मणिपुर : थांग ता बनाम वसंत रास
'’ नोआखली एक श्मशान भूमि है, जहां हजारों बेकसूर लोगों की समाधियां हैं। ऐसी जगहों पर चप्पल पहनना मृत आत्माओं का अपमान है।’’ - महात्मा गांधी
मणिपुर आज धधक रहा है। वहां चारों ओर मृत और घायलों की चीत्कारें सुनाई दे रहीं है। अकाल मृतकों का स्थायी मौन सबसे तीखी चीत्कार का द्योतक होता है। हम सब अपनी-अपनी तरह से बता रहे हैं कि मणिपुर में ऐसा क्यों हुआ, सरकार कहां असफल रही, सरकार क्यों असफल रही। परंतु सोचिए जो संस्था असफलता को स्वीकार कर चुकी हो, क्या उससे सुधार या सफलता की उम्मीद करना वाजिब है? यह प्रश्न भी है और अपने आप में उत्तर भी। जलते, सुलगते धुंए से धुंधले पड़ते मणिपुर को आज एक गांधी जैसी आत्मा की जरूरत है, जो नंगे पैर चलकर महसूस कर सके कि वास्ताविक पीड़ा क्या है? इतनी भयानक, क्रूर और वीभत्स आपसी हिंसा आखिर कैसे समाज में इतने भीतर तक पैठ कर गई, कैसे पैठ गई? कब पैठ गई। नोआखली के दंगे भी आपसी लोगों में थे और मणिपुर के भी। गांधी तब भारत की आजादी की तैयारी और तमाम समारोहों का परित्याग कर नंगे पांव नोआखली में क्यों घूम रहे थे? गौरतलब है कि पिछले करीब 35 बरसों से जो उनका लक्ष्य ’’भारत की आजादी’’ था, उसको भी एकतरफ कर वे इस हिंसा से सरोबार इलाके में क्यों बस से गए थे? शायद इसलिए कि वे जिस आजाद भारत का सपना देख रहे थे, उसमें इस तरह की हिंसा, क्रूरता और आपसी वैमनस्य की कोई गुजाइश वे नहीं छोड़ना चाहते थे। गांधी तब देश के सर्वोच्च नेता थे। वे आजादी के दिन दिल्ली में नहीं थे। परंतु आजादी के इस अमृतकाल में 3 मई 2023 से शुरू हुए दंगों के दौरान भारत के प्रधानमंत्री की ओर से किसी भी संदेश का न आना हमें समझा रहा है कि दिल्ली से मणिपुर इतना दूर हो गया है, कि राष्ट्रप्रमुख उसके बारे में बात करना भी गवारा नहीं करते। वैसे यह भी तय है कि मणिपुर की समस्या का हल मणिपुर के लोग ही निकाल सकते हैं और कोई दूसरा नहीं।
वहां शांति समिति का अध्यक्ष यदि सरकारी व्यक्ति भले ही राज्यपाल ही क्यों न हो, वे शांति स्थापना में सहायक नहीं हो सकते। वास्तविकता तो यही है कि राहत शिविरों और सरकारी भवनों के भ्रमण से शांति बहाल नहीं हो सकती। यह ठीक वैसा ही उपक्रम है, जैसा कि बाढ़ या भूंकप के दौरान हवाई सर्वे होता है। अभी ओडिशा में हुई रेल दुर्घटना में हम यह सब प्रपंच देख चुके है। परंतु प्रधानमंत्री मणिपुर में घट रही विभीषिका को एक रेल दुर्घटना से भी कमतर मानते है? जबकि वह दुर्घटना एक तकनीकी दुर्घटना थी और मणिपुर की हिंसा एक राजनीतिक स्थिति भी है, जिसमें प्रधानमंत्री का सीधा हस्तक्षेप अनिवार्य था। याद रखिए, महात्मा गांधी भारत की आजादी के जश्न में शामिल नहीं होते जो उसे 200 सालों के संघर्ष के बाद मिली थी और प्रधानमंत्री योग दिवस और अमेरिका की यात्रा को ही ध्येय मानते हैं। मणिपुर डबल इंजन की सरकार का एक इंजन होने के बावजूद, उनकी प्राथमिकता में नहीं है। जाहिर है कारण बहुत से हैं।
विश्व के महानतम नाट्यकारों में से एक हैं रतन थियम! वे मणिपुर में रहते हैं, वहीं की भाषा में यानी मणिपुरी में नाटक करते हैं और उसमें किसी तरह के उपशीर्षक (सब टाइटल) नहीं होते, फिर भी अभिनेता द्वारा बोला गया प्रत्येक संवाद प्रत्येक गैर मणिपुर दर्शक को संप्रेषणीय होता है, समझ में आता है। वे कला में चमत्कार में विश्वास रखते हैं, वे कहते है, ’’जब मछलियां आकाश में आतीं हैं तभी कला संभव होती है, वरना नहीं। हम जो सारी चीजें प्रकृति में देख रहे हैं, उन्हें उसी रूप में रखने में कलात्मकता कहां है?’’ हमारी सबकी समस्या यह है कि हम परिस्थितियों को बेहद स्थूल ढंग से देखने समझने के आदी हो गए हैं। हम यह कल्पना नहीं करना चाहते कि दशकों से एकसाथ रहने वाले समुदाय एकाएक किसी एक दिन अपने पड़ोसी के खून के प्यासे क्यों हो जाते हैं। मणिपुर में यही तो हुआ है। राख के भीतर आग दबी रही, किसी ने राख को ठंड़ा करने की कोशिश ही नहीं की! और आग भभक उठी। रतन थियम की इस कविता में इसका कारण भी और समाधान भी मौजूद है।उनकी कविता हैं- ’’ चौबीस घंटा।’’ ''समय को चौबीस घंटों ने/ जकड़ रखा है। सुकून से बात करना है तो/चौबीस घंटों के बाहर के/समय में तुम आओ। बीते हुए समय को अभी के समय में बदलकर /पहली मुलाकात के क्षण से शुरू करें।’’
मणिपुर के तमाम लोगों का मानना है कि रतन थियम संभवतः अकेले व्यक्ति हैं जो एक सेतु का यानी गांधी जैसा काम कर सकते हैं। परंतु सरकार को जब खुद पर ही भरोंसा नहीं तो वह किसी और पर भरोसा कैसे कर सकती है? मणिपुर अतिरिक्त समय की मांग करता है, परंतु शासन-प्रशासन के पास तो समय ही नहीं है। वास्ताविकता तो यही है कि मात्र बल प्रयोग से कहीं भी शांति स्थापित नहीं की जा सकती। मणिपुर और पूरा उत्तरपूर्वी भारत लगातार अशांत रहा है। ईरोम शर्मिला का सोलह वर्ष चला अनशन और अठारह बरस पहले मांओं और दादियों ने जो नग्न होकर प्रदर्शन किया था, उसे भुला देना हमारी सबसे बड़ी भूल है। सत्ता को लगता है कि उसने मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों का मनोबल तोड़ कर ’’वास्ताविक लड़ाई’’ जीत ली है। परंतु शासन की ऐसी प्रत्येक विजय अंततः समाज और देश के लिए खतरनाक सिद्ध होती है। मणिपुर का फट पड़ना इसी का एक प्रमाण है। समस्याओं का निराकरण करने के बजाए उन्हें नजरअंदाज करना अंततः सामाजिक संघर्ष को बढ़ाता ही है। रतन थियम की इस बात पर गौर करिए, ’’मणिपुर में बहुत सारे युद्ध हुए हैं। बहुत से आक्रांता बाहर से आए हैं। हम भी गए हैं। समकालीन युद्ध का क्या स्वरूप है? किसी को मार देना या किसी पर बम फेंक देना भर युद्ध नहीं है। कई विराट शक्तियां हैं, जो समूची सभ्यताओं, परम्पराओं, संस्कृतियों, धर्म और आचार संहिताओं पर आक्रमण करतीं हैं। भारत अपनी दार्शनिक परंपराओं के कारण जाना जाता है। और दर्शनों का आधार संस्कृति है। इस स्थिति में कोई दैत्याकार शक्ति जिसे इन दिनों भूमण्डलीकरण कहा जाता है, आज आपकी सारी खूबसूरत अस्मिताओं को काट देता हैं ताकि आप कुछ न कर सकें और प्रभुताशाली शक्तियों के दबाव में आ जाएं या उन शक्तियों में ही शामिल हो जाएं। लेकिन अगर आपके पास शक्ति है, स्वप्न है, सृजनात्मकता है, तो आपकी अस्मिताओं को बार-बार काटकर फेंकने के बाद भी वे कहीं न कहीं दोबारा उग आएंगी, कहीं फूल बनकर, कहीं कुछ और बनकर, पर वे कभी मरेंगी नहीं। वे अपने को दोबारा रच लेंगी।’’ परंतु हमारी नई व्यवस्था तो यह चाहती ही नहीं कि व्यक्ति की गरिमा और अस्मिता बनी रहे। मणिपुर में 200 से ज्यादा, गिरजाघर जला दिए गए। क्यों अब शांति की अपील की जा रही है। मरघट तो वैसे ही शांत ही रहता हैं। एक साक्षात्कार में रतन थिमल ने कहा था, ’’आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इम्फाल में लगभग एक भी पार्क नहीं है, बस एक छोटी सी जगह है, जिसे पार्क नहीं कहा जा सकता, अधिक से अधिक उसे आंगन कह सकते हैं। यहां बच्चों के लिए एक भी पार्क नहीं है। जब हम एक ही देश में रहते हैं, तब जितनी चीजें देश के अन्य भागे में होती है, वो यहां क्यों नहीं हैं? इस कारण यहां लोगों में दूसरे स्तर का नागरिक होने का भाव बढ़ रहा है।’’ अब यह एक विस्फोट के रूप में सामने आ रहा है। सांस्कृतिक व सामाजिक समस्याओं का निराकरण मात्र राजनीति से नहीं हो सकता। हां राजनीतिक इच्छा शक्ति, आपसी सौहार्द बढाने में मददगार जरूर हो सकती है। मगर यहां तो ठीक इससे उलट ही हो रहा है।
मणिपुर की छवि हम लोग जो कलाओं से जुड़े है के दिमाग में एक अनूठे व बेहद कलात्मक राज्य की रही है। यहां की नृत्य शैलियां जैसी लयात्मकता कहीं और दिखाई ही नहीं देती। तमाम लोक नृत्य समारोहों में अंतिम प्रस्तुति मणिपुर की ही होती थी। घंटों सिर्फ इस इंतजार में बिता देते थे कि अंत में मणिपुर के नृत्य होंगे। भले ही समारोह सात दिन का हो। सब कुछ छोड़कर तब मंच के सामने आ जाना होता था। यही रतन थियम के नाटकों के भी साथ होता रहा है। एक ही समारोह में हम लोग दो तरह के मणिपुरी नृत्य देखते थे। शुरूआत में वहां का मार्शल आर्ट ’’थांग-ता’’(थांग याने तलवार और ता याने भाला) होता था। इसे मूलतः हम हुयेन लाल लोग (तलवार-भाला) भी कहते हैं। इस नृत्य के तीन हिस्से होते है पहला आनुष्ठानिक दूसरा प्रदर्शनकारी और तीसरा युद्ध या संग्राम। इसमें दो तरह से लड़ना होता है, पहला सरिता सरक यानी बिना हथियार के और दूसरा हथियारों के साथ। वैसे अब यह एक नृत्य रूप है। परंतु वास्तव में यह एक तरह की युद्ध शैली ही है। अंग्रेजो ने इस युद्ध शैली को प्रतिबंधित किया था। तो यह नृत्य रूप में परिवर्तित हो गई। करीब दो हजार वर्ष पूर्ण अशोक ने जब कलिंग में युद्ध पर रोक लगाई तो छाऊ नृत्य के एक पूर्ववर्ती नृत्य संरचना में युद्ध को एक नृत्य रूप में बदलकर, युद्ध लड़ने की परंपरा को जीवित रखा था।
इस नृत्य के ठीक विपरीत मणिपुर का एक और अनूठा नृत्य है, ’’मणिपुर वसंत रास’’। यह मणिपुरी नृत्य शैली में निहित वेशभूषा श्रृंगार और लयात्मकता का चमत्कार है। यह नृत्य संप्रेषणीयता का चरम है और भाषा भी समझने में आड़े नहीं आती। इस नृत्य में भगवान कृष्ण, राधा की प्रतिद्वंदिनी चन्द्रावली के साथ होली खेल लेते हैं। तब राधा अत्यंत क्रोधित होती है और श्रीकृष्ण उनसे क्षमा मांगते हैं और अंत में राधा के साथ नृत्य करते हैं। यह नृत्य अलौकिकता को जैसे जमीन पर उतार लाता है। ''थांग-ता’’ जहां चपलता और आक्रामकता के चरम पर खत्म होता है, वही ’’वसंत रास’’ अत्यंत मध्यम लय के साथ, इतनी कोमलता से चरम पर पहुंचता है, कि दर्शन स्तब्ध से रह जाते हैं। नृत्य समाप्त होने के थोड़ी देर बाद सुध लौटती है।
मणिपुर को पुन : ’’थांग-ता’’ से ’’वसंत रास’’ की ओर लौट आना होगा। सरकार एवं सरकारें इस कार्य को कर पाने में लगातार असफल होती रही हैं, क्योंकि उनके पास अंततः बलप्रयोग ही एक मात्र उपाय बचा रहता है। पिछले करीब पांच दशकों से यह आंख-मिचौली का खेल चल रहा है। सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम भी अंततः समाधान नहीं ला पाया। मणिपुर और हमें लौटना तो संस्कृति की ओर ही होगा। संस्कृति में ही सामंजस्य और आपसी सहयोग का समावेश होता है। अंत में रतन थियम की कविता ''श्मशान घाट’’ बिखरे हुए/कुछ मुरझाये फूलों को लेकर/ तुम श्मशान घाट से लौट जाओ/लीपे हुए मेरे शरीर पर/छोटे-छोट झंडे गाड़कर/उन सब लोगों को गये/बहुत देर हो चुकी है/यह विलाप दोबारा न करना कि/मैं असमय मर गया-/ गर्भ में बढ़ते शिशु का लालन पालन करो/मेरे जैसे उसके चेहरे को देख/सांत्वना पालो/ जब तक मेरा बेटा मानुषी भाषा समझने न लगे/सूखे हुए फूलो को ध्यान से रखे रहो/कुछ बरस बाद एक दिन/उसे साथ लेकर मेरे श्मशान घाट आना/अपनी चादर की छोर पर बंधी/सूखी पंखुड़ियों को उसकी अंजलि में देकर/मेरे ऊपर बिखरा देना क्योकि/मैंने हर पंखुड़ी पर लिख दिया है। आत्मा की स्वाधीनता से अधिक/आनंद सारे संसार में कहीं नहीं है।'' गांधी की नोआखली यात्रा अभी पूरी नहीं हुई है। शायद मणिपुर उनका अगला पढ़ाव हो?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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