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‘नेहरु की स्मृति मिटाओ’ योजना भाजपा के हिन्दू राष्ट्र मंसूबे के लिए बेहद ज़रूरी है

देश के पहले प्रधानमंत्री की विरासत को पूरी तरह से मिटा पाना आसान काम नहीं है, लेकिन भाजपा-आरएसएस की जोड़ी लगातार इसे मिटाने की कोशिशों में जुटी रहेगी, जब तक कि इसका कोई जवाबी प्रतिरोध न हो।
‘नेहरु की स्मृति मिटाओ’ योजना भाजपा के हिन्दू राष्ट्र मंसूबे के लिए बेहद ज़रूरी है

मृत इंसान को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आने वाली पीढ़ी उनके बारे में क्या सोचती है। उन्हें कैसे सम्मान दिया जाए और उनकी विरासत को कैसे यादगार बनाए रखा जाए, ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो बाद में आने वालों को परेशान करते हैं। इन सबका कोई आसान जवाब नहीं है। समय की सहूलियत और इसके साथ आने वाली दूरदर्शिता, किसी मृतक के स्पष्ट-दृष्टि से मूल्यांकन की अनुमति प्रदान करती है। बल्कि ऐसा किया जाना चाहिये। लेकिन जब गुलामी की मानसिकता या पूर्वाग्रह-ग्रस्त कट्टरतापूर्ण मूल्यांकन से रंगा जाने लगता है, तो यह चित्रांकन या इतिहास को मिटाने का काम करने लगती है, और ये दोनों ही इतिहास के लिए हानिकारक हैं। भारत की आजादी के 75वें वर्षगाँठ का जश्न मनाने के लिए इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च (आईसीएचआर) की ओर से जारी विवादास्पद पोस्टर में कई अन्य के साथ जानबूझकर पंडित जवाहरलाल नेहरु को जानबूझकर छोड़ दिया गया है, जो इस संगठन की क्षुद्रता और सत्ताधारी दल की सुविचारित रणनीति इन दोनों का उदाहरण है।

आजाद भारत के इतिहास को लिखते समय कोई भी नेहरु के सन्दर्भ को उदात्त रूप में जिक्र किये बगैर आगे नहीं बढ़ सकता, जो कि एक गरीब और विभाजित भूमि के पहले प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने समूचे अवांछनीय राजनीतिक और संवैधानिक से लेकर संस्थाओं को ईंट-गारे के साथ राष्ट्र-निर्माण के अविश्वसनीय कार्यभार का नेतृत्व किया था। नेहरु की कई उपलब्धियां हैं। 1964 में उनके निधन से पहले तक, उनके 17 वर्षीय शासनकाल पर विशाल और अक्सर सचित्र साहित्य भरा पड़ा है। हालाँकि, उनके काम पर संदेह करने वाले लोगों के व्यूह के बावजूद नेहरु के फैसले, भारत की समन्वित संस्कृति के बारे में उनके दृष्टिकोण, उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकें, उनकी सरकार द्वारा स्थापित किये गए संस्थानों और लोकतांत्रिक बुनियाद और 1947 के बाद के दौर में भारत के लिए जिस प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय सम्मान हासिल हुआ, ये सब उनकी विरासत का हिस्सा हैं। उसी प्रकार से उन्होंने राजनीतिक मोर्चे पर, प्राथमिक शिक्षा पर, चीन के साथ और इसकी प्रकार की अन्य गलतियाँ भी की हैं।

नेहरु को यह कार्यभार उनके द्वारा ब्रिटिश भारत में एक राजनैतिक बंदी के रूप में विभिन्न चरणों में लगभग नौ साल बिताने का बाद हासिल हुआ था। उन्होंने “पूर्ण स्वराज” के लिए तब तर्क पेश किया था, जब इसको लेकर कोई लोकप्रिय मांग नहीं थी, और 1931 के कराची प्रस्ताव का उन्होंने मार्गदर्शन किया था, जिसने भारत के लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी राज्य के मॉडल को स्पष्ट आकार दिया था। संक्षेप में कहें तो नेहरु गहराई से भारतीय होने के साथ-साथ वैश्विक दृष्टि रखते थे। वे हिन्दू संस्कृति को समझते थे लेकिन वे धर्मनिरपेक्ष थे, वेदों के जानकार होने के साथ ही वे धार्मिक नहीं थे, परम्पराओं के प्रति विनम्र किंतु वैज्ञानिक स्वाभाव के निर्माण के प्रति समर्पित व्यक्ति थे। इसके अलावा वे सभी लिहाज से अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध व्यक्ति थे और इसी वजह से हिन्दू महासभा-राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के घोर विरोधी थे, हालाँकि उन्होंने अपने पहले मंत्रिमंडल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी को स्थान दिया था।

नेहरु के व्यक्तित्व की कई हलकों में प्रशंसा हुई, और उनके निधन पर, द इकॉनोमिस्ट ने “नेहरु के बगैर विश्व” नामक शीर्षक के साथ एक कवर स्टोरी चलाई थी, जबकि द न्यूयॉर्क टाइम्स ने उन्हें “आधुनिक भारत का निर्माता” कहा था। लेकिन महासभा-आरएसएस ने इसे स्वीकार नहीं किया। वे उनसे नफरत करते थे। क्योंकि भारत के बारे में उनका विचार उनके हिन्दू राष्ट्र के सपने से टकराव में जाता था। हर साल भारत का नेहरूवादी रास्ते पर बिताना उनके सपनों की मंजिल को मुश्किल बनाता जा रहा था। आरएसएस और विस्तार में जाएँ तो हिन्दू दक्षिणपंथी, न सिर्फ नेहरु को नापसंद करते थे और उनके लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के विचार का विरोध करते थे; इसने उन्हें बुरी तरह से तिरस्कृत किया, और वे उलटने के लिए बैचेन थे। आरएसएस के प्रशिक्षित राजनेता कम से कम इतनी सहज-बुद्धि के तो थे कि वे गाहे-बगाहे नेहरु की सेवा में जुबानी जमाखर्च कर दिया करते थे। लेकिन 2014 में यह सब बदल गया।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस नफरत को पूरी तरह से जाहिर करने के लिए रक्षक के लबादे को उतार कर फेंक दिया। उनका लक्ष्य, उनके खुद की स्वीकारोक्ति के मुताबिक, “कांग्रेस-मुक्त भारत” बनाने का था, लेकिन यह राजनीतिक विरोध से काफी आगे निकलकर संपूर्ण खात्मे तक चला गया है। इसका मतलब था नेहरु-गाँधी परिवार के खिलाफ गाली-गलौज करना - यह देखते हुए कि कांग्रेस और परिवार दुर्भाग्यवश इसके समानार्थी बन चुके हैं- नेहरु युग की पहलकदमियों को बदनाम करना, नेहरु के खिलाफ कीचड़ उछालो अभियान चलाने से लेकर उनकी निजी जिंदगी के बारे में झूठी अफवाह फैलाना, या हर मौके पर बिना चूके उनकी यादों का अपमान करने का अभियान शामिल था।

इनका एजेंडा पूरी तरह से स्पष्ट है: नेहरु को मिटा दो और आजाद भारत के इतिहास को दोबारा से लिखो। ये दोनों ही चीजें एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं। एक ऐसी सरकार जो लोकतांत्रिक होने से कहीं अधिक सत्तावादी हो, यह कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि संस्थाएं तो सत्ताधारी अभिजात वर्ग की इच्छा के आगे झुकने के लिए तैयार रहती हैं। आईसीएचआर का पोस्टर हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को चुनौती देने वाली हर उस चीज को मिटा देने के लिए एक भव्य संशोधनवादी अभियान का एक महज हिस्सा भर है। आईसीएचआर भी आखिरकार, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का ही एक निकाय है। जलियांवाला बाग़ के जीर्णोद्धार के नाम पर साउंड-एंड-लाइट शो के साथ एक आकर्षक पर्यटन स्थल में तब्दील कर दिया जाना हो या जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में नए पाठ्यक्रम के नाम पर “जिहादी आतंकवाद” को एकमात्र कट्टरपंथी-धार्मिक आतंकवाद के रूप में ठप्पा लगाने सहित अन्य क्षेत्रों से इसके कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं। 

वर्तमान सरकार नेहरु सहित उनके साथ जुड़े हर व्यक्ति और संस्थानों और नेहरुवादी भारत की हमारी सामूहिक स्मृतियों को मिटाने के प्रति कृत संकल्प है। नेहरु मिटाओ अभियान किसी एक पोस्टर तक सीमित नहीं है। यह वास्तुकला, अभिलेखागारों, संस्थानों या निकायों एवं कई अन्य क्षेत्रों तक फैला हुआ है। दक्षिणपंथी पाठ्यक्रम में, इतिहास के पुनर्लेखन के लिए शिक्षा में बाडबंदी का काम बेहद अहम है। किसी व्यक्तित्व को नष्ट करना और पूर्वाग्रही या क्षुद्रता पर आधारित वर्तमान संशोधनवादी इतिहास को मिटाने (या उठाने) को सामने रखने का काम समान है। मुगल बादशाह अकबर को मिटाने की कोशिश की जा रही है, वहीँ उनके प्रतिद्वंद्वी महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में विजेता के तौर पर प्रकटीकरण किया जा रहा है। महात्मा गाँधी को पाठ्यक्रम में ढंका जा रहा है और उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे को जायज ठहराने का प्रयास किया जा रहा है। विनायक दामोदर सावरकर को स्वतंत्रता आंदोलन के महान प्रतीक के रूप में दिखाया जा रहा है और कांग्रेस को अंग्रेजों का “पाला पोसा हुआ बच्चा” कहा जा रहा है। इत्यादि बहुत कुछ है।  

वे लोग जो अभी भी भाजपा की मंशा को लेकर बहस करते हैं, या और भी सटीक रूप से कहें तो मोदी-शाह के नेहरु की विरासत के बारे में इरादों को लेकर अस्पष्ट हैं, वे इस एजेंडे से चूक जाते हैं। यह प्रोजेक्ट सफल होता है या नहीं यह प्रमुख प्रश्न नहीं है। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि राजनीतिक विपक्षियों, कांग्रेस पार्टी, नेहरु-गाँधी परिवार और नागरिक समाज की ओर से इस पर उदासीन, नीरस और बेजान प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। 

भारत के राजनीतिक विपक्ष को यह बात की खबर अवश्य होनी चाहिए कि कोई भी राष्ट्र अपने वर्तमान सरकार से कहीं अधिक पुराना और विशाल होता है, और अपने सर्वाधिक काल तक सेवाएं देने वाले प्रधानमंत्रियों में से एक को इतिहास से मिटाने के लिए राष्ट्रीय इतिहास का पुनर्लेखन कहीं से भी अच्छी बात नहीं है। बहरहाल, विपक्षी पार्टियाँ कुछ दूसरी ही लड़ाइयों में उलझी हुई हैं। वहीँ कांग्रेस दुविधाग्रस्त स्थिति में दिख रही है। इस पर जहाँ कुछ नेता भाजपा को आड़े हाथों ले रहे हैं, वहीँ कईयों ने चुप्पी साध ली है। उन्हें शायद इस बात का भय सता रहा है कि यदि उन्होंने नेहरु युग का बचाव करने का प्रयास किया तो उनपर वंशवाद का इल्जाम लग सकता है। सच्चाई यह है कि भाजपा ने बेहद कुशलतापूर्वक लोकप्रिय अवधारणा में वंशवाद को कांग्रेस के समतुल्य ठहरा दिया है, जबकि अपने खुद के बरामदे और आंगन में कई राजवंशों को फलने-फूलने का अवसर मुहैय्या करा रखा है, जिसकी शायद ही कभी आलोचना होती हो। कांग्रेस पार्टी को चाहिए कि वह नेहरु की विरासत का किसी भी कीमत पर बचाव करने के उपाय खोजे और इसके स्वामित्व को अपने हाथ में ले, क्योंकि अंशतः यह भारत का इतिहास भी है।

नेहरु-गाँधी परिवार के पास नेहरु के बारे में बोलने का स्वाभाविक अधिकार है, लेकिन राहुल गाँधी जो कि अपनी माँ या बहन से कहीं अधिक नजर आते हैं, अपने पर-नाना के बारे में उतनी बात नहीं करते, जितना कि उन्हें इस बारे में बोलना चाहिए। परिवार के पास नेहरु की यादों बकाया है कि वह सुनियोजित तरीके से मिटाए जाने के मुद्दे को संबोद्धित करे। परिवार और पार्टी को बेहद परिश्रमपूर्वक नेहरु की छवि को नई पीढ़ी के सामने पेश करना चाहिए। यह देखना आसान है कि क्यों भाजपा ने महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और यहाँ तक कि बीआर अंबेडकर और भगत सिंह तक को अपना लिया है – जिन्होंने वैचारिक रूप से हिंदुत्व का विरोध किया था - लेकिन नेहरु का अपमान करते हैं। नेहरु की खातिर ही नहीं बल्कि समान रूप से भारत के इतिहास के लिए भी, इसे ठीक करने का बोझ भी इस परिवार और कांग्रेस दोनों पर ही है।

नागरिक समाज को संबोधित करना कहीं अधिक जटिल है। यहाँ तक कि जिन लोगों को नेहरु के दौर में या नेहरूवादी संस्थाओं से लाभ हासिल हुआ था, वे भी बोलने से या दूसरों को उनकी नीतियों पर बहस करने के लिए चुनौती देने से कतराते हैं। मौन सिद्धांत वाले क्लासिक घुमावदार राह में, अलग-थलग कर दिए जाने के भय से, सिर्फ मुट्ठी भर लोग ही अलोकप्रिय विचारों को आवाज देने की हिम्मत जुटा पाते हैं, और यह भय यहाँ पर तेजी से काम कर रहा है। लेकिन यदि कांग्रेस या गाँधी परिवार बातचीत के बिन्दुओं को पेश करता है तो कम से कम नागरिक समाज का एक हिस्सा उन पर मुहँ खोल सकता है। वे सभी मंच जो नेहरु के पुनरवलोकन या पुनर्मूल्यांकन का अवसर प्रदान करते हैं, उन्हें निश्चित ही सहर्ष स्वीकारना चाहिए।

अब सवाल यह है कि भले ही भाजपा भारत के इतिहास के पुनर्लेखन के साथ आगे बढती है, तो ऐसे अंतर्राष्ट्रीय रिकार्ड्स और इतिहास मौजूद हैं, जिन्हें वह आसानी से हाथ भी नहीं लगा सकती है। स्वतंत्र भारत के पहले 17 वर्षों के इतिहास को पूरी तरह से खारिज किये बिना नेहरु को नहीं मिटाया जा सकता है। हालाँकि, चूँकि भारत के इतिहास से उनका उन्मूलन आरएसएस-भाजपा के हिन्दू राष्ट्र की योजनाओं के लिए बेहद अहम है, वह इसकी कोशिश में लगी रहेगी। जार्ज ऑरवेल ने इसे “1984” में सबसे बेहतरीन तरीके से व्यक्त किया है: जो वर्तमान को नियंत्रित करते हैं वे अतीत को भी नियंत्रित कर लेते हैं, और जो इतिहास को नियंत्रित करते हैं, वे भविष्य को भी नियंत्रित करते हैं।

लेखिका मुंबई स्थित एक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं, और राजनीति, शहरों, मीडिया और लैंगिक मुद्दों पर लिखती हैं। व्यक्त किये गए विचार निजी हैं। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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