मनरेगा: न मज़दूरी बढ़ी, न काम के दिन, कहीं ऑनलाइन हाज़िरी का फ़ैसला ना बन जाए मुसीबत की जड़
पिछले कुछ दिनों में हमारे देश में एक अलग ही तस्वीर उभर कर आ रही है। किसने सोचा था कि रामनवमी के त्यौहार का सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। टेलीविज़न पर और सोशल मीडिया पर डीजे के तेज संगीत में हाथो में हथियार लिए नौजवान दिख रहें है, मानो वे त्यौहार न मनाकर मुसलमानों को चुनौती दे रहें हों। इन नौजवानो के खुले चेहरे के पीछे, संघ परिवार के नेताओं द्वारा निर्मित ऐसा वातावरण है जिसमें हिंसा होना लाज़मी है। इस धार्मिक उन्माद और घृणा के नशे में लिप्त नौजवानों और उनके परिवार, शायद महंगाई की प्रचण्ड आग की तपिश महसूस ही नहीं कर पा रहें है। यही तो है इस उन्माद का नशा जिसमे दोनों तरफ पीड़ित हैं जो ख़ुशी ख़ुशी अपने जीवन की बलि दिए जा रहें है।
बड़े और छोटे शहरों की हिंसक घटनाओं और उनके दुष्प्रचार का प्रभाव ग्रामीण नौजवानों पर भी हो रहा है। उनकी नज़र भी उनके फ़ोन के व्हाट्सएप और फेसबुक में इन्ही ख़बरों को ढूंढ रही है इसी बीच उनके अपने जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण घटनाएं उनका ध्यान नहीं खींच पा रहीं है। सारे देश को धार्मिक खेल में उलझा कर और नौजवानों को हिन्दू धर्म की रक्षा के काम में व्यस्त कर कब हमारे नेता इन्ही नौजवानों के रोजगार की संभावनाओं को खा जाते हैं इसका जब पता चलता तो उनका बहुत कुछ लुट चुका होता है।
वर्तमान में यही हो रहा है जब बेरोजगारी के इस लम्बे दौर में महंगाई और भी जीना दूभर कर रही है और आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रहीं है तो आम इंसान से लेकर देश के नामी अर्थशास्त्री तक ग्रामीण भारत में मनरेगा को मज़बूत करने और उसमे दिहाड़ी की दर बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। परन्तु सरकार ने सबको व्यस्त कर रखा हैं। सबको सांप्रदायिक हिंसा में झोंक कर सरकार ने मज़दूरों और विशेषज्ञों की मांग को दरकिनार कर दिया।
28 मार्च 2022 ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए मनरेगा में काम करने वाले मज़दूरों के दिहाड़ी में मामूली दिखावी वृद्धि की गई। 34 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 24 राज्यों के लिए केवल 5 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। यह केंद्र सरकार की ओर से ग्रामीण जनता की दुर्दशा के प्रति सरासर उदासीनता है, जिन्हें आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि का सामना करना मुश्किल हो रहा है। अगर इस मामूली वृद्धि को अनियंत्रित महंगाई की तुलना में देखें तो असल में मज़दूरी की दर में कमी ही पाई जाएगी।
2006 में जब बड़ी चर्चा के बाद मनरेगा को लागू किया गया था तो मज़दूरी के निर्धारण के लिए विशेष प्रावधान रखा गया था। मनरेगा अधिनियम, 2005 की धारा 6 केंद्र सरकार को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के किसी प्रावधान से बंधे बिना मज़दूरों के लिए मजदूरी तय करने अधिकार देती है। अधिनियम की धारा 6 'मजदूरी दर" में लिखा है
"(1) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 (1948 का 11) में किसी बात के होते हुए भी, केन्द्रीय सरकार, इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए, अधिसूचना द्वारा, मजदूरी दर विनिर्दिष्ट कर सकेगी:
परन्तु यह कि विभिन्न क्षेत्रों के लिए मजदूरी की भिन्न-भिन्न दरें विनिर्दिष्ट की जा सकेंगी:
परन्तु यह और किसी ऐसी अधिसूचना के अधीन समय-समय पर विनिर्दिष्ट मजदूरी दर साठ रुपए प्रतिदिन से कम की दर पर नहीं होगी।
(2) किसी राज्य में किसी क्षेत्र के संबंध में केंद्रीय सरकार द्वारा कोई मजदूरी दर नियत किए जाने के समय तक, कृषि श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 (1948 का 11) की धारा 3 के अधीन राज्य सरकार द्वारा नियत न्यूनतम मजदूरी उस क्षेत्र को लागू मजदूरी दर समझी जाएगी।"
कोशिश यह थी कि समय समय पर मनरेगा में दिहाड़ी, ग्रामीण भारत की जरूरतों के अनुसार निर्धारित करने में कोई कानूनी अड़चन न आए क्योंकि मनरेगा का मक़सद ग्रामीण भारत में लोगो की आजीविका बढ़ाकर उनकी सुरक्षा निश्चित करना है। मनरेगा के मिशन दस्तावेज में इंगित किया गया है कि, "इसका उद्देश्य प्रत्येक परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार प्रदान करके ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका और सुरक्षा को बढ़ाना है"।
लेकिन इस वर्ष मनरेगा के तहत विभिन्न राज्यों के लिए दिहाड़ी की दर से तो यह मक़सद पूरा नहीं होने वाला। और यह केवल इस वर्ष की बात नहीं है बल्कि पिछले कई वर्षो से मनरेगा में दिहाड़ी में नाम मात्र की बढ़ौतरी हो रही है और अब तो हालात बेहत चिंताजनक हो गए हैं।
मनरेगा अधिनियम की धारा 6 के अनुसार ऐसा माना जाता है कि मनरेगा में मज़दूरी किसी भी राज्य में घोषित खेत मज़दूरों की दर से कम नहीं होनी चाहिए। सामान्यता इसे लागू भी किया गया। लेकिन अभी हालात अलग हैं। अभी तो कई राज्यों में मनरेगा की मज़दूरी प्रदेश में खेत मज़दूरों के लिए घोषित दर से भी कम है। खेत मज़दूरों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर औसत मज़दूरी भी 375 रुपये है। एक ऐसे समय में जब देश में पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में लगातार बढ़ौतरी हो रही है जिसका असर सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर पड़ रहा है।
स्थिति इतनी खतरनाक है कि देश में थोक महंगाई दर मार्च के महीने में 14.55 % पर पहुँच गई है। मतलब खर्चे लगातार बढ़ रहें परन्तु तुलनात्मक तौर पर आमदनी कम हो रही है। यह बताने की जरुरत नहीं है कि कामगारों के एक बड़े हिस्से के पास तो रोजगार ही नहीं है और बेरोजगारी की लगातार हताशा के चलते उन्होंने काम ढूंढना ही बंद कर दिया है। मार्च 2022 में 8 लाख और लोगों की नौकरी चली गई और रोजगार दर 36.7% से गिरकर 36.5% हो गई।
इस हालत से बाहर निकलने के लिए और लोगो की क्रिय शक्ति में इज़ाफ़ा करने के लिए मनरेगा एक बहुत ही निर्णायक साधन सिद्ध हो सकता है परन्तु मोदी सरकार का मनरेगा के प्रति रुख तो जग जाहिर है। असल स्थिति तो यह है कि मनरेगा में कानूनी तौर पर प्रत्येक वर्ष हर परिवार को सौ दिन रोज़गार देने का प्रावधान किया। परन्तु इस वर्ष भी औसतन प्रति परिवार काम के दिन केवल 49.7 दिन ही हैं। हालाँकि इस वर्ष के बजट में ही संकेत साफ़ हो गए थे जब पिछले वर्ष में मनरेगा पर कुल खर्च से भी काम आबंटन इसके लिए वर्ष 2022-23 के लिए रखा गया।
पिछले वर्ष के संशोधित बजट 98000 करोड़ रु. से कम कर इस वर्ष के लिए बजट में केवल 73000 करोड़ रुपये ही मनरेगा के लिए रखे गए हैं। इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि ग्रामीण भारत की बड़ी आबादी की जीवन रेखा 'मनरेगा' में न तो काम के दिन बढ़ने की गुंजाईश छोड़ी गई थी और न ही मज़दूरी की दर बढ़ने की। इसके इतर मनरेगा में काम का आवंटन और मज़दूरी का भुगतान जाति के आधार पर करने के निर्देश को तमाम विरोधों के बावजूद बदस्तूर लागू करने के लिए केंद्र सरकार हठ दिखा रही है।
सरकार न तो काम के दिन बढ़ाएगी और न ही दिहाड़ी की दर परन्तु अपने हथकंडे तो दिखाने ही हैं ताकि ऐसा लगे कि कुछ तो हो ही रहा है। तो साहब सरकार ने तय किया है कि मनरेगा मज़दूरी की हाज़री के नियमो को और भी कड़ा किया जायेगा और अब नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सॉफ्टवेयर ऐप के जरिये हाज़री अनिवार्य कर दी गई है ।
हालाँकि 2014 से ही मोबाइल फ़ोन पर हाज़री के बारे में चर्चा होती रही है। वर्ष 2015 में भी राज्यसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में तब के ग्रामीण विकास राज्य मंत्री सुदर्शन भगत ने 35000 ग्राम पंचायतों में पायलट प्रोजेक्ट के तहत मनरेगा के काम में MMS के जरिये हाज़िरी लगाने की योजना का जिक्र किया था। पिछले वर्ष 21 मई 2021 को केंद्रीय ग्रामीण विकास, कृषि और किसान कल्याण, पंचायती राज और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग (फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री) मंत्री, श्री नरेंद्र सिंह तोमर ने ऑनलाइन वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के जरिये नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सॉफ्टवेयर (NMMS) ऐप की शुरुआत की थी। इसके तहत जिन मनरेगा साइट्स (काम की जगह) पर बीस से ज्यादा मज़दूर काम कर रहे होते हैं वहां नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सॉफ्टवेयर (NMMS) ऐप के द्वारा मज़दूरों की वास्तविक समय में उपस्थिति को जियोटैग्ड फोटोग्राफ के साथ दर्ज किया जाता है।
यह हाज़री दिन में दो बार, पहली सुबह के 11 बजे से पहले और दूसरी दिन के 2 बजे के बाद ली जाएगी। अभी तक यह प्रक्रिया सभी राज्यों में लागू नहीं की जा रही थी लेकिन 22 मार्च 2022 को ग्रामीण मंत्रालय की एक बैठक में इसकी समीक्षा करते हुए यह निर्णय लिया गया कि 1 अप्रैल 2022 से उन सभी जगहों पर जहाँ 20 से अधिक मज़दूर काम कर रहें है NMMS से हाज़री अनिवार्य कर दी गई है।
हालाँकि समीक्षा बैठक में ही कई तरह की तकनीकी दिक्कतों के बारे में प्रश्न उठाये गए थे मसलन हाज़री के लिए विकसित किया गया सर्वर ठीक से काम नहीं कर रहा है, कर्मचारियों के मोबाइल इस एप को प्रयोग करने के लायक नहीं हैं व उनके लिए इंटरनेट प्रयोग करने के लिए डाटा नहीं है आदि। फेहरिस्त लम्बी है परन्तु मंत्रालय ने समाधान का आश्वासन दिया है।
गौर कीजिये कि हम ग्रामीण भारत में इंटरनेट के जरिये हाज़िरी लगाने की बाध्यता की बात कर रहें है और वह भी सरकारी कार्यालय के कंप्यूटर से नहीं बल्कि मनरेगा मज़दूरों के कार्यस्थलों से मेटों के मोबाइल फ़ोन से। है न गज़ब कल्पना जैसे हमारी सरकार ग्रामीण भारत की सच्चाई जानती ही नहीं है। गोया ग्रामीण विकास मंत्री को ग्रामीण भारत का एक्सपोज़र टूर करवाना पड़ेगा।
हम सब जानते है कि मनरेगा में हर मजदूर को एक निश्चित काम करना होता है जिसके बाद इंजीनियर काम की पैमाइश करके मज़दूर की मज़दूरी तय करता है। वैसे इसके लिए तय मापदंड है परन्तु फिर भी इंजीनियर मज़दूरों की मज़दूरी कम आंकते हैं जिसके ख़िलाफ़ निरंतर संघर्ष भी होते रहें है। जब मज़दूरी का आधार पीस वर्क (piece work) है तो दिन में दो बार हाज़री का क्या औचित्य। अभी तक प्रैक्टिस में काम का समय राज्यों की परिस्थिति और मौसम के अनुसार ही तय होता आया है। मसलन इन दिनों अत्यधिक गर्मी में मज़दूर बहुत सुबह काम के लिए जाते हैं और या तो सुबह के समय ही निर्धारित काम पूरा कर लेते हैं या फिर देर शाम को बचा हुआ काम पूरा करते हैं। मक़सद निर्धारित काम को पूरा करना होता है।
ऐसे में दिन में दो बार हाज़िरी वो भी जिओ टैगिंग के साथ का कोई औचित्य न तो मज़दूर समझ पा रहें है और न ही निचले स्तर के कर्मचारी अधिकारी जो मनरेगा को लागू करवाते हैं। लेकिन मज़दूर संगठन तो इसे खूब समझते हैं कि यह एक औज़ार है मज़दूरों को कार्यस्थल पर बाँध कर रखने का। इससे हाज़री लगाने में जो समस्याएं आएंगी उसका खामियाजा भी मज़दूरों को ही भुगतना पड़ेगा क्योंकि उन्हें दिहाड़ी नहीं मिलेगी। उन जगहों का क्या होगा जहाँ मज़दूरों की संख्या 20 से कम है। इससे तो हाज़री की दो तरह की व्यवस्था बन जाएँगी। परिणामस्वरुप पूरी प्रक्रिया ज्यादा जटिल हो जाएगी। मजदूर मामनरेगा को लागू करने की प्रकिया को ज्यादा सरल करने की माँग कर रहे हैं। ताकि समय पर और आसानी से काम का मस्टर रोल निकले और समय से उनको मज़दूरी का भुगतान हो परन्तु इस गैर वैज्ञानिक समझ वाली सरकार को तो तकनीक से अपना प्यार दिखाना है और इसकी आड़ में मनरेगा को कमजोर करना और उसमें मज़दूरों की भागीदारी को कम करने की साज़िश को अंजाम देना है।
हालाँकि NMMS लागू करने के लिए तर्क दिया है कि इससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा और पारदर्शिता बढ़ेगी। इस बात में सच्चाई है कि मनेरगा में भ्रष्टाचार है। इसमें ठेकेदारों और अधिकारियों का एक बड़ा गठजोड़ अलग अलग राज्यों में काम कर रहा है। परन्तु NMMS से भ्रष्टाचार पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति होना आवश्यक है। मनरेगा में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण ठेकेदार और सभी स्तर के अधिकारीयों का आपसी गठजोड़ है। मनरेगा में सोशल ऑडिट की समझ भी भ्रस्टाचार पर लगाम लगाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए ही थी लेकिन सरकार इस पहलू पर केवल खानापूर्ति करती है क्योंकि सोशल ऑडिट में जनभागीदारी करनी पड़ती है।
पिछले दो वर्षो में कोविड-19 और बेरोजगारी की महामारी के इस दौर में मनरेगा ने ग्रामीण भारत में लोगों को राहत पहुंचाने के लिए अपनी सार्थकता को नई ऊंचाइयों पर पहुँचाया है। जिसके कसीदे सरकारी मंत्री भी समय समय पर प्रेस के सामने करते रहे हैं। परन्तु मनरेगा को मज़बूत करने और इसे ज्यादा व्यापक करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। पिछले दो वर्षो में मनरेगा में लगातार बढ़ती काम की मांग ने भी सरकार पर दबाव बढ़ाया है।
31 मार्च 2022 तक मनरेगा में वर्ष 2021-2022 में लगभग 7.2 करोड़ परिवारों और कुल 10.55 करोड़ लोगो को मनरेगा के तहत रोजगार मिला। वर्ष 2006 जब से मनरेगा लागू किया गया है यह दूसरे स्थान पर है। इससे पहले सबसे ज्यादा परिवारों को रोजगार वर्ष 2020-2021 में दिया गया था। इस वर्ष कुल 7.55 करोड़ परिवारों के 11.19 मज़दूरों को मनरेगा के तहत काम मिला। गौरतलब है कि मनरेगा में रजिस्टर परिवारों और मज़दूरों की संख्या दोनों में बढ़ौतरी हुई है और काम मांगने बाले मज़दूरों में भी बढ़ौतरी दर्ज की गई है।
वर्तमान में मनरेगा पोर्टल के अनुसार कुल मिलाकर 15.61 करोड़ जॉब कार्ड में 30.39 करोड़ मज़दूर पंजीकृत हैं। इसमें से 9.45 करोड़ सक्रिय जॉब कार्ड के तहत 15.61 करोड़ सक्रिय मज़दूर हैं। यह तब है जब नए जॉब कार्ड बनाने में आनाकानी की जाती है। इसके अनुसार भी देखें तो करोड़ो मज़दूर ऐसे हैं जिनको मांगने के बावजूद काम नहीं मिल रहा है। और जिन परिवारों को मिल भी रहा है वह मनरेगा अधिनियम में गारंटी 100 दिन का नहीं बल्कि 50 दिनों से कम ही मिल रहा है।
आर्थिक संकट की वर्तमान स्तिथि में बेरोजगारी की असंख्य फ़ौज को देखते हुए मनरेगा को लागू करने का मक़सद आज और ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है। यह उपयुक्त समय है कि इसे शहरी इलाको में भी लागू किया जाये। मोदी सरकार को जनता के सामने साफ़ करना होगा कि क्या वह मनरेगा के घोषित लक्ष्यों के प्रति गंभीर है और ग्रामीण बेरोजगारों को उनका काम का हक़ देने के लिए काम करेगी। या भाजपा और मोदी जी अपनी कॉर्पोरेट मित्र मण्डली की तरह मनरेगा जैसी योजना को नवउदारवादी नीतियों के रास्ते में बाधा के तौर पर देखते हैं और केवल दिखावे के लिए इसे जारी रखे हुए हैं।
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