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परदे से आज़ादी-परदे की आज़ादी: धर्म और शिक्षा से आगे चला गया है हिजाब का सवाल

कई सामाजिक और नागरिक संगठन हिजाब के हिमायती नहीं हैं लेकिन वो इसे जबरन उतरवाने के ख़िलाफ़ हैं। उन्हें डर है कि इसके चलते कहीं मुस्लिम लड़कियां शिक्षा से दूर न हो जाएं और शायद यही वजह है कि विरोध में और ज़्यादा महिलाओं ने हिजाब की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।
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बीते कई दिनों से सुर्खियों में बने हिजाब विवाद पर कर्नाटक हाई कोर्ट ने मंगलवार, 15 मार्च को एक अहम फैसले में छात्राओं की याचिका ख़ारिज करते हुए कहा कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और इसलिए छात्राएं हिजाब पहनने की कानूनी मान्यता हासिल नहीं कर सकती हैं। हालांकि कोर्ट के फैसले के बाद मामला सुलझने के बजाय और उलझ गया। सोशल मीडिया पर तमाम राजनीतिक दलों, कानून के जानकारों और हिजाब पहनने के पक्षधर लोगों की ओर से पक्ष- विपक्ष में तमाम तर्क और प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं।

कई लोगों का कहना है कि हिजाब या स्कार्फ़ पहनने का फ़ैसला एक ऐसा फ़ैसला है जो सिर्फ़ औरतें ही ले सकती हैं, ये कानून या कोर्ट तय नहीं कर सकता। कई लोग इसे मुस्लिम महिलाओं के साथ ज़बरदस्ती बता रहे हैं तो कई इस फैसले का स्वागत भी कर रहे हैं।

बता दें कि कर्नाटक हाई कोर्ट के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए, छात्राओं की ओर से एक स्पेशल लीव पेटिशन दायर की गई है। जानकारों का मानना है कि अब ये मामला भी सबरीमाला मामले के साथ सुना जाएगा, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की एक संवैधानिक पीठ कानून और धार्मिक मान्यताओं के इंटरप्ले पर कानूनी स्पष्टता देने की कोशिश कर रही है।

सबसे पहले समझते हैं कि कोर्ट के फैसले में क्या है?

कर्नाटक हाइकोर्ट की फुल बेंच ने इस मामले में 11 दिन यानी 11 बार की सुनवाई के बाद अपने 129 पन्ने के फ़ैसले में कुरान की आयतों और कई इस्लामी ग्रंथों का हवाला देते हुए कहा है कि क्लासरूम में हिजाब पहनने की अनुमति देने से "मुसलमान महिलाओं की मुक्ति में बाधा पैदा होगी" और ऐसा करना संविधान की 'सकारात्मक सेकुलरिज्म' की भावना के भी प्रतिकूल होगा। इससे पहले कोर्ट ने कहा था कि हिजाब इस्लाम के अनुसार अनिवार्य नहीं है।

ध्यान रहे कि इस मामले की सुनवाई पहले जस्टिस कृष्णा दीक्षित अकेले कर रहे थे। बाद में चीफ़ जस्टिस ऋतुराज अवस्थी, जस्टिस कृष्णा दीक्षित और जस्टिस जेबुनिसां काज़ी की बेंच ने इस मामले की सुनवाई तब शुरू की जब यह महसूस किया गया कि फुल बेंच का ही इस मामले में सुनवाई करना ठीक होगा।

अदालत ने अपने फ़ैसले में माना है कि इस्लामी धर्म ग्रंथों के आधार पर कहा जा सकता है कि हिजाब पहनना अधिक से अधिक एक सुझाव हो सकता है, ये सिर्फ सिफारिश है ना कि अनिवार्यता। हिजाब महिलाओं को सक्षम बनाने का कोई ठोस और कारगर उपाय नहीं है और ना ही कोई औपचारिक बाधा। और जो चीज़ धार्मिक आधार पर अनिवार्य नहीं है, उसे विरोध प्रदर्शनों या अदालत में भावनात्मक दलीलों से धर्म का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता।"

इसे भी पढ़ें त्वरित टिप्पणी: हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फ़ैसला सभी धर्मों की औरतों के ख़िलाफ़ है

हिजाब से जुड़े सवाल और अदालत के जवाब

अदालत ने मुख्य तौर पर चार सवालों का जवाब देते हुए अपना निर्णय दिया है।

पहला सवाल, हिजाब या सिर ढकना इस्लाम की दृष्टि से अनिवार्य है या नहीं, और इसे आर्टिकल 25 के तहत संविधान की सुरक्षा मिली हुई है या नहीं।

अदालत ने इसके जवाब में माना है कि हिजाब इस्लाम के मुताबिक अनिवार्य नहीं है। मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है।

दूसरा सवाल, क्या यूनिफॉर्म का नियम याचिकाकर्ताओं के उस मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है जो उन्हें संविधान के आर्टिकल 19 और आर्टिकल 21 से मिलता है।

इस पर अदालत ने कहा कि स्कूल यूनिफॉर्म लोगों की स्वतंत्रता की वाजिब सीमा तय करता है जो संविधान के तहत मान्य है और छात्रों को इस पर एतराज़ नहीं करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि यूनिफॉर्म अधिकारों का उल्लंघन नहीं है। यह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य हैजिस पर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते हैं।

तीसरा सवाल था कि क्या राज्य सरकार का 5 फ़रवरी का फ़ैसला मनमाना था, क्या इस फ़ैसले से संविधान के आर्टिकल 14 और 15 का उल्लंघन हुआ है।

बेंच ने माना कि सरकार का निर्णय उचित था। अदालत के मुताबिक स्कूल यूनिफॉर्म शासनादेश का विषय है और ये आदेश देने का अधिकार 1983 के शिक्षा कानून के तहत सरकार के पास है। वो ऐसा कर सकती है। अदालत ने वैसे सरकार की उस दलील को भी वज़न दिया जिसमें सरकार ने माना था कि इस आदेश को और बेहतर तरीके से ड्राफ्ट किया जा सकता था।

चौथा सवाल था कि क्या उन टीचरों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई होनी चाहिए जिन्होंने छात्राओं को कॉलेज में हिजाब पहनने से रोका था। 

अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने ऐसी कोई मांग नहीं की थी। अदालत ने कहा कि कॉलेज स्टाफ के खिलाफ कार्रवाई को लेकर जो याचिका लगाई गई थीउसे सही तरीके से तैयार नहीं किया गया था। ऐसी गंभीर याचिकाओं में जो स्पष्टता और तर्कशीलता होनी चाहिए थीवो याचिका में नहीं थी। इसीलिए याचिका खारिज की जाती है।

फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को पढ़ते हुए मुख्य न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। अपने फैसले के पीछे कोर्ट ने कई तर्क और उदाहरण दिए। कर्नाटक हाई कोर्ट ने धार्मिक ग्रंथों के अलावा दूसरी अदालतों में हुए फ़ैसलों की नज़ीर भी दी, इनमें फ़ातिमा हुसैन के मामले में मुंबई हाई कोर्ट का फ़ैसला भी शामिल है। मुंबई हाई कोर्ट के डिविजन बेंच के फ़ैसले का हवाला देते हुए कर्नाटक हाई कोर्ट ने कहा, "यह मानना ठीक नहीं होगा कि किसी को स्कूल में हिजाब पहनने से मना किया जाना इस्लाम की मान्यताओं में हस्तक्षेप करना है।"

अदालत ने आगे कहा, "इसके अलावा, यह दलील वाजिब नहीं है कि हिजाब पहनना एक पोशाक पहनने का मामला है। इसे इस्लामी मत के बुनियादी विश्वास में शामिल नहीं माना जा सकता। यह नहीं कहा जा सकता कि हिजाब पहनने के चलन को न मानने पर व्यक्ति पाप का भागी होगा। याचिका दायर करने वाले इस कानूनी ज़रूरत को पूरा करने में बुरी तरह नाकाम रहे कि हिजाब पहनना इस्लामी धर्म के लिहाज से अनिवार्य काम है।"

अदालत ने याचिकाकर्ता के केंद्रीय विद्यालय में हिजाब अनुमति की दलील पर कहा, "अगर इसे मान लिया जाए तो स्कूली यूनिफ़ॉर्म, यूनिफॉर्म ही नहीं रह जाएगा। छात्राओं की दो श्रेणियाँ बन जाएँगी, एक वह श्रेणी जिसकी लड़कियाँ हिजाब के साथ यूनिफॉर्म पहनेंगी, और दूसरी वो जो बिना हिजाब के। इससे सामाजिक अलगाव का माहौल तैयार होगा, जो हम नहीं चाहते हैं। इसके अलावा ऐसा करना यूनिफॉर्म की मूल भावना के खिलाफ़ होगा जिसका उद्देश्य एकरूपता स्थापित करना है, ऐसी एकरूपता छात्र के धर्म की कोई भूमिका न हो।"

अदालत ने ये भी कहा कि इस बात में कोई बुराई नहीं है कि चुने हुए प्रतिनिधि स्कूलों की कमेटियों का नेतृत्व करें। अदालत का कहना है कि स्कूली विकास समिति के ऐसे सुझाव (यूनिफॉर्म के बारे में) देने को लेकर कोई कानूनी रोक-टोक नहीं है। हालांकि ऐसा होने की आशंका हो सकती है कि कैम्पस में 'पार्टी-पॉलिटिक्स' को कहीं बढ़ावा न मिले।

कोर्ट के मुताबिक याचिकाकर्ता छात्राएं अदालत में इस सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे पायीं कि वो कितने समय से हिजाब पहनती हैं। वो ये भी नहीं बता पाईं कि इस संस्थान में दाखिल होने से पहले वो अनिवार्य रूप से हिजाब पहना करती थीं या नहीं।

शिक्षा संस्थानों में सबके लिए समान अनुशासन की बात करते हुए पीठ ने कहा है कि स्कूल यूनिफॉर्म सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देती है। इसके जरिए धार्मिक या अनुभागीय विविधताओं को भी पार करती है। स्कूलों के ड्रेसकोड से अलग हिजाब, भगवा पटके दुपट्टे, उत्तरीय या अंगवस्त्र सहित धार्मिक प्रतीक चिह्न पहनना कतई उचित नहीं है। ये अनुशासन के भी खिलाफ है।

फ़ैसले में और क्या ख़ास लिखा है?

फैसले की शुरुआत में पीठ ने अमेरिकी लेखिका सारा स्लिनिंगर की पुस्तक में छपे लेख veiled women: hijab, religion and cultural practice -2013 यानी ‘पर्दा: हिजाब, मजहब और तहजीब’ का उल्लेख करते हुए लिखा है, "हिजाब का बहुत पेचीदा इतिहास है। क्योंकि इसमें समय-समय पर मजहब और तहजीब का असर रहा हैइसलिए इसमें कोई शक नहीं कि कई महिलाएं समाज की ओर से डाले गए नैतिक दबाव की वजह से पर्दानशीं रहती हैं। इसके कई कारण होते हैं। कई खुद को इसलिए परदे में रखती हैं क्योंकि इसे वो अपनी पसंद मान लेती हैं और कई बार जीवन साथीपरिवार और रिश्तेदारों की सोच से प्रभावित होती हैं। कई बार तो वो पर्दे में रहना इसलिए भी स्वीकार करती हैं क्योंकि उनका समाज इसी आधार पर उस महिला के प्रति अपनी राय बनाता है। लिहाजा इस मामले में कुछ भी राय बनाना बेहद पेचीदा है।”

इसके बाद पीठ ने लिखा है कि इस सिलसिले में डॉ. भीम राव आम्बेडकर के विचार भी समीचीन हैं। डॉ. आम्बेडकर ने 1945-46 में छपी अपनी मशहूर किताब ”पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन ऑफ इंडिया” के दसवें अध्याय में पहला हिस्सा लिखते समय सोशल स्टैगनेशन शीर्षक के तहत लिखा है, "एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटेभाईपिताचाचाताऊ और शौहर को देख सकती है या फिर अपने उन रिश्तेदारों को जिन पर विश्वास किया जा सकता है। वो मस्जिद में नमाज अदा करने भी नहीं जा सकती। बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती। तभी तो भारत के गली कूचों सड़कों पर आती जाती बुर्कानशीं मुस्लिम औरतों का दिखना आम बात है। मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उनसे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं। अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से ही एक है। उनका मानना है कि उससे उनका शरीर पूरी तरह ढंका होता है। लिहाजा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाय वो पारिवारिक झंझटों और रिश्तों की उलझनें सुलझाने में ही उलझी रहती हैंक्योंकि उनका बाहरी दुनिया से संपर्क कटा रहता है। वो बाहरी सामाजिक कार्यकलाप में हिस्सा नहीं लेती लिहाजा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है। वो हीन भावना से ग्रस्त कुंठित और लाचार किस्म की हो जाती हैं। कोई भी भारत में मुस्लिम औरतों में पर्दा प्रथा से उपजी समस्या के गंभीर असर और परिणामों के बारे में जान सकता है।”

इन बातों के ज़िक्र के साथ अदालत ने अपने फैसले में लिखा है कि हमारे संविधान के निर्माताओं में प्रमुख डॉक्टर आंबेडकर ने तो पचास साल पहले ही पर्दा प्रथा की खामियां और नुकसान बताए जो हिजाब, घूंघट और नकाब पर भी बराबर तौर से लागू होते हैं। ये परदा प्रथा किसी भी समाज और धर्म की आड़ में हो, हमारे संविधान के आधारभूत समता और सबको समान अवसर मिलने के सिद्धांत के सर्वथा खिलाफ है।

किसने क्या कहा?

अब अदालत के फ़ैसले के बाद राजनेता से लेकर आम लोग दो धड़ों में बंट गए हैं। कोई आलोचना कर रहा है तो कोई स्वागत। सबके अपने- अपने तर्क हैं। कोई इसे शिक्षा और धर्म के बीच चुनाव बता रहा है तो कोई आजादी। राजनेताओं ने भी इस मामले पर कई टिप्पणियां की हैं, जिस पर अदालत पहले ही चिंता जाहिर कर चुकी है। आइए जानते हैं किसने क्या कहा...

जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने ट्वीट कर कहा, “कर्नाटक हाइकोर्ट का हिजाब बैन को जारी रखने का फ़ैसला निराशाजनक है। एक ओर हम महिलाओं को सशक्त करने की बात करते हैं फिर भी हम उन्हें एक साधारण विकल्प के अधिकार से वंचित कर रहे हैं। यह सिर्फ़ धर्म का नहीं बल्कि चुनने की स्वतंत्रता का भी मामला है।"

हैदराबाद से सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के नेता असदउद्दीन ओवैसी ने इस फ़ैसले पर निराशा जाहिर करते हुए एक के बाद एक कई ट्वीट किए, जिनमें उन्होंने कहा कि यह मामला धर्म का नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का था, उन्होंने कहा है कि "मैं अदालत के फ़ैसले से असहमत हूँ।"

उन्होंने कहा, "मैं उम्मीद करता हूं कि याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट जाएंगे, मुझे ये भी उम्मीद है कि सिर्फ़ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ही नहीं बल्कि और अन्य धार्मिक संगठन भी इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेंगे क्योंकि इसने धर्म, संस्कृति, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया है।"

ओवैसी ने कहा, "संविधान की प्रस्तावना कहती है कि हर व्यक्ति को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और पूजा की स्वतंत्रता है अगर मेरी आस्था में सिर ढंकना आवश्यक है तो यह मेरा व्यक्त करने का अधिकार है। एक धर्मनिष्ठ मुसलमान के लिए हिजाब भी एक इबादत का काम है।"

केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इस फ़ैसले का स्वागत करते हुए मीडिया से कहा, "मैं बहुत खुश हूँ, यह बहुत अच्छा फ़ैसला है। यह फ़ैसला बराबरी के हक़ में है।"

उन्होंने कहा, "इस्लाम ऐसा धर्म है जिसकी बुनियाद ही बराबरी पर टिकी है, यह एक साज़िश है जिसके तहत महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। मुझे लगता है कि इस फ़ैसले से तय हुआ है कि प्रतिभावान लड़कियों को बेहतर मौक़े मिलेंगे।"

आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने कहा, "तीन तलाक के मामले में भी ऐसे ही तर्क दिए जा रहे थे, लोगों को समझने में लंबा वक़्त लगा कि वह इस्लाम के अनुकूल नहीं था, इसी तरह हिजाब के मामले में भी यह समझना ज़रूरी है।"

इस मामले पर हिजाब विवाद के केंद्र में रहे राज्य कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि छात्रों के हित में इस निर्णय को सभी को मानना चाहिए। बोम्मई ने कहा, "यह हमारे बच्चों के भविष्य और उनकी शिक्षा का मसला है, हम आवश्यक व्यवस्था कर रहे हैं ताकि कानून व्यवस्था बनी रहे।"

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कर्नाटक हाइकोर्ट के इस फ़ैसले पर निराशा व्यक्त करते हुए अपने ट्वीट में कहा, "हिजाब के बारे में आपकी राय चाहे जो भी हो, लेकिन यह मामला एक कपड़े का नहीं है, यह एक महिला के अधिकार का सवाल है कि वह अपनी पसंद से अपना पहनावा तय कर सकती है या नहीं। अदालत ने इस बुनियादी अधिकार की रक्षा नहीं की, यह एक बहुत बड़ी विडंबना है।"

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने विधानसभा में कर्नाटक हाइकोर्ट के फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए विधानसभा में सवाल उठाया कि सरकार यह कैसे तय कर सकती है कि कौन क्या पहनेगा? उन्होंने पूछा कि हिजाब पर विवाद ही क्यों है, हम माहौल में इतनी उत्तेजना क्यों पैदा कर रहे हैं?

हिजाब पहनना आज़ादी का संकेत है या पितृसत्ता की बेड़ी

गौरतलब है कि यहां दो अलग-अलग मुद्दे हैं। एक बहस है जो सांस्कृतिक और धार्मिक है और दूसरी यह है कि क्या हिजाब पहनना सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने के लिए दमन का संकेत है। अब जो हो रहा है वह एक अलग मुद्दा है जिसमें सरकार लड़कियों और महिलाओं को हिजाब उतारने के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रही है। जिसे व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखा जा रहा है। कई सामाजिक और नागरिक संगठन हिजाब के हिमायती नहीं हैं लेकिन वो इसे जबरन उतरवाने के खिलाफ हैं। इसका एक कारण ये भी है कि आज मुस्लिम महिलाओं को कई तरह से निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वे ज़्यादा आसान निशाना बन गई हैं। और शायद यही वजह है कि विरोध में और ज़्यादा महिलाओं ने हिजाब की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

इसे भी पढ़ें हिजाब मामले पर कोर्ट का फ़ैसलामुस्लिम महिलाओं के साथ ज़्यादतियों को देगा बढ़ावा

अदालत की टिप्पणियों को देखें तो उसने खुद माना है कि ये मामला उतना पेचीदा था नहीं जितना इस राष्ट्रीय स्तर पर बना दिया गया। हाई कोर्ट ने फैसले में कहा है कि ड्रेस कोड को लेकर 2004 से सब कुछ ठीक था। क्योंकि राज्य में कोई वैमनस्य नहीं दिख रहा था। हम ये जानकर भी प्रभावित हुए कि मुसलमान धार्मिक नगरी उडुपी में ‘अष्ट श्री मठ वैष्णव संप्रदाय’, के त्योहारों-उत्सवों में भाग लेते हैं। लेकिन इसके साथ ही ये बात हमें निराश कर गई कि आखिर कैसे अचानक, अकादमिक सत्र के बीच हिजाब का मुद्दा पैदा हुआ? जिसे बेवजह और जरूरत से ज्यादा हवा दी गई। कोर्ट ने ये भी कहा कि जिस तरह सामाजिक अशांति और द्वेष फैलाने की कोशिश की गई वो सबके सामने है। उसमें अब बहुत कुछ बताने की जरूरत नहीं है। इस तमाम बहस में ये बड़ा सवाल है कि क्या हिजाब पहनना आज़ादी का संकेत है या भारतीय मुसलमान की पहचान को ज़ाहिर करने का तरीका। हिजाब उतारना धार्मिक और राजनीतिक मामला है या सत्ता और पितृसत्ता का हथियार।

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