व्यवसायिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य कोड 2020: श्रमिकों के लिए व्यवसायिक संरक्षा कम की गई
श्रमिक कानूनों का मोदी जी के लिए एक ही मतलब है। वे इन्हें औद्योगिकरण, निवेश और आर्थिक विकास के रास्ते में रोढ़ा समझते हैं। वे इस फिराक़ में हैं कि किसी भी कीमत पर श्रम कानूनों को कमजोर करें या पूरी तरह खत्म ही कर दें। यदि हम अपने शब्दों में कहें तो ‘‘फासीवादी लोकतंत्र’’ के उनके मॉडल में श्रम अधिकारों और उन्हें नियंत्रित करने वाले संवैधानिक उसूल व कार्यस्थल पर लोकतंत्र, जो उत्पादन और सेवाओं में स्थायीत्व के लिए अत्यावश्यक हैं, का कोई महत्व नहीं है। यह लेबर कोड ऑन ऑक्युपेश्नल सेफ्टी, हेल्थ ऐण्ड वर्किंग कंडिशन्स 2020 (Labour Code on Occupational Safety, Health and Working Conditions 2020) या ओएसएच (OSH) को देखने भर से ही स्पष्ट हो जाता है।
आप कह सकते हैं कि मोदीजी यदि अपने प्रिय मेक-इन-इंडिया प्रोजेक्ट के लिए विदेशी पूंजी के कुछ अधिक डॉलर जुटाने के लिए श्रम अधिकारों को नीलाम कर देना चाहते हैं, तो श्रम व विधि मंत्रालयों में बैठे उनके नौकरशाह श्रम कानूनों को पुनर्गठित करने के मामले में उनसे एक कदम आगे हैं, क्योंकि उनकी मनोवृत्ति घोर श्रमिक-विरोधी है। यह काफी शर्मनाक बात है कि वे तकरीबन 8 करोड़ श्रमिकों के आजीविका, संरक्षा और सुरक्षा के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं रखते। यह इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि कानून को लागू करने में कई किस्म के अपवर्जन डाले गए है। मस्लन वे उन सारे प्रतिष्ठानों को OSH के दायरे से बाहर कर चुके हैं जिनमें 10 से कम श्रमिक हैं।
छूट के लिए सीमा बढ़ाई और कवरेज घटाया
ऐनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज़ (Annual Survey of Industries) के डाटा का समानुक्रमण करके शॉन एम डोअर्टी, रिचर्ड हर्ड और थॉमस शलॉव ( Sean M Dougherty, Richard Herd and Thomas Chalaux) ने अपने अध्ययन ‘व्हॉट इज़ होल्डिंग बैक प्रोडक्टिविटी ग्रोथ इन इंडिया? रीसेंट माइक्रोएविडेंस’, (What is holding back productivity growth in India? Recent microevidence) जो ओईसीडी जर्नलः इकनॉमिक स्टडीज़ (OECD Journal: economic studies) में प्रकाशित हुआ था, कि भारत के 87 प्रतिशत उत्पादन (manufacturing) फर्म माइक्रो हैं, जिनमें 10 से कम श्रमिक हैं। यही फर्म कुल उत्पाद (output) का 1/3 हिस्सा देते हैं। इन्हीं में कार्यस्थिति सबसे बुरी होती है। पर हमारे बद-दिमाग और हठी नौकरशाह करीब 90 प्रतिशत औद्योगिक श्रमिकों को व्यवसायिक संरक्षा व स्वास्थ्य पर वैधानिक सुरक्षा से वंचित रखना चाहते हैं।
इसके मायने हैं कि छठे आर्थिक सेन्सस की गणना (जनवरी 2013 से अप्रैल 2014) के अनुसार 1 करोड़ 3 लाख में से 89.61 लाख औद्योगिक प्रतिष्ठानों को वर्तमान कोड के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इसका मतलब है 3.04 करोड़ कुल औद्योगिक मजदूरों में से 2.736 करोड़ संरक्षा व स्वास्थ्य के मामले में बिना किसी सुरक्षा के, एक स्वेच्छाचारी राज में जीने के लिए अभिशप्त हैं।
यहां तक तो बात समझ में आती है (भले ही इसपर बहस है) कि औद्योगिक विवाद कोड के तहत किसी ट्रेड यूनियन के पंजीकरण के लिए सीमा रखी गई है, पर यह समझ के बाहर है कि वेतन, सामाजिक सुरक्षा और व्यवसायिक संरक्षा पर कानून को लागू करने में सीमा क्यों तय की गई। संरक्षा और स्वास्थ्य से श्रमिकों की संख्या का क्या संबंध है? इसलिए मसौदा लेबर कोड ऑन ऑक्युपेश्नल हेल्थ ऐण्ड वर्किंग कंडिशन्स बिल 2019 की जांच करने वाली संसदीय स्थायी समिति में वाम दल प्रतिनिधियों ने सही प्रश्न किया था कि श्रमिकों की संख्या को आधार बनाकर कोई सीमा कैसे तय की जा रही? पर श्रम मंत्रालय के नौकरशाह अपनी ढिठाई से बाज न आए और इस कानून को लागू करने के लिए बिजली से चलने वाले प्रतिष्ठानों में 20 वर्करों की सीमा और बिना बिजली के चलने वाले प्रतिष्ठानों में 40 वर्करों की सीमा तय कर दिये।
अबतक व्यवसायिक संरक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दे पर वैधानिक सुरक्षा फैक्टरीज़ ऐक्ट के तहत आने वाले फैक्टरी मजदूरों तक सीमित था। खनन और निर्माण जैसे क्षेत्रों के लिए क्षेत्र-विशिष्ट या सेक्टर-स्पेसिफिक कानून और सरकारी कर्मचारियों के लिए बनाए गए नियमों में तक उन कर्मियों के व्यवसायिक संरक्षा व स्वास्थ्य के लिए कुछ विशेष प्रावधान थे। पर सर्विस सेक्टर के एक बहुत बड़े हिस्से को ऐसे अलग कर दिया गया मानो कि उनका व्यवसायिक संरक्षा व स्वास्थ्य तथा कार्यस्थिति से जुड़े मुद्दों से कोई लेना-देना ही न हो। वह भी उस स्थिति में जब भारत में सर्विस सेक्टर का काफी विस्तार हुआ है, यहां तक कि 2019-20 में उद्योगों के सकल मूल्य वर्धित (Gross Value Added) 29.6 प्रतिशत योगदान (इसमें इन्फ्रास्ट्रक्चर समाहित है) या कृषि व सम्बद्ध उद्योगों के 16.5 प्रतिशत योगदान की तुलना में सर्विस सेक्टर द्वारा 55.3 प्रतिशत जीवीए योगदान कहीं अधिक है। और, देश की कुल कार्यशक्ति में उद्योगों की 26.18 प्रतिशत कार्यशक्ति और कृषि की 41.49 प्रतिशत कार्यशक्ति है, तो सेवा क्षेत्र की कार्यशक्ति 32.33 प्रतिशत है, जो कम नहीं है।
लम्बे समय से ट्रेड यूनियन इस बात के लिए लड़ते रहे हैं कि दुकानें और स्थापना अधिनियम में कार्यस्थिति संबंधित बहुत सारे प्रावधानों को विके्रता सहायकों और आईटी व सफेदपोश कर्मचारियों जैसे सेवा क्षेत्र कर्मियों के लिए भी लागू किया जाए। वे ओएसएच कोड के तहत इन्हें ले आने में सफल भी हुए। पर मोदीजी के असहिष्णु नौकरशाहों ने पुनः मनमानी करके एक्सक्लूजन की सीमा बढ़ा दी और कवरेज को घटा दिया।
ओएसएच कोड किसी प्रतिष्ठान की परिभाषा इस रूप में देता है- ‘ऐसी जगह जहां उद्योग, व्यापार, बिज़नेस, उत्पादन या पेशा चलता है और जिसमें 10 या अधिक कर्मी कार्यरत हैं।’ पर खास तौर पर उद्योगों के लिए इस संख्या को 20 (जहां विद्युत इस्तेमाल होता है) और 40 (जहां विद्युत का प्रयोग नहीं है) किया गया है। यह फैक्टरीज़ ऐक्ट के प्रावधान का दूना है। पर सीपीएम के श्रमिक नेता ईलंगोवन रामलिंगम का कहना है, ‘‘दरअसल वाम दलों के नेताओं ने श्रम पर संसदीय स्थायी समिति की बैठक में 2019 के ओएसएच कोड संबंधी बिल पर बहस के दौरान सीमा को दूना करने का विरोध किया था और इसे रिपोर्ट में लाया गया था। पर मोदी सरकार ने उस वैधानिक फोरम को धता बता दिया, जो उच्च न्यायपालिका के लिए मसौदा कानूनों की जांच करता है और जिसने विवादास्पद मुद्दों पर हाल में कई ऐतिहासिक फैसले भी दिये हैं। भारतीय वैधानिक परंपरा में यह चिर-परिचित उक्ति है कि जहां वैधानिक शून्यता होती है, वहां सर्वोच्च न्यायालय जो कहता है वह देश का कानून बन जाता है। पर मोदी जी के अधिकारियों के अनुसार यह नौकरशाहों पर लागू नहीं होता।
‘‘उदाहरण के लिए, ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों के लिए वर्तमान कानून ने कोड लागू करने के लिए 20 श्रमिकों की सीमा तय की है और 2019 के मसौदा कोड बिल में भी यह संख्या 20 थी (पावर वाली इकाइयों के लिए 10 और बिना पावर वालों के लिए 20) पर जब कोड का अंतिम प्रारूप तैयार किया गया, उसमें सीमा को बढ़ाकर 50 कर दिया गया; यह वर्तमान ठेका मजदूर कानून (Contract Labour(Regulation and Abolition) Act 1970) के प्रावधान के पूरी तरह से खिलाफ है और इस सवाल पर कानूनों में विसंगति पैदा करता है।
दरअसल, मोदी सरकार शुरू में कानून को ठेका मजदूरों पर लागू करने हेतु अधिकतम सीमा 300 वर्कर करना चाहती थी, पर सभी यूनियनों के कड़े विरोध के चलते इसे घटाना पड़ा। यह ट्रेड यूनियनों के लिए आंशिक विजय है। पर वे नौकरशाहों को व्यवहारिक ज्ञान नहीं दे पाए कि कोड में पहले की तरह इस संख्या को 10 और 20 क्रमशः छोड़ दिया जाए ताकि अन्य कानूनों के साथ टकराव न हो। ट्रेड यूनियनों ने एक और सफलता हासिल की। 2019 कोड बिल कार्यघंटों को ‘‘राज्यों द्वारा निर्धारित’’ रहने देना चाहते थे; वे कोड के तहत बनाए गए नियम में इसे 8 घंटे प्रतिदिन, 48 घंटे प्रति सप्ताह और 8 घंटों को दिन के बारह घंटों के बीच फैलाकर रखवाने में सफल रहे। यह प्रमुख सफलता कही जाएगी।’’
श्री इलंगोवन ने कहा; उन्होंने स्वयं लगकर यूनियनों को तर्कों से लैस किया था कि वे कैसे सुपरवाइज़रों को कोड से बाहर करने का पुरजोर विरोध करें, पर कोड के अंतिम प्रारूप में यह शामिल नहीं किया गया, मानो उनके स्वास्थ्य व संरक्षा से जुड़े मामले कुछ हैं ही नहीं।
ठेका मजदूर कानून, अंतर-राज्यीय प्रवासी कामगार अधिनियम, बीड़ी तथा सिगार कर्मकार अधिनियम, वृक्षारोपण श्रम अधिनियम सभी समग्र कानून थे और श्रमिकों के अलग-अलग श्रेणियों के कार्यस्थितियों व उनके व्यवसायिक संरक्षा को ध्यान में रखते थे। पर दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि सरकारी नौकरशाहों ने समस्त कानूनों को एक ओएसएच कोड में समाहित करने के नाम पर मनमाने तरीके से इन सभी कानूनों को एक झटके में खत्म कर दिया। अब ढेर सारे मुद्दों पर वैधानिक शून्यता की स्थिति है, जो न्यायपालिका के लिए भी सिरदर्द बनेगी।
फिर, केंद्र व राज्य सरकार के कार्यालय/कर्मचारियों को ओएसएच कोड से बाहर क्यों रखा गया है? सरकार तर्क देती है कि उनकी व्यवसायिक संरक्षा उनके सेवा नियमों में शामिल है। पर यह बहुत ही अस्पष्ट है। यह सच है कि जैसे मजदूरों के लिए ईएसआई अस्पतालों का प्रावधान है, केंन्द्रीय कर्मचारियों के लिए सीजीएचएस का प्रावधान है, जो उनके स्वास्थ्य की देखभाल करता है। पर उनके व्यवसायिक संरक्षा का मामला भी तो है, उसका क्या। मस्लन लगभग सभी सरकारी कार्यालयों का काम डिजिटाइज़ हो गया है और सरकार के ई-गवर्नैंस योजना के तहत बिना कागज के काम ही मानदंड बन गया है। इसके चलते अधिकतर कर्मचारियों को कम्प्यूटर मॉनिटरों के सामने दिन-दिन भर बैठे रहना पड़ता है। इससे स्वास्थ्य पर भयानक नकारात्मक असर पड़ता है। अब कोई ऐसा कानून नहीं है जो सरकार को बाध्य कर इस व्यावसायिक खतरे या हज़ार्ड का समाधान करे। अब क्योंकि ओएसएच कोड वह प्रमुख कानून होगा जिसके तहत सभी वैतनिक कर्मचारियों के व्यवसायिक संरक्षा और स्वास्थ्य का मामला आएगा, तो इस कानून को चाहिये कि वह मूल सिद्धान्त को ठीक तरह से बताए ताकि सरकारी कर्मचारियों के लिए बने अन्य नियम-कानून उनसे बहुत पृथक न हों। पर सरकार अपने कर्मचारियों के प्रति अपने कर्तव्य से जान छुड़ाती है।
फिर, कुछ विसंगतियां भी हैं। उदाहरण के लिए, रेलवे कर्मचारियों को लिया गया है, पर रेलवे द्वारा संचालित शेड या होटल, रेस्तरां आदि के कर्मी और केटरिंग वर्करों को बेवजह ही नहीं रखा गया। इसी तरह ओएसएच कोड ने ‘‘इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग यूनिट (electronic data processing unit) या किसी जगह चल रहे कम्प्यूटर यूनिट या किसी प्रतिष्ठान के किसी हिस्से में चल रही ऐसी इकाई’’ को यह कहकर छोड़ दिया है कि ‘‘उसे फैक्टरी नहीं समझा जाएगा, यदि उसमें कोई उत्पादन कार्य नहीं होता’’। इसकी वजह से डिजिटल वर्करों और आईटी (IT) वर्करों को कवर करने के बारे में अस्पष्टता रह जाती है। यद्यपि आईटी इकाइयां इस ओएसएच कोड के अंतर्गत आती हैं, कई इकाइयां कानून से बचने के लिए दावा करती हैं कि वे औद्योगिक इकाइयां हैं और आईटी काम आईटी विंग करती है।
मद्रास हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि आईटी वर्करों को औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत कवर किया जा रहा है क्योंकि वे दुकानें और स्थापना अधिनियम के अंतर्गत आते हैं; इसे बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन दिया। पर उक्त कानून इसपर भ्रम जैसी स्थिति पैदा करता है। आज के डिजिटल युग में एसएमईज़ तक डिजिटलाइजेशन (digitalization)से बच नहीं सकते तो इन कर्मियों को अलग कर देना श्रमिकों के एक बड़े हिस्से को व्यवसायिक संरक्षा कानून के दायरे से बाहर कर देगा। ऐसे कई अध्ययन हैं जिनमें दिखाया गया है कि कम्यूटर मॉनिटर के सामने बैठकर 8 घंटे काम करने से पीठ में दर्द, नेत्रों से जुड़ी समस्याएं और महिलाओं को प्रजनन-संबंधी समस्याएं हाती हैं, खासकर माहवारी और गर्भावस्था के समय। इन समस्याओं का समाधान ढूंढने की जगह ओएसएच कोड, बिना कोई कारण बताए, इन कर्मचारियों को ओएसएच कोड से ही बाहर कर रहा है।
आप यह भी देख सकते हैं कि गिग वर्कर (gig workers)और प्लैटफार्म वर्करों के लिए कोई व्यवसायिक संरक्षा नहीं है और डिलिवरी वर्कर भी बंगलुरु और मुम्बई जैसे मेट्रो शहरों में 40-50 डिलिवरी प्रतिदिन करते हैं, जो उन्हें बहुत घने ट्रैफिक के बीच घुसकर करना होता है। इसकी वजह से उनके बीच दुर्घटनाओं की संख्या काफी अधिक है और सरकार ने स्वयं कहा था कि इन्हें सामाजिक सुरक्षा के अधीन लाना होगा। पर ओएसएच कोड इन्हें व्यवसायिक संरक्षा से पूरी तरह बाहर रखता है।
संघवाद को रौंधा गया है
मोदी सरकार ‘सहकारी संघवाद’ (co-operative federalism) की बात करती है पर ‘कोऑपरेशन’ केवल श्रम-विरोधी मुद्दों पर दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए ओएसएच कोड ने राज्यों को छूट दे दी है कि ओएसएच कोड के तहत श्रमिकों की संख्या की सीमा प्रत्येक राज्य अपने हिसाब से बढ़ा सकता है। इसी तरह ओएसएच कोड राज्य सरकारों को अधिकार देता है कि वे किसी भी उद्योग या स्थापनाओं की किसी भी श्रेणी अथवा ठेकेदारों की किसी भी श्रेणी को कानून लागू होने के पश्चात किसी भी समय-अंतराल के लिये कानून से बाहर रख सकती हैं। आगे, कोड के प्रावधान 127(2) के तहत राज्य सरकारें नए उद्योगों की किसी भी श्रेणी को ‘‘आर्थिक गतिविधि बढ़ाने हेतु’’ इस कानून के दायरे से बाहर रख सकती हैं।
पर जहां राज्यों के पास अधिक विकसित संरक्षात्मक प्रावधान थे, अब वे इस केंद्रीय अधिनियम और उसके नियमों (rules) की वजह से इन्हें नहीं बचा पाएंगे। मस्लन जहां तक काम के दौरान श्रमिकों द्वारा गर्मी के कारण दिक्कत (heat stress) झेलने की बात है, पूर्व फैक्टरीज़ ऐक्ट ने इस बात को राज्यों पर छोड़ दिया था कि वे अपने राज्यस्तरीय नियमों में ‘अधिकतम कार्यक्षेत्र तापमान’ तय करें। तो तमिलनाडु फैक्टरी रूल्स में तय किया गया था कि कार्यक्षेत्र (न कि केवल कार्यस्थल) का अधिकतम तापमान 30 डिग्री सेल्सियस तय होगा। पर व्यवहार में श्रमिकों को कुछ राज्यों में गर्मी के मौसम में 44-48 डिग्री सेल्सियस तापमान में काम करना पड़ता है। यदि श्रम आन्दोलन दुकानें और स्थापना अधिनियम के लिए भी इसे लागू कराने की मांग को हासिल कर लेता तो गर्मियों में जब तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से बढ़ता, तमिलनाडु के समस्त कार्यालयों और दुकानों में मालिकों को एसी लगाना पड़ता। वैसे भी सभी फैक्टरियों में केंद्रीय वातानुकूलन की सुविधा होनी चाहिये। पर यह नहीं होता। यूएस में 32.5 डिग्री सेल्सियस को अधिकतम कार्यक्षेत्र तापमान माना गया है। ओएसएच कोड ने इसे तय न करके इसे नियमों में शरीक करने के लिए छोड़ दिया है पर नियमों ने भी इस विषय पर चुप्पी साध ली है। मोदी के नौकशाहों की ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न लगा है।
व्यवसायिक संरक्षा पर महामारी के असर को किया नज़रअंदाज
दूसरी ओर, मोदी सरकार ने इस कानून को भयंकर महामारी के दौर में पारित किया, पर इस कानून में महामारी के दौरान श्रमिकों की संरक्षा और स्वास्थ्य के बारे में एक शब्द नहीं है। क्या नौकरशाह श्रमिकों की भलाई पर इस कदर आंख मूंदे हुए हैं कि महामारी से भी उनकी आखें न खुल सकीं? लॉकडाउन के दौर में आवश्यक सेवा कर्मचारियों को छोड़कर बाकी के लिए अनिवार्य अवकाश का मुद्दा, श्रमिकों के लिए ओवरटाइम वेतन, खासकर जो आवश्यक सेवाओं में दिन-रात जुटे हैं या फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मी हैं, लॉकडाउन पीरियड में पूर्ण वेतन और मालिकों के खर्चे पर कर्मचारियों के लिए अनिवार्य पीपीई की व्यवस्था जैसे मसले महामारी के दौर में उठे हैं और सरकारों को श्रमिकों के हित में आदेश देने पड़े। पर आज सरकार ऐसा कानून पारित कर रही है जो इन सारे मसलों को ताक पर रख रहा है क्योंकि इन मुद्दों को ओएसएच कोड में नजरअंदाज कर दिया गया है। लगता है जैसे ये मसले व्यवसायिक संरक्षा एवं स्वास्थ्य के दायरे से बाहर हैं।
अनौपचारिक श्रमिकों क बीच व्यवसायिक संरक्षा के मानदंड बिरले ही लागू किये जाते हैं। उदाहरण के लिए न्यायपालिका व यूनियनों द्वारा 2 दशक के संघर्ष के बावजूद कार्यपालिका हाथ से मैला साफ करना या मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त न कर पाया। सेप्टिक टैंकों (septic tanks) में घुसकर सैकड़ों श्रमिक जान से हाथ धो बैठते हैं। श्रम व रोजगार मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2016 तक 3562 व्यवसायिक मौतें हुईं। ब्रिटिश स्टडी काउंसिल ने 2017 में एक अध्ययन किया था जिसके अनुसार भारत में प्रति वर्ष 48,000 व्यवसायिक मौतें होती हैं, जबकि देश में व्यवसायिक संरक्षा संबंधित 13 कानून लागू हैं! देश में महामारी के दौर में 1 लाख से अधिक मौतें हुईं, जिसमें अधिकतर कार्यस्थल पर संक्रमण के कारण हुईं, जबकि 3 माह तक पूर्ण लॉकडाउन रहा। अब ये 13 कानून ओएसएच कोड में ‘‘समाहित किये गए’’ हैं और यह देखना बाकी है कि इनका कोई अतिरिक्त प्रभाव है कि ये केवल दिखावेबाजी का एक और नमूना है।
(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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