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भारत में बढ़ने वाला है औद्योगिक गतिरोध

औद्योगिक उत्पादन में इस तत्काल दिखाई दे रही गिरावट पर ही ध्यान केंद्रित करते हुए, इस तथ्य पर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दिया गया है कि पिछले काफ़ी समय से, भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में क़रीब-क़रीब गतिरोध की ही स्थिति बनी रही है।
Industrial stagnation

लोगों के बीच इस पर काफी चर्चा रही है कि 2022 के अक्टूबर के महीने में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, पिछले साल यानी 2021 अक्टूबर के सूचकांक से 4 फीसद कम रहा है। इसकी चर्चा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि इस गिरावट के लिए कोविड से संबंधित लॉकडाउन या उसके बाद तक बने रह गए प्रभाव जैसी कोई  स्वयंसिद्घ व्याख्या तो है ही नहीं। वैसे भी कम से कम फिलहाल तो कोविड महामारी, एक अतीत की ही चीज हो चुकी है। इसलिए, औद्योगिक उत्पादन में इस तरह की भारी तथा प्रकटत: समझ में न आने वाली गिरावट, किसी और बुनियादी चीज की ओर, भारतीय अर्थव्यवस्था की किसी गहरे पैठी बीमारी की ओर ही इशारा करती है।

औद्योगिक वृद्धि दर नीचे ही गयी है

फिर भी, औद्योगिक उत्पादन में इस तत्काल दिखाई दे रही गिरावट पर ही ध्यान केंद्रित करते हुए, इस तथ्य पर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दिया गया है कि पिछले काफी समय से, भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में करीब-करीब गतिरोध की ही स्थिति बनी रही है। अब बात यह है कि सरकार, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का आधार वर्ष समय-समय पर बदलती रहती है और इस तरह निकलने वाले अलग-अलग सूचकांकों के बीच तुलना करना समस्यापूर्ण होता है। इसलिए, हम सिर्फ 2011-12 के आधार वर्ष पर आधारित सूचकांक को ही लेंगे, जो ताजातरीन उपलब्ध सूचकांक है और इसकी छानबीन करेंगे कि इस सूचकांक के हिसाब से हमारे देश के औद्योगिक उत्पादन के साथ क्या हो रहा है?

अब अगर हम खुद को पूरी तरह से महामारी से पहले वाले वर्षों तक ही सीमित रखें तब भी, हम यही देखते हैं कि 2011-12 और 2019-20 के बीच औद्योगिक उत्पादन में कुल बढ़ोतरी इस सूचकांक के हिसाब से सिर्फ 29 फीसद थी। इसका अर्थ होता है, कुल 3.2 फीसद की औसत सालाना वृद्धि दर। यह वृद्धि दर न सिर्फ अपने आप में बहुत ही कम है, यह वृद्धि दर तो इससे पहले की किसी भी तुलनीय अवधि के दौर में रही, औसत सालाना औद्योगिक वृद्धि दर की तुलना में भी काफी कम है। मिसाल के तौर पर 1951 से 1965 के दौर में भी, जो उस नियंत्रणात्मक अर्थव्यवस्था का दौर था जिसकी नवउदारवादी अर्थशास्त्री इसके लिए बहुत लानत-मलामत करते हैं कि इस दौर मेें अर्थव्यवस्था को वास्तव में एक बहुत थोड़ी जीडीपी वृद्धि दर के खूंटे से बांधकर रखा जा रहा था (जिसे मजाक में कई बार ‘हिंदू वृद्धि दर’ भी कहा जाता था, जिसका इशारा इस दर से ही चिपके रहने की ओर होता था), 1956 को आधार वर्ष बनाकर तैयार किए गए सूचकांक के हिसाब से, औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर 7 फीसद सालाना से ऊपर-ऊपर ही रही थी। यहां तक कि 2004-05 से 2014-15 के दशक के दौरान भी, 2004-05 को आधार वर्ष बनाकर तैयार किए गए औद्योगिक उत्पादन सूचकांक  के हिसाब से, औसत सालाना वृद्धि दर 5.87 फीसद रही थी।

वृद्धि दर में कोविड के बाद नाटकीय कमी क्यों?

संक्षेप में यह कि हाल के वर्षों में औद्योगिक वृद्धि दर में नाटकीय कमी देखने को मिली है। यह नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों के लगातार किए जाते वृद्धि दर के तेज कर दिए जाने के दावों से आम तौर पर बनने वाली छवि से ठीक उल्टी स्थिति है। सचाई यह है कि नवउदारवादी दौर में कुल मिलाकर, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक की वृद्धि दर में, आजादी के बाद के इससे पहले वर्षों की औसत दर के मुकाबले में, कमी ही हुई है। इसके ऊपर से, इस नवउदारवादी दौर के भीतर भी हम, अपेक्षाकृत हाल के वर्षों में इस दर में और कमी देखते हैं। इसके अलावा, यह एक सचाई है कि औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में छोटी औद्योगिक इकाइयों तथा लघु उत्पादन का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त ही रहता है। यह बात ध्यान में रखने की है कि उद्योग के इस हिस्से को, अपेक्षाकृत हाल के दौर में सरकार द्वारा नवउदारवादी नीति के हिस्से के तौर पर इस क्षेत्र के लिए मदद से आम तौर पर हाथ खींचे जाने की वजह से तो गंभीर संकट का सामना पड़ा ही है, उसे मोदी सरकार के नोटबंदी जैसे कदमों और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) थोपे जाने जैसे ठोस कदमों के चलते भी, संकट का सामना करना पड़ा है। इसलिए, औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि में वास्तविक कमी, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में जितनी कमी दिखाई पड़ रही है, उससेे कहीं ज्यादा होगी।

भारत की उत्तर-कोविड आर्थिक बहाली का कमजोर होना, इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है। सामान्यत:, जब मालों की आपूर्ति में बाधा पड़ जाती है, ऐसी बाधा के चलते मांग आगे के लिए टल जाती है और जब आपूर्ति की बाधा हट जाती है, उसके बाद वास्तव में किसी न किसी प्रकार का उछाल पैदा हो जाता है क्योंकि रुकी हुई मांग का एक अंश बाद में सामान्य मांग के साथ जुड़ जाता है। इसीलिए, सामान्य रूप से युद्घ के वर्षों के फौरन बाद के दौर में, आर्थिक उछाल देखने को मिलता है, जिसे ‘परवर्ती प्रभाव उछाल’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन, कोविड के चलते आपूर्ति में भारी बाधा पडऩे के बावजूद, उत्तर कोविड दौर में ऐसा कोई उछाल देखने को नहीं मिला है। उल्टे इस उत्तर कोविड दौर में तो हम पहले के गतिरोध के जारी रहने को बल्कि और तेजतर होने को ही देख रहे हैं। यह बताता है कि यह गतिरोध, अब हमारी अर्थव्यवस्था में सामान्य हो गया है। यह हमें इस सवाल पर ले आता है कि भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था में, गतिरोध की अवस्था क्यों आ गयी है?

बढ़ती असमानता : मेहनतकशों के हाथों में घटती क्रयशक्ति

इस संदर्भ में दो कारक बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। पहला तो यह कि आय के वितरण की बढ़ती असमानता के कारण, औद्योगिक मालों के लिए बाजार वक्त गुजरने के साथ ज्यादा से ज्यादा तंग होता गया है। अवाम के हाथों में क्रय शक्ति, न सिर्फ बहुत ही मामूली बनी रही है बल्कि नवउदारवादी व्यवस्था में आय की असमानता बढऩे के चलते, तुलनात्मक रूप से क्रय शक्ति वास्तव में सिकुड़ गयी है। असमानता में बढ़ोतरी की इस प्रवृत्ति को पिकेट्टïी तथा चांसेल ने पहले ही रेखांकित कर दिया था। उनका यह कहना था कि राष्टï्रीय आय में शीर्षस्थ 1 फीसद आबादी का हिस्सा, जो 1982 तक घटकर 6 फीसद पर आ गया था, 2013-14 तथा 2014-15 के दौरान फिर से बढक़र करीब 22 फीसद हो गया था। और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है कि वही प्रवृत्ति 2014-15 के बाद भी जारी रही है। वास्तव में, राष्टï्रीय नमूना सर्वेक्षण ने 2017-18 के लिए उपभोग खर्च का जो पांच वर्षीय वृहद नमूना सर्वे किया था, उसके संबंध में अखबारों में से लीक होकर आयी रिपोर्टों के अनुसार (खुद सर्वे की रिपोर्ट के नतीजों को तो सरकार ने दफ्र ही कर दिया था), ग्रामीण भारत में प्रतिव्यक्ति वास्तविक खर्च में 2011-12 से 2017-18 के बीच पूरे 9 फीसद की गिरावट हुई थी। यह गिरावट, मेहनतकश जनता के मामले में खासतौर पर ज्यादा रही होगी क्योंकि ग्रामीण उपभोक्ताओं के उपरले हिस्से तो, जिनमें भूस्वामी तथा ग्रामीण पूंजीपति आते हैं, आय में किसी कमी के शिकार हुए नहीं होंगे। ग्रामीण भारत में वास्तविक उपभोग व्यय में इस तरह की गिरावट से, स्वाभाविक है कि औद्योगिक मालों की मांग पर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा होगा।

नवउदारवाद की एक महत्वपूर्ण खासियत यह है कि शहरी मेहनतकश जनता की आमदनियां, उनके ग्रामीण समकक्षों की आमदनियों से जुड़ जाती हैं। दूसरे शब्दों में उनकी आमदनियां परस्पर संगति में चलती हैं। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण क्षेत्र में संकट के दौर में, शहरी इलाकों की ओर मजदूरी के लिए पलायन बढ़ जाता है और इससे शहरी इलाकों में श्रम की सुरक्षित सेना बढ़ जाती है और यह शहरी मेहनतकशों की आमदनियां घटा देता है। इसलिए, ग्रामीण मेहनतकशों की क्रय शक्ति में जब कमी हो रही थी, उस समय शहरी मजदूरों की क्रय शक्ति में भी ऐसी ही गिरावट हो रही होनी चाहिए। इस तरह, इसके चलते समग्रता में तमाम मजदूर वर्ग के बीच से औद्योगिक मालों की मांग घट गयी होगी।

औद्योगिक क्षेत्र के अंदरूनी संतुलन में बदलाव

हम पीछे छोटे उद्योगों तथा लघु उत्पादन का गला घोंटे जाने का जो जिक्र कर आए हैं, वह इस बढ़ती असमानता मेें अपना योग दे रहा है और इस तरह मांग के बढ़ते संकुचन में ही योग दे रहा है। ऐसा दोनों कारणों से हो रहा है। एक तो यह नवउदारवादी निजाम की आम कार्य प्रक्रिया के चलते हो रहा है। दूसरे यह इस सरकार की खास-खास गलतियों की वजह से भी हो रहा है, जिन्हें उक्त आम कार्य प्रक्रिया से होने वाले नुकसान के ऊपर से थोप दिया गया है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि जिन लघु उत्पादन व लघु उद्योग क्षेत्रों का इस तरह गला घोंटा जा रहा है, उनके उत्पादन की जगह बड़े पैमाने के उत्पादन के क्षेत्र के उत्पादों द्वारा ली जा रही है। लेकिन, लघु के उत्पादन के बड़े पैमाने के उत्पादन से प्रतिस्थापित किए जाने की यह प्रक्रिया, अर्थव्यवस्था में मांग को घटाने का ही काम करती है क्योंकि इस प्रक्रिया में जिस उत्पादन क्षेत्र को प्रतिस्थापित किया जा रहा होता है, उसके हरेक इकाई उत्पाद के लिए (और इसलिए प्रति इकाई आय पर भी) उपभोग की मात्रा, उसे प्रतिस्थापित करने वाले क्षेत्र के मुकाबले ज्यादा ही होती है।

लेकिन, तब यह पूछा जा सकता है कि औद्योगिक मालों की उस मांग का क्या जो उन अतिरिक्त उत्पाद कमाने वालों के बीच से आ रही होगी, जिन्हें आय के वितरण में आए उक्त बदलाव से फायदा पहुंच रहा होगा? इसमें तो कोई शक नहीं है कि नवउदारवाद के शुरू के वर्षों में, अतिरिक्त उत्पाद की कमाई खाने वालों के बीच ऐसे अनेक औद्योगिक मालों की जो दबी हुई मांग थी, जो इससे पहले तक देश में उपलब्ध ही नहीं थे, उसने औद्योगिक उत्पादन को गति देने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की थी। लेकिन, आसानी से पैदा किए जा सकने वाले मालों का घरेलू उत्पादन शुरू होने के बाद, सस्ते आयातों की उपलब्धता ही, आगे आयात प्रतिस्थापन के रास्ते में बाधक बनने लगती है। इस बिंदु से आगे, अतिरिक्त उत्पाद के हिस्से में बढ़ोतरी से पैदा होने वाली अतिरिक्त मांग तो, आयातों के जरिए रिसकर बाहर ही चली जाती है। ऐसा लगता है कि अब यही हो रहा है। जब हम औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्रों को अलग-अलग कर के देखते हैं, जिन दो क्षेत्रों में कहीं कम वृद्धि दिखाई दे रही है, वे हैं--पूंजी माल क्षेत्र और टिकाऊ उपभोक्ता माल क्षेत्र। मिसाल के तौर पर 2022 के अक्टूबर टिकाऊ उपभोक्ता मालों का सूचकांक, 2011-12 के अपने औसत से उल्लेखनीय रूप से नीचे था, जबकि पूंजी माल क्षेत्र का सूचकांक, 2011-12 के मुकाबले मुश्किल से जरा सा ऊपर था। इन दोनों ही क्षेत्रों के मामले में वृद्धि दर के धीमी रहने का स्वत:स्पष्टï कारण तो, आयात निर्भरता ही है। पूंजी मालों तथा टिकाऊ उपभोक्ता मालों, दोनों के ही क्षेत्र में घरेलू उत्पाद की जगह, आयात घेरते जा रहे हैं।

घटती आम मांग और बढ़ती आयात मांग

इसलिए, इस औद्योगिक गतिरोध की जड़ें तो इस नवउदारवादी निजाम की प्रकृति में ही हैं। इसमें मेहनतकशों को क्रय शक्ति में प्रत्याशित कमी झेलनी पड़ती है, जबकि अतिरिक्त उत्पाद कमाने वालों की क्रय शक्ति में प्रत्याशित बढ़ोतरी होती है। लेकिन, अतिरिक्त उत्पाद कमाने वाले इस आय का एक हिस्सा ही उपभोग पर खर्च करते हैं और उसमें भी बढ़ते पैमाने पर आयातित मालों पर ही खर्च कर रहे होते हैं। संक्षेप में यह कि आय वितरण की बढ़ती असमानता से अर्थव्यवस्था में अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति तो पैदा होती ही है, इसके ऊपर से अतिरिक्त उत्पाद की कमाई हासिल करने वालों की बढ़ती संपन्नता से, टिकाऊ उपभोक्ता मालों तथा पूंजी मालों के बढ़ते आयात की प्रवृत्ति भी पैदा होती है।

इस प्रवृत्ति के खिलाफ वर्तमान सरकार ने अगर कोई हस्तक्षेप किया माना जा सकता है तो इतना ही कि वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ऋण दिलवाने के जरिए, ढांचागत परियोजनाओं पर कहीं ज्यादा निजी निवेश को बढ़ावा दे रही है। अब यह दूसरा ही प्रश्न है कि वह ऐसा भी अर्थव्यवस्था को उत्पे्ररण देने की इच्छा से कर रही है या स्वत:स्पष्टï तरीके से बड़े पूंजीपतियों के साथ यारी निभाने के लिए कर रही है। साफ है कि यह हस्तक्षेप दयनीय रूप से अपर्याप्त साबित हुआ है। लेकिन, इसने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सिर पर विशाल मात्रा में जोखिमवाली लेनदारियां लाद दी हैं। ढांचागत परियोजनाओं  के लिए वैसे भी असाधारण रूप से लंबी परिपक्वता अवधि की जरूरत होती है और उन्हें, अगर वे घाटे से बाहर निकल भी पाती हैं तो भी, इसमें काफी समय लगता है। ऐसी परियोजनाओं के लिए वित्त व्यवस्था का जिम्मा, विशेषीकृत वित्तीय संस्थाओं को सोंपा जाना चाहिए, जो दीर्घावधि ऋण मुहैया करा सकती हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर, जो जनता की जमा राशियों से अपने संसाधन हासिल करते हैं, ढांचागत क्षेत्र के लिए वित्त-पोषण का जिम्मा डालकर, मोदी सरकार उन्हें गंभीर वित्तीय दबाव में डाल रही है।

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