महाराष्ट्र और राजस्थान में अब फिर चलेगा 'ऑपरेशन कमल’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'विपक्ष-मुक्त भारत’ अभियान के तहत अब महाराष्ट्र के साथ ही एक बार फिर राजस्थान सरकार भी भाजपा के निशाने पर अब आ गई है। महाराष्ट्र की तरह राजस्थान में भी भाजपा नेताओं ने ऐलान कर दिया है कि राज्य में कांग्रेस की सरकार कुछ ही दिनों की मेहमान है। हालांकि दोनों ही राज्यों में सत्ता पर काबिज होने की भाजपा की अनैतिक कोशिशें एक-एक बार नाकाम हो चुकी हैं। लेकिन भाजपा नेताओं के ताजा बयानों से जाहिर है कि आने वाले दिनों में दोनों ही राज्यों में ऑपरेशन कमल यानी मध्य प्रदेश जैसा प्रयोग एक बार फिर दोहराया जाएगा।
राजस्थान में विधानसभा में भाजपा और विपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया ने 'इंडिया टुडे’ से बातचीत में कहा है कि आगामी छह महीने में अशोक गहलोत सरकार गिर जाएगी और उसके बाद भाजपा सरकार बनाएगी। ऐसा ही ऐलान पिछले दिनों महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार के लिए भी भाजपा की ओर से किया गया था। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और केंद्रीय मंत्री रावसाहेब दानवे ने कहा था कि महाराष्ट्र में जल्द ही भाजपा की सरकार होगी। राजस्थान में तो खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी कहा है कि गृह मंत्री अमित शाह उनकी सरकार को गिराने की कोशिश कर रहे हैं। गहलोत ने 'एनडीटीवी’ से बातचीत में दावा किया है कि शाह ने हाल ही में कांग्रेस के कुछ विधायकों से संपर्क साधा था और कहा था कि वे पांच राज्यों में सरकारों को गिरा चुके हैं और छठा नंबर राजस्थान का होगा।
गहलोत ने भाजपा को अपने दावे का खंडन करने चुनौती भी दी है, लेकिन भाजपा की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई गई। बहरहाल, राजस्थान और महाराष्ट्र के शीर्ष भाजपा नेताओं के बयान इस बात का संकेत हैं कि दोनों राज्यों में एक बार फिर 'ऑपरेशन कमल’ की तैयारी चल रही है, जिसकी कामयाबी को लेकर भाजपा के सूबेदार आश्वस्त हैं। 'आपरेशन कमल’ का मतलब है किसी भी राज्य में विपक्ष की सरकार नहीं रहने देना और भाजपा की सरकार बनाना। मीडिया का एक बडा हिस्सा भाजपा की इस राजनीतिक नंगई को 'मास्टर स्ट्रोक’ भी कहता है।
हालांकि महाराष्ट्र और राजस्थान में भाजपा के भीतर भी बहुत कलह मची हुई है। महाराष्ट्र में पिछले दिनों पार्टी के कद्दावर नेता एकनाथ खडसे के एनसीपी में शामिल हो जाने के बाद यह कलह खुल कर सामने आ गई है, तो राजस्थान में वसुंधरा राजे को पार्टी का शीर्ष नेतृत्व राज्य की राजनीति से दूर करना चाहता है। लेकिन दूसरी ओर महाराष्ट्र में महाविकास अघाडी यानी शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।
कांग्रेस के कई नेता मंत्री न पाने की वजह से दुखी हैं तो जो मंत्री बने हुए हैं वे कुछ अन्य कारणों से असंतुष्ट हैं। इसी तरह राजस्थान में भी स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा है, जिसे अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच चल रहे टकराव का नतीजा माना जा रहा है। इसलिए महाराष्ट्र और राजस्थान के भाजपा नेता जल्द ही जिस उलटफेर के होने का दावा कर रहे हैं, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।
हालांकि दोनों राज्यों की विधानसभा में विभिन्न दलों का संख्याबल ऐसा है कि वहां मध्य प्रदेश या कर्नाटक की तरह खेल होना आसान नहीं है। महाराष्ट्र में 288 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत का आंकडा 145 होता है, जबकि भाजपा के पास अपने सिर्फ 105 विधायक हैं। अगर वह 13 निर्दलीय और कुछ अन्य छोटी पार्टियों के इक्का-दुक्का विधायकों का समर्थन भी हासिल कर लेती है तो उसकी यह संख्या 125 से आगे नहीं पहुंचती है।
इस संख्याबल के सहारे वह तभी सरकार बना सकती है जबकि सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल दलों के 25-30 विधायक विधानसभा से इस्तीफा दे दे, जैसा कि मध्य प्रदेश और कर्नाटक में हुआ था। ऐसा होना असंभव तो नहीं, मगर मुश्किल जरूर है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह जिस तरह की राजनीति करते हैं, उसके चलते यह बहुत मुश्किल भी नहीं है। दूसरी सूरत में उलटफेर तब हो सकता है, जब गठबंधन ही बदल जाए। यानी शिवसेना और एनसीपी में से कोई एक पार्टी भाजपा के हो जाए।
राजस्थान में भी संख्याबल के लिहाज से मध्य प्रदेश या कर्नाटक जैसा खेल होना बहुत आसान नहीं है। वहां 200 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के 107 विधायक हैं, और उसे 12 निर्दलीय तथा तीन अन्य विधायकों का समर्थन हासिल है। दूसरी ओर भाजपा के विधायकों की संख्या 72 है और एक निर्दलीय तथा एक स्थानीय पार्टी के 3 विधायक उसके खेमे में हैं। दो सीटें रिक्त हैं। इस स्थिति में वहां भाजपा को अपना बहुमत बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन दे रहे सभी 12 निर्दलीय विधायकों को अपने खेमे में लाने के साथ ही कांग्रेस के कम से कम 22 विधायकों के विधायकों के इस्तीफे कराना होंगे।
जो भी हो, महाराष्ट्र और राजस्थान के शीर्ष भाजपा नेताओं ने अगर उद्धव ठाकरे और अशोक गहलोत सरकार की विदाई का गीत गुनगुनाया है तो उसे अनसुना नहीं किया जा सकता। इस गीत के मुखड़े को दिल्ली में शीर्ष स्तर पर किसी ने लिख कर अपने सूबे के साजिंदों को थमाया है। इसे लिखने की प्रेरणा भी निश्चित ही मध्य प्रदेश के 'ऑपरेशन कमल’ की 'ऐतिहासिक' कामयाबी से ही मिली होगी। वहां भी 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद से ही भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से प्रादेशिक नेताओं तक ने कहना शुरू कर दिया था कि वे जिस दिन चाहेंगे, उस दिन कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिरा देंगे। उन्होंने जो कहा था, उसे महज 15 महीने बाद ही सचमुच करके दिखा भी दिया।
गौरतलब है कि इसी साल मार्च महीने में एक चौंकाने वाले घटनाक्रम के तहत पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए थे। उनके साथ कांग्रेस के 22 विधायकों ने भी कांग्रेस पार्टी और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था, जिसके चलते सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्ममत में आ गई थी। सरकार को समर्थन दे रहे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कुछ निर्दलीय विधायकों के लिए भी कांग्रेस पर आई यह 'आपदा’ एक तरह से 'अवसर’ साबित हुई थी। वे भी पाला बदल कर भाजपा के साथ चले गए थे।
भाजपा को दोबारा सत्ता हासिल करने का सपना सिर्फ 15 महीने बाद ही साकार हो गया। कांग्रेस सत्ता से रुखसत हो गई। विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत में आ गई और इसी के साथ एक बार फिर सूबे की सत्ता के सूत्र भी उसके हाथों में आ गए। विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हुए विधायकों में से कई को उनके मनचाहे विभाग का मंत्री बनाया दिया गया तो कई को निगम-मंडलों का अध्यक्ष।
इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया। इस प्रकार विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं, जिन पर पिछले दिनों उपचुनाव हुए। भाजपा को 230 सदस्यों की विधानसभा में बहुमत के लिए महज आठ विधायकों की जरूरत थी, लेकिन वह उपचुनाव वाली 28 में से 19 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसे आरामदायक बहुमत हासिल हो गया।
'ऑपरेशन कमल’ के भविष्य के लिहाज से मध्य प्रदेश के उपचुनाव नतीजे बेहद महत्वपूर्ण हैं। अब तक भाजपा ने 'ऑपरेशन कमल’ के तहत विभिन्न राज्यों में विपक्षी दलों के विधायकों और सांसदों के इस्तीफ़े कराए हैं। फिर उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ा कर विधायक या सांसद बनाया है। इसी रणनीति के सहारे उसने कर्नाटक, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें गिराकर या उन्हें सरकार बनाने से रोक कर अपनी सरकारें बनाई हैं। इसी रणनीति से उसने राज्यसभा में भी अपनी ताकत में जबरदस्त इजाफा किया है।
मध्य प्रदेश में भी उसने इसी 'ऑपरेशन कमल’ के जरिए अपनी सरकार बनाई थी, लेकिन इस ऑपरेशन की असल परीक्षा उपचुनाव में ही होनी थी, जो हो चुकी है। कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में आए ज्यादातर पूर्व विधायक उपचुनाव जीत गए हैं, लिहाजा माना जा सकता है कि उसका ऑपरेशन बहुत हद तक कामयाब रहा। हालांकि राजस्थान और महाराष्ट्र में भी भाजपा एक-एक बार तो इस सिलसिले में कोशिश कर चुकी है, लेकिन उसमें उसे कामयाबी नहीं मिली। लेकिन अब मध्य प्रदेश की कामयाबी से दूसरे राज्यों में इसे आजमाने का रास्ता खुल गया है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के 'विपक्ष-मुक्त भारत’ अभियान के तहत ऐसा होना स्वाभाविक भी है। महाराष्ट्र और राजस्थान में तो इसे जल्द आजमाने का संकेत वहां के शीर्ष भाजपा नेता दे ही चुके हैं।
महाराष्ट्र के अलावा झारखंड, हरियाणा तथा एक बार फिर राजस्थान में भी भाजपा इस फार्मूले को आजमा सकती है। खबर है कि हरियाणा में कांग्रेस के कुछ विधायकों को मध्य प्रदेश की तर्ज पर विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने और उपचुनाव लड़ने का प्रस्ताव मिल चुका है। झारखंड में भी कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कई विधायकों के सामने यह प्रस्ताव लंबित है।
इन राज्यों में तमाम दूसरी पार्टियों के विधायकों की नजर भी मध्य प्रदेश के उपचुनावों पर टिकी हुई थी। अगर कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा आए ज्यादातर पूर्व विधायक चुनाव नहीं जीत पाते तो ऐसी स्थिति मे 'ऑपरेशन कमल’ पर ब्रेक लग सकता था। क्योंकि कोई भी विधायक अपनी विधानसभा की सदस्यता को खतरे में डालने का जोखिम मोल नहीं ले सकता, खासकर ऐसे राज्यों में जहां विधान परिषद नहीं है।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र में विधान परिषद है। वहां अगर भाजपा 'ऑपरेशन कमल’ के जरिए अपनी सरकार बना लेती है तो वह विधानसभा चुनाव हारने वाले को उच्च सदन यानी विधान परिषद मे भेज सकती है। लेकिन राजस्थान, हरियाणा और झारखंड में यह सुविधा यानी विधान परिषद नहीं है।
बहरहाल आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि महाराष्ट्र और राजस्थान में लोकतंत्र का किस तरह चीरहरण होता है, वहां भाजपा 'ऑपरेशन कमल’ को किस तरह अंजाम देती है और अपनी सरकार बनाती है।
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