तुम ज़मीं पे ‘ज़ुल्म’ लिखो, आसमान में 'इंक़लाब' लिखा जाएगा
‘वैज्ञानिक गलत हैं’, उरुग्वे के लेखक एडुआर्डो गैलेनो ने अपने चेहरे पर अनुकूल मुस्कान के साथ कहा। ‘इंसान परमाणुओं से नहीं बने हैं; वे कहानियों से बने हैं’। यही कारण है कि हम गाना और चित्र बनाना चाहते हैं, एक-दूसरे को अपने जीवन और अपनी आशाओं के बारे में बताना चाहते हैं, अपनी ज़िंदगी के चमत्कारों और उन चमत्कारों जिनके हम सपने देखते हैं के बारे में बात करना चाहते हैं। ये सपने - ये कला - ही हैं जिनके कारण हम हर दिन उठते हैं, मुस्कुराते हैं, और दुनिया में आगे बढ़ते हैं। ये इंसान ही हैं जो विकट से विकट स्थितियों में भी कला के माध्यम से अपने हौंसले बढ़ाने का तरीका खोज लेते हैं, जैसा कि ब्राजील की जोंगो परंपराओं और भारत के कृषि श्रमिकों के ओवी गीतों— गर्मियों के गीत, बूढ़ी महिलाओं द्वारा युवा लड़कों को गर्मी न बर्दाश्त कर पाने के लिए कोसने के गीत — में स्पष्ट है, जिन्हें गाने वाले खेतों और कारख़ानों की कड़ी मेहनत की थकावट अपने जीवन और प्रकृति के गीतों से परे धकेल देते हैं।
गर्मियों के सात गाने, कोलावाडे गांव, महाराष्ट्र, भारत, 2017
ये गीत रोजमर्रा की जिंदगी की कहानियां हैं।
अचानक चक्रवात आ जाता है।
आप सैंटियागो (चिली), बगदाद (इराक) या दिल्ली (भारत) की सड़कों से गुज़रते हुए पाएंगे कि यहाँ की दीवारें और सड़कें आर्ट गैलरी में बदल गयीं हैं, विरोध स्थल सुर-भवन बन गए हैं, सड़कों पर पुस्तकालय खुल गए हैं, इस बवंडर को पार करते लोगों ने मुट्ठियों में पर्चे भींच रखे हैं।आप पाएंगे कि भाषा अपने सख्त अनुपात के बाहर धाराप्रवाह कर रही है, नए वाक्यांश गढ़े जा रहे हैं, और व्याकरण व छंद की सीमाएँ लांघी जा रही हैं। आप दिल्ली के शाहीन बाग में ज़रा देर बैठें, एक नई संस्कृति की अर्द्ध-पारदर्शता आपको जकड़ लेगी और आपको अपने जीवन के तनावों के बारे में फिर से सोचने के लिए मजबूर कर देगी।
आप कविताएँ और गीत गाने लगेंगे, अपनी बात ज़ोर से कहने के लिए, लेकिन आप अकेले नहीं होंगे; यही विरोध की भव्यता है- आप अजनबियों के एक कोरस में गाएंगे, जो गीत के बोलों और धुनों से अपरिचित होने पर भी कॉमरेड बन जाते हैं। कुछ गीत पुराने होंगे, जैसे वियतनाम की विक्टर जारा का 1971 का गान- द राइट टू लिव इन पीस- बाकी नए गीत होंगे, नारे गीत बन जाएँगे। आप उन कवियों का स्वागत करेंगे, जो अपने हाथों में नोटबुक के साथ मंच पर सकुचाते हुए आएंगे और अपने शक्तिशाली शब्दों से सभी वक्ताओं में नया उत्साह जगा देंगे। ये कवि लोगों के बीच में अपने काम की कसौटी परखेंगे, और फिर वीडियोग्राफर और संपादक उनकी प्रस्तुति को और महीन बनाएँगे, नए वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होंगे।
आमिर अज़ीज़ की कविता ‘सब याद रखा जाएगा’ भारत में नागरिकता अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शनों और इन प्रदर्शनों के प्रति असंवेदनशील सरकार के विरोध से निकली है।
तुम हमें क़त्ल कर दो, हम बनके भूत लिखेंगे,
तुम्हारे क़त्ल के, सारे सबूत लिखेंगे,
तुम अदालतों से चुटकुले लिखो;
हम दीवारों पे ‘इंसाफ़' लिखेंगे।
बहरे भी सुन लें इतनी ज़ोर से बोलेंगे।
अंधे भी पढ़ लें इतना साफ़ लिखेंगे।
तुम 'काला कमल' लिखो;
हम 'लाल गुलाब' लिखेंगे।
तुम ज़मीं पे ‘ज़ुल्म’ लिखो;
आसमान में 'इंक़लाब' लिखा जाएगा,
सब याद रखा जाएगा,
सब कुछ याद रखा जाएगा।
ताके तुम्हारे नाम पर लानतें भेजी जा सकें;
ताके तुम्हारे मुजस्समों पे कालिखें पोती जा सकें;
तुमारे नाम, तुम्हारे मुजस्समों को आबाद रखा जाएगा;
सब याद रखा जाएगा,
सब कुछ याद रखा जाएगा।
आमिर अज़ीज़, सब याद रखा जाएगा, 2019
आमिर अज़ीज़ ने जहाँ इस कविता को सुनाया उसके पास ही शाहीन बाग है। शाहीन बाग भारत में उमड़े जन-सैलाब का केंद्र-बिंदु है। यहाँ युवा कलाकारों ने इस विरोध प्रदर्शन की प्रहरी महिलाओं का एक भित्ति चित्र बनाया है; वो ख़ुश हैं, आज़ाद हैं, उनके पास संविधान रचियता डॉ. बी. आर. अम्बेडकर की तस्वीर है और वे पाकिस्तानी कम्युनिस्ट कवि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे, लज़िम है कि हम भी देखेंगे’ गा रही हैं।
शाहीन बाग का भित्ति चित्र, 2020
उल्लेखनीय गायक टी. एम. कृष्णा ने उर्दू सहित चार भारतीय भाषाओं— कन्नड़, मलयालम और तमिल— में इस नज़्म को विरोध स्थल पर गाया।
टी. एम. कृष्णा, हम देखेंगे, 2020.
मानवीय क्षमतायों का ये धारा परवाह विद्रोह के समय पर उमड़ा है, जब औचित्य की बेड़ियां तोड़ी जा रही हैं।
अभिव्यक्ति और भावनाओं का विस्फोट क्रांति के तत्काल बाद कहीं ज़्यादा उत्तेजक होता है जब पुरानी व्यवस्था हारने लगती है और नयी व्यवस्था स्वरूप लेने के लिए संघर्ष कर रही होती है। 1917 की क्रांति के बाद नए सोवियत गणराज्य में 1918 के स्वागत के समय की असीम भावनाओं को पूरी तरह से समझना मुश्किल है; जब कवि, अभिनेता, लेखक, चित्रकार, डिजाइनर और दार्शनिक पुराने सिद्धांतों को दरकिनार कर एक नयी दुनिया की समझ को परिपक्व करने की कोशिश में लगे थे। ये ऐसा था जैसे बादल छँट जाने के बाद सूरज चमक रहा हो आपके ऊपर, और जैसे कि युद्ध और कारखाने में परिश्रम से झुके कंधे अब उठ सकते हों।
दिसंबर 1917 में सोवियत गणराज्य ने देश में अशिक्षा और अज्ञानता को समाप्त करने के लिए लोकप्रिय शिक्षा पर एक अहम निर्णय पारित किया। इस निर्णय से नि:शुल्क शिक्षा अनिवार्य बनी। पर बात सिर्फ़ पढ़ना-लिखना सीखाने की नहीं थी; कलात्मक बनाने की थी। इसलिए, उदाहरण के लिए, प्रत्येक स्कूल और कॉलेज में फोटोग्राफी क्लब और पेंटिंग क्लब बनाए गए। छात्र प्राचीनकाल की महान कलाओं को संग्रहालयों और सोवियत कलाकारों के काम को गैलरियों में देखने जाते थे। पेंटर और स्टेज डिजाइनर, व्लादिमीर टैटलिन ने कला को राजनीति से अलग रखने वाली पूरी बहस को खारिज करते हुए कहा: ‘अक्टूबर क्रांति को स्वीकार करना या न करना.. मेरे लिए ये कोई सवाल नहीं था। मैं जीवंत रूप से सक्रिय, रचनात्मक, सामाजिक और शैक्षणिक ज़िंदगी में विलीन होता गया।'
वरवरा स्टेपनोवा, सफेद पृष्ठभूमि पर पांच आकृतियाँ, 1920
28 जनवरी और 2 फरवरी 2020 के बीच, ट्राईकांटिनेंटल: अन्तर्राष्ट्रीय शोध संस्थान और इंटरनेशनल पीपुल्स असेंबली ने मिलकर जन-आन्दोलनों में कला और संस्कृति की भूमिका पर कुएर्नावाका, मेक्सिको में एक बैठक आयोजित की। इस बैठक में पंद्रह देशों से बत्तीस लोग शामिल हुए; जिनमें ज़्यादातर क्रांतिकारी कलाकार थे, जिन्होंने कला और राजनीति के व्यापक सवाल से लेकर भारत में नुक्कड़ नाटक और क्यूबा की क्रांति-पश्चात ग्राफिक कला जैसे कई मुद्दों पर चर्चा की।
बैठक की 3 तस्वीरें
यह बैठक राष्ट्रीय मुक्ति-आंदोलनों की कला परंपरा और आज के लोकप्रिय संघर्षों की पृष्ठ-भूमि में नई कला बनाने की तात्कालिक ज़रूरत के संदर्भ में आयोजित की गयी थी। कुएर्नावाका मोरेलोस में है, जहाँ एमिलियानो ज़पाटा का जन्म हुआ था; ज़पाटा ने 1911 की मैक्सिकन क्रांति का नेतृत्व किया और फिर मैक्सिको सिटी पर जीत प्राप्त कर लेने के बाद अपने ग्रामीण जीवन में लौट गए। ये टैपोज़लान के प्राचीन पिरामिडों की जगह है; जो एक समय पर सक्रीय सांस्कृतिक जगह थी जहाँ कम्युनिस्ट चित्रकार डेविड अल्फारो सिकीरोस (1896-1974) सरीखे लैटिन अमेरिका और मैक्सिको से निर्वासित किए गए कलाकार शरण पाते थे। इस बैठक में आए लोगों की कलाकारों का अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क बनाने की आकांक्षाओं में सिकीरोस जैसी ही ऊर्जा थी। इस नेटवर्क के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए, कृपया [email protected] पर हमारी प्रमुख डिजाइनर, टिंग्स चक से संपर्क करें।
डेविड अल्फारो सिकीरोस, पोर्फिरिओ-शासन से क्रांति तक (1957-1966)
21 फरवरी को, दुनिया भर में हजारों लोग सार्वजनिक जगहों पर रेड बुक्स डे मनाने के लिए इकट्ठा होंगे। इस दिन को मनाने के तीन कारक हैं:
1. वाम लेखकों, वाम प्रकाशकों और वामपंथी किताबों की दुकानों पर हमले के खिलाफ एकजुट होना।
2. रूढ़िवाद और अतार्किकता के खिलाफ मार्क्सवादी दृष्टिकोण का बचाव करना।
3. दुनिया भर के वामपंथी प्रकाशकों का एक नेटवर्क बनाना।
जापान से लेकर चिली तक, इन सभाओं में, लोग कम्युनिस्ट घोषणापत्र को अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ेंगे। 21 फरवरी 1848 को ही पहली बार मार्क्स और एंगेल्स ने इस अभूतपूर्व लेख को प्रकाशित किया था, जो की अब दुनिया की अधिकांश भाषाओं में उपलब्ध है।
मैनिफेस्टो पढ़ने का GIF
तमिलनाडु, भारत में दस हजार लोग घोषणापत्र का नया तमिल अनुवाद पड़ेंगे, और दक्षिण अमेरिका में हजारों लोग इसे पुर्तगाली और स्पेनिश में पढ़ेंगे। जोहान्सबर्ग के द कम्यून में, इसे ज़ुलु और सोथो भाषाओं में पढ़ा जाएगा; दिल्ली के मे डे कैफ़े में इसे असमिया, बंगाली, जर्मन, हिंदी, मराठी, मलयालम, ओडिया, पंजाबी, तेलुगु और उर्दू में पढ़ा जाएगा।
सार्वजनिक जगहों पर इक्कठ्ठा होना और आसमान में ‘इंक़लाब’ लिखने का अधिकार माँगना, इस दौर-ए-सियासत में साहस का काम है ।
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