गांधी की अहिंसा को तिलांजलि देता नया भारत!
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में ‘चौरी चौरा’ शताब्दी समारोह के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए सम्बोधन को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के -हाल के दिनों में लोकप्रिय बनाए जा रहे- उस घातक पुनर्पाठ के रूप में देखा जा सकता है जो गांधी और उनकी अहिंसा को पूर्णरूपेण खारिज करता है। संघ परिवार और कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली शक्तियों का गांधी विरोध जगजाहिर रहा है और अनेक बार यह तय करने में कठिनाई होती है कि इस विचारधारा के अनुयायियों को गांधी अधिक अस्वीकार्य हैं या उनकी अहिंसा। मोदी जी की वैचारिक पृष्ठभूमि निश्चित ही गांधी से उन्हें असहमत बनाती होगी। संभव है कि उन्होंने सावरकर द्वारा लिखित गांधी और उनकी अहिंसा का उपहास उड़ाते उन निबंधों को भी पढ़ा हो जो गांधी गोंधळ शीर्षक पुस्तिका में संकलित हैं।
लेकिन हम यह भी विश्वास करते हैं कि गांधी को मुस्लिम परस्त, क्रांतिकारियों से घृणा करने वाले, स्वतंत्रता प्राप्ति में बाधक, ढुलमुल अंग्रेज हितैषी नेता के रूप में प्रस्तुत करने वाली जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स से बतौर प्रधानमंत्री वे हम सब की तरह आहत अनुभव करते होंगे।
किंतु 4 फरवरी 2022 को पूर्ण होने जा रही चौरी चौरा घटना की शतवार्षिकी से ठीक एक वर्ष पहले सालाना आयोजनों की श्रृंखला का एक शासकीय कार्यक्रम द्वारा शुभारंभ करते देश के प्रधानमंत्री को चौरी चौरा की हिंसा का खुला एवं सार्वजनिक समर्थन करते देखना आश्चर्यजनक था। अब एक वर्ष तक सरकार गांधी पर प्रच्छन्न -और शायद प्रकट रूप से भी- प्रहार कर सकेगी और इन कार्यक्रमों के माध्यम से हिंसा का महिमामंडन हो सकेगा।
प्रधानमंत्री जी ने गांधी और उनकी अहिंसा को खारिज करने के लिए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के एक ऐसे प्रसंग का चयन किया जिसमें गांधी के निर्णय की व्यापक आलोचना हुई थी। चौरी चौरा में थाने में 23 भारतीय पुलिस कर्मियों को आक्रोशित भीड़ द्वारा जिंदा जलाए जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन रोक दिया था। इस समय अधिकांश नेताओं को यह लग रहा था कि आंदोलन निर्णायक दौर में पहुंच रहा है और स्वाधीनता का लक्ष्य अब अत्यंत निकट है। इसके बाद प्रायः सभी नेताओं ने खुलकर गांधी की आलोचना की थी और अंत में जो सहमति बनी उसके पीछे इन नेताओं का गांधी के प्रति आदरभाव भी था और शायद यह भय भी था कि गांधी की अपार लोकप्रियता के कारण उनसे असहमति इन नेताओं को अप्रासंगिक बना सकती थी।
प्रधानमंत्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा- "सौ वर्ष पहले चौरी-चौरा में जो हुआ, वो सिर्फ एक आगजनी की घटना, एक थाने में आग लगा देने की घटना सिर्फ नहीं थी। चौरी–चौरा का संदेश बहुत बड़ा था, बहुत व्यापक था। अनेक वजहों से पहले जब भी चौरी–चौरा की बात हुई, उसे एक मामूली आगजनी के संदर्भ में ही देखा गया। लेकिन आगजनी किन परिस्थितियों में हुई, क्या वजहें थीं, ये भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। आग थाने में नहीं लगी थी, आग जन-जन के दिलों में प्रज्वलित हो चुकी थी। चौरी–चौरा के ऐतिहासिक संग्राम को आज देश के इतिहास में जो स्थान दिया जा रहा है, उससे जुड़ा हर प्रयास बहुत प्रशंसनीय है। मैं, योगी जी और उनकी पूरी टीम को इसके लिए बधाई देता हूं। आज चौरी–चौरा की शताब्दी पर एक डाक टिकट भी जारी किया गया है। आज से शुरू हो रहे ये कार्यक्रम पूरे साल आयोजित किए जाएंगे। इस दौरान चौरी–चौरा के साथ ही हर गाँव, हर क्षेत्र के वीर बलिदानियों को भी याद किया जाएगा। इस साल जब देश अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है, उस समय ऐसे समारोह का होना, इसे और भी प्रासंगिक बना देता है।-------
चौरी–चौरा, देश के सामान्य मानवी का स्वतः स्फूर्त संग्राम था। ये दुर्भाग्य है कि चौरी-चौरा के शहीदों की बहुत अधिक चर्चा नहीं हो पाई। इस संग्राम के शहीदों को, क्रांतिकारियों को इतिहास के पन्नों में भले ही प्रमुखता से जगह न दी गई हो लेकिन आज़ादी के लिए उनका खून देश की माटी में जरूर मिला हुआ है जो हमें हमेशा प्रेरणा देता रहता है। अलग अलग गांव, अलग–अलग आयु, अलग अलग सामाजिक पृष्ठभूमि, लेकिन एक साथ मिलकर वो सब माँ भारती की वीर संतान थे। आजादी के आंदोलन में संभवत: ऐसे कम ही वाकये होंगे, ऐसी कम ही घटनाएं होंगी जिसमें किसी एक घटना पर 19 स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी के फंदे से लटका दिया गया। अंग्रेजी हुकूमत तो सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देने पर तुली हुई थी। लेकिन बाबा राघवदास और महामना मालवीय जी के प्रयासों की वजह से करीब–करीब 150 लोगों को लोगों को फांसी से बचा लिया गया था। इसलिए आज का दिन विशेष रूप से बाबा राघवदास और महामना मदन मोहन मालवीय जी को भी प्रणाम करने का है, उनका स्ममरण करने का है।"
अपने पूरे उद्बोधन में गांधी का नामोल्लेख तक न करते हुए प्रधानमंत्री जी ने मालवीय जी की चर्चा अवश्य की जिन्हें गोलवलकर गांधी से असहमत किंतु श्रद्धावश उनका विरोध न कर पाने वाले राजनेताओं में शुमार करते थे।
चौरी-चौरा प्रकरण का एक पाठ इसे किसान विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करता है। वर्तमान में जब देश भर में किसान आंदोलित हैं तब इन साल भर तक चलने वाले समारोहों के माध्यम से उन्हें यह अवश्य बताया जाएगा कि जिन किसान स्वतंत्रता सेनानियों की शहादत को गांधी और उनके अनुयायियों की कांग्रेस ने अनदेखा कर दिया था उन्हें सौ साल बाद मोदी सरकार ने सम्मान दिया। इसी बहाने यह भी जोड़ दिया जाएगा कि गांधी-नेहरू की जोड़ी द्वारा हाशिए पर डाली गई सरदार पटेल और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसी विभूतियों का उद्धार भी मोदी जी ने ही किया।
चौरी-चौरा प्रकरण का एक पाठ और भी है। यह पाठ चौरी-चौरा प्रकरण एवं बाद में इतिहास में उसके प्रस्तुतिकरण को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में दलित एवं अल्पसंख्यक वर्ग की भूमिका को गौण बनाने वाले सवर्ण वर्चस्व के आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि चौरी-चौरा के उपेक्षित दलित और अल्पसंख्यक स्वाधीनता सेनानियों को सम्मानित कर मोदी-योगी सरकार आज की अपनी अल्पसंख्यक एवं दलित विरोधी दमनात्मक नीतियों से लोगों का ध्यान हटाने में सफलता प्राप्त करे। इसी बहाने यह चर्चा भी जोर पकड़ सकती है कि आंबेडकर को गांधी-नेहरू ने किनारे लगा दिया था किंतु यह मोदी ही थे जिन्होंने आंबेडकर को उनका गौरवपूर्ण स्थान वापस दिलाया। प्रधानमंत्री जी प्रतीकों की राजनीति में निपुण हैं और अपनी असफलताओं एवं वर्तमान समस्याओं से ध्यान हटाकर लोगों को अतीतजीवी बनाए रखने का उनका कौशल अनूठा है।
प्रधानमंत्री जी ने चौरी-चौरा प्रसंग के चयन द्वारा वाम दलों और वाम रुझान रखने वाले बुद्धिजीवियों को असमंजस में डाल दिया है। वाम रुझान रखने वाले इतिहासकारों के एक बड़े वर्ग ने गांधी जी को सम्पूर्ण क्रांति के मार्ग में एक बड़े अवरोध के रूप में चित्रित किया है जिन्होंने अपने करिश्मे और लोगों की धर्मभीरुता का उपयोग जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण की रक्षा हेतु किया था। यह इतिहासकार चौरी-चौरा प्रकरण को गांधी जी के असली वर्ग चरित्र और उनकी वास्तविक प्राथमिकताओं (जो इन इतिहासकारों के मतानुसार शोषकों के पक्ष में थीं) को उजागर करने वाली प्रतिनिधि घटना मानते हैं।
उत्तर प्रदेश में पैर रखने की जगह तलाशती कांग्रेस तथा अपने पिछड़े-अल्पसंख्यक-दलित वोट बैंक को वापस लाने की कोशिश में लगी सपा-बसपा जैसी पार्टियों से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे गांधी और उनकी अहिंसा के समर्थन में खड़ी होंगी। उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव धीरे धीरे निकट आ रहे हैं और इनमें से कोई भी दल अपने वोटरों को नाराज करने वाला कदम नहीं उठाना चाहेगा।
चौरी-चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के गांधी के निर्णय ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम की दिशा तय कर दी थी, यह तय हो गया था कि हमारा स्वाधीनता आंदोलन अहिंसक होगा और नैतिक नियमों के दायरे में होगा। हमने अहिंसक संघर्ष की शक्ति का अनुभव पूरे विश्व को कराया। हमसे प्रेरित हो पूरी दुनिया में अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध होने वाले कितने ही कामयाब आंदोलनों ने अहिंसा की रणनीति अपनाई। किंतु आज ऐसा लगता है कि हम गांधी के उस निर्णय पर शर्मिंदा हैं। हम गांधी की अहिंसा को एक भूल मानते हैं।
प्रधानमंत्री जी का यह भाषण और इस भाषण के बाद बुद्धिजीवी वर्ग में व्याप्त चुप्पी दोनों ही चिंताजनक हैं। हिंसा का आश्रय तो हम पहले से ही लेने लगे थे किंतु क्या अब यह स्थिति भी आ गई है कि हम सार्वजनिक रूप से अहिंसा को खारिज कर गौरवान्वित अनुभव करने लगेंगे? क्या प्रधानमंत्री आंदोलनरत किसानों को यह संदेश देना चाहते हैं कि वे चौरी-चौरा की घटना को अपना रोल मॉडल मानें? क्या प्रधानमंत्री संघ प्रमुख मोहन भागवत के फरवरी 2020 के उस वक्तव्य से असहमत हैं जब उन्होंने सीएए विरोधी आंदोलन कारियों को गांधी जी का उदाहरण देते हुए कहा था कि जब असहयोग आंदोलन हिंसक हो गया और आंदोलनकारी कानून और व्यवस्था भंग करने पर आमादा हो गए तो गांधी जी ने प्रायश्चित किया और आंदोलन रोक दिया?
क्या संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री जी में मतभेद है? या फिर दोनों अपनी सुविधानुसार गांधी का समर्थन और विरोध कर रहे हैं?
क्या हमें साम्प्रदायिक हिंसा का विरोध करते गांधी केवल इसलिए स्वीकार हैं क्योंकि यहाँ हमारे विचार मिलते हैं? किंतु हम चौरी-चौरा की हिंसा की निंदा करते गांधी को नकार देते हैं क्योंकि हमें लगता है कि यह अत्याचारी शासकों एवं शोषकों के विरुद्ध खूनी क्रांति का प्रारंभ था।
क्या हमें मॉब लिंचिंग इसलिए स्वीकार है क्योंकि यह उन लोगों द्वारा की गई है जो हमारी दृष्टि में धर्म रक्षक एवं राष्ट्र भक्त हैं और नक्सल हिंसा इसलिए हमें नागवार गुजरती है कि यह हमारी सत्ता को चुनौती देती है? या हम मॉब लिंचिंग की इसलिए निंदा करते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि में यह धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्मादियों का पागलपन है और नक्सल हिंसा का इसलिए समर्थन करते हैं कि हमारे मन के किसी गुप्त कोने में हिंसक क्रांति द्वारा व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद शेष है?
जब राज्य अपनी नीतियों की समीक्षा एवं समालोचना को षड्यंत्र बताकर असहमत स्वरों को कुचलने के लिए योजनाबद्ध हिंसा और दमन का सहारा लेता है तो क्या इसे न्यायोचित माना जा सकता है?
क्या राज्य की हिंसा को राष्ट्र रक्षा के लिए आवश्यक बताना उचित है? क्या हम अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा जैसी शब्दावली का अविष्कार कर रहे हैं? क्या हम न्यायोचित हिंसा और अन्यायपूर्ण हिंसा जैसी भाषा में सोचने लगे हैं? क्या हमें हिंसा पसंद है किंतु प्रतिहिंसा नहीं? क्या अब हमें नफरत से भी परहेज नहीं है क्योंकि हिंसा और घृणा तो साथ साथ चलते हैं? क्या लोकतंत्र में अब हिंसा को सरकारी स्वीकृति मिल गई है?
चौरी-चौरा प्रकरण से पहले और उसके बाद भी स्थानीय लोग शोषण और दमन के शिकार हुए। इनकी जैसी समझ थी गांधी के विचारों को उन्होंने उसी तरह और उतना ही समझा। उसमें इनका दोष नहीं है। हम भी गांधी को समझ नहीं पाते या अपनी तरह व्याख्यायित कर लेते हैं। इन लोगों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह करना भी नितांत अनुचित है। निश्चित ही यह देश को स्वतंत्र देखने के लिए हर कुर्बानी देने को तत्पर थे। यह भी गलत था कि स्वाधीनता के बाद भी इन्हें और इनके परिजनों को अपराधियों एवं खलनायकों की भांति देखा गया। स्वतंत्र भारत में हमने क्रांतिकारियों की हिंसा से असहमत होते हुए भी उनके कुर्बानी के जज्बे को हमेशा सराहा है। किंतु हमेशा यह रेखांकित भी किया है कि अहिंसा हमारे स्वाधीनता आंदोलन का मूलाधार थी। यही दृष्टिकोण चौरी-चौरा के शहीदों और उनके परिजनों के लिए भी उचित होता।
जवाहरलाल नेहरू ने असहयोग आंदोलन रोकने के गांधी जी के कदम का विश्लेषण करते हुए अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत किया है- "उस समय हमारा आंदोलन बाहर से शक्तिशाली लगने और तमाम जोश के बावजूद बिखर रहा था। संगठन एवं अनुशासन समाप्त हो रहा था। हमारे प्रायः सभी अच्छे लोग कारागार में थे और जनता को तब तक इतना प्रशिक्षण नहीं मिला था कि आंदोलन को स्वयं आगे चला सके। कोई भी अनजान व्यक्ति चाहता तो कांग्रेस की किसी समिति की बागडोर संभाल सकता था। सत्य तो यह है कि ऐसे बहुत से गलत लोग जिनमें अंग्रेजों के एजेंट भी शामिल थे बड़ी संख्या में कांग्रेस और खिलाफत की स्थानीय संस्थाओं में प्रमुख स्थान पा गए थे और उनमें अनेक लोगों ने तो नेतृत्व ही संभाल लिया था। इन लोगों को रोकने का कोई तरीका न था। ------ लोगों की उत्तेजना एवं उत्साह के पीछे ठोस कुछ भी नहीं था। इसमें कम ही संदेह है कि यदि आंदोलन जारी रहता तो अनेक स्थानों पर हिंसा की छिटपुट वारदातें होती रहतीं। इसे सरकार बड़ी बर्बरता से कुचल देती और भय का ऐसा राज्य कायम हो जाता कि लोगों का मनोबल पूर्णतः टूट जाता।"
शायद नेहरू यह कहना चाहते हों कि गांधी की साधन की शुद्धता का आग्रह और अहिंसा की पूजा न केवल नैतिक दृष्टि से सही थी बल्कि रणनीतिक तौर पर भी उचित थी।
यह कहना एकदम अनुचित होगा कि गांधी कभी कोई गलती नहीं कर सकते थे। अपने महापुरुषों के हर आचरण और विचार पर प्रश्न उठाकर, उसे तर्क की कसौटी पर कस कर ही हम इन महापुरुषों की चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं और तब ही हम इन्हें आत्मसात भी कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी गांधी के जीवन में थोड़ा बहुत प्रवेश किया है वे यह जानते हैं कि अपनी आस्थाओं, विश्वासों और यहां तक कि अपनी मानसिक संरचना की सामाजिक-धार्मिक-नैतिक विशेषताओं को भी गांधी ने तर्क और आचरण की कसौटी पर कसने की कोशिश की थी। फिर भी यह बिल्कुल संभव है कि वे कहीं कहीं स्वयं को प्रकृति, समाज और धर्म द्वारा दिए गए गुण-अवगुणों के मूल्यांकन और परिवर्तन-परिष्कार में नाकामयाब रहे हों। किंतु उनके प्रयास की ईमानदारी और गंभीरता पर संशय नहीं किया जा सकता। इसीलिए चंद फतवों और सामान्यीकरणों द्वारा उनका मूल्यांकन दुःखद और निंदनीय है।
पिछले कुछ वर्षों में हमें हिंसा का अभ्यस्त बनाया जा रहा है, हिंसा का विमर्श तभी जीवित रह पाता है जब चारों ओर संदेह, घृणा और अविश्वास का वातावरण हो, वैमनस्य, कटुता और शत्रुता अपने चरम पर हों। प्रधानमंत्री जी ने चौरी-चौरा की हिंसा का समर्थन कर एक तीर से कई शिकार करने का प्रयास किया है- गांधी विरोध, स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक स्वरूप की आलोचना, कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करना, किसानों की सहानुभूति प्राप्त करना, दलितों एवं अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण, वामपंथी शक्तियों को असमंजस में डालना आदि आदि। किंतु भय यह है कि इस घातक तीर का शिकार हमारी सामाजिक समरसता और बहुलवाद पर आधारित हमारा लोकतंत्र ही न हो जाएं।
(डॉ. राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक और विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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