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शुक्रवार की नमाज़ के विवाद में आरएसएस की भूमिका, विपक्षी दलों की चुप्पी पर पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब के विचार

अदीब का कहना है कि उन्होंने जिन 18 पार्टियों से संपर्क साधा था,उनमें से महज़ तीन पार्टियों ने गुरुग्राम में शुक्रवार की प्रार्थना के मुद्दे पर समर्थन के सिलसिले में उनके आह्वान का जवाब दिया। उनकी यह चुप्पी आरएसएस की बनायी गयी डर की संस्कृति को दिखाती है।
शुक्रवार की नमाज़ के विवाद में आरएसएस की भूमिका, विपक्षी दलों की चुप्पी पर पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब के विचार

गुड़गांव की मिलेनियम सिटी का नाम बदलकर गुरुग्राम इसलिए कर दिया गया, क्योंकि इसे वह गांव बताया जाता है, जहां किसी ज़माने में द्रोणाचार्य रहा करते थे। द्रोणाचार्य ही वह गुरु थे, जिन्होंने कथित तौर पर निचली जाति के एकलव्य को तीरंदाज़ी सिखाने के बदले गुरु दक्षिणा में उनसे अंगूठा मांग लिया था। इस मिथक के मुताबिक़, द्रोणाचार्य ने ऐसा इसलिए किया था, ताकि अर्जुन को तीरंदाजी में परास्त होने का जोखिम न रहे।

आज इस शहर के मुसलमानों के साथ हर शुक्रवार को इससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक़ नाइंसाफ़ी की जा रही है।उन्हें उन सार्वजनिक जगहों पर नमाज पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, जिन जगहों को प्रशासन ने पहले उन्हें नमाज़ पढ़ने के लिए चुना था। 2018 तक गुरुग्राम के 117 जगहों पर मुसलमान नमाज़ अदा कर सकते थे। तीन महीने पहले इन जगहों की सूची को 37 से घटाकर 20 कर दिया गया था। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने एक पखवाड़े पहले ऐलान कर दिया था कि मुसलमान सार्वजनिक स्थानों पर प्रार्थना नहीं कर सकते, उनके पास आधिकारिक तौर पर ऐसी दो मस्जिदें हैं, जहां वे अपनी सामूहिक प्रार्थना के लिए इकट्ठा हो सकते हैं।

हालांकि, 17 दिसंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा संगठन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के इशारे पर 6 सार्वजनिक स्थानों पर नमाज़ अदा की गयी। ऐसे में कई सवाल पैदा होते हैं। इन सवालों में कुछ ज़रूरी सवाल हैं-आख़िर आरएसएस का गेमप्लान क्या है? धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल चुप क्यों हैं? गुरुग्राम में रहने वाले प्रमुख मुसलमानों ने जुमे की नमाज़ के विवाद पर सार्वजनिक बयान क्यों नहीं जारी किये?

न्यूज़क्लिक ने ये तमाम सवाल राज्यसभा के पूर्व सदस्य मोहम्मद अदीब से पूछे। 77 साल के अदीब अपनी शिकायतों के निवारण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने सहित इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ संवैधानिक क़दम उठाते हुए मुसलमानों को लामबंद करते रहे हैं। यहां पेश है उनके साथ लिये गये एक साक्षात्कार का अंश:

गुरुग्राम में शुक्रवार को होने वाली नमाज़ के विवाद को लेकर आपने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की हैउसमें आपने क्या दलील दी है?

सुप्रीम कोर्ट ने तहसीन एस.पूनावाला मामले में 2018 के अपने फ़ैसले में कहा था कि किसी व्यक्ति को लिंचिंग करने को लेकर एक प्रक्रिया अपनायी जाती है। लिंचिंग शायद ही कभी अनायास होती है। लोगों के समूह किसी शख़्स को लिंच करने के लिए एक माहौल तैयार करते हैं, उसे संगठित करते हैं और उसकी तैयारी करते हैं। अगर प्रशासन को इस बात की जानकारी है कि किसी शख़्स की लिंचिंग करने की पूर्व तैयारी है, तो अधिकारियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे लिंचिंग से पहले उसे रोकने की तैयारी करें। ऐसा नहीं करने को लेकर अदालत ने कहा कि प्रशासन अगर ऐसा करने पर नाकाम रहता है, तो अदालत इसे अवमानना मानने के लिए मजबूर हो सकती है (पूनावाला मामले में जारी आदेश)।

आपको लगता है कि हरियाणा प्रशासन का आचरण इस तरह के आरोप की ज़द में आता है?

संयुक्त हिंदू संघर्ष समिति के लोग (कट्टरपंथी हिंदुत्व समूहों का एक प्रमुख संगठन) पिछले चार महीनों में किसी एक या दूसरे इलाक़े में जाते हैं और शुक्रवार की प्रार्थना को बाधित करते हैं। हैरत है कि इनमें से हर एक जगह पर पुलिस हमेशा मौजूद रहती है। लेकिन पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती है। हर मौक़े पर जुमे की नमाज़ के बाधित होने पर हमने लिखित में प्रशासन से शिकायत की थी। हमने इससे जुड़े वीडियो भी जमा किये थे। हमने पुलिस से भी लिखित में लिया था कि हमारी तरफ़ से शिकायतें की गयी हैं। हमने उनसे एफ़आईआर दर्ज करने को भी कहा था। फिर भी उन्होंने एक बार छोड़कर कभी कोई कार्रवाई नहीं की। सिर्फ़ एक बार कार्रवाई करते हुए उन्होंने तक़रीबन 20 कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया था और कुछ ही घंटों के बाद उन्हें छोड़ दिया था।

इस याचिका में अवमानना के दोषी माने जाने वाले अधिकारी कौन-कौन हैं?

हरियाणा के मुख्य सचिव और इसके पुलिस महानिदेशक। इस याचिका में कहा गया है कि उनकी निष्क्रियता उस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसने जुमे की नमाज़ में व्यवधान डालने का माहौल तैयार किया है।

क्या उन्हीं लोगों का समूह हर शुक्रवार को प्रार्थना में बाधा डालता है?

क़रीब 40 ऐसे लोग हैं, जो जुमे की नमाज़ में व्यवधान डालने को लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाते रहते हैं। बाधा डालने वालों में सिर्फ़ ये ही लोग होते हैं। अगर बड़े पैमाने पर हिंदू इन निर्धारित सार्वजनिक जगहों पर जुमे की नमाज़ के विरोध में होते, तो मुझे लगता है कि हज़ारों लोग हमें नमाज पढ़ने से रोकने को लेकर सामने आये होते।

क्या यह याचिका स्वीकार कर ली गयी है?

जी, स्वीकार कर ली गयी है। जब 3 जनवरी, 2022 को सुप्रीम कोर्ट दोबारा खुलेगा, तो हम सुनवाई में तेज़ी लाने के लिए अर्ज़ी दाखिल करेंगे।

ग़ैर-मुस्लिम समुदाय इन तय जगहों पर जुमे की नमाज़ अदा करने के मुसलमानों के अधिकार के समर्थन में क्यों नहीं सामने आ रहे हैं?

लोग चाहे जिस किसी भी समुदाय के हों, सबके सब डरे हुए हैं। हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय से आने वाले मेरे दोस्त और मेरे परिवार के लोग मुझे इन व्यवधान डालने वालों के ख़िलाफ़ मेरी मुकदमेबाज़ी को लेकर आगाह करते रहे हैं। मुझे बताया गया है कि ये लोग ख़तरनाक हैं। ज़ाहिर है,सभी समुदायों के बीच मुसलमान सबसे अलग-थलग महसूस कर रहे हैं।

आप जिस हाउसिंग सोसाइटी में रहते हैंउसके बारे में कुछ बतायेंगे?

मैं इस सोसाइटी का एकमात्र मुसलमान हूं। मैं उन लोगों के बारे में नहीं जानता, जो मेरा विरोध करते हैं, लेकिन ऐसे लोग हैं, जो अपना समर्थन देने के लिए मेरे पास आये हैं। मैंने यहां कभी अलग-थलग महसूस नहीं किया। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के एक प्रोफ़ेसर ने गुरुग्राम के इस घटनाक्रम पर चिंता जतायी। वे सब कहते हैं कि जुमे की नमाज़ के इस विवाद से न सिर्फ़ भारत की बदनामी हो रही है, बल्कि यह हिंदू धर्म को उग्रवादी और असहिष्णु बनाने की एक कोशिश भी है।

बाहरी दुनिया की नज़रों में तो ज़िला प्रशासन काफ़ी पक्षपाती दिखता है।

ज़िला प्रशासन के अधिकारियों के साथ जितना मेरा साबका पड़ा है, मैंने उनके रवैये में मुसलमानों को लेकर किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह तो नहीं देखा है। वे बहुत अच्छे लोग हैं। मुझे लगता है कि वे बेबस हैं; उनके हाथ बंधे हुए हैं।

क्या आपने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से मिलने की कोशिश की है?

मैं दो महीने से खट्टर से मिलने की कोशिश कर रहा हूं और मुझे अभी तक मिलने का समय नहीं मिल पाया है। हमने दो महीने पहले की गयी उनकी इस घोषणा का स्वागत किया था कि गुरुग्राम में निर्धारित 37 स्थानों पर नमाज़ अदा की जायेगी। मैंने उनके निजी सहायक को दो बार ईमेल करके मिलने का समय मांगा। हम एक ज्ञापन देना चाहते थे कि मुसलमानों को मस्जिद बनाने के लिए ज़मीन आवंटित की जाये।

दो हफ़्ते पहले खट्टर ने कहा था कि किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जुमे की नमाज़ की इजाज़त नहीं दी जायेगी। चूंकि उनका भी गुरुग्राम जाने का कार्यक्रम था, इसलिए मैंने उनके निजी सचिव से दो मिनट की मीटिंग के लिए अनुरोध किया था। लेकिन, मैं उनसे कभी नहीं मिल सका।

बतौर पूर्व राज्यसभा सांसद आपने कई मौक़ों पर मुख्यमंत्रियों और राज्य के वरिष्ठ पदाधिकारियों से मिलने का समय मांगा होगा। मिलने की बात अगर छोड़ भी दी जायेतो क्या उनमें से किसी ने इतनी शिष्टता भी दिखायी कि जवाब भी दे सके?

देरी ज़रूर हुई होगी, लेकिन किसी ने भी मेरे मिलने के अनुरोध को कभी नहीं ठुकराया। हमारे लोकतंत्र में यह नियम है कि सत्ताधारी पार्टी के सदस्य विपक्ष के लोगों के मिलने के अनुरोध को स्वीकार कर लेते हैं।

इस विवाद में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की क्या भूमिका रही है?

उनके साथ महज़ चार या पांच मुसलमान हैं। उनके नेता ख़ुर्शीद रजाका हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता इंद्रेश कुमार (मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के संरक्षक) के क़रीबी हैं। उनके पास कोई अनुयायी नहीं है। पिछले शुक्रवार, 17 दिसंबर को अख़बारों से पता चला कि मुसलमानों ने छह सार्वजनिक स्थानों पर जुमे की नमाज़ अदा की थी। नमाज का ये आयोजन मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की ओर से किया गया था। वहां बहुत कम लोगों ने नमाज अदा की थी। ग़ौरतलब है कि आधिकारिक तौर पर शुक्रवार की नमाज़ सार्वजनिक स्थानों पर नहीं की जा सकती।

आपको क्या लगता है कि यह गेमप्लान मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का है?

इंद्रेश कुमार के ज़रिये मुस्लिम राष्ट्रीय मंच मदरसे खोलता रहा है और उन्हें फ़ंडिंग करता रहा है। मुझे लगता है कि इस मंच का मानना है कि मुस्लिम राजनीति की आत्मा मदरसा है। मंच को मदरसों का डर या फ़ोबिया है। मुसलमानों का मनोबल गिराने के लिए मंच मदरसे की संस्था पर कब्ज़ा करना चाहता है। आरएसएस का यह प्रोजेक्ट आने वाली पीढ़ी के लिए बनाया गया है। अनिवार्य रूप से वे यही सोचते हैं कि अगर मदरसों को निष्प्रभावी कर दिया गया, तो यह समुदाय अपनी हिफ़ाज़त नहीं कर पायेगा।

क्या आरएसएस मदरसे के बच्चों को अपनी विचारधारा से रू--रू कराना चाहता है?

ये लोग मुस्लिम समुदाय में भ्रम पैदा करना चाहते हैं। पिछले छह साल में इस प्रक्रिया में तेज़ी आयी है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं: कुछ समय पहले कॉरपोरेट क्षेत्र में काम करने वाले मुसलमानों का एक वर्ग मेरे आवास पर एक बैठक के लिए आया था। वे यह तय करना चाहते थे कि गुरुग्राम में शुक्रवार की नमाज़ के बाधित होने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए।

मैंने उनसे कहा था कि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है; हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है। हमें अपने संवैधानिक अधिकारों को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए। लेकिन, उन्होंने कहा था कि इससे कुछ नहीं निकलेगा, बल्कि उल्टे उन पर ही छापे मारे जायेंगे और उन्हें अदालती मामलों में उलझा दिया जायेगा। बाद में मुझे बताया गया कि चार-पांच लोग 'आत्मसमर्पण' करने को लेकर इंद्रेश के पास गये थे।

आपको एक और उदाहरण देता हूं। 22 नवंबर को इस्लामिक कल्चरल सेंटर में इंद्रेश कुमार ने जस्टिस (सेवानिवृत्त) सोहेल सिद्दीक़ी की किताब, 'दस्तक' का विमोचन किया था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई पूर्व न्यायाधीश अपनी किताब का विमोचन आरएसएस के किसी ऐसे नेता से करवायेगा, जिसकी भारत की कल्पना संविधान से पूरी तरह अलग है। इंडियन कल्चरल सेंटर में एक ऐसा बड़ा वर्ग है, जिसने इंद्रेश और आरएसएस की ओर रुख़ कर लिया है।

गुरुग्राम में रहने वाले प्रमुख मुसलमानों की क्या भूमिका रही है?

मैं निजी तौर पर उनसे बहुत निराश हूं।

क्या आपने कभी उनमें से किसी से संपर्क किया हैआख़िर उनके सार्वजनिक बयान का कोई मतलब भी है?

मैं 18 दिसंबर को ही एक समारोह में लेफ़्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) ज़मीर उद्दीन शाह से मिला और उनसे अनुरोध किया कि वह शुक्रवार की नमाज विवाद पर चर्चा करने के लिए गुरुग्राम में रह रहे (भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त) एसवाई कुरैशी सहित प्रमुख मुसलमानों को अपने आवास या मेरे घर या फिर किसी और जगह पर आमंत्रित करें। मैंने उनसे यह अनुरोध पहले भी किया था। अभी की तरह ही उस समय भी लेफ़्टिनेंट जनरल शाह ने कुछ भी नहीं कहा।

मैंने इस मुद्दे पर पूर्व आईएएस अधिकारी और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके नसीम अहमद से भी मुलाक़ात की थी और इस सिलसिले में बात की थी। लेकिन, उन्होंने अपना समर्थन नहीं दिया। ये सब ख़ामोश हो गये हैं। सही बताऊं, तो उनकी चुप्पी ने ही कॉरपोरेट सेक्टर के मुसलमानों को शुक्रवार की नमाज़ के विवाद पर प्रतिक्रिया देने के सिलसिले में मुझसे संपर्क करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, मेरी सेहत अच्छी नहीं रह गयी है।(अदीब का 2017 में किडनी ट्रांसप्लांट हुआ था)

क्या आपने राजनीतिक दलों को चिट्ठी लिखकर उनका समर्थन मांगा है?

मैंने 18 पार्टियों को चिट्ठी लिखी थी। ये वे पार्टियां हैं, जिनका भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन नहीं है। मैंने जनता दल (यूनाइटेड) को चिट्ठी नहीं लिखी। अपनी उस चिट्ठी के साथ मैंने डेटा पेश करने वाले वे दस्तावेज़ भी लगाये थे, जो गुरुग्राम के चार लाख मुसलमानों को जुमे की नमाज़ अदा करने के अधिकार से वंचित करने की नाइंसाफ़ी का संकेत देते हैं। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि कृपया हमारे लिए बात करें। ये चिट्ठियां डाक से नहीं भेजी गयी थीं; ये चिट्ठियां निजी तौर पर दी गयी थीं। मैंने कांग्रेस नेता राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति, शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल, बहुजन समाज पार्टी आदि को चिट्ठियां भेजीं।

उनकी ओर से किस तरह की प्रतिक्रियायें थीं?

सिर्फ़ तीन की ओर से जवाब आये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता सीताराम येचुरी ने जवाब दिया। उन्होंने कहा कि मैंने जो कुछ लिखा है, उससे वह पूरी तरह सहमत हैं और जो कुछ भी संभव बन पड़ेगा, वह सब करेंगे। उनकी पार्टी की सहयोगी वृंदा करात ने मुझे फ़ोन किया। उन्होंने कहा कि वह अपनी पार्टी से संसद में गुरुग्राम का सवाल उठाने के लिए कहेंगी। मैं थोड़ा हैरान था कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि, 17 दिसंबर को उन्होंने मुझे फ़ोन ज़रूर किया था। उन्होंने कहा था कि वह जम्मू में थे और इसलिए जवाब नहीं दे सके। उन्होंने हमारे प्रति संवेदना व्यक्त की। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मोहम्मद बशीर ने भी जवाब दिया; उन्होंने संसद में अपना बयान व्हाट्सएप के ज़रिये भेजा।

मुझे लगा था कि फ़ारूक अब्दुल्ला और मोहम्मद बशीर जवाब देंगे, और उन्होंने दिया भी…।

ख़ैर, असदुद्दीन ओवैसी ने कोई जवाब नहीं दिया और न ही बदरुद्दीन अजमल ने कोई जवाब दिया। ओवैसी एक राजनेता हैं, लेकिन मैं उन्हें मुस्लिम नेता नहीं मानता। वह सिर्फ़ मुस्लिम भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं और इसका फ़ायदा मुस्लिम समुदाय का विरोध करने वाली पार्टी को मिलता है।

आपको क्या लगता है कि इन राजनीतिक दलों ने जवाब क्यों नहीं दिया?

मुस्लिम समुदाय भारत में इकौलता अप्रासंगिक समुदाय है। जब किसी मुसलमान की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है, तो कोई भी पक्ष कुछ भी नहीं बोलता या पीड़ित परिवार से मिलने तक नहीं जाता है। मुझे इस बात से दुख होता है कि मुसलमानों को यह भी पता नहीं है कि वे अप्रासंगिक हो चुके हैं, और कोई भी पार्टी उनके लिए खड़ी नहीं होगी। आख़िर क्यों वे अपने समुदाय के लिए भी खड़े नहीं हो पाते हैं। वे महज़ भाजपा को हराने को लेकर जुनूनी हैं। उस जुनून में उन्हें अपनी अप्रासंगिकता का एहसास भी नहीं रह जाता है।

सिविल सोसाइट समूहों के बारे में आपका क्या कहना है?

सिर्फ़ सिविल सोसाइटी समूह ही तो खड़े होने और लामबंद होने के लिए तैयार हैं। मैं हमेशा चाहता हूं कि मुसलमान सिविल सोसाइटी समूहों की गतिविधियों में भाग लें। दुर्भाग्य से जब भी सिविल सोसाइटी समूह मुसलमानों के साथ हुई नाइंसाफ़ी के विरोध में दिल्ली के जंतर मंतर पर कार्यक्रम आयोजित करते हैं, तो आपको वहां पांच या दस मुसलमान ही मिलेंगे। ये पांच या दस मुसलमान वे हैं, जिन्हें मौलवी प्रगतिशील बताते हैं और मुसलमान कहलाने के लायक़ भी नहीं मानते हैं। क्या इससे भी बड़ी कुछ त्रासदी हो सकती है? सिविल सोसाइटी समूहों के लोग ही मुसलमानों के पक्ष में आवाज़ उठाते हैं। मुसलमानों को राजनीतिक दलों के बजाय सिविल सोसाइटी समूहों में यक़ीन रखना चाहिए।

क्या गुरुग्राम के मुसलमान अलग-थलगउदासक्रोधितनिराश या भीतर से ख़ाली-ख़ाली महसूस करते हैं?

असल में पूरा समुदाय ही डरा हुआ है। आरएसएस की रणनीति में डर किसी समुदाय को नियंत्रित करने का एक हथियार है। मैं इस बात को लेकर बहुत आशंकित महसूस कर रहा हूं कि ख़ासकर पढ़े-लिखे मुसलमानों में यह डर दिमाग़ी तौर पर उन्हें बीमार बना सकता है, जिससे वे ग़ैर-ज़िम्मेदार हो सकते हैं।

आपको शुक्रवार की नमाज़ में किस तरह का प्रतीकवाद दिखता है?

मैंने कभी सोचा नहीं था कि अपनी मौत से पहले मैं भारत में एक दिन ऐसा भी देखूंगा, जब मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने की इजाज़त नहीं होगी। मुझे लगता है कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की वह गहरी टिप्पणी कितनी सच थी कि मुसलमानों को धर्म के आधार पर विभाजन के परिणाम तब तक भुगतने होंगे, जब तक कि दुनिया का अंत नहीं हो जाता। मैं एक भावुक इंसान हूं। गुरुग्राम में हो रही घटनाओं के कारण मैं रात को सो नहीं पा रहा हूं। (वह रोने लगते हैं। मैं अपना रिकॉर्डर बंद कर देता हूं)।

(एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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