लाल सिंह चड्ढा: इस मासूम किरदार को दंगे और कोर्ट कचहरी से दूर ही रखें
यक़ीनन आमिर खान मिस्टर परफेक्शनिस्ट हैं मगर फॉरेस्ट गंप, फॉरेस्ट गंप है। टॉम हैंक्स की फारेस्ट गंप और आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा को लेकर किसी भी तरह की बहस बेमानी है। फॉरेस्ट गंप अगर चांद पर रखा जाने वाला पहला क़दम है तो लाल सिंह चड्ढा तीन दशक बाद उसी चांद पर रखा गया दूसरा क़दम। दोनों को इस चांद तक पहुंचाने वाली शख़्सियत का ज़िक्र ज़रूरी है। रोमांटिक कॉमेडी ड्रामा फारेस्ट गंप 1986 में उपन्यासकार विंस्टन फ्रांसिस ग्रूम के इसी नाम से लिखे उपन्यास पर आधारित है।
बल्कि लाल सिंह चड्ढा की तुलना उस पास्ता डिश से की जा सकती है जो मूलभूत रूप से इटालियन डिश है मगर हिंदुस्तान में इसे यहां के मसालों से तैयार और गार्निश करके खाने वालों के सामने पेश किया जाता है। वह बात अलग है इटालियन और इंडियन को एक दूसरे के पास्ते का ज़ायक़ा लेने के लिए सरहद पार करनी पड़े मगर फॉरेस्ट गंप और लाल सिघ चड्ढा को दुनिया के किसी भी कोने में देखा जा सकता है।
फिल्म के वर्ल्डवाइड होने के साथ आमिर की मक़बूलियत के रुझान भी सामने आने लगे हैं। लाल सिंह चड्ढा को ऑस्कर एकेडमी ने ख़ास सम्मान दिया है। ऑस्कर एकेडमी के ऑफिशियल इंस्टाग्राम पेज ने एक वीडियो शेयर किया है, जिसमें फिल्म लाल सिंह चड्ढा और फॉरेस्ट गंप के कुछ सीन की तुलना की गई है।
वीडियो को शेयर करते हुए एकेडमी ने कैप्शन में लिखा कि अद्वैत चंदन और अतुल कुलकर्णी की फिल्म लाल सिंह चड्ढा रॉबर्ट ज़ेमेकिस और एरिक रोथ की फिल्म फॉरेस्ट गंप का हिंदी वर्जन है। इस फिल्म की कहानी एक ऐसे शख़्स की ज़िन्दगी पर आधारित है जो कि सिर्फ अपनी मेहरबान तबीयत से दुनिया को बदल देता है।
फिल्म शुरू होती है एक लम्बे चौड़े डिस्क्लेमर के साथ जिसमें मेकर्स ख़ुद को बचाने के साथ किसी को आहत न करने की हर संभव कोशिश करते नज़र आते हैं। मगर डिस्क्लेमर हो, या चुनावपूर्व जारी घोषणापत्र या फिर संविधान, सबकी एक ही कहानी है। अनदेखा किया जाना।
रिलीज़ के पहले और बाद में फिल्म की अच्छाई और बुराई को लेकर लगभग सभी एंगेल से लाल सिंह चड्ढा का पोस्टमॉर्टम किया जा चुका है। इसलिए बात उन मुद्दों पर की जाए जिन पर या तो कम लिखा गया है या अनदेखा रखा गया है। और यही बात आमिर खान का विरोध करने वालों को समझनी होगी। टॉम हैंक्स की फारेस्ट गंप अपनी कामयाबी का परचम लहराने के बाद उस बरस के 6 अकादमी अवार्ड जीतती है जबकि लाल सिंह चड्ढा के आमिर खान अवार्ड विरोधी रहे हैं। अकादमी अवार्ड जीतने के अलावा फिल्म और भी कई अवार्ड के लिए ढेरों ढेर नॉमिनेशन में भी शामिल होती है जिनमें से कई अवार्ड हासिल भी करती है।
अब देखना ये है कि ये रिलीज़ में रोड़े अटकाने वाले इस फिल्म के नॉमिनेशन और अवार्ड पर किस तरह के बवाल कर सकते हैं। क्योंकि यहां विरोध में नाक काट लेने की सज़ा अभिनेत्रियों के लिए रखी गई है।
फिल्म के बिज़नेस की बात करें तो विरोध करने वालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि आमिर की फिल्म उनकी असहमति की मोहताज नहीं है। इसका अंदाज़ा दंगल मूवी के कलेक्शन को लेकर लगाया जा सकता है। दंगल मूवी की शक्ल में एक लोकल खेल को आमिर की प्रस्तुति वर्ल्डवाइड बना देती है। दंगल का वर्ल्डवाइड कलेक्शन 2 हज़ार करोड़ होता है जिसमे से एक हज़ार 300 करोड़ रक़म चाइना का दर्शक जुटाता है। लाल सिंह चड्ढा के ओटीटी राइट्स की नेटफ्लिक्स भारी क़ीमत पहले ही अदा कर चुका है। ये फिल्म समय लेगी। इसकी गूंज कहां तक जाएगी ये वक़्त बताएगा। मगर विरोध करने वालों को ये जान लेना ज़रूरी है कि फिल्म रिलीज़ से पहले ही अपनी लागत वसूल कर चुकी है।
प्रीतम और अरिजीत सिंह सरल, सोंधा और ताज़गी भरा संगीत इसके जोड़ का है। सिनेमाटोग्राफी का कमाल दर्शक लम्बे अरसे तक याद रखेंगे। जिन बातों से ये फिल्म आने वाले समय में यादगार बनेगी उनमें एक कारण इसकी सिनेमाटोग्राफी को भी जाता है।
दोनों ही फिल्मों में नायक का किरदार उनके मुक़द्दर का मोहताज है। नायक पैदाइश से ही स्पेशल चाइल्ड है जिसे उसकी मां की तदबीर और उसकी तक़दीर अहम बनाती है। नायक की सादगी, नेकी और मासूमियत आज की दुनिया में उसे अंत तक बिलकुल वैसा ही बचाए रखती है और ये उसकी क़िस्मत का कमाल है।
लाल सिंह चड्ढा के हर पहलू पर बारीक निगाह रखने वाले आमिर डायलॉग डिलीवरी के मामले में चूक गए हैं और फारेस्ट गंप के टॉम हैंक्स से बहुत बहुत पीछे नज़र आते हैं। फारेस्ट गंप का गंप बेहद नम्र और थमे हुए अंदाज़ में एक बहाव के साथ अपने लफ्ज़ अदा करता है जबकि आमिर यहां मात खा जाते हैं। अच्छा होता कि पंजाबी जैसी मीठी ज़बान बोलने के लिए वह किसी और की मदद लेते। आमिर की डायलॉग डिलीवरी न सिर्फ भाषा के नर्म बहाव को ख़त्म कर देती है बल्कि उसकी चाशनी भी खो देती है।
पिछले तीन बरसों से ये फिल्म चर्चा का विषय बनी है। आमिर ख़ान आज उस स्टेज पर पहुंच चुके हैं जहाँ वह किसी सीमित काल या स्थान के लिए सिनेमा नहीं बनाते। ऐसे में चार बरस बाद आई लाल सिंह चड्ढा उनकी मेहनतों को साबित करती नज़र आती है। लाल जैसे एक स्पेशल चाइल्ड को नार्मल बनाने के लिए उसकी मां हर मुमकिन मेहनत और जतन करती है मगर आगे घटने वाली हर घटना उसकी तक़दीर की देन है। यही वजह है कि जंग के बीच रेस्क्यू के दौरान वह एक दुश्मन को लाने और उसे इंसान बनाने में कामयाब होता है। इस हद तक कि उसे इंसानियत के सबक़ की सीख लाल सिंह से मिलती है जिसको अपने जैसे गुमराह लोगों तक पहुंचाना वह अपना मक़सद बना लेता है। फिल्म ऐसे कई संदेशों से भरी हुई है जो कहानी की रवानी के साथ लाल की मासूम हरकतों की बदौलत बड़ी ही आहिस्तगी से अपना पैग़ाम देती जाती है। जिनमें महिलावाद भी है और कम्युनल दंगे भी। ग्लैमर भी है और महत्वाकांक्षा भी। इन सबके बावजूद लाल सिंह की मासूमियत ताउम्र वैसी ही बनी रहती है। एक आदमी के जीवन से जुड़ी तमाम घटनाओं के समानंतर चलने के बावजूद फिल्म कहनी भी इन्साफ की कचहरी नहीं लगाती। गुज़रते समय की हर घटना नायक की पाक मासूमियत को अनछुआ बनाए गुज़रती जाती है।
इस फिल्म में टॉम हैंक्स और आमिर खान ने जिस चीज़ को आत्मसात किया है वह है किरदार में पूरी ईमानदारी से उतर जाना और कैसे भी हालात में उसे बनाये रखना। क्योंकि फिल्म एक फ़िक्शन है और फिल्म की बैकग्राउंड एक हक़ीक़त। और इन दोनों का तालमेल अंत तक बनाये रखना ही टॉम और आमिर की खूबी है।
इस फिल्म के निर्माण के साथ सोचने वाली बात ये है कि एक ही समय काल में आमिर खान और कबीर खान अपने गुज़रे दौर के साथ अपने समय के दर्शकों को कनेक्ट करने का प्रयास करने की परिकल्पना करते हैं। जब कबीर खान फिल्म 83 के बहाने उस सुनहरे दौर को बड़ी ही ख़ूबसूरती से रिक्रिएट करने के प्रयास में जुटे होंगे उसी दौरान आमिर फॉरेस्ट गंप की मदद से अपने हमउम्र दर्शकों को लाल सिंह चड्ढा के साथ बीते समय की सैर कराने का ताना बाना बुनते हैं। बेशक ये दोनों बेमिसाल विषय चुनते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी आत्मकथा में एक लेखक को सम्बोधित करते हुए रसूल हमज़तोव नसीहत करते हैं-
ये मत- ''कहो मुझे विषय दो।''
ये कहो- ''मुझे आंखें दो।''
इसलिए आमिर का विषय चयन इस फिल्म को बहुत ख़ास बनाता है। विवाद से परे हॉलीवुड और बॉलीवुड की सीमाओं के पार यह सिनेमा के संसार में मील का पत्थर है।
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