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फ़ंड की कमी और तकनीक की मार से लड़खड़ाया मनरेगा

अनिवार्य डिजिटल हाज़िरी के कारण मनरेगा के तहत काम मांगने वालों में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है।
MGNREGA
फ़ोटो साभार: PTI

मोबाइल ऐप के माध्यम से हाज़िरी को अनिवार्य बनाने के बाद, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानि मनरेगा के तहत काम मांगने वालों की संख्या में पिछले महीने की तुलना में इस साल जनवरी में लगभग 10 प्रतिशत की कमी आई है। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा संचालित योजना पोर्टल पर उपलब्ध, 25 मार्च तक के आंकड़ों के अनुसार, फरवरी में काम के निचले स्तर पर जाने के बाद यही रुझान मार्च में भी जारी है। (नीचे चार्ट देखें)

दिसंबर 2022 में, लगभग 1.85 करोड़ परिवारों को योजना (जिसे आधिकारिक तौर पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना या मनरेगा के रूप में जाना जाता है) के तहत  काम मिला था। अगले महीने जनवरी 2023 में जिन लोगों को काम दिया गया, उन सभी के लिए ऐप बेस्ड हाज़िरी अनिवार्य कर दी गई थी। ऐप का नाम नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सर्विस (NMMS) है। इसके कारण दूरदराज के इलाकों में नेट कनेक्शन की अनुपलब्धता और अन्य तकनीकी गड़बड़ियों की बड़े पैमाने पर शिकायतें मिली हैं, जिसकी वजह से असहाय श्रमिकों को अपनी दिहाड़ी लगाने के लिए अपना नाम दर्ज़ करने के लिए घंटों इंतजार करना पड़ा - या यहां तक कि सिस्टम की विफलता के कारण उन्हे अपनी अर्जित मजदूरी भी खोनी पड़ी। यही कारण है कि इन महीनों में काम में गिरावट आ रही है।

यह मौसमी गिरावट का मामला नहीं है। जैसा कि ऊपर दिखाया गया है, पिछले साल थोड़ी गिरावट आई थी लेकिन यह गिरावट इस क्रम में नहीं है। पहले के वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि आमतौर पर दिसंबर की तुलना में जनवरी-फरवरी के महीनों में योजना के तहत काम में बढ़ोतरी होती है। 2018-19 में, महामारी से पहले का अंतिम पूर्ण वर्ष, जनवरी 2019 में दिसंबर 2018 की तुलना में लगभग 9 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी।

इसी पोर्टल पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार चालू वर्ष (25 मार्च तक, यानि वित्तीय वर्ष पूरा होने में अभी पांच दिन बचे हैं) में लगभग 10.24 करोड़ लोगों ने योजना के तहत काम का  आवेदन किया था। लेकिन हक़ीक़त में इनमें से केवल 8.6 करोड़ लोगों को काम मिला। यानी करीब 1.64 करोड़ लोगों को काम के बिना लौटा दिया गया। उन्हें कभी काम नहीं मिला। यह संख्या काम मांगने वाले आवेदकों की कुल संख्या का लगभग 16 प्रतिशत है – जोकि खुद में एक बड़ी संख्या है। 

हमने यह भी यह याद रखना चाहिए कि देश निरंतर बेरोजगारी के एक लंबे और संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा है, जिसे महामारी ने और बढ़ा दिया है। औद्योगिक उत्पादन स्थिर होने और नई उत्पादक क्षमता के तेजी से न बढ़ाने से उद्योग में नौकरियां मिलने की संभावना काफी कम हो गई है।

सेवा क्षेत्र में भी ऐसी ही स्थिति है। नतीजतन, ग्रामीण क्षेत्र अभी भी अतिरिक्त काम का बोझ उठा रहे हैं, जिनमें से कई को पहले से ही सिकुड़े हुए कृषि क्षेत्र में खपाया जा रहा है। ऐसे अधिकांश गरीब परिवारों के लिए, नौकरी गारंटी योजना एक जीवन रेखा है, हालांकि यह बहुत कम मजदूरी देती है और वह भी अनिवार्य 100 दिनों के काम के मुक़ाबले आधे दिनों का ही काम दे पाती है। 

मोबाइल आधारित हाज़िरी की शुरूआत उन तकनीकी समाधानों में से एक लगती है जिसे यह सरकार बहुत पसंद करती है जो सुचारू संचालन का वादा करती है लेकिन हक़ीक़त में यह लोगों को इस सिस्टम से ही बाहर निकालने का काम कर रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), स्कूलों में शिक्षकों की हाज़िरी और कई अन्य योजनाओं के मामले में इसी तरह के दुखद परिणाम पहले ही देखे जा चुके हैं।

अवैतनिक मजदूरी बढ़ती जा रही है 

चालू वर्ष में, योजना पोर्टल (लिंक) पर उपलब्ध डेटा तथाकथित दक्षता और सुचारू कामकाज की चौंकाने वाली तस्वीर पेश करता है। पिछले वर्ष की तुलना में देर से भुगतान किए जाने वाले वेतन की मात्रा में 64 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अर्जित मजदूरी के देरी से भुगतान को 16 या अधिक दिनों की देरी के रूप में परिभाषित किया गया है। पिछले साल, इस तरह की विलंबित मजदूरी 2,213 करोड़ रुपये थी, जो इस साल 25 मार्च तक बढ़कर 3,630 करोड़ रुपये हो गई है। (नीचे चार्ट देखें)

अवैतनिक मजदूरी का मामला और भी खराब है - अकुशल श्रमिकों को दी जाने वाली मजदूरी का कुल 1,010 करोड़ रुपये प्रशासन के पास जमा है। यह पिछले साल देय मजदूरी 424 करोड़ रुपये से 138 प्रतिशत अधिक है।

भुगतान में देरी और अवैतनिक मजदूरी के कारण वहीं है जो पहेल थे - विभिन्न तकनीकी समस्याओं के कारण अधिकतर भुगतान नहीं हुआ – जो योजना में काम करने वालों के लिए एक गंभीर आपदा बन गई है। उनके लिए इस योजना के तहत काम करना उनके जीवन का एक अंतिम उपाय है, क्योंकि कहीं भी नौकरी न मिल पाने के कारण, वे थोड़े से पैसे कमाने के लिए कड़ी मेहनत करने को तैयार हैं क्योंकि यह उनके ज़िंदा रहने की लड़ाई है। ऐसे मजदूरों की करोड़ों रुपये की मजदूरी का भुगतान माय पर न करना उनका मज़ाक उड़ाना सा लगता है।

फंड क्रंच/आवंटन में कमी

बजट दस्तावेजों के अनुसार, 2022-23 में मनरेगा के लिए बजट आवंटन 73,000 करोड़ रुपये था, लेकिन वर्ष के दौरान किए गए अतिरिक्त आवंटन के साथ, संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये पर समाप्त हुआ था। यह 2021-22 में खर्च की गई राशि से कम था, जो राशि करीब 98,467.85 करोड़ (वास्तविक) थी। 

योजना पोर्टल के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2022-23 की शुरुआत में उपलब्ध धनराशि 97,639 करोड़ रुपये थी। जोकि पिछले वर्ष के आवंटन और कैरी ओवर का कुल योग है। 25 मार्च तक, योजना के तहत वित्त 11,921 करोड़ रुपये लाल रंग में आ गया है, यानी आवंटन से खर्च इतना ज्यादा है। पिछले साल घाटा 4,162 करोड़ रुपये था। (नीचे चार्ट देखें)

इसका मतलब यह है कि योजना में आवंटित राशि से अधिक खर्च हो रहा है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि आवेदन करने के बावजूद 1.6 करोड़ से अधिक लोगों को काम देने से मना कर दिया गया है। योजना में अधिक काम पाने के लिए लोगों का भारी दबाव है - लेकिन सरकार अधिक धन आवंटित करने को तैयार नहीं है। बल्कि योजना में काम मांगने वाले लोगों को किसी तरह हतोत्साहित करने के लिए तरह-तरह के उपाय किए जा रहे हैं। यह ऐप-आधारित हाज़िरी को अनिवार्य बनाने की रणनीति की वजह से हो रहा है। मजदूरी के भुगतान में देरी एक दूसरी बात है।

रत्ती भर भी राजनीतिक समझ रखने वाली कोई भी सरकार यह महसूस करेगी कि वह ग्रामीण रोजगार योजना को दबा कर आग से खेलने का काम रही है। हाल के दिनों में विविध चुनावों में मतदाताओं के मन में बेरोजगारी सबसे बड़े आर्थिक मुद्दों में से एक रहा है। रोजगार मुहैया कराने में विफलता - चुनाव अभियानों में भारी भरकम वादों के बावजूद - गहरी नाराजगी और मोहभंग का कारण बन सकती है। रोजगार गारंटी योजना इस घोर विफलता की भरपाई तो नहीं कर सकती लेकिन पीड़ित लोगों को कुछ राहत दे सकती है। लेकिन, योजना का गला घोंटना एक मूर्खतापूर्ण नीति लगती है। लेकिन फिर, सरकार कल्याणकारी योजनाओं पर सरकारी खर्च को कम करने के नवउदारवादी हठधर्मिता से कहीं अधिक मजबूती से जुड़ी हुई है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

MGNREGA Flounders in Fund Crunch and Tech Trap Squeeze

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