राहुल गांधी अभी भी एक संभावना हैं
राहुल गांधी के खिलाफ जो कुछ किया या कहा जा रहा है, उसे देखने सुनने के बाद परसाई जी की आत्मकथा का पहला वाक्य (साहित्य अकादमी पुरस्कार स्वीकृति व्याख्यान) याद आ गया। वे कहते हैं, ‘‘मैं लेखक छोटा हूं, मगर संकट बड़ा हूं। एक तो बड़ा संकट मैं आचार्यों, समीक्षकों और साहित्य के नीतिकारों के लिए हूं, जिनके लिए वर्गीकरण जरुरी है, और वे तय नहीं कर पाते कि इस आदमी को किस खाते में डाल दिया जाए।” राहुल गांधी भी आज पहचान नहीं पहचाने जाने के संकट से गुजर रहे हैं।
जाने अंजाने वे वर्तमान में भारतीय राजनीति के एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन पर चर्चा हो रही है। बाकी सबका विश्लेषण हो रहा है। जाहिर है विश्लेषण कार्य हो जाने या चुक जाने के बाद ही होता है और चर्चा किसी संभावना पर होती है। राहुल गांधी अभी भी एक संभावना हैं। वे चुनाव लड़ पाएंगे या नहीं? वे भविष्य की चुनावी राजनीति का हिस्सा बन पाएंगे या नहीं? इनसे इतर तथ्य यह है कि उन्होंने भारतीय राजनीति में चुनावी राजनीति में व्याप्त अनीति को इतना अधिक उजागर कर दिया है, कि उस ओर देखते आंखें चौंधिया जाती हैं।
लोकसभा में उन्हें न बोलने देने और सत्ता पक्ष द्वारा लगातार संसद ठप करने और सूरत में न्यायिक फैसले के बीच कोई संबंध था या नहीं यह रहस्य कभी भी उजागर नहीं हो पाएगा और शायद होना भी नहीं चाहिए। जाहिर है, जितने मुंह उतनी बातें। परंतु धुआं उठा तो है। राहत इंदौरी कहते हैं,
‘‘शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए,
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए।
मैं अंधेरों से बचा लाया था अपने आपको,
मेरा दुख यह है, मेरे पीछे उजाले पड़ गए।”
सवाल अब पहेली बनते जा रहे हैं। हर उत्तर अब अटकल सा प्रतीत हो रहा है। वहीं दूसरी ओर जो नया कथानक गढ़ा जा रहा है, उसमें कथा तो है ही नहीं। पीड़ा को शब्द देना भी अब मुश्किल होता जा रहा है। अब सिर्फ ‘‘कराहकर” ही हम आप स्वयं को ‘‘अभिव्यक्त‘‘ कर सकते हैं। व्यंग्य में कही बात अब अपराध है और न्यायालयीन आदेश भावना नहीं तथ्य पर विश्वास करता है। परंतु दुखद यह है कि दिल्ली और सूरत में न्यायालयीन व्याख्याएं अलग-अलग संदेश देती है। छत्तीसगढ़ और जम्मू कश्मीर में भी उनमें विरोधाभास होता है। साबरमती आश्रम में मारपीट के आरोप लगे संवैधानिक पदाधिकारी पद की आड़ में गवाही से बचने का प्रयास कर रहे हैं। उसकी व्याख्या कहीं नहीं हो रही। यह खतरा बढ़ता जा रहा है। क्या यही सत्य के बाद (पोस्ट ट्रुथ) का काल कहलाएगा? युवाल नोवा हरारी कहते हैं, ‘‘सत्य और सत्ता इतनी दूर तक ही एक साथ यात्रा कर सकते हैं। आगे-पीछे वे अपने अलग-अलग रास्तों पर चलने लगते हैं। अगर आप सत्ता चाहते हैं, तो किसी न किसी बिन्दु पर आपको गल्पों का प्रचार करना होगा। अगर आप दुनिया के बारे में सत्य जानना चाहते हैं तो किसी न किसी मुकाम पर आपको सत्ता को अस्वीकार करना होगा।"
यह वास्तव में बड़ी दुविधाजनक स्थिति है। महात्मा गांधी ने इस असमंजता से खुद को मुक्त कर लिया था। उन्होंने निजी और सार्वजनिक मूल्यों जैसे सत्य और अहिंसा को अपनाने को लेकर संशय समाप्त कर दिया था। वे राजनीति को उस मुकाम पर ले आए कि जिसमें भारत पर दो शताब्दी तक राज करने वाले, अनगिनत व्यक्तियों की हत्या करने, उन्हें यातनाएं देने वाले, भारत का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक ढांचा नष्ट कर देने वाले भी मित्रवत होकर यहां से गए। उन्होंने ऐसा क्यों किया से भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वे ऐसा कैसे कर पाए? यही तो मानवीयता की मूलभूत परिकल्पना है। गांधी के इस महानतम उपक्रम को उनकी पोती तारा भट्टाचार्य ने सेवाग्राम में हुए सर्वोदय समाज सम्मेलन (सर्वसेवा संघ) के अधिवेशन में बेहद खूबसूरती से समझाते हुए कहा कि ‘‘दरअसल बापू ने भारत को नहीं अंग्रेजों को उनके पापों से मुक्त करते हुए उन्हें यहां से चले जाने दिया।"
वे कहती हैं, ‘‘वास्तव में मुक्त तो अंग्रेज हुए, अपने पाप कर्म से।" परंतु ज्यादातर लोग न तो इस तरह से सोचते हैं और न ही इस तरह के विचार जो कि वास्तविकता में घटित हुए हैं, पर विश्वास करते हैं। वे तो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में भी, उनके न रहने के बावजूद प्रतिस्पर्धा करते हैं। जाहिर है तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व में लड़ा जा रहा स्वतंत्रता संग्राम उस दौर का प्रतिनिधि आंदोलन था। अगर आज की परिस्थिति में देखें तो कांग्रेस एक प्रतिनिधि आंदोलनकर्ता है। तमाम अन्य उसके साथ भले ही ना हों, पर एक उद्देश्य के लिए भी सभी संघर्षरत हैं और इसका प्रमाण राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द होने के बाद आई प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट हो गया। वह सत्य यह है कि सबका लक्ष्य अंततः लोकतंत्र की रक्षा करना ही है, रास्ते भले ही अलग हों, साथ अलग-अलग हों पर गंतव्य व लक्ष्य तो एक ही है। और यही भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट है। और यही राहुल गांधी द्वारा अर्जित सबसे बड़ी संपत्ति भी है।
आज के समय में जिन दो मूल्यों पर सबसे ज्यादा हमला किया जा रहा है, वह हैं सत्य और अहिंसा। परंतु इससे यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि बाकी मानवीय मूल्यों की रक्षा हो रही है। सत्य को नकारने हेतु प्राथमिक अनिवार्यता है कि, समता, समानता, गरिमा, सांप्रदायिक सौहार्द, बंधुता जैसे तमाम मानवीय मूल्यों की पहले अवहेलना की जाए। यह पोस्ट ट्रुथ का काल पोस्ट इथिक्स, यानी नैतिकता विहीनता का काल भी बनता जा रहा है। झूठ के इस बोलबाले को अधिकांश मीडिया सच के आवरण में हमारे सामने रखता है। झूठी खबरें अब समस्या नहीं रह गई हैं। झूठी या फेक न्यूज की वजह से खबरों का संसार, मनोरंजन की दुनिया में बदलता जा रहा है। बिल्कीस बानो का मामला चर्चा के लायक नहीं है। हाथरस कांड के आरोपी सबूतों के अभाव में छूट जाते हैं। हम सभी जानते हैं कि सबूत इकट्ठा करना किसकी जिम्मेदारी है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने अभी सर्वोच्च न्यायालय को नार्थस्टार यानी ध्रुव तारा बताया। जाहिर है वे इसे अटल व अडिग बता रहे हैं। परंतु भारतीय न्याय व्यवस्था में अन्य ग्रहों के मानिंद प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालय हैं और आकाश में टिमटिमाते अनगिनत तारों की तरह तहसील स्तर से लेकर जिला स्तर तक अनगिनत छोटे जिला स्तरीय न्यायालय भी हैं। हम सीधे ध्रुव तारे तक तो पहुंच नहीं सकते। हमें तो अपने पास के तारे- न्यायालय से ही यात्रा शुरु करना होती है। अन्याय के अथाह समुद्र अथवा असीमित रेगिस्तान की अंधियारी रात में हम ध्रुव तारे की ओर देखकर उस रास्ते की ओर चल तो सकते हैं, परंतु रास्ता कब तक रास्ता ही रहेगा? वह मंजिल पर कब पहुंच पाएगा? यहीं पर हरारी फिर याद आते हैं, ‘‘इसलिए झूठी खबर को एक मानक की तरह स्वीकार करने की बजाए हमें इसे उससे कहीं ज्यादा मुश्किल समस्या की तरह पहचानना चाहिए, जितना हम उसको मानने की ओर प्रवृत्त होते हैं, और हमें वास्तविकता को गल्प से अलग करने की और भी कठोर कोशिश करना चाहिए। परिपूर्णता की उम्मीद न करें। सारे गल्पों में सबसे बड़ा गल्प दुनिया की जटिलता से इंकार करना और आदिम पवित्रता और शैतानी अपवित्रता की पदावली में सोचना है।" हमें याद रखना होगा कि राजनीति और राजनीतिज्ञ दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं हैं। हमारा चयन इस आधार पर होना चाहिए कि कौन इन सीमाओं का न्यूनतम अतिक्रमण करता है।
राहुल गांधी अनायास ही भारत के एकमात्र स्वीकार्य नेता के रूप में उभर गए। भाजपा ने उन्हें भारतीय राजनीति का पर्याय बनाने का कार्य किया। किसी एक व्यक्ति का इतना विरोध, जबकि वह विपक्ष में हो, सत्ता में न हो, इससे पहले कभी नहीं हुआ। परसाई जी फिर याद आ रहे हैं ‘‘हमें इससे क्या मतलब कि तर्क की धारा सूखे मरुस्थल की रेत में न दिखे (रवीन्द्रनाथ), वह तो छिप गई। इसलिए जनगण अधिनायक ! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि, हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो (जिसमें जादूगर और साधुजन को खुश रखें)।" तो हम एक मायावी भारत को देख रहे हैं। बढ़ती माया की वजह से हमें हमारी समस्याएं नहीं दिखाई पड़ रहीं हैं और जो देख पा रहा है, उसे संज्ञाशून्य करने के प्रयास निरंतर जारी हैं। यह तय है कि हार और जीत के बीच का सफर बहुत लंबा होता है। सन् 1757 में बंगाल में हुई नवाब सिराजुद्दोला की हार के बाद स्थापित अंग्रेजी शासन को हटाने में करीब दो शताब्दियां यानी दो सौ साल लगे थे। हिंसा के द्वारा स्थापित राज्य सत्य और अहिंसा से हटा था। विनोबा कहते थे कि वे गांधी के कंधों पर बैठे हैं। इसीलिए वे हिन्द स्वराज्य से आगे जाकर ‘‘स्वराज्य शास्त्र" लिख पाए। यह छोटी पुस्तिका भी प्रश्नोत्तरी की शक्ल में है। इसके इस प्रश्नोत्तर पर गौर करिए। (जवाब काफी लंबा है, कुछ शुरुआती पंक्तियां ही ली हैं।)
प्रश्न: क्या अहिंसा पर अधिष्ठित राज्य पद्धति टिक सकेगी?
उत्तर: (50) इस प्रश्न के मूल में यह मान्यता सी रही है कि हिंसा पर निर्मित राज्य पद्धति टिक सकती है। वस्तुतः अब तक के सारे इतिहास, सभी ने राज्य पद्धति को स्थायी बनाने के लिए हिंसा के ही प्रयोग किये हैं। फिर भी हमारे मन पर हिंसा की ऐसी कुछ पकड़ बैठी हुई है कि हिंसा हजारों बार असफल होने के बाद भी उसकी सफलता में हमारी श्रद्धा बनी हुई है। उनका स्पष्ट मानना है कि व्यवस्था में स्थापित्व सिर्फ सत्य और अहिंसा से ही आ सकता है।
परिस्थितियां साफ-साफ समझा रहीं है कि भारत की वर्तमान स्थिति लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के बहुत अनुकूल नहीं हैं। जयप्रकाश नारायण ने कहा था, क्रांति अपने समय और नेता का चुनाव स्वयं करती है। एक अहिंसक क्रांति की परिकल्पना और उसकी सफल परिणिति आधुनिक समय में तो भारत में ही संभव हो सकती है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता यह हो गई है कि वे सारे लोग जिनका संविधान व लोकतंत्र में विश्वास है वे सक्रिय राजनीति में भागीदारी करें और धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का सीधा साथ दें। इसे संभव बनाना ही होगा। क्या राहुल गांधी इस संक्रमण काल में और अधिक परिपक्वता और धैर्य दिखा पाएंगे, अभी तो यह संभव दिख रहा है।
आज की परिस्थिति पर एक बार फिर परसाई जी की कलम से, ‘‘वह जो आदमी मेरे सामने बैठा है, जवान और दुखी है। जवान आदमी को दुखी देखने से पाप लगता है। मगर मजबूरी में पाप भी हो जाता है। बेकारी से दुखी जवानों को सारा देश देख रहा है और सबको पाप लग रहा है। सबसे ज्यादा पाप उन भाग्य विधाताओं को लग रहा है, जिनके कर्म, अकर्म और कुकर्म के कारण वह बेकार है। इतना पाप फिर भी ये ऐसे भले चंगे! क्या पाप की क्वालिटी भी गिर गई है? उसमें भी मिलावट होने लगी है?
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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