियों के लिए बुलावे पर काम करते हैं, जैसे पाइपलाइन का काम करने वाले या ऑडिटिंग (auditing) का काम करने वाले, बिजली का काम करने वाले या ऑटो मेकैनिक। फिर ऐसे कर्मी भी हैं जो जीएसटी (GST) फाइल करने में व्यापारियों की मदद करते हैं।

अब ये काम करते जरूर हैं, पर औपचारिक रूप से कर्मचारी या श्रमिक की श्रेणी में नहीं आते। यह इसलिए कि वे एक या अधिक विशेष मालिकों के लिए काम करते हैं, पर मालिकों का कहना है कि तकनीकी रूप से या कानूनी तौर पर कर्मचारी-मालिक वाला रिश्ता इनके साथ नहीं है। इन्हें ‘फ्रीलांसर’ (freelancer) करार दिया गया है। पर, भले ही ये फ्रीलांसर हों, ये काम तो पूंजीपतियों के लिए ही करते हैं। इन्हें जो पैसा दिया जाता है उसे ‘सर्विस चार्ज’ का नाम दिया जाता है, पर यह पैसा एक किस्म का वेतन ही तो है, जो लेबर मार्केट की गतिशीलता और अब श्रमिक आंदोलन की दावेदारी से भी निर्धारित हो रहा है।

फ्रीलांसर होने के नाते इन कर्मियों को भ्रम होता होगा कि वे स्वयं अपने मालिक हैं। पर अंत में तो पूंजीवाद ही उनका मालिक है। काम के दौरान उन्हें लग सकता है कि वे अपने हिसाब से काम करने के लिए मुक्त हैं और मालिकों का उनपर प्रबंधन नहीं है। पर आधुनिक तकनीक के माध्यम से मिनट-मिनट पर उनके काम को मॉनिटर किया जाता है;  उनकी हर गतिविधि को ऑनलाइन संचालित और नियंत्रित किया जा सकता है। उनके काम के घंटे तय नहीं होते पर उन्हें निर्धारित समय में सेवा उपलब्ध करानी पड़ती है। और, आजीविका की मजबूरी उन्हें बाध्य करती कि वे 8-9 घंटों के वैधानिक काम के घंटों से अधिक काम करें।

अक्सर गिग वर्करों को मालूम नहीं होता कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं। कइयों को तो किसी ऑनलाइन प्लैटफॉर्म (online platform) के माध्यम से काम दिया जाता है और वेतन भी ऑनलाइन दिया जाता है। तो मालिक और कर्मचारी कभी आमने-सामने नहीं आते-यानी चेहराविहीन गैर-कर्मचारी (faceless non-workers) चेहराविहीन गैर-मालिक (faceless non-employers) के लिए काम करते हैं। काम हुआ तो पैसा मिल जाता है-बात खत्म; न ही उन्हें किसी ऑफिस या कारखाने तक जाने की जरूरत होती है। काम के प्रबंधन की भी जरूरत नहीं होती, तो ज्यादातर न सुपरवाइज़र होते हैं न ही प्रबंधक।

गिग वर्कर अस्थायी कर्मी होता है। पर परंपरागत अस्थायी कर्मचारियों की भांति उनकी स्थिरता नहीं होती। उन्हें कई बार यह भी पता नहीं होता कि वे अगले दिन किस मालिक के साथ काम कर रहे होंगे या उन्हें काम मिलेगा भी या नहीं। उन्हें कई बार अलग-अलग मालिकों के यहां विभिन्न किस्म के काम करने होते हैं और कई बार मालिक कर्मचारियों को प्रतिदिन बदलते हैं। यह अनौपचारिक श्रमिक हैं पर यह अनौपचारिकता अति तक पहुंच जाती है और स्थायित्व जैसी चीज़ को तो भूल जाना पड़ता है।

लेबर चौराहे पर खड़े निर्माण कार्य आदि करने वाले मजदूरों का जो रिश्ता मालिक और काम के साथ होता है, लगभग वैसी ही स्थिति गिग वर्कर की होती है; केवल गिग वर्कर जिस गिग अर्थव्यवस्था का हिस्सा होता है वह डिजिटल पद्धति से चलता है। एक स्मार्टफोन से काम चलता है और पेटीएम से पैसा दे दिया जाता है। इनका काम ठेके के काम जैसा होता है पर परंपरागत ठेके वाले काम से अलग है। कुछ गिग वर्कर क्लीनरों की तरह अकुशल श्रमिक होते हैं पर कुछ स्वास्थ्य सेवा या कानूनी सेवाएं अथवा मार्केटिंग/विज्ञापन/सॉफ्टवेयर सेवाएं देने वाले कुशल कर्मचारी होते हैं।

गिग अर्थव्यवस्था भारतीय अर्थव्यवस्था का छोटा हिस्सा है, पर लेबर सीन को देखने-समझने वाले जानते हैं कि इस क्षेत्र का लगातार विस्तार हो रहा है। कुछ का कहना है कि यह हाल के दिनों में सबसे तेज़ी से बढ़ता क्षेत्र बन गया है। भारत सरकार के पास इनकी संख्या का कोई आंकड़ा नहीं है, पर आंकलन है कि ये 60 लाख से लेकर एक करोड़ की संख्या में हैं। 40 लाख ऐप-आधारित कैब ड्राइवर हैं और ओला दावा करता है कि उसके पास 25 लाख ड्राइवर-पार्टनर हैं। फ्लिपकार्ट के पास 1 लाख डिलिवरी वर्कर हैं। अमेज़ॉन के पास 50 हज़ार वर्कर थे, पर महामारी के चलते होम डिलिवरी की मांग बढ़ गई। अब अमेज़ॉन ने घोषणा की है कि वह 50,000 नए कर्मचारियों की नियुक्ति करेगा। आज छोटे शहरों में तक दवा की दुकानें और ग्रोसरी की दुकाने गिग वर्करों के माध्यम से डिलिवरी करवा रही हैं। तो वर्तमान समय में इनका हिस्सा भारत की कार्यशक्ति का काफी बड़ा हिस्सा होगा; यह श्रमिक आंदोलन के हिसाब से भी काफी बड़ा है।

अब देखें कि लॉकडाउन का इनपर क्या प्रभाव पड़ा? लॉकडाउन के पहले दो महीनों में ओला के राजस्व में 95 प्रतिशत की कमी आई थी। सभी कैब सेवाओं और खाद्य डिलिवरी चेन्स ने अपने वर्करों के मेहनताने में कटौती कर दी। ‘कई कर्मचारियों की नौकरियां गईं। अप्रैल तक स्विग्गी और ज़ोमैटो ने 6000 वर्कर बैठा दिये। पर अमेज़ॉन ने लॉकडाउन के दौर में कार्यशक्ति को दूना कर दिया क्योंकि मार्केट और मॉल बंद थे और बाज़ार से खरीददारी का कोई सवाल ही नहीं था। कोविड महामारी के संकटपूर्ण दौर में काम करने के लिए कर्मचारियों को कोई अलग प्रोत्साहन राशि नहीं दी जाती है। कम्पनी ने अमेरिका में अपने गोदाम-कर्मचारियों (warehouse workers) को 2 डॉलर प्रति घंटे बढ़ाकर दिये पर भारत में कुछ नहीं दिया गया। बाद में अमेरिका ने भी ये प्रोत्साहन राशि खत्म कर दी। डिलिवरी बॉयज़ को कोविड महामारी के दौर में जान जोखिम में डालकर लोगों की सेवा करनी पड़ी, पर उन्हें केवल संक्रमित होने पर क्वारंटाइन के दौर में पगार सहित छुट्टी दी गई, पर इलाज का पैसा जेब से लगाना पड़ा।

भारत सरकार ने लॉकडाउन के दौरान गिग वर्करों के लिए कोई सहायता कार्यक्रम नहीं चलाया। कोविड से मौत होने पर 50,000 रुपये की सहायता सिर्फ उन लोगों को दी गई जो स्वास्थ्य सेवाओं में फ्रन्टलाइन कर्मी थे, पर कई राज्यों में आवश्यक सेवा देने वाले सभी कर्मचारियों के लिए कोई सहायता राशि नहीं थी। पंजाब जैसे कुछ राज्यों में इस योजना को पुलिसकर्मियों और सफाई कर्मियों पर लागू किया गया, पर कई राज्यों में निजी क्षेत्र में कार्यरत वर्करों को इस योजना में शामिल नहीं किया गया और डिलिवरी वर्करों को आवश्यक सेवा के लिए विशेष पास भी नहीं दिये गये, जिसके चलते उन्हें पुलिस द्वारा काफी परेशान किया जाता रहा।

गिग अर्थव्यवस्था और गिग वर्करों पर लॉकडाउन के प्रभाव पर व्यवस्थित अध्ययन की सख़्त जरूरत श्रमिक आन्दोलन को महसूस हो रही थी ताकि वे सरकार से नीतिगत कदमों की मांग कर सकें।

इस जरूरत को कुछ हद तक पूरा करने के उद्देश्य से आइफैट, इंडियन फेडरेशन ऑफ ऐप-बेस्ड ट्रान्सपोर्ट वर्कर्स (Indian Federation of App-based Transport Workers, IFAT) ने आईटीएफ, इंटरनेशनल ट्रान्सपोर्ट वर्कर्स फेडरेशन इन एशिया पसिफिक (International Transport Workers’ Federation, ITF, Asia Pacific) के साथ मिलकर पांच राउंड में ऐप-बेस्ड गिग वर्कर्स पर सर्वे कर लॉकडाउन के प्रभाव पर अध्ययन किया। सर्वे के निष्कर्ष को एक 45-पेज लंबी रिपोर्ट के माध्यम से प्रकाश में लाया गया है। यह 17 सितंबर 2020 को ‘लॉकिंग डाउन द इम्पैक्ट ऑफ कोविड-19’ शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ है। इस अन्वेषण को आंशिक रूप से सहयोग दिया है सीआईएस, यानी सेंटर फॉर दंटरनेट ऐण्ड सोसाइटी (Centre for Internet and Society, CIS) ने, जो बंगलुरू में काम करने वाला एक गैर-लाभकारी संस्था है। यह डिजिटल अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम सामाजिक मुद्दों पर शोध व वकालत का काम करता है।

मार्च और जून 2020 के बीच आईफैट और आईटीएफ ने जो 5 सर्वे किये उनमें ट्रान्सपोर्ट और डिलिवरी वर्कर्स पर निम्न मामलों से संबंधित डाटा एकत्र कियाः

1. कोविड-19 के दौरान उनकी आय

2. इन महीनों में लोन भरने का बोझ

3. कम्पनियों द्वारा उनको दी गई सहायता

4. केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं तक उनकी पहुंच।

सर्वे का पांचवा चक्र जून प्रथम सप्ताह में चलाया गया, जब लॉकडाउन को खोलने की प्रक्रिया शुरू हुई। 8 जून को ऐप-बेस्ड वर्करों के साथ काम कर रहे सभी यूनियनों ने भारत भर में शान्तिपूर्ण विरोध का आह्वान किया।

आय और लोन पर पहला सर्वे मार्च में किया गया। 5964 कर्मचारियों पर 55 शहरों में और 16 राज्यों में सर्वे हुआ। दूसरे और तीसरा सर्वे अप्रैल में हुआ और इसमें 1630 वर्करों को लिया गया, जो 16 राज्यों और 59 शहरों से थे। चौथा और पांचवा सर्वे जून में हुआ जब लॉकडाउन खुलने लगा और इसमें दोबारा आय का आंकलन किया गया। सुश्री अंबिका टंडन, जो सीआईएस के चार-सदस्यीय टीम का नुतृत्व कर रही थीं, ने इस सर्वे की योजना बनाईं, उसका डिज़ाइन तय किया और रिपोर्ट का संपादन भी किया। न्यूज़क्लिक के लिए उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने रिपोर्ट के निम्नलिखित प्रमुख निष्कर्ष बताएः

प्रथम, राष्ट्रीय लॉकडाउन से पहले वाले सप्ताह में 33.3 प्रतिशत प्रतिवादी सप्ताह में 40-50 घंटे काम करते थे। अधिक काम के बावजूद 15 अप्रैल 2020 से एक सप्ताह तक ड्राइवरों की औसत आय 2500 रुपये से कम थी। 57 प्रतिशत प्रतिवादियों की आय शून्य से 2250 रुपये तक ही थी।

89.8 प्रतिशत कर्मियों को खाद्य सुरक्षा के नाम पर राशन नहीं मिला न ही उन्हें कम्पनियों अथवा सरकार से कोई आर्थिक सहायता मिली।

प्रतवादियों की मार्च 2020 में औसत मासिक ईएमआई 10,000 रुपये से 20,000 रुपये थी। 51 प्रतिशत प्रतिवादियों ने वाहन के लिए 19 पब्लिक सेक्टर बैंकों से लोन लिए थे।

जहां कम्पनियों ने वित्तीय सहायता कार्यक्रम घोषित किये थे, और ग्राहकों से चंदा लिया था, वहां भी फंड के आवंटन में कोई पारदर्शिता नहीं थी। इसके अलावा प्रशासनिक भ्रष्टाचार था (जीएसटी कम्प्लायंस वाले बिल की मांग) और योग्यता के स्पष्ट मानदंड आदि नहीं थे।

ओला ने घोषणा की कि लीज़ पर ली गई गाड़ियों का किराया माफ किया जाएगा, पर ड्राइवरों से गाड़ियां लौटाने को कहा गया। पर लॉकडाउन में ढील के बाद इन गाड़ियों को कैसे वापस लिया जाएगा, इसपर किसी योजना की घोषणा नहीं की गई; इससे ड्राइवरों को भारी तनाव हुआ।

राष्ट्रीय लॉकडाउन में ढील के बाद, 69.7 प्रतिशत कर्मियों की कोई आय नहीं थी, जबकि 20 प्रतिशत को 500 रुपये से 1500 रुपये मिल रहे थे।

आरोग्य सेतु ऐप को अनिवार्य बनाए जाने के कारण वर्करों को निजता को लेकर चिंता हुई क्योंकि कम्पनियां काम के घंटों के बाद भी उनके बारे में डाटा एकत्र कर रहीं थी।

संपूर्ण रिपोर्ट सीआईएस के वेबसाइट पर उपलब्ध है।

यह रिपोर्ट काफी सामयिक है, क्योंकि इसके जारी होने के समय ओला और उबर के दिल्ली के ड्राइवरों ने हड़ताल की थी। वर्तमान समय में दिल्ली, मुम्बई और कई उत्तरी राज्यों में स्विग्गी वर्करों की हड़ताल चल रही है। अगस्त में हैदराबाद और चेन्नई में भी इन कर्मचारियों ने हड़ताल शुरू की थी, जो अब भी जारी है और जिसका मुद्दा था मनमाने ढंग से वेतन में कटौती। एक कर्मी ने बताया कि जहां वे 10,000-15,000 प्रतिमाह कमाते थे और बारिश में प्रोत्साहन राशि के अलावा किलोमीटर के हिसाब से अतिरिक्त पैसा पाते थे, उन्हें केवल 2500-3000 रुपये मिल पाते हैं। कर्मचारियों ने ईएमआई (EMI) पेमेंट के लिए के लिए स्थगन की मांग की। ऐप-आधारित ड्राइवरों ने मांग की कि उनके वेतन को सरकार द्वारा नियुक्त स्वतंत्र नियामक प्रधिकरण द्वारा तय किया जाय, न कि संचालन करने वाली कम्पनियों द्वारा।

एक हड़ताली कर्मचारी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि पहले उन्हें 40 रुपये प्रति डिलीवरी मिल रही थी, पर वह घटाकर 15 रुपये कर दी गई, जबकि वे अपनी गाड़ी इस्तेमाल कर रहे थे और पेट्रोल पर खुद खर्च कर रहे थे। ‘‘यदि मैं जान जाखिम में डालकर 30 डिलिवरी प्रतिदिन करूं तो भी मुझे एक निर्माण मजदूर के बराबर पैसा नहीं मिलेगा। हमें महज 200 रुपये वन-टाइम दे दिया गया ताकि हम मास्क और सैनिटाइज़र खरीद सकें। वह खत्म हो गया और अब तो जेब से पैसा लगाना पड़ रहा है। सरकार अपने ही नियम को लागू नहीं करवा रही कि पीपीई किट का पैसा मालिक को देना होगा’’।

लम्बे समय तक गिग वर्करों की समस्याओं के प्रति तटस्थ रहने के बाद, मसौदा लेबर कोड को देखने हेतु बनी संसदीय समिति ने घरेलू कामगारों, प्रवासी मजदूरों, गिग वर्करों और प्लेटफॉर्म वर्करों के लिए सामाजिक सुरक्षा कवर की सिफारिश की, जिसमें एक समर्पित निधि से विकलांगता कवर, स्वास्थ्य बीमा और पेंशन दिये जाएं। बताया जाता है कि समिति ने असंगठित श्रमिकों के लिए बेरोज़गारी भत्ते की सिफारिश भी की थी। रिपोर्ट जुलाई 2020 में ही सरकार को सौंप दी गई थी, पर महामारी जैसी आपात स्थिति में भी रिपोर्ट पर मोदी सरकार की कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया आना अभी बाकी है। महामारी ने दिखा दिया है कि कैसे गिग वर्करों जैसे हाशिये पर जीने वालों की जीवन दशा बुरी तरह बिगड़ सकती है। दूसरी बात, महामारी ने आर्थिक संकट पैदा किया है और मंदी को गहरा बना दिया है।

यदि वित्तीय वर्ष के पहले क्वाटर में एक-चौथाई अर्थव्यवस्था खत्म हो जाएगी और यदि इससे गिग वर्करों की आधी आमदनी साफ हो जाती है, आने वाले दो-तीन वर्ष उनके लिए बहुत ही गंभीर संकट के होंगे। केंद्र और राज्य सरकारों और संपूर्ण ट्रेड यूनियन आंदोलन को उनके हितों की रक्षा करने के लिए मुस्तैदी से कदम उठाने पड़ेंगे। संविधान के अनुरूप गिग वर्कर उन सभी अधिकारों को पाने के योग्य हैं, जो अन्य वर्करों को दिये गए हैं।

(लेखक आर्थिक और श्रम मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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