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क्या वाक़ई फ़ोर्टिफाइड चावल कुपोषण और एनीमिया दूर करने में सक्षम है?

वैश्विक तथा भारतीय संदर्भ में इसके गुणवत्तापूर्ण साक्ष्य नहीं हैं कि फ़ोर्टिफाइड चावल से कुपोषण को दूर करने में मदद मिलती है।
प्रतीकात्मक तस्वीर

साल 2021 में आज़ादी के 75 वें साल की शुरूआत के मौके पर, 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से ऐलान किया गया था कि अब से भारत के गरीबों को फ़ोर्टिफाइड चावल मिलेगा। आयरन तथा विटामिनों से समृद्घ किया गया यह चावल सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), स्कूलों में दिए जाने वाले दोपहर के भोजन तथा अन्य सरकारी कार्यक्रमों में दिया जाएगा। प्रकटत: इस घोषणा का मकसद, कुपोषण और एनीमिया को दूर करना था। कौन सोच सकता था कि इसका फायदा किसी कार्टेल को ही मिलने जा रहा है, जो 1902 में शुरू हुई एक खनन कंपनी, डच स्टेट माइन्स (डीएसएम) ने खड़ा किया है, जिसने बहुत मुनाफे वाले खाद्य कारोबार में अपने पांव फैला लिए हैं। इस पूरे मामले की असलियत रिपोर्टर्स कलेक्टिव के खोजी लेखों से सामने आ गयी, जो यह दिखाते थे कि यह योजना, जिसका असर करीब 80 करोड़ भारतीयों पर पड़ने जा रहा है, बिना साक्ष्यों और तैयारियों के ही शुरू कर दी गयी थी। यहां तक कि खुद सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ एक्सपेंडीचर ने भी 2019 मेें एक ऑफिस मेमोरेंडम में आगाह किया था कि पायलट परियोजनाओं के नतीजों का अध्ययन किए बिना ही फ़ोर्टिफाइड चावल की आपूर्ति को सार्वभौम करना, अपरिपक्व होगा। समस्या, फ़ोर्टिफाइड चावल की प्रौद्योगिकी की नहीं है। मुद्दा यही है कि वैश्विक तथा भारतीय संदर्भ में इसके गुणवत्तापूर्ण साक्ष्य ही नहीं हैं कि फ़ोर्टिफाइड चावल से कुपोषण को दूर करने में मदद मिलती है। इसके बावजूद, गरीबों पर फ़ोर्टिफाइड चावल की कृपा बरसाई जानी थी। इस मामले में फ़ोर्टिफाइड चावल का मतलब है, एक तयशुदा अनुपात में चावल के साथ, प्रीमिक्स के दानों का मिश्रण। यह प्रीमिक्स, जिस पर एक कार्टेल का नियंत्रण है, मिल के निकले चावल के साथ आयरन व विटामन का योग कर तथा चावल के दानों के आकार में तैयार किया जाता है। इस पर 2024 तक 2,700 करोड़ रूपये सालाना का खर्च होना है। इसके फलस्वरूप छ: संगठनों के एक कार्टेल को, जिसमें एक डच कंपनी भी शामिल है, हर साल 1,800 करोड़ रूपये के कारोबार का उपहार मिलने जा रहा है।

भारत के संदर्भ में खाद्य का फोर्टिफिकेशन

खाद्य वस्तुओं के फोर्टिफिकेशन का अर्थ, खाद्य वस्तुओं में सायास माइक्रोन्यूट्रिएंट बढ़ाने का प्रयास है, ताकि खाद्य सामग्री की पोषणात्मक गुणवत्ता को बढ़ाया जा सके। खाद्य सामग्री का फोर्टिफिकेशन कई अलग-अलग तरीकों से किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर बायो-इंजीनियरिंग के ज़रिए बायो-फोर्टिफिकेशन किया जा सकता है। माइक्रोबों का सहारा लेकर मिसाल के तौर पर प्रोबायोटिक बनाए जा सकते हैं। इसके अलावा औद्योगिक तरीके से यह काम किया जा सकता है, मिसाल के तौर पर मैन्यूफैक्चरिंग तथा प्रोसेसिंग के दौरान आटे, चावल, खाना-पकाने के तेल, सॉस, मक्खन आदि में माइक्रोन्यूट्रिएंट डाले जा सकते हैं या घरेलू स्तर पर, खाना पकाने के दौरान या खाने के दौरान, पैकेट या टैबलेट के माध्यम से खाने में माइक्रोन्यूट्रिएंट डाले जा सकते हैं।

1953 में भारत में हाइड्रोजिनेटेड एडिबल ऑइल (वनस्पति घी) का विटामिन-ए तथा विटामिन-डी से फोर्टिफिकेशन शुरू हुआ था। 1960 के दशक में भारत उन शुरूआत करने वाले देशों में था, जहां 1956 में हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा घाटी में किए गए पथनिर्माणकारी शोध कार्य के आधार पर, नमक का आयोडीन फोर्टिफिकेशन शुरू किया गया था। कांगड़ा घाटी में किए गए शोध ने दिखाया था कि इस क्षेत्र में आयोडीन की कमी की वजह से व्यापक पैमाने पर घेंघा (गोइटर) रोग फैला हुआ था और आयोडीन युक्त नमक खाने वाले लोगों के बीच इस घेंघा रोग का फैलना काफी घट जाता है। लेकिन, वह ऐसा जमाना था जब नीति संबंधी घोषणाएं, ठोस वैज्ञानिक शोध के आधार पर ही की जाती थीं। 1962 में जब उक्त कार्यक्रम की शुरूआत की गयी, इसे उन क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया जिनकी पहचान घेंघा रोग से गंभीर रूप से ग्रसित इलाकों के रूप में की गयी थी। बहरहाल, जब आगे के अध्ययनों से यह सचाई सामने आई कि यह समस्या भौगोलिक रूप से बहुत बड़े क्षेत्र में फैली हुई है, तो इसका विस्तार कर के नमक को आयोडीन-युक्त किए जाने को सार्वभौम बना दिया गया और यह अनिवार्य कर दिया गया कि नमक को आयोडीन युक्त किया जाए। यह महज़ एक फरमान नहीं था बल्कि सार्वजनिक नीतिगत हस्तक्षेप था, जो ठोस अध्ययनों पर आधारित था।

हमारे देश में एनीमिया तथा कुपोषण कितना ज़्यादा है, इस पर लेख पर लेख प्रकाशित किए गए हैं। इनमें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आधार पर माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की कमी की ‘छिपी हुई भूख’ की दलील पेश की जाती रही है। इसका एक अनुमान देने के लिए एनएफएचएस-5 में यह आंकड़ा दिया गया है कि कुपोषण पर 1496 लेख प्रकाशित हुए थे और 793 लेख एनीमिया पर!

लेकिन, क्या इस समस्या का समाधान यही है कि खाद्य सामग्री में और ज़्यादा आयरन तथा माइक्रोन्यूट्रिएंट डाल दिए जाएं? शायद नहीं। एक बड़ी समस्या तो यही है कि एनीमिया तथा कुपोषण की समस्याएं, सबसे बढ़कर आर्थिक असमानता से जुड़ी हुई हैं। जैसा कि हाल का एक अध्ययन दिखाता है, एनीमिया की समस्या ज़्यादा पाए जाने का संबंध निम्नतम सामाजिक-आर्थिक दशा, शिक्षा की कमी, लैंगिक तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि और बच्चों की संख्या से है। इस समस्या के लिए सिर्फ प्रौद्योगिकीय समाधान काम नहीं करने वाला है बल्कि इसके लिए सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक समाधानों के मिश्रण की आवश्यकता होगी। और वर्तमान हालात में, जैसा कि विशेषज्ञ बताते हैं, स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद्य सामग्रियों के उपयोग पर आधारित बहुविधकृत आहार ही, कुपोषण का मुकाबला करने का वहनीय तरीका है।

यह दिलचस्प है कि लोकसभा सचिवालय की पार्लियामेंट लाइब्रेरी एंड रिफरेंस, रिसर्च, डॉक्यूमेंटशन एंड इन्फार्मेशन सर्विस (एल.ए.आर.आर.डी.आइ.एस) ने, 2022 की जुलाई में सांसदों के लिए एक बैकग्राउंड नोट वितरित किया था। इस नोट में उत्तर प्रदेश तथा तेलंगाना में किए गए एक अध्ययन के नतीजे दिए गए हैं, जिसमें फ़ोर्टिफाइड फूड्स की खपत के चलते, माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की ज़रूरत से ज़्यादा खपत की पड़ताल की गयी है। यह अध्ययन कहता है: "साक्ष्य दिखाते हैं कि माइक्रोन्यूट्रिएंट्स की फालतू खपत का बोलबाला है और यह खाद्य फोर्टिफिकेशन कार्यक्रम के सार को ही नष्ट कर देता है क्योंकि इस कार्यक्रम का मकसद तो लोगों के स्वास्थ्य के लिए कम से कम जोखिम पैदा करते हुए, सार्वजनिक स्वास्थ्य के हित में विभिन्न माइक्रोन्यूट्रिएंट्स खाने में जोड़ना है।" इस समस्या के समाधान के रूप में यह नोट इसका ज़िक्र करता है कि, "किसी एक मुख्य अनाज के मामले में फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य बनाने के बजाए लोगों के बहुविध आहार लेने पर ध्यान रखना चाहिए।"

दवा के तौर पर आयरन के सप्लीमेंट देने की मौजूदा व्यवस्थाओं के ऊपर से, चावल जैसे मुख्य अनाज के फोर्टिफिकेशन के ज़रिए और ज़्यादा माइक्रोन्यूट्रिएंट दिया जाना, उल्टा पड़ सकता है क्योंकि यह ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जहां दवा ही बीमारी की वजह बन जाए। नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर के पूर्व एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर डॉ. टी सुंदररमण कहते हैं, "यह भी चिंताजनक है कि इसे लेकर गंभीर आशंकाएं हैं कि फालतू आयरन खाया जाना बहुत से बच्चों के बीच गंभीर नुकसान करने जा रहा है। अभी यह सब साबित नहीं हुआ है, लेकिन चूंकि यह हम साधारण बच्चों को नुकसान पहुंचने की बात कर रहे हैं, ऐसे में इस मामले में सावधानी बहुत ज़्यादा होनी चाहिए।"

अपनी पोषणात्मक तथा स्वास्थ्य संबंधी पृष्ठभूमि से परे, सभी लोगों को अनिवार्य रूप से फ़ोर्टिफाइड चावल खाने पर मजबूर करने और सब को एक ही खांचे में फिट करने से उत्पन्न समस्याओं को, अलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) और राइट टू फूड कैंपेन (आरटीएफसी) के कार्यकर्ताओं ने, 2022 के मई-जून में झारखंड तथा छत्तीसगढ़ के अपने तथ्यान्वेषी मिशनों में उजागर किया था। इन अध्ययनों में पता चला था कि इन क्षेत्रों में आदिवासी, थैलिसीमिया या सिकिल सैल डिसीज की अपनी वेध्यता के चलते, खासतौर पर जोखिम में थे। ये ऐसी बीमारियां हैं जिनके पीड़ितों के लिए फ़ोर्टिफाइड चावल नुकसानदेह है क्योंकि इससे उनके खून में आयरन की मात्रा अतिरिक्त हो सकती है और यह दूसरी कई समस्याएं पैदा कर सकता है।

इसके अलावा पता चल रहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों में और कोश्रेन रिव्यूज़ में भी, जिसे चिकित्सा शोध के क्षेत्र में स्वर्ण मानक ही माना जाता है, दोनों में बताया गया है कि, "आयरन से चावल के फोर्टिफिकेशन (अकेले ही या अन्य माइक्रोन्यूट्रिएन्टों के साथ) से एनीमिया के जोखिम पर शायद ही कोई फर्क पड़ेगा या बहुत कम फर्क पड़ेगा।"

2019 में केंद्र सरकार ने, सरकारी योजनाओं के ज़रिए अनिवार्य रूप से फ़ोर्टिफाइड चावल देने के प्रभाव के अध्ययन के लिए, पायलट प्रोजेक्ट शुरू किए थे। 15 राज्यों ने इसके लिए सहमति दी थी और सिर्फ छ: राज्यों ने अपने यहां एक-एक जिले में फ़ोर्टिफाइड चावल का वितरण शुरू किया था। इनमें से एक राज्य ने ही अपनी रिपोर्ट दी थी। बहरहाल, जब ये पायलट प्रोजेक्ट चल ही रहे थे तभी गरीबों पर फ़ोर्टिफाइड चावल थोपने का फरमान जारी कर दिया गया। उक्त फरमान जारी किए जाने के आठ महीने बाद, नुकसान कम करने की कोशिश में नीति आयोग ने उक्त पायलट प्रोजेक्ट्स का अध्ययन करने का फैसला किया। बाद में उसने एक गोपनीय रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया था कि पायलट योजनाओं को खराब तरीके से लागू किया गया था, जिनमें गुणवत्ता नियंत्रण बहुत कम था और विज्ञान बहुत निम्नतम। लेकिन, यह सच सामने आ जाने के बाद भी राजा जी का जुलूस शान से आगे बढ़ता गया।

कमाई किस के हिस्से आई?

यहां सवाल यह है कि जोखिमों के बावजूद और किसी फायदे के ‘साक्ष्यों’ के अभाव में भी फ़ोर्टिफाइड चावल को जल्दबाजी में क्यों बांटा जा रहा है?

2016 में, मैक्सिको में कानकुन में डीएसएम ने वैश्विक गैर-लाभकारी संगठनों की एक बैठक की। बैठक का एजेंडा था, विकासशील देशों में चावल के फोर्टिफिकेशन को आगे बढ़ाना। अब भारत जैसे देशों की सरकारों को इसके पक्ष में प्रभावित करने के लिए नीतिगत पैरवी महत्वपूर्ण हो गयी। इसके सिर्फ दो महीने में ही भारत सरकार के खाद्य नियामक, फूड सेफ्टी एंड स्टेंडर्डस अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआइ) ने, भारत भर में इस तरह के फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा देने के लिए, एक फूड फोर्टिफिकेशन रिसोर्स सेंटर (एफएफआरसी) की स्थापना कर दी। हैरानी की बात नहीं है कि एफएफआरसी ने इन वैश्विक गैर-लाभकारी संगठनों के साथ एक साझेदारी कायम की और इस तरह उन्हें ‘बंद दरवाजों के पीछे’ होने वाली महत्वपूर्ण नीति निर्धारण बैठकों में शामिल होने का मौका दिलाया गया जहां वे निर्णय के लिहाज से प्रभावशाली लोगों के साथ, भोजन के फोर्टिफिकेशन के पक्ष में लॉबी कर सकते थे। उन्हें बड़ी आसानी से चावल के फोर्टिफिकेशन के लिए मानक तय करने में सरकार की मदद करने में भी लगा दिया गया।

रिपोर्टर्स कलेक्टिव की छानबीन में पता चला कि सरकार के मैनुअल तक, उक्त गैर-लाभकारी संगठनों के ‘टूलकिट्स’ से नकल किए गए थे। जैसा कि डॉ. सुंदररमण कहते हैं, "उक्त नीति तक ले जाने वाले जो समूचे साक्ष्य जमा किए गए थे, स्वार्थों के टकराव तथा कारपोरेट प्रभाव से ग्रसित पाए गए हैं।”

2023 के अप्रैल में डीएसएम ने हैदराबाद में, फ़ोर्टिफाइड चावल के दाने बनाने के लिए 3600 टन क्षमता की फैक्ट्री खोली है। डीएसएम एशिया पैसिफिक के प्रेसीडेंट, फ्रांकोइस शेफ्लर ने भारतीय मीडिया से कहा, "हम बहुत ही कृतज्ञ हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने चावल के फोर्टिफिकेशन को अनिवार्य किया है।" इस योजना के साथ-साथ, डीएसएम की भारतीय फर्म की ही सेहत अच्छी हुई है, न कि कुपोषितों या एनीमिया से जूझ रहे भारतीयों की।

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