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मोदी जी के नए भारत में स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को या 5 अगस्त को? 

कटाक्ष: इस स्वतंत्रता ने हमें दिया ही क्या है, अंगरेजी राज से आजादी के सिवा। संस्कृत तो संस्कृत, हिंदी तक को राष्ट्रभाषा बनाने की इजाजत नहीं मिली। न मनुस्मृति को संविधान बनाने की इजाजत मिली और न सावरकर को राष्ट्रपिता बनाने की। और तो और इतनी भी इजाजत नहीं मिली कि इतिहास में करैक्शन कर के राणा प्रताप से अकबर को पिटवा दें।
मोदी जी के नए भारत में स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को या 5 अगस्त को? 
Image courtesy : TOI

लोककल्याण मार्ग पर सुबह-सुबह एक भाषण उड़ता मिला। किसने लिखा, किस के लिए लिखा, नहीं पता, पर इतना तय है कि यह भाषण लाल किले से सुनने को नहीं मिलेगा। पर भाषण सुनाने का मौका भी है और दस्तूर भी, सो दम साध के भाषण सुनिए।

भाइयो, बहनो,

स्वतंत्रता के चौहत्तर साल हो गए। साल भर बाद, पचहत्तर साल हो जाएंगे। तब हम सब बड़ी धूम-धाम से स्वतंत्रता का अमृृत महोत्सव मनाएंगे। बल्कि हम कोई एक साल इंतजार थोड़े ही करने वाले हैं। हम तो अभी से उत्सव शुरू कर देेंगे और साल भर उत्सव ही मनाएंगे। उत्सव की वैसे भी हमारे देश का मूड ठीक करने के लिए इस समय कुछ ज्यादा ही जरूरत है। कोरोना-वोरोना के चक्कर में एंटी-नेशनलों ने इतनी ज्यादा नेगेटिविटी फैला दी है कि उसे तो कोई साल भर लंबा अमृत महोत्सव ही कम कर सकता है। सरकार ने ‘मूंदेहु आंख कहूं कछु नाहीं’ का बाबा तुलसीदास का फार्मूला आजमा कर देख लिया, मौतों को घटाकर, आक्सीजन की कमी से हुईं मौतों को मिटाकर, गंगा के शववाहिनी बनने से आंख चुराकर, देख लिया। 

मजाल है जो नेगेटिविटी इत्ती सी कम हुई हो। खुद भागवत जी ने ‘जो चले गए, वो मुक्त हो गए’ का दर्शन पिलाकर भी देख लिया। पर नेगेटिविटी कम नहीं हुई। उल्टे लोगों ने इसकी रट लगाना और शुरू कर दिया कि तब तुम और तुम्हारी सरकार कहां सो रहे थे...? आदरणीयों के साथ तुम-तड़ाक! अब तो अमृत महोत्सव ही इस नेगेटिविटी को घटाएगा। सो हम तो जमकर उत्सव मनाएंगे। साल भर उत्सव मनाएंगे। इतना उत्सव मनाएंगे, इतना उत्सव मनाएंगे कि यह कहने वालों के मुंह खुले के खुले रह जाएंगे कि न हमारे पुरखे स्वतंत्रता की लड़ाई में शामिल हुए थे और न हमारी नजरों में स्वतंत्रता का कोई मोल है। मुंह खुला का खुला रह जाए या सिल जाए, बात तो एक ही है--आवाज नहीं निकलेगी!

मैं तो सोचता हूं कि उत्सव शुरू करने के लिए 15 अगस्त तक भी इंतजार क्यों करना? चौबीस घंटे ही रहते हैं तो भी इंतजार क्यों करना? चौबीस घंटे पहले ही शुरू करते हैं। स्वतंत्रता दिवस शिफ्ट नहीं कर सकते हैं तो क्या हुआ, स्वतंत्रता दिवस से पहले एक और दिवस तो जोड़ सकते हैं। जैसे ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस।’ ठीक भी है। स्वतंत्रता बाद में आयी, विभाजन पहले। स्वतंत्रता दिवस भी बाद में आएगा, ‘विभीषिका स्मृति दिवस’ पहले। एक्स्ट्रा उत्सव का उत्सव और विभीषिका के स्मरण का स्मरण। चौहत्तर साल में स्वतंत्रता की कद्र घट गयी है इसकी शिकायत करने वाले तो बहुत मिल जाएंगे। पर इसकी बात कोई नहीं करना चाहता कि हम विभाजन के घावों को भूलते जा रहे हैं। विभाजन के घावों का विस्मरण अब और नहीं। एकदम नहीं। विभीषिका स्मरण के उत्सव से कुरेद-कुरेदकर हम विभाजन के घावों को ताजा करेंगे। विभाजन के घावों को ताजा करेंगे, तभी तो विभाजन के अधूरे काम को पूरा करेंगे, उधर जिन्ना के इस्लामी पाकिस्तान के जवाब में, इधर गोलवालकर का हिंदू भारत बल्कि हिंदूस्थान। लेकिन, वह जरा बाद में। उससे पहले घावों को ताजा कर के तलवार बनाएंगे, तभी तो यूपी-उत्तराखंड में भगवा सरकार बचा पाएंगे। आखिर, फर्जी घावों से कोई कब तक काम चला सकता है?

युवाओं का देश क्या पचहत्तर साल पुरानी स्वतंत्रता से ही संतुष्ट हो सकेगा! हर्गिज नहीं। और हम क्यों हों संतुष्ट इस पुरानी-धुरानी स्वतंत्रता से। इस स्वतंत्रता ने हमें दिया ही क्या है, अंगरेजी राज से आजादी के सिवा। हिंदुओं को अपने देश में रहने की आजादी नहीं दी। रामलला को अपने जन्मस्थान पर मंदिर बनवाकर उसमें रहने तक की इजाजत इतनी मुश्किल से मिली है कि पूछो ही मत। संस्कृत तो संस्कृत, हिंदी तक को राष्ट्रभाषा बनाने की इजाजत नहीं मिली। न मनुस्मृति को संविधान बनाने की इजाजत मिली और न सावरकर को राष्ट्रपिता बनाने की। और तो और इतनी भी इजाजत नहीं मिली कि इतिहास में करैक्शन कर के राणा प्रताप से अकबर को पिटवा दें। गोडसे को ऑफीशियली देशभक्त बनाने का तो सवाल ही कहां उठता है। ब्राह्मïणों को अपने जाति-धर्म का पालन करने की आजादी नहीं मिली। कारोबारियों को ज्यादा से ज्यादा कमाई की, उद्योगपतियों को मजदूरों को जी-भरकर निचोडऩे तक की स्वतंत्रता नहीं मिली। हर चीज में कोटा, हर चीज का परमिट, हर चीज पर अंकुश यह स्वतंत्रता भी कोई स्वतंत्रता है, लल्लू!

सिर्फ राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, पर वह भी कितनी? राज तो मिला, लेकिन राजा नहीं मिला। पश्चिमी पढ़ाई के चक्कर में गांधी-नेहरू-आंबेडकर ने मिलकर भांजी मार दी। बेचारे गोलवालकर कहते ही रह गए कि चक्रवर्ती राजा बनाओ, हमें राजगुरु बनाओ, पर किसी ने सुनी ही नहीं। अंगरेजों की तरह, राजा को बड़ा सा महल तो दे दिया, पर राष्ट्रपति का नाम देकर उससे राजगद्दी छीन ली। पर जिस पीएम को राजगद्दी दी, उसे भी कौन सी स्वतंत्रता मिली! पांच साल पर चुनाव तो देखा भी जाए, पर गले में संसद की हर वक्त की किचकिच का पट्टा डाल दिया और सिर पर संविधान का पालन कराने की तलवार देकर सुप्रीम कोर्ट को बैठा दिया। ऐसे भी कोई राज होता है भला! पर अब और नहीं। पचहत्तर साल के बाद और नहीं। अमृत महोत्सव के बाद और नहीं। मोदी के नये भारत में और बिल्कुल नहीं। मोदी जी नये भारत में, नयी स्वतंत्रता भी लाएंगे। असली स्वतंत्रता। सिर्फ अंगरेजों के राज से नहीं, हर चीज से स्वतंत्रता। राज्य की संविधान से, राजा की संसद से, कारोबारियों की टैक्स-वैक्स से और भगवाधारियों की कानून से स्वतंत्रता। स्वतंत्रता-2। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के साथ, स्वतंत्रता-2 का काउंटडाउन भी शुरू होता है। हां! इस पर पब्लिक से भी सुझाव आमंत्रित हैं कि पचहत्तर के बाद, छहत्तरवां स्वतंत्रता दिवस गिना जाए या स्वतंत्रता-2 का एक-दो वगैरह? स्वतंत्रता दिवस, आगे भी 15 अगस्त का ही चलाया जाए या 5 अगस्त कर दिया जाए, राम जन्मभूमि मंदिर  भूमि पूजन और जम्मू-कश्मीर मुक्ति दिवस? और अगले पंद्रह अगस्त के बाद, झंडा फहराने के बाद वाला भाषण लाल किले से ही हो या कहीं और से? वैसे लाल किला भी अब मुगलों वाला नहीं रह गया है--अब तो डालमिया का लाल किला है, थैंक्स टु मोदी जी! 

( इस व्यंग्य आलेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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