राजस्थान चुनाव: मेवाड़ सभी सियासी दलों के लिए ज़रूरी क्यों है?
राजधानी जयपुर से 394 किलोमीटर दक्षिण में बसा मेवाड़ जितना ऐतिहासिक है, उतना ही सत्ता के लिए ज़रूरी भी। मेवाड़ को लेकर एक कहावत बहुत प्रचलित है कि राजस्थान की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। पिछले 2018 के चुनाव नतीजों को छोड़ दें तो, बीते तीन दशकों के इतिहास में ये देखा गया है कि, मेवाड़ की ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी ही राजस्थान पर राज करती है। मेवाड़ ने राजस्थान को चार मुख्यमंत्री दिए हैं, जिनमें मोहन लाल सुखाड़िया सबसे ज़्यादा समय 16 साल तक इस पद पर बने रहे। मेवाड़ के नेताओं का दबदबा मंत्रिमंडल में भी देखा जाता रहा है। और यही कारण है कि इस बार भी मेवाड़ जीतने के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने पूरी ताक़त लगा दी है।
बता दें कि वैसे तो मेवाड़ में राज्य की कुल 200 में से सिर्फ़ 28 विधानसभा सीटे हैं लेकिन इनका प्रभाव चाहे वो किसी लहर में हो, जातीय हो या भावनात्मक हो, अन्य सीटों पर हमेशा ही देखने को मिलता है। और शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी और गृह मंत्री अमित शाह तक मेवाड़ में जनसभा कर चुके हैं। बीते चुनाव पर नज़र डालें तो ये पहली बार हुआ था जब बीजेपी ने मेवाड़ तो जीता लेकिन सत्ता से चूक गई थी।
प्रशासनिक विकेंद्रीकरण और राजनीतिक लाभ
मेवाड़ की सियासत समझें तो ये मौजूदा समय में उदयपुर संभाग कहलाता है। इसकी सीमाएं गुजरात और मध्य प्रदेश से मिलती हैं। इसके अंतर्गत पांच ज़िले उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा और सलूम्बर आते हैं। इस साल संभागों में हुए बदलाव से पहले उदयपुर संभाग में बाँसवाड़ा, डुंगरपुर, प्रतापगढ़ ज़िले भी आते थे। लेकिन, अब ये अलग होकर बाँसवाड़ा संभाग बन गया है। ये बदलाव भी बहुत सुर्खियों में था और इसकी वजह थी वागड़ इलाक़े की आदिवासी सीटे, जो अब बांसवाड़ा संभाग में शामिल है।
स्थानीय जानकार बताते हैं कि संभाग और ज़िले बनाने की मांग तो बहुत पहले से हो रही थी लेकिन इसी साल ये घोषणा करके गहलोत सरकार ने लोगों के साथ-साथ अपने लिए भी फ़ायदा ले लिया है।
वागड़ और आस-पास के कई इलाकों के लोगों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि ये ज़िला छोटा होने से संसाधनों तक लोगों की पहुंच आसान हो जाती है। अब प्राशसनिक विकेंद्रीकरण से लोगों को बहुत सुविधाएं और लाभ मिल सकता है। इसमें स्थानीय स्तर पर नौकरशाही ठीक ढंग से काम कर पाती है। नए संसाधन, नया बजट जैसी चीज़ों से बेहतर सिस्टम देखने को मिलता है।
कई लोगों ने ये भी बताया कि ज्यादातर सुविधाएं बड़ी जगहों पर ही होती हैं। इसलिए एक बड़ा ज़िला अगर लंबी दूरी में हो तो कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। जैसे उदयपुर मुख्यालय से बांसवाड़ा पहुंचने में लगभग ढाई-तीन घंटे लगते हैं। कभी आपात स्थिति हो तो यहाँ पहुँचने में बहुत समय लगता था। अब नया संभाग बनने से तात्कालिक स्तर पर वहीं सुविधाएं मिलने में आसानी होगी।
मेवाड़ के जातीय समीकरण और प्रभाव
कई स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि मेवाड़ में जातीय समीकरण भी काफ़ी मायने रखते हैं। ये इलाका आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र और अलग-अलग जातियों जैसे राजपूत, ब्राह्मण, जाट, माहेश्वरी, गुर्जर और अनुसूचित जातियों की मिलीजुली संख्या में बंटा हुआ है। यहां जाट और गुर्जर ओबीसी में आते हैं। और यही कारण है कि यहां कि यहां हर सीट पर एक जाति विशेष का प्रभाव देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए उदयपुर सिटी और नाथद्वार ब्राह्मण और जैन बाहुल्य सीट है। वहीं, चित्तौड़गढ़ और वल्लभनगर में राजपूतों का दबदबा है। भीलवाड़ा में गुर्जर, तो वहीं कुंभलगढ़ में माहेश्वरी समाज के प्रत्याशियों की अक्सर जीत होते देखी गई है। हालांकि हर चुनाव में ये बहुत स्पष्ट देखा जाता है कि यहां के सीटों के समीकरण का असर दूसरी जगह भी देखने को मिलता है। और इसका कारण भी यहां के मजबूत जातिवादी संगठन ही हैं। यहां राजघराने का प्रभाव भी है।
ये मेवाड़ का महत्व ही है, जो बीजेपी ने अपनी दूसरी ‘परिवर्तन यात्रा’ की शुरुआत बांसवाड़ा से की जो मेवाड़ की लगभग सभी सीटों से होकर निकली। तो साथ ही राहुल गांधी की राजस्थान में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के फोकस में भी मेवाड़ को ही रखा गया। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी बांसवाड़ा के मानगढ़ धाम आ चुके हैं और बीजेपी-कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता यहां के चक्कर लगा चुके हैं।
मेवाड़ की राजनीति में पार्टियों का हाल
बहरहाल, मेवाड़ के इतिहास के आंकड़े देखें, तो यहां साल 2003 में परिसीमन से पहले 25 सीटों में से 18 बीजेपी और 5 कांग्रेस ने जीती थीं और राजस्थान में सरकार भी बीजेपी की ही बनी थी। इसी तरह साल 2008 में यहां कांग्रेस ने 19 और बीजेपी ने 7 सीटें हासिल की थीं और तब यहां सत्ता पर कांग्रेस काबिज़ हुई थी। साल 2013 के चुनावों में भी कुल 28 सीटों में से बीजेपी को 25 और कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं और सरकार बनी थी बीजेपी की। हालांकि राजनीति में कई बार मिथक बनते और टूटते हैं और इससे मेवाड़ भी अछूता नहीं रहा है। साल 2018 यानी बीते विधानसभा चुनाव में यहां बीजेपी ने 15 और कांग्रेस ने 10 सीटें जीती थीं लेकिन राज्य में सरकार कांग्रेस की बनी थी।
अब एक बार फिर सभी पार्टियां मेवाड़ को साधने में लगी हैं और यहां अपना दम-खम दिखा रही हैं। हालांकि जनता के बीच एक ओर गहलोत सरकार की पॉपुलर योजनाएं हैं, तो वहीं दूसरी तरफ सत्ता विरोधी लहर की भावना भी देखने को मिलती है, तो यहां के मुकाबले को और दिलचस्प बना देती है। मेवाड़ के कई इलाकों में भी बिजली, पानी और स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर दिक्कतें हैं, तो वहीं अब कई जगह समाधान भी पहुंच रहे हैं। यहां की एक और समस्या जो ज्यादातर लोगों का ध्यान आकर्षित करती है, वो है धार्मिक और पर्यटन इलाकों का मैनेजमेंट और साफ सफाई। यहां के स्थानीय लोग अपनी धरोहर को अपना सम्मान मानते हैं और इसके बेहतर प्रबंधन की मांग की करते हैं। यहां आपको ऐतिहासिक क़िले, महल और स्मारक के साथ ही ग्रामीण और शहरी दोनों तरह के क्षेत्र मिलते हैं, जिनकी अपनी-अपनी जरूरतें और मांगें हैं। ये मेवाड़ की खासियत भी है कि यहां पुराने के साथ नए का मेल भी बखूबी देखने को मिलता है। इस बार मेवाड़ की जनता किसे चुनती है, इसका नतीज़ा तो 3 दिसंबर को ही पता चलेगा।
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