“लोगों को यह समझना होगा कि वास्तविकता वह नहीं होती जिसे टीवी पर दिखाया जाता है”
अरुंधति रॉय। फ़ोटो साभार : Flickr
एक दिलचस्प चर्चा में, प्रख्यात लेखिका, जानी-मानी बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय ने कई मुद्दों पर चर्चा की – जिनमें अपनी मलयाली जड़ों और पितृसत्ता से लेकर केरल की राजनीति, हिंदुत्व, जाति, कॉर्पोरेट लालच से लेकर यूट्यूबर्स और युवा पीढ़ी की आंतरिक दुनिया जैसे मुद्दों पर चिंता प्रकाशनों के मुख्य संपादक केएस रंजीत के साथ बातचीत की। यह साक्षात्कार देशाभिमानी साप्ताहिक के ओणम विशेष अंक में प्रकाशित हुआ था। हम इसके अनुवाद किए गए अंश यहां पेश कर रहे हैं:
1. चलिए केरल की आपकी पृष्ठभूमि से जुड़े एक सवाल से शुरू करते हैं। ऐसा लगता है कि ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ आपके शांत व्यक्तिगत अनुभवों को दर्शाता है... केरल के बाहर जन्मी और पली-बढ़ी एक व्यक्ति के रूप में, क्या आपका आंतरिक स्वभाव अभी भी केरल के साथ खुद को मजबूती से जोड़ता है?
गॉड ऑफ स्माल थिंग जितना शांत और व्यक्तिगत है, उतना ही सार्वजनिक और राजनीतिक भी है। हां, मेरा जन्म शिलांग में हुआ था। लेकिन मेरे माता-पिता - मेरे पिता बंगाली थे - का तलाक तब हुआ जब मैं तीन साल से भी कम उम्र की थी। मैंने अपना बचपन केरल में बिताया। अयेमेनम और कोट्टायम में। मैं कुछ सालों तक बोर्डिंग स्कूल में रही, लेकिन छुट्टियों में हमेशा घर आ जाती थी। मैं मीनाचिल में बड़ी हुई। मैं धाराप्रवाह मलयालम बोलना, पढ़ना और लिख भी लेती थी। केवल, उन दिनों, हमें मलयालम बोलने के लिए वास्तव में दंडित किया जाता था और अंग्रेजी में बात करने के लिए मजबूर किया जाता था। मैं इतने लंबे समय से यहां से दूर रही हूं कि मेरी मलयालम थोड़ी खराब हो गई है। मेरा आंतरिक और बाहरी स्वभाव - दोनों पूरी तरह से केरल से पहचान रखते हैं। मुझे केरल का परिदृश्य पसंद है। भोजन पसंद है। सबसे बढ़कर मुझे इस बात पर बहुत गर्व है कि कैसे इसने देश के बाकी हिस्सों में जो कुछ हुआ है उसका सामना किया है - हिंदू वर्चस्ववाद की यह लहर जो हमारे ऊपर बह गई है। हम बहुत गर्वित लोग हैं। हम फासीवाद की घोर मूर्खता का शिकार यहां नहीं हुए हैं।
2. आम तौर पर, मध्य त्रावणकोर में उच्च वर्ग के ईसाई परिवार, बहुत ही रूढ़िवादी सामाजिक और राजनीतिक मूल्यों को बनाए रखते हैं। लेकिन हम सभी आपकी मां की पितृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई और ईसाई महिलाओं की स्थिति में किस तरह से क्रांतिकारी बदलाव आया, इसके बारे में जानते हैं। क्या यह आपके भीतर की राजनीतिक शख़्सियत और कार्यकर्ता को जगाता है?
मेरे बारे में लगभग सब कुछ, व्यक्तिगत रूप और साथ ही राजनीतिक रूप से, एक लेखक के रूप सब कुछ जो भी बना है वह सीरियाई ईसाई समुदाय में पले-बढ़े होने से बना है, जबकि वे हमेशा हमें याद दिलाते रहते थे कि हम, मेरा भाई और मैं, 'शुद्ध' सीरियाई ईसाई नहीं हैं, 'बाहरी' हैं। यह बहुत मुश्किल था। बहुत पहले ही मुझे यह स्पष्ट कर दिया गया था कि मेरा वहां कोई भविष्य नहीं है। मेरी मां ने मुझे ऐसे तरीकों से पाला जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। अच्छे और बुरे तरीकों से यानि सब तरह से पाला। मैंने सत्रह साल की उम्र में घर छोड़ दिया था। मैं दिल्ली में आर्किटेक्चर स्कूल में दूसरे वर्ष में थी और मैंने घर जाना बिल्कुल बंद कर दिया था। मैंने कॉलेज और आगे की पढ़ाई अपने तरीके से की। मैं लगभग सात साल बाद वापस लौटी। सीरियाई ईसाई एक उल्लेखनीय समुदाय है। लेकिन उनमें से कई लोग संकीर्ण, अंधराष्ट्रवादी, जातिवादी और अभिजात्य वर्ग के हैं। और निश्चित रूप से, पितृसत्तात्मक भी हैं। उन्हें खुद पर गहरी नज़र डालने की ज़रूरत है।
3. परिवार की संस्था, समाज में लगभग सभी पारंपरिक मूल्यों को सामान्य और वैध बना रही है। यह यथास्थिति को आगे बढ़ाने का एक तंत्र या माध्यम है। लेकिन हम इस संस्था के खिलाफ तीखी आलोचना शायद ही कभी देखते हैं। ऐसा क्यों?
मुझे बहुत खुशी है कि आपने यह सवाल पूछा। यह एक ऐसी चीज है जिसके बारे में मैं हमेशा सोचता रहती हूं - परिवार का महत्व जो हर तरफ से हमारे सामने आता है। फिल्मों में, साहित्य में, मीडिया में, टीवी पर, सोशल मीडिया में और निश्चित रूप से वास्तविक जीवन में यह सामने आता है। यह मुझे बहुत परेशान करता है। जैसा कि आप मेरी अब तक की किताबों से बता सकते हैं (और जैसा कि आप आने वाली किताबों में भी देखेंगे) - द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स में इस पर बात है, लेकिन सबसे खास तौर पर द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस में - परिवार के विचार पर गहराई से, मौलिक रूप से सवाल उठाए गए हैं। यह चीजों को देखने का सबसे रूढ़िवादी प्रिज्म है, यह रूढ़ियों को गहरा करता है, यह माता-पिता की निःस्वार्थता के नाम पर सभी तरह के स्वार्थ को सही ठहराता है। सबसे बढ़कर यह जाति के लौह ब्रांड को कायम रखता है, जो भारतीय समाज की सबसे घृणित, स्थिर और घातक चीज है। 'परिवार' के विचार पर सवाल केवल तभी उठाया जाता है जब वंशवादी राजनीति की बात आती है। और वहां भी कुछ वंश स्वीकार्य हैं, और कुछ नहीं। यह ठीक है, हर तरह से इस पर सवाल उठाए जाने चाहिए। लेकिन उन सभी वंशवादियों को कम से कम चुनाव तो जीतना ही पड़ता है, उन्हें संसद में अपने माता-पिता की सीटें विरासत में नहीं मिलती हैं। हमारे महान कॉर्पोरेट/निगमों के बारे में क्या जो वस्तुतः हमारे देश के मालिक हैं? वे सभी परिवार के स्वामित्व वाले और परिवार से ही संचालित हैं। लगभग सभी बड़े परिवार के स्वामित्व वाले निगम एक विशेष व्यापारिक जाति से संबंधित हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी जमा होने वाली पूंजी और उसकी अश्लील मात्रा... और कोई इस पर सवाल नहीं पूछता है।
4. नौकरी और अवसरों की तलाश में केरलवासी इस धरती पर किसी भी जगह पहुंच सकते हैं। यह बात खास तौर पर मध्य त्रावणकोर के लोगों के बारे में सच है। इस जगह से आने वाले व्यक्ति के तौर पर, आपने इस बात पर गौर किया होगा। लेकिन हम आम तौर पर इस क्षमता निर्माण के पीछे के सामाजिक इतिहास को भूल जाते हैं। सामाजिक सुधार आंदोलन, भूमि सुधार, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का विकास... इन सभी कारकों ने इस दुनिया में कहीं भी प्रतिस्पर्धा करने के कौशल मैट्रिक्स के साथ मानव संसाधन विकसित करने में भूमिका निभाई। क्या आप इस विचार से सहमत हैं?
मैं बिल्कुल सहमत हूं। और भले ही मुझ पर अतीत में मार्क्सवादी पार्टी का आलोचक होने का आरोप लगाया गया हो, लेकिन मैं वास्तव में अधिकांशतः उनकी प्रशंसक हूं। उन सभी सुधारों ने केरल को न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में एक अनूठा स्थान बना दिया है। ऐसी कई, चीजें हैं जिनके बारे में हमें अभी भी चिंता करने की ज़रूरत है, लेकिन हमें जहां भी इसका श्रेय देना चाहिए, देना चाहिए। मुझे लगता है कि शिक्षा - जिसमें ईसाइयों ने भी बहुत योगदान दिया है - और भूमि सुधार और राजनीतिक जागरूकता ने सभी मलयाली लोगों को, चाहे वे किसी भी पार्टी से हों, थोड़ा मार्क्सवादी बना दिया है। कोई भी उनके साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता है। इसलिए मुझे भी लगता है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है कि मार्क्सवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी बारी-बारी से सत्ता में रहें। उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए और फिर भी एक-दूसरे का विरोध करना चाहिए। यह आसान नहीं है। लेकिन ऐसा होना ही चाहिए। इस तरह से ही हम पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी पार्टी के साथ जो हुआ, उससे बच सकते हैं। उन चालीस वर्षों की लगातार सत्ता ने बंगाल में सीपीएम को खत्म कर दिया और भाजपा को सत्ता में आने का मौका दिया। एक स्वस्थ विपक्ष बहुत महत्वपूर्ण है। हमें इसकी ज़रूरत है ताकि फ़ासीवादियों को दरारों से फिसलने से रोका जा सके। अगर मार्क्सवादी या कांग्रेस पार्टी सत्ता में बहुत साल बिताने या सत्ता से बाहर रहने के कारण बिखरने लगे, तो फ़ासीवादी घुस आएंगे। और एक बार जब वे सत्ता में आ गए, तो वे तेज़ी से आगे बढ़े जाएंगे।
5. ऐतिहासिक रूप से, केरल का नागरिक समाज बहुत ज़्यादा राजनीतिक रहा है। हम चाय की दुकानों और नाई की दुकानों और हमारे ग्रामीण इलाकों के हर नुक्कड़ और गली-मोहल्ले में गंभीर राजनीतिक चर्चा देख सकते हैं। परिसरों में सक्रिय छात्र राजनीति की मौजूदगी एक और बात है। लेकिन पूंजी के प्रवेश के साथ, केरल का समाजशास्त्र बदल रहा है। और यह राजनीतिक परिदृश्य में भी दिखाई देता है। युवा पीढ़ी राजनीतिक या सामाजिक मुद्दों के बारे में ज़्यादा चिंतित नहीं है। आप इसे कैसे देखते हैं? क्या मनुष्य के लिए राजनीति से हमेशा के लिए दूर रहना व्यावहारिक रूप से संभव है?
मैं यह सुनकर आश्चर्यचकित हूं कि केरल में युवा पीढ़ी राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं है। लेकिन मुझे इसके विपरीत लगता है। लेकिन आप मुझसे बेहतर जानते हैं। अगर आप जो कह रहे हैं वह सच है, तो हम मुश्किल में हैं। बड़ी मुसीबत में हैं। केरल में आबादी की धार्मिक और सामाजिक संरचना और एक-दूसरे के साथ उनके रिश्ते, भारत के बाकी हिस्सों की तुलना में, अद्वितीय हैं। अगर यह लालच और मूर्खता से खराब हो जाता है, तो हम विनाश की तरफ बढ़ जाएंगे। भाजपा और उसके कॉरपोरेट मित्र समुदायों, जातियों, धर्मों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का हर मौका भुनाएंगे। ये ईडी की धमकी देकर लोगों को ब्लैकमेल करेंगे। इसमें धार्मिक नेता भी शामिल हैं। केरल में पैर जमाने के लिए इसे ईसाइयों की जरूरत है। इसलिए, जबकि इस शासन के गुंडे भारत के बाकी हिस्सों में चर्च जला रहे हैं और जीसस की मूर्तियों को तोड़ रहे हैं - मणिपुर, छत्तीसगढ़, गुजरात को देखें - वे केरल में ईसाइयों को लुभाने या उन पर दबाव बनाने का काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में चर्चों पर सैकड़ों हमले हुए हैं। लोगों को समझना चाहिए। यह सबसे बड़ी विडंबना होगी और ईसाई धर्म के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात होगा यदि केरल के सीरियाई ईसाई ही हिंदू वर्चस्ववादियों को केरल में आमंत्रित करने वाले बन जाते हैं। जब मैं कुछ पादरियों और बिशपों को भाजपा की प्रशंसा करते या उसके साथ सौदे करते सुनती हूं तो मैं उनकी अदूरदर्शिता पर हैरान रह जाती हूं।
6. उत्तर भारत के राज्यों और दक्षिण भारत के राज्यों में मानव जीवन सूचकांक में बहुत अंतर है। और वर्तमान में, दक्षिण भारतीय राज्यों में भाजपा के खराब प्रदर्शन को इसी कारक से जोड़कर चर्चा चल रही है। उत्तर भारत में रहने वाले और दक्षिण में जड़ें रखने वाले व्यक्ति के रूप में, आपकी क्या राय है?
मेरी राय है कि लोगों की उनके अधिकारों के प्रति राजनीतिक जागरूकता की प्रबल भावना ने उन्हें अब तक दक्षिण से दूर रखा है। साथ ही, तमिलनाडु जैसी जगहों पर जाति-विरोधी संघर्षों के लंबे इतिहास ने लोगों को यह एहसास कराया है कि हिंदू राष्ट्रवाद वास्तव में क्या है। यह कुछ और नहीं बल्कि जातिगत वर्चस्व को बनाए रखने के लिए घुसपैठ करने का एक हथियार है। मुझे लगता है कि इस निज़ाम के साथ मुख्यधारा के मीडिया की मिलीभगत ने हमारे देश की वास्तविक स्थिति पर पर्दा डाल दिया है। जब यह सब अंततः उजागर हो जाएगा तो हम तबाही के स्तर को देखेंगे... अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा संकट में हैं। सामाजिक न्याय की दिशा में उठाए गए हर छोटे कदम को उलट दिया गया है। गरीब दलित और ओबीसी छात्रों को शिक्षा प्रणाली से बाहर कर दिया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह से महंगी है। अधिकांश निजी अस्पतालों में जाना अपने आप में एक अलग तरह का नरक है, जहां डॉक्टर आपको लूटने और ठगने के लिए बैठे हैं, न कि आपका इलाज़ करने के लिए। हमारे संविधान को सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए पहले ही अनौपचारिक रूप से दरकिनार कर दिया गया है। नए आपराधिक कानून एक घोषित स्थायी आपातकाल हैं। हम एक पुलिस राज्य में रह रहे हैं। हर संस्थान खोखला हो चुका है... विश्वविद्यालयों की हालत देखना खास तौर पर दिल दहला देने वाला है। वे विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, सब महान स्पेस थे... अब यह सब एक ऐसे निज़ाम द्वारा धूल में मिला दिया जा रहा है जो बुद्धिजीवियों से नफरत करता है, विज्ञान से नफरत करता है, सभी प्रकार की बुद्धिमत्ता से नफरत करता है - किसानों, बुनकरों, संगीतकारों, लेखकों की बुद्धिमत्ता - हर प्रकार की बुद्धिमत्ता को एक खतरे के रूप में देखा जाता है। लेकिन आज फर्जी समाचार उद्योग इसे कुछ और ही दिखा रहा है। हालांकि, अब जब पूर्ण, अधिनायकवादी नियंत्रण खत्म हो गया है, तो घोटाले सामने आ रहे हैं, हर घोटाला एक दूसरे से बदतर है। इसलिए, दिल्ली में रहने वाले एक मलयाली के रूप में जब मैं केरल आती हूं - मैं सड़क पर हर व्यक्ति को रोककर उत्तर की भयावहता का वर्णन करना चाहती हूं और कहना चाहती हूं, "आपको यहां ऐसा होने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए।"
7. इस चुनाव में यूपी के ग्रामीण इलाकों के लोगों ने अप्रत्याशित रूप से भाजपा को नकार दिया। वहीं, केरल में पहली बार भाजपा ने अपना खाता खोला है। आपातकाल के बाद संसदीय चुनावों में भी ऐसा ही हुआ था। जब पूरा देश लोकतंत्र के पक्ष में खड़ा था, तब केरल के लोगों ने अलग रुख अपनाया था। केरल में मध्यम वर्ग की मौजूदगी और जीवन के प्रति उनका सुरक्षित दृष्टिकोण इसके पीछे की वजह हो सकती है। आप इसे कैसे देखती हैं?
यूपी के लोगों को यह समझने में बहुत समय लगा कि उनकी अपनी वास्तविकता ही मायने रखती है, न कि वह जो टीवी पर देखते हैं। उनकी अपनी भूख, उनकी अपनी बेरोजगारी, उनका अपना कुपोषण उनका मुद्दा है। वह ‘वास्तविकता’ नहीं जो कॉरपोरेट स्वामित्व वाले टीवी चैनल उन्हें बेचते हैं। लेकिन मुख्य बात यह है कि लोगों को यह एहसास हुआ कि ‘हिंदू’ बहुमत का विचार एक घोटाला है - यह विशेषाधिकार प्राप्त जाति के लोगों के लिए धन और शक्ति को बनाए रखने का एक तरीका है, जबकि वे जिन लोगों पर अत्याचार करते हैं, उनसे अपने उत्पीड़न के लिए वोट मांगते हैं। दलितों और ओबीसी की आबादी के एक बड़े हिस्से ने आखिरकार इसे समझ लिया। यही वह वजह है जिसने इस अचानक बदलाव को जन्म दिया। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि यह सच हो। केरल के मध्यम वर्ग के लोगों को भाजपा शासित राज्यों की यात्रा करनी चाहिए ताकि वे देख सकें कि मध्यम वर्ग के लोगों के लिए भी वहां जीवन कैसा है। मेरा मतलब है कि उनके द्वारा बनाए गए हर पुल, सड़क, सुरंग और हवाई अड्डे और यहां तक कि मंदिर की आयु दो साल लगती है... यह पागलपन है कि क्या हो रहा है। नीट घोटाला... सब गुजरात में जन्में हैं। घोटालों के सभी मुख्य सरगना भाजपा के दोस्त लगते हैं। साथ ही, यह बेहद परेशान करने वाला है कि यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपी इतने सारे लोग मौजूदा शासन से सीधे या कम से कम उससे जुड़े हुए हैं। एक बार धार्मिक कट्टरता की विचारधारा केरल में चली गई, तो केरल सत्तर के दशक के लेबनान में बदल सकता है। लेबनान की आबादी भी इसी तरह जटिल है। और हम इतिहास से देखते हैं कि जब एक समुदाय कट्टरपंथी बनना शुरू करता है, तो प्रतिक्रिया के रूप में सभी समुदाय कट्टरपंथी बनना शुरू कर देते हैं। लेकिन मुझे यकीन है कि मलयाली लोगों को आत्म-विनाश के लिए प्रेरित नहीं किया जाएगा। हर धार्मिक समुदाय की जिम्मेदारी है और उन्हें यह देखना चाहिए कि ऐसा न हो। हां, यह तथ्य कि भाजपा ने एक सीट जीती है, चिंताजनक है। लेकिन मैंने जो सुना है, उसके अनुसार यह सुरेश गोपी और उनके काम के लिए वोट था, न कि भाजपा के लिए। लेकिन फिर भी, यह एक हल्की सी बात है। हमें चेतावनी दी गई है।
8. पिछले दशक में भारत अपने लंबे लोकतांत्रिक इतिहास की तुलना में बिल्कुल अलग राजनीतिक स्थिति से गुजर रहा है। जिस वैचारिक बुनियाद पर यह देश खड़ा है, वह खतरे में है। यहां तक कि संविधान को फिर से लिखने का प्रचार भी चुनाव प्रचार में सार्वजनिक रूप से किया गया। लेकिन नतीजों ने कम से कम फिलहाल तो इस पर रोक लगा दी है। क्या आपको भी ऐसा ही लगता है?
यह तथ्य कि भाजपा के पास अपना बहुमत नहीं है, एक बड़ी राहत है। लेकिन सत्ता की कमान अभी भी उसके हाथ में है। यह अभी भी संस्थाओं को नियंत्रित करती है। 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार मोदी को असली विपक्ष का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें उनके सामने चुनौती दी जा रही है। उनकी वह छवि छीन ली गई है जिसे बनाने में उन्होंने 20 साल लगाए थे। वह छवि खत्म हो गई है। लेकिन मैं बहुत चिंतित हूं। क्योंकि किसी भी तरह की राजनीतिक हार के लिए उनकी एकमात्र प्रतिक्रिया नफरत की घुंडियों को चालू करना है। आपको याद होगा कि 2002 का गुजरात नरसंहार स्थानीय चुनावों की हार के बाद हुआ था। पहले से ही मुसलमानों की लिंचिंग बढ़ गई है। नए आपराधिक कानूनों ने उनके लिए मुसलमानों और विपक्ष को भी निशाना बनाना आसान बना दिया है। वे ध्रुवीकरण और अधिक रक्तपात के माध्यम से सत्ता में लौटने की कोशिश करेंगे... मुझे उम्मीद है कि भारतीय लोगों ने यह सब समझ लिया है।
9. हिंदुत्व की धार्मिक राजनीति कॉर्पोरेट हितों और नवउदारवादी परियोजना को छुपाने का एक मुखौटा मात्र है। क्या आप इससे सहमत हैं?
बिल्कुल नहीं। मैं पूरी तरह से असहमत हूं। शुद्ध, मिलावट रहित, जातिवादी, फासीवादी हिंदू राष्ट्रवाद के खतरे को कम आंकना खतरनाक है। यह अपने आप में एक बात है। यह मुख्य बात है। कॉर्पोरेट/निगम इसके साथ सांठगांठ कर रहे हैं क्योंकि वे ताकतवर राज्य की प्रतिरोध को परास्त करने और लालफीताशाही को खत्म करके उन उद्योगपतियों को पुरस्कृत करने की क्षमता से खुश हैं जो सबसे वफादार हैं। अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए कॉर्पोरेट/निगम सत्ता में रहने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ सांठगांठ करेंगे। डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाला एक धर्मनिरपेक्ष सरकार भी निगमों के लिए कम अनुकूल नहीं था। शिक्षा और स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के निजीकरण के लिए भी कम अनुकूल नहीं था... यह सब बहुत विनाशकारी है। राहुल गांधी और नई कांग्रेस की बयानबाजी बेशक अलग है। यह राहत की बात है।
10.ऐसे बहुत कम लोग हैं जो आपके द्वारा दिखाई गई तीव्रता और रचनात्मकता के साथ राजनीतिक निबंध लिखते हैं। आपका लेखन सामान्य राजनीतिक लेखन से अलग है। इस जैविक लेखन के पीछे का एक्स फैक्टर क्या है?
मैं कहूंगी कि यह लेखन की कला और शिल्प के प्रति प्रतिबद्धता और सम्मान है। मैं सत्ता और शक्तिहीनता, बांध, सिंचाई, खनन, युद्ध के बारे में उसी तरह लिखना चाहती हूं जैसे मैं बचपन, प्यार और दिल टूटने के बारे में लिखती थी। इससे पहले कि मैं कुछ और बनूं, मैं एक लेखक हूं। दिल की गहराई तक में लेखक हूं। मेरे लिए, लेखन इबादत है।
11. कथा साहित्य और रचनात्मक गैर-कथा साहित्य लिखने वाले व्यक्ति के लिए, लेखन की इन दो विधाओं के बीच विभाजक रेखा क्या है?
जितना ज़्यादा मैं इस बारे में सोचती हूं, उतना ही कम मैं अंतर समझ पाती हूं। दोनों के लिए अलग-अलग तरह के अनुशासन की ज़रूरत होती है। लेकिन दोनों ही इबादत की तरह हैं।
12. मार्क्स की भाषा अत्यंत तीव्र और रचनात्मक है। राजनीतिक अर्थशास्त्र जैसे शुष्क विषय पर लिखते हुए भी उनकी भाषा एक अलग धरातल पर खड़ी है। ऐसा लगता है कि जब भाषा वास्तविकता में गहराई तक उतरती है तो वह जैविक और रचनात्मक हो जाती है।
भाषा एक ऐसी चीज़ है जिसे लेखक को बाहर जाकर खोजना होता है। कोई भी इसे हमें उपहार में नहीं देता। और यह हमारे अंदर ही समाहित है। यह कोई कोट या पोशाक नहीं है जिसे आप बाहर जाते समय पहनते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा है, भाषा मेरे विचारों की त्वचा है।
13. अरुंधति के राजनीतिक निबंध साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और वित्तीय पूंजीवाद के कड़े आलोचक रहे हैं। आपका लेखन वंचित गरीब तबकों और विकासवाद के पीड़ितों के साथ खड़ा है। आप इस विचारधारा में कैसे शामिल हुई? क्या इसकी जड़ें मानवीय विचारों के प्रति आपके बौद्धिक संपर्क में हैं या यह आपके प्रयोगसिद्ध अवलोकनों से निकलती है?
यह न्याय की भावना से आता है। न्याय अपने सभी विस्तृत और जटिल गौरव में। यह इतना सरल है। और जब मैं न्याय कहती हूं, तो मेरा मतलब केवल ‘मानवाधिकार’ नहीं है। नव-उदारवादी चाहते हैं कि हम दोनों को मिला दें। लेकिन हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। मानवाधिकार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन न्याय के विचार से कहीं अधिक संकीर्ण अवधारणा है। लेकिन न्याय के लिए बोलना आपको कभी भी यह महसूस नहीं कराना चाहिए कि आपको किसी की ‘ओर से’ बोलने का अधिकार है। एक ऐसी धारणा जिससे मैं सबसे अधिक नफरत करती हूं, वह है ‘बेजुबानों की आवाज़’। शायद मेरा सबसे अधिक दोहराया जाने वाला उद्धरण - जिस पर मैं गहराई से विश्वास करती हूं, वह कि ‘बेजुबान जैसी कोई चीज़ नहीं होती। ये वे लोग हैं जिन्हे जानबूझकर चुप करा दिया गया है या उन्हें अनुसना कर दिया जाता है।’
14.आप अंबेडकर के विचारों का जोरदार समर्थन करती हैं। और आपने अंबेडकर के विचारों और कार्यों का मूल्यांकन गांधी के विचारों और कार्यों से करने की कोशिश की है। क्या आप वर्तमान भारतीय संदर्भ में इस तर्क पर फिर से विचार करना चाहेंगी?
हां, मैंने इस बारे में एक किताब लिखी है। सिर्फ़ अंबेडकर-गांधी बहस ही नहीं, बल्कि इस बारे में भी कि कैसे जाति और पूंजीवाद ने मिलकर एक अनोखा भारतीय मिश्रण तैयार किया है। उस किताब के आखिरी पैराग्राफ़ में - द डॉक्टर एंड द सेंट – में मैंने कहा है कि जब तक खुद को क्रांतिकारी कहने वाले लोग ब्राह्मणवाद (जो हिंदू धर्म के जाति-विरोधी आंदोलन का पारंपरिक शब्द है) की कट्टर आलोचना नहीं करते और जब तक ब्राह्मणवाद को समझने वाले लोग पूंजीवाद की आलोचना और समझ को तीखा नहीं बनाते - तब तक हमारा देश कहीं नहीं जा सकता है।
15. इसी तरह अनिल तेलतुम्बे जैसे विचारक अंबेडकर और मार्क्स के विचारों को समानांतर रूप से आगे बढ़ा रहे हैं। आप राजनीति में वर्ग और जातिगत रुझान को किस तरह देखती हैं?
यह एक ऐसी चीज है जिस पर मैं तब से ही विचार कर रही हूं जब से मैंने द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स लिखी है। भारत में वामपंथ गंभीर रूप से आगे नहीं बढ़ पाया है क्योंकि यह जाति को संबोधित करने में विफल रहा है और यह कहकर खुद को सांत्वना देता है कि 'जाति वर्ग है।' ओवरलैप ज़रूर हैं, लेकिन जाति वर्ग नहीं है। अंबेडकर को पढ़ें और आप ऐसा फिर कभी नहीं कहेंगे। आनंद तेलतुमड़े को मैंने हमेशा से ही हमारे देश के सबसे महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों में से एक माना है। उनका सम्मान किया जाना चाहिए, उनकी बात सुनी जानी चाहिए। इसके बजाय, उन्हें जेल में डाल दिया गया और अपमानित किया गया।
16. मलयालम में हाल ही में बनी कई लोकप्रिय फ़िल्में और उपन्यास युवाओं की भावनात्मक और आंतरिक दुनिया पर केंद्रित हैं। शिल्प के लिहाज़ से उनमें से ज़्यादातर फ़िल्में औसत से कमतर हैं। लेकिन वे युवाओं के साथ काफ़ी सफलतापूर्वक संवाद कर रही हैं। आप इसे कैसे देखती हैं?
ईमानदारी से कहूं तो, एक आंतरिक दुनिया जो खुद को बाहरी दुनिया के संदर्भ में नहीं रखती, वह मेरे लिए बहुत कम या बिलकुल भी दिलचस्प नहीं है। यह मुझे ज़्यादातर बोर करती है। मैं यह नहीं कहना चाह रही हूं कि हर चीज़ एक घोषणापत्र होनी चाहिए। मैं सिर्फ़ कुछ बुनियादी बुद्धिमत्ता की वकालत कर रही हूं। और हमारी बाहरी दुनिया की स्थिति को देखते हुए थोड़ी शालीनता भी होनी चाहिए। इसे पूरी तरह से खत्म कर देना भी एक तरह की राजनीति है। इसी तरह, साहित्य या सिनेमा जो सिर्फ़ एक छद्म घोषणापत्र है, उसमें भी मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।
17.हम अब एक नवउदारवादी निज़ाम में रह रहे हैं। इसके विचारों के जाल से बाहर निकलना अधिक से अधिक कठिन होता जा रहा है। यह स्थिति प्लेटो की गुफा में फंसे व्यक्ति जैसी है। हम इस प्रमुख नेरेटिव पर कैसे काबू पा सकते हैं?
हमें जेल को तोड़ना होगा! सबसे पहली बात यह है कि मुख्यधारा के टीवी देखना बंद करना होगा। इसमें मनोरंजन चैनल भी शामिल हैं। उस खूबसूरत शांति में हमारा दिमाग वापस हमारे पास आ जाएगा। हमारा आईक्यू स्तर बढ़ जाएगा।
18. आधुनिक मानव इतिहास में राष्ट्रवाद हमेशा से एक बहुत गंभीर राजनीतिक परियोजना रही है। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के दौर में राष्ट्रवाद एक क्रांतिकारी और प्रगतिशील विचार था। लेकिन उसी दौर में इसका इस्तेमाल फासीवादी और सत्तावादी निज़ाम को वैध बनाने और लागू करने तथा लोगों को नस्लीय रूप से दबाने के लिए किया गया है। हम खुद भी अब सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के ऐसे ही प्रयास देख रहे हैं। यह दोधारी तलवार है। आप इस घटना को कैसे देखती हैं?
राष्ट्रवाद मूर्खों के लिए है। या, खेल के मामले में सबसे अच्छा है। कुछ अच्छा मनोरंजन। बाकी के लिए - हम एक ऐसे समाज में रहने की कोशिश करते हैं जिसमें इसके बारे में अच्छी और बुरी चीजें हैं। हम अच्छी चीजों का जश्न मनाते हैं, हम बुरी चीजों से लड़ते हैं। हम बातचीत करते हैं। मेरे लिए, सारी लड़ाई महान प्रेम से आती है। मुझे बहुत हंसी आई जब दिल्ली एयरपोर्ट पर एक मलयाली सुरक्षा गार्ड ने मेरी आईडी चेक करते हुए कहा "हमारे केरल में भी एक अरुंधति रॉय है। हमेशा परेशानी में रहती हैं।" उसे एहसास नहीं हुआ कि मैं वही हूं। एक लेखक के रूप में, जरूरी नहीं कि इंसान ही एकमात्र चीज हो जिसकी मुझे परवाह है। मेरी किताबें जानवरों, कीड़ों, नदियों, आसमान और पहाड़ों से भरी हैं। एक राष्ट्रवादी कीट या झंडा लहराते बाघ की कल्पना करें। हमें अपनी जमीन, अपनी नदियों और पहाड़ों से प्यार करना चाहिए और उनकी देखभाल करनी चाहिए... लेकिन हम राष्ट्रवाद के नाम पर उन्हें नष्ट कर रहे हैं। झंडे कपड़े के टुकड़े हैं जिनका उपयोग वे हमारे दिमाग को सिकोड़ने के लिए करते हैं और जब हम मर जाते हैं तो हमें दफनाने के लिए कफन के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
19.मुख्यधारा का मीडिया पूरी तरह से समाज के ऊंचे तबके के जीवन पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। बहुसंख्यक लोगों के जीवन, ग्रामीण भारत की कहानियां मुख्यधारा के मीडिया में कभी दिखाई नहीं देती हैं। यह एक ऐसी दुनिया है जो कॉर्पोरेट मीडिया घरानों द्वारा बनाए गए कथानक पर हावी है। इस पर काबू पाने के लिए कोई व्यावहारिक सुझाव?
मुख्यधारा के मीडिया की इतनी आलोचना हो चुकी है कि उसे दोहराने की जरूरत नहीं है। भारत में हमारे मुख्यधारा के चैनल, जिनमें से कई उस देश में हुए नरसंहार से पहले रेडियो रवांडा के बराबर थे- ने न केवल भारत में फासीवाद के आगमन में मदद की है, बल्कि वे फासीवादी परियोजना का एक बुनियादी हिस्सा हैं। किसी को उन्हें सेंसर करने की जरूरत नहीं थी, वे सभी डॉग-व्हिसलिंग में उत्साही भागीदार थे। कुछ एंकर कैप्टन की तरह हैं जो मुसलमानों की हत्या करने वाली भीड़ को सचमुच निर्देशित कर रहे हैं। यह काफी हद तक उनके और उनके झूठ की वजह से है कि उमर खालिद, खालिद सैफी, गुलफिशा जैसे लोग इतने सालों से जेल में बंद हैं। हम यह सब जानते हैं। लेकिन इसके बारे में क्या किया जाए? जैसा कि मैंने कहा कि इन चैनलों और अखबारों के आर्थिक मॉडल में एक संरचनात्मक समस्या है, वह है हितों का टकराव। उनमें से कुछ का स्वामित्व सीधे अडानी और रिलायंस जैसी कंपनियों के पास है, जबकि अन्य को सारा पैसा सरकारी और कॉर्पोरेट विज्ञापनों से मिलता है। यह सैकड़ों हजारों करोड़ में जाता है। तो उनसे कुछ भी उम्मीद क्यों की जाए? समस्या यह है कि वे कैसे संरचित और वित्तपोषित हैं। हमें कुछ टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के लिए एक ऐसा मॉडल बनाने की जरूरत है, जहां उन्हें सार्वजनिक ट्रस्ट के माध्यम से वित्तपोषित किया जाए और वे संपादकीय पूरी तरह स्वतंत्र हों। वे राजनीतिक दलों या निगमों के प्रति संवेदनशील न हों।
20. अंत में, ध्रुव राठी को सार्वजनिक रूप से यह कहने की ज़रूरत पड़ी कि राजा नंगा है और उसने जो प्रभाव पैदा किया है वह बहुत बड़ा है। क्या यह नए मीडिया की क्षमता का संकेत है? क्या आपको नई पीढ़ी के सोशल मीडिया कार्यकर्ताओं में उम्मीद की किरण दिखती है?
ध्रुव राठी बहुत ही शानदार हैं। हिंदी भाषा के अन्य यूट्यूबर भी हैं जो विस्मयकारी हैं। वे स्पष्टवादी, पेशेवर और पूरी तरह से निडर हैं - बेशक रवीश कुमार भी इसमें बड़ा नाम है। लेकिन साथ ही, पुण्य प्रसून बाजपेयी, दीपक शर्मा, नवीन कुमार, संजय शर्मा, 4पीएम न्यूज़, सत्य हिंदी न्यूज़ और इसके कई एंकर, ऐसे बहुत से लोग हैं। अपने शो अपलोड करने के कुछ ही मिनटों में उनके सैकड़ों हज़ार और कुछ ही घंटों में लाखों दर्शक हो जाते हैं। उनमें से हर किसी का चीज़ों को लेकर एक अलग नज़रिया होता है। वे वास्तव में एक फिनोमीना हैं। दुनिया में नए हैं। मैं उन्हें करीब से फॉलो करती हूं। हम उनके बहुत आभारी हैं। मुझे उन पर वाकई गर्व है।
यह साक्षात्कार पहली बार मलयाली भाषा में देशाभिमानी साप्ताहिक में प्रकाशित हुआ था। इज़ाजत लेकर फिर से इसे यहां फिर से प्रस्तुत किया गया है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
“People Must Realise that Reality is Not What is Shown on TV”
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