महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस 2021 का महत्व
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिवर्ष 25 नवम्बर से 10 दिसम्बर तक महिलाओं और बालिकाओं पर हिंसा बंद हो, इसके लिए 16 दिन तक जागरूकता कार्यक्रम किए जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेम्बली में 1993 में महिलाओं पर होने वाली हिंसा के विरुद्ध घोषणा करते हुए महिलाओं पर हिंसा को इस प्रकार परिभाषित किया गया:
“लिंग आधारित हिंसा का कोई भी कार्य जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मनोवैज्ञानिक नुकसान या पीड़ित होने की संभावना है, जिसमें उनकी जिंदगी में इस तरह के कृत्यों की धमकी, जबरदस्ती या स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित करना शामिल है, चाहे वह सार्वजनिक हो या निजी रूप से हो। महिलाओं पर हिंसा माना जाएगा।”
संयुक्त राष्ट्र की यह परिभाषा सराहनीय है और हिंसा रहित महिलाओं की एक बेहतर दुनिया की आधारशिला रखती है।
आज के सन्दर्भ में ‘हिंसा रहित महिलाओं की दुनिया’ एक कल्पना या आदर्श प्रतीत होती है। क्योंकि वास्तविक दुनिया में और खासतौर से हमारे देश में महिलाओं पर हिंसा आम बात है। महिलाओं पर हिंसा की वारदातें आए-दिन होती रहती हैं। आज स्त्रियों पर हिंसा अपने बर्बरतम रूप में है। छोटी बच्चियों से लेकर उम्रदराज महिलाओं के साथ बलात्कार और यौनिक अपराधों की खौफनाक घटनाएं हमारे गांव-शहरों में लगातार होती रहती हैं। खासकर, देश भर में दलित महिलाओं पर जातिगत हिंसा की वारदातें बढ़ी हैं। इन पर बहुत निर्लज्ज किस्म की चुप्पी दिखाई देती है।
स्त्री जाति के खिलाफ नफरत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में एक आंकड़े के अनुसार अब तक लगभग 5 करोड़ से अधिक कन्या भ्रूण हत्याएं हो चुकी हैं। विकास और बराबरी के जितने भी दावे किए जाएं, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी हमारा पूरा तंत्र लड़कियों को लड़कों से कमतर समझता है और उनकी आज़ादी के खिलाफ है। उनको पुरुषों के अधीन समझा जाता है। और यदि महिलाएं और लड़कियां उनकी अधीनता स्वीकार न करें तो उन पर हिंसा की जाती है। जाति एवं पितृसत्ता, खाप पंचायतें भी हिंसा बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। महिलाओं पर होने वाली हिंसा की जड़ में जातिवाद और पितृसत्ता है। मैला ढोने की प्रथा भी दलित महिलाओं पर एक क्रूर हिंसा का रूप है। लैंगिक समानता पर बात करना तब तक बेमानी है, जब तक कि हम जातिवाद और पितृसत्ता पर प्रहार नहीं करते। महिलाओं पर होने वाली हिंसा को इन्हीं से खाद-पानी मिलता है।
हाल ही में महिलाओं पर सामूहिक बलात्कार और उनकी बर्बर हत्याओं की जो घटनाएं हुई हैं, वे दिलदहला देने वाली हैं। चाहे वह हाथरस की दलित युवती के साथ हुई हो या या दिल्ली की गुड़िया के साथ। दलित महिलाओं पर होने वाले बलात्कार की बात करें तो वर्ष 2019-20 में 3,486 दलित महिलाओं के बलात्कार के मामले दर्ज किए गए जिनमें से 537 सिर्फ उत्तर प्रदेश में हुए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार हाल के दिनों में दलित महिलाओं पर अत्याचार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। दलित महिलाओं पर हिंसा और यौन उत्पीडन के मामले लगातार बढ़ रहे हैं।
ध्यान रहे, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर देश के पहले नारीवादी थे, जिन्होंने औरतों की बराबरी के लिए मनुवादी-पिछड़ी सोच वाली ताकतों से जमकर लडाई लड़ी थी। इसके लिए उन्होंने संविधान में औरतों और पुरुषों को बराबरी का हक़ सम्मान दिया था। आज खतरा इसी बराबरी पर है और हमारे संविधान पर है।
दुःख की बात है कि इस क्रूर सच को हम मानने तक को तैयार नहीं हैं कि कई राज्यों में लिंग अनुपात (स्त्री-पुरुष आबादी का अनुपात) इतना बिगड़ गया है कि लड़कों को शादी के लिए लड़कियां नहीं मिल रही हैं।
महिलाओं पर हिंसा के न जाने कितने वाकये समाज में रोज घटित होते हैं और लोग उसे घरेलू विवाद मानकर प्रकरण को वहीं समाप्त कर देना चाहते हैं। ऑक्सफेम इंडिया ट्रस्ट के अनुसार घरेलू हिंसा नातेदारी या पारिवारिक रिश्तों में होने वाला ऐसा व्यवहार है, जिससे शारीरिक, मानसिक, यौनिक या आर्थिक रुप से नुकसान पहुंचता है। आज दुनिया भर में दो तिहाई महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं। घरेलू हिंसा में हमेशा शारीरिक हिंसा ही नहीं होती, यह बातचीत या मनोभावों द्वारा अथवा आर्थिक रुप से भी हो सकती है। कहा जाता है कि समाज में अशिक्षा के कारण महिलाओं पर हाथ उठाया जाता है और इनमें से अधिकतर मामले शराब पीकर अपनी पत्नी को मारने को आते हैं। लेकिन अगर कोई सुशिक्षित ऐसी हरकत करता है तो उसे किस दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए? कुछ लोग यह मानते हैं कि घरेलू हिंसा का कारण स्त्री का पुरुष पर आर्थिक रुप से निर्भर होना है, पर कामकाजी महिलाएं भी तो इसका शिकार होती हैं। घरेलू हिंसा परिवार की आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, धर्म, मान्यताओं, शिक्षा के स्तर या जाति के आग्रहों से परे है। घरेलू हिंसा का तात्कालिक असर भले ही सिर्फ उत्पीड़ितों पर दिखता है, पर इसका दूरगामी असर वैयक्तिक सम्बन्धों के साथ-साथ पूरे परिवार, समाज व अन्ततः राष्ट्र के विकास और मानसिकता पर भी पर पड़ता है। परम्पराओं के नाम पर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता है। यह महिलाओं के मानवाधिकार का हनन है।
महिलाओं पर होने वाली हिंसा कई प्रकार की होती है। शरीरिक हिंसा-मारपीट, थप्पड़, ठोकर मारना, दाँत काटना, लात मारना, मुक्का मारना, धक्का देना, धकेलना, किसी और तरीके से शारीरिक तकलीफ देना।
लैंगिक हिंसा: जबरदस्ती यौन सम्बन्ध बनाना, अश्लील साहित्य या कोई अन्य अश्लील तस्वीरें या सामग्री को देखने के लिए मजबूर करना, किसी दूसरे का मन बहलाने के लिए मजबूर करना, दुर्व्यवहार करना, अपमानित करना या नीचा दिखाने के लिए लैंगिक प्रकृति का कोई दूसरा कर्म जो महिलाओं के सम्मान को किसी न किसी रूप में चोट पहुंचाता हो, बालिकाओं के साथ यौनिक दुर्व्यवहार।
मौखिक और भावनात्मक हिंसा: मजाक उड़ाना, गालियाँ देना, चरित्र और आचरण पर दोषारोपण, लड़का न होने के लिए बेइज्जत करना, बच्चा न होने पर ताना देना, दहेज के सवाल पर अपमानित करना, स्कूल, कॉलेज या किसी अन्य शैक्षणिक संस्थान में जाने से रोकना, नौकरी करने से रोकना, नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर करना, महिला या उसके साथ रहने वाले किसी बच्चे/बच्ची को घर से जाने से रोकना, किसी व्यक्ति विशेष से मिलने से रोकना, इच्छा के खिलाफ शादी करने पर मजबूर करना, पसंद के व्यक्ति से शादी करने से रोकना, आत्महत्या करने की धमकी देना, कोई और मौखिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार।
अहिंसक हिंसा: महिला या महिला की संतानों को भरण-पोषण के लिए पैसा नहीं देना, महिला या उसकी संतानों को खाना, कपड़ा और दवाइयाँ जैसी चीजें मुहैया न कराना, जिस घर में महिला रह रही है उससे निकलने पर मजबूर करना, घर के किसी हिस्से में जाने या किसी हिस्से के इस्तेमाल से रोकना, रोजगार करने से रोकना, किसी रोजगार को अपनाने में बाधा पहुंचाना, महिला के वेतन या पारिश्रमिक को जबरदस्ती हड़प लेना, कपड़े या दूसरी रोजमर्रा के घरेलू इस्तेमाल की चीजों के प्रयोग से रोकना, अगर किराए के मकान में रह रही हो तो किराये न देना, बिना महिला को सूचित किए और सहमति के बिना मूल्यवान वस्तुओं को बेच देना या बंधक रखना, स्त्रीधन को खर्च कर देना, बिजली आदि जैसे अन्य बिलों का भुगतान न करना।
दहेज से जुड़ा उत्पीड़न: दहेज के लिए किसी भी प्रकार की मांग, दहेज से जुड़े किसी अन्य उत्पीड़न में शामिल रहना।
भारतीय संस्कृति में नारियों के गौरव के लिए कहा गया है- “यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते, रमयन्ते तत्र देवता।” आखिर आज के तेजी से बदलते युग में इस गौरव वाक्य को किस रूप में देखा जाये? आज न जाने कितनी बेटियां माता-पिता का सहारा बनी हुई हैं और उनकी परवरिश कर रही हैं या बेटों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। वे अपने साथ पूरे परिवार को पाल सकने की हिम्मत रखती हैं। फिर भी नारी हर रोज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है। आखिर ऐसा क्या गुनाह किया है एक नारी ने, जो पुरुष प्रधान समाज उसे एक पल के लिए भी आगे बढ़ता नहीं देख सकता? दुर्भाग्यवश आज भी समाज में नारी एक माँ के रूप में पूज्य, एक बहन के रुप में स्नेहिल, एक पत्नी के रुप में प्रिया, एक दोस्त के रुप में विश्वसनीय नहीं अपितु सिर्फ ‘नारी तन’ है। आज अगर नारी समाज में शोषित है तो क्यों? वह हर पल अपनी नारीत्व की परीक्षा देती रहती है। हर रोज बढ़ते बलात्कार, यौन शोषण, छेड़छाड़, अश्लील हरकतों का सामना करती हुई नारी कितनी मानसिक वेदना से गुजरती है, इसकी चिंता कोई नहीं करता। और तो और अपने ही घर में होने वाले अत्याचार भी सहने पड़ते हैं। बकौल कवयित्री व लेखिका अनामिका, “स्त्री संबंधी किसी भी अपराध का नाम लो, स्त्री की देह नत्थी होती ही है। मारपीट, गाली-गलौज, भ्रूण हत्या, बलात्कार, परदा, दहेज दहन, डायन दहन, भावहीन संभोग, तरह-तरह के यौन दोहन, सती, पोर्नोग्राफी, ट्रैफिकिंग, वेश्यावृति, अनचाहा गर्भ, सुरक्षित प्रसव की सुविधा का अभाव, यांत्रिक नोच-खसोट के अनंत सिलसिले झेलती स्त्री देह ज्यादातर स्त्रियों को या तो एक दुखता हुआ घाव लगती है या फिर गले में पड़ा ढोल।“ (इंडिया टुडे, 2 मार्च 2011)।
हालांकि हमारे देश में महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा के खिलाफ 2005 में कानून बन चुका है। पर सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि क़ानून का कार्यान्वयन नहीं होता या बहुत कम होता है।
सवाल है कि कैसे बने महिलाओं का हिंसा रहित जीवन? इसके लिए कुछ कदम उठाए जाने बेहद जरूरी हैं: इसके लिए जरूरी है कि हम महिलाओं के प्रति अपना भेदभावपूर्ण नजरिया बदलें। उन्हें सम्मान दें। उन्हें संविधान प्रदत्त सारे अधिकार दें। हमें पितृसत्ता जैसी व्यवस्था को समाप्त करना होगा क्योंकि यह स्त्री-पुरुष में लैंगिक असमानता को बढ़ावा देती है। दूसरी ओर बालिकाओं को मुफ्त और अनिवार्य उच्च शिक्षा दिलानी होगी। उन्हें अनिवार्य रूप से आर्थिक आत्मनिर्भर बनाना होगा। उनका विवाह बालिग़ होने पर और उनके अपने पैरों पर खड़े होने पर अर्थात उनके आत्मनिर्भर बनने पर उनकी मर्जी से और उनकी पसंद से करें। दहेज़ जैसी कुप्रथा को समाज से समाप्त करें। जातिवादी व्यवस्था को भी समाप्त करना होगा। जब महिलाएं सुशिक्षित होंगीं, तो आत्मनिर्भर होंगी और समृद्ध होंगीं। समाज की असंवैधानिक व्यवस्थाओं से भी मुक्त होंगीं। अपने जीवन के फैसले लेने में सक्षम होंगी, तो महिलाओं पर कोई हिंसा नहीं कर पायेगा। तभी हम महिलाओं का हिंसा रहित जीवन और हिंसा मुक्त समाज के सपने को साकार कर सकते हैं।
लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन से जुड़े हैं।
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