क्या रंजन गोगोई ख़ुद को क्लीन चिट देने में कामयाब रहे ?
वेंकटेशन लिखते हैं कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और अब संसद सदस्य, जस्टिस रंजन गोगोई की लिखी किताब,’जस्टिस फ़ॉर द जज: एन ऑटोबायोग्राफ़ी’ में सुप्रीम कोर्ट में उनके विवादास्पद कार्यकाल को लेकर ऐसे कई ख़ुलासे हैं, जिन पर लंबे समय तक बहस होती रहेगी।
सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान और उसके बाद भी भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) और अब संसद सदस्य, रंजन गोगोई स्तंभकारों और सुप्रीम कोर्ट पर नज़र रखने वालों की आलोचना का शिकार होते रहे हैं। अब ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने आचरण पर उठते कई सवालों के टाले गये साफ़-साफ़ जवाब को अपनी आत्मकथा के लिए बचाकर रख लिया था। मैंने चुनिंदा ख़ुलासे करने वाली उनकी इस किताब की समीक्षा के दायरे में जगह और समय की कमी के चलते महज़ कुछ ही पहलुओं को रखा है, बाक़ी पहलुओं को दूसरों के लिए छोड़ दिया हैं।
यौन उत्पीड़न का मामला
उनके न्यायिक करियर को आघात पहुंचाने वाले कई प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी की ओर से उनके ख़िलाफ़ लगाये गये यौन उत्पीड़न का आरोप हैं, जिस कर्मचारी को बाद में बहाल कर दिया गया था, इस आरोप ने नागरिक समाज के भीतर सबसे ज़्यादा आक्रोश पैदा कर दिया था। गोगोई ने एक पीठ की अध्यक्षता करते हुए ख़ुद को क्लीन चिट दे दी और बाद में तीन न्यायाधीशों की एक आंतरिक समिति ने अपनी रिपोर्ट को सार्वजनिक किये बिना या शिकायतकर्ता को उपलब्ध कराये बिना ही उन्हें पूरी तरह दोषमुक्त कर दिया था।
गोगोई अपनी इस किताब में कहते हैं कि 20 अप्रैल, 2019 को उनकी अध्यक्षता वाली तीन- न्यायाधीशों की पीठ में उनकी मौजूदगी को टाला जा सकता था। उनका कहना है कि यह "उस आरोप से पैदा हुए अनायास आक्रोश की अभिव्यक्ति थी, जो कि विश्वास और समझ से परे था।" वे लिखते हैं, "ऐसा नहीं है कि मैंने आधिकारिक तौर पर ख़ुद को क्लीन चिट दे दी थी, जैसा कि कई लोग मानते हैं या उनका आरोप है, बल्कि, 21 अप्रैल की सुबह मैंने सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बोबडे को चिट्ठी लिखकर अनुरोध किया था कि वह उस कर्मचारी की शिकायत को अपने हाथ में लें और इस मामले का उचित और मुनासिब समझे जाने वाले उचित तरीक़े से निपटारा करें।”
पूर्व सीजेआई, पूर्वोक्त न्यायमूर्ति एसए बोबडे बुधवार को नयी दिल्ली में हुए एक समारोह में अपनी किताब का विमोचन करने के मौक़े पर मौजूद थे, और उनकी यह मौजूदगी दोनों के बीच की घनिष्ठता को लेकर बहुत कुछ इशारा करती है।
यौन उत्पीड़न के आरोपों के बाद गोगोई ने ख़ुद को जिस स्थिति में पाया था, सवाल है कि उससे वह कैसे निपट पाये? गोगोई का कहना है कि पहला शिकार तो उनका परिवार ही हो सकता था। लेकिन, शायद दैवीय हस्तक्षेप के चलते ऐसा नहीं हुआ। उनकी पत्नी और बच्चों ने अपमान और बदनामी को सहन कर लिया, लेकिन उन्होंने उस कहानी पर यक़ीन नहीं किया था और उनका साथ भी नहीं छोड़ा था। वे लिखते हैं कि बहुत ही पीड़ादायक दिनों में वे उनकी ताक़त के एकलौता सहारा थे। वह लिखते हैं, “अपने प्रियजनों सहित लोगों ने मुझसे दूरी बढ़ा ली थी। मेरे कई 'मित्र' और 'शुभचिंतक' ग़ायब हो गये थे। मेरे कुछ साथियों ने समर्थन और सहानुभूति का मुखौटा लगाते हुए वास्तव में मेरी पीठ पीछे मेरे ख़िलाफ़ ही काम किया, जबकि मुझे उनकी ज़रूरत भी नहीं थी।
इस किताब में गोगोई के ख़ुद के बचाव का एक दिलचस्प पहलू यह है कि उनके मामले में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (पीओएसएच अधिनियम) और/या सुप्रीम कोर्ट नियम, 2013 के प्रावधानों की कोई ज़रूरत ही नहीं थी (पृष्ठ 144)। मगर, सवाल है कि क्यों? इसका जवाब देते हुए वह कहते हैं, क्योंकि इन प्रावधानों का उच्च न्यायपालिका के लोगों के लिए कोई मतलब ही नहीं था, और सही बात तो यह है कि ये प्रावधान उन पर लागू ही नहीं हो सकते थे। इसलिए, अंदरुनी प्रक्रिया ही थी, जिसे लागू किया जा सकता था। वह कहते हैं, "यह उन विभिन्न आरोपों के ख़िलाफ़ न्यायाधीशों के संरक्षण के संवैधानिक सिद्धांत पर बनाया गया क़ानूनी ढांचा है, जो उनके कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान उनके ख़िलाफ़ लगाया जा सकता है। यह न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और न्यायपालिका की इस संस्था का एक पहलू है।" हालांकि, यक़ीनन कई लोग इस दलील से सहमत नहीं हो पायेंगे।
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न(POSH) अधिनियम, जिसकी अधिसूचना का आठवाँ साल शुक्रवार को पूरा हुआ है, यह अधिनियम उच्च न्यायपालिका के लोगों को इसकी छूट नहीं देता है। इस अधिनियम की प्रस्तावना में साफ़ तौर पर कहा गया है कि इसका उद्देश्य कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सुरक्षा मुहैया कराना और यौन उत्पीड़न की रोकथाम और शिकायतों के निवारण और उससे जुड़े या उसके प्रासंगिक मामलों के सिलसिले में है।
गोगोई अपना विचार रखते हुए कहते हैं कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 और सुप्रीम कोर्ट नियम, 2013 के प्रावधानों का उनके ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न के मामले में कोई इस्तेमाल इसलिए नहीं था, क्योंकि इस सिलसिले में उनका कोई मतलब ही नहीं था, और वास्तव में उच्च न्यायपालिका के लोगों पर यह लागू भी नहीं हो सकता।
लेकिन,अगर संसद उच्च न्यायपालिका के लोगों को इसके दायरे से अलग करना चाहती, तो इस अधिनियम में साफ़ तौर पर इसका ज़िक्र किया जा सकता था। इसके बजाय, यह अधिनियम घोषित करता है कि यौन उत्पीड़न से किसी महिला के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके जीवन और सम्मान के साथ जीने का अधिकार, और किसी भी पेशे को अपनाने का अधिकार या कोई भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने के उन तमाम अधिकारों का उल्लंघन होता है, जिसमें यौन उत्पीड़न से मुक्त सुरक्षित वातावरण का अधिकार भी शामिल है।
इस अधिनियम की धारा 1(2) अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायाधीशों के दायरों सहित पूरे भारत के लिए व्यापक बनाती है। यहां तक कि धारा 2 (o) के तहत "कार्यस्थल" की परिभाषा के अर्थ को उच्च न्यायपालिका के दायरे से बाहर नहीं किया जा सकता। ऐसा इसलिए ,क्योंकि आख़िरकार, उच्च न्यायपालिका के संस्थानों को भी उप-धारा 2 (o) (i) के मुताबिक़ उसी सरकार की ओर से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुहैया करायी गयी निधियों से ही पर्याप्त रूप से वित्तपोषित किया जाता है।
'विद्रोही न्यायाधीशों' की प्रेस वार्ता
न्यायमूर्ति गोगोई भी 12 जनवरी, 2018 को नयी दिल्ली में उन चार 'विद्रोही' न्यायाधीशों की ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ़्रेंस का हिस्सा थे, जिनमें न्यायाधीश जस्टिस चेलमेश्वर, मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ़ शामिल थे। उन्होंने ख़ुलासा किया था कि प्रेस से मिलने का उनका फ़ैसला उस समय लिया गया था, जब तत्कालीन सीजेआई, न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने न्यायाधीश लोया मामले को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ को आवंटित करने के अपने फ़ैसले को वापस लेने से इनकार कर दिया था, जो कि उस समय वरिष्ठता क्रम में 10वें नंबर पर थे। इस मुद्दे पर प्रेस से मिलने का सुझाव सबसे पहले न्यायमूर्ति चेलमेश्वर की ओर से आया था, जिस पर अन्य न्यायमूर्ति सहमत हो गये थे।
गोगोई की वह स्वीकारोक्ति इस बात का एक साफ़ संकेत है कि कॉलेजियम किस तरह से वरिष्ठता, लिंग और क्षेत्रीय संतुलन जैसे कारकों पर विचार करते हुए विशुद्ध रूप से योग्यता के आधार पर न्यायाधीशों को सुप्रम कोर्ट में पदोन्नत करने के लिहाज़ से पक्षपातपूर्ण रहा है।
गोगोई का कहना है कि उन्होंने सोचा था कि वे कुछ पत्रकारों से मिलेंगे। जब उन्होंने देखा कि वहां तो पूरा का पूरा प्रेस ही मौजूद है, तो वह चौंक गये थे। हालांकि, उन्होंने यह तो नहीं कहा, लेकिन स्पष्ट था कि अगर उन्हें पता होता कि इसे बहुत प्रचार-प्रसार मिलेगा, तो वे वहां जाने से बचते। लेकिन, चाहकर भी वह पीछे नहीं हट सकते थे, क्योंकि तबतक बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए, उनका मानना था कि अगर पीछे के घटनाक्रम को देखा जाये, तो यह एक ऐसा क़दम था, जिसे उठाया जाना सही था, क्योंकि इस क़दम ने मामलों के आवंटन की शक्ति का इस्तेमाल करने के लिहाज़ से सीजेआई मिश्रा को सतर्क और जागरूक कर दिया था।
कॉलेजियम
अपनी इस किताब में गोगोई कहते हैं कि उन्हें 2018 में कॉलेजियम की सिफ़ारिश को जस्टिस प्रदीप नंदराजोग और राजेंद्र मेनन (क्रमशः राजस्थान और दिल्ली हाई कोर्टों के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीशों) को सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नत करने को लेकर स्थगित कर देना पड़ा था, क्योंकि इससे पहले कि वह तत्कालीन केंद्रीय क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को मसौदा पत्र भेज पाते, यह बात मीडिया में लीक हो गयी थी। ऐसा लगता है कि गोगोई और जस्टिस लोकुर दोनों ही उस लीक को लेकर परेशान थे। इसका मतलब यह है कि वह लीक अन्य तीन लोगों की ओर से इस बीच मीडिया से बात करने के चलते हुआ होगा। ये अन्य तीन लोग थे- जस्टिस ए.के. सीकरी, एस.ए. बोबडे और एन.वी. रमना।
इसके बाद गोगोई उन कारणों की पड़ताल करते हैं, जिससे उन्हें यक़ीन हो गया था कि जस्टिस नंदराजोग और मेनन दोनों बतौर जज अपने पिछले कार्यकाल के दौरान उन्होंने जो कुछ किया था और जो कुछ नहीं कर पाये थे, उनके चलते पदोन्नत होने के पात्र नहीं थे। गोगोई के मुताबिक़, न्यायमूर्ति नंदराजोग ने न्यायिक आदेश में साहित्यिक नक़ल को लेकर माफ़ी की पेशकश की थी। 22 जून, 2017 को सुप्रीम कोर्ट की अवकाश पीठ के एक आदेश से उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक दीवानी अपील को वापस लेने पर रोक लगा दी दी गयी थी। गोगोई उस आदेश के पक्षकार नहीं थे।
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े कहते हैं, "गोगोई संतरे के साथ सेब की ग़लत तुलना करते हुए शेखी बघार रहे हैं।"
गोगोई का कहना है कि पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति मेनन ने न्यायाधीशों के लिए कुछ नामों की सिफ़ारिश की थी, हालांकि वे आय के मानदंडों को पूरा नहीं करते थे।
इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि कॉलेजियम ने 30 दिसंबर, 2018 को जस्टिस लोकुर के सेवानिवृत्त होने के बाद पहले प्रस्तावित इन दो न्यायाधीशों के नामों पर पुनर्विचार किया था। लेकिन, सवाल है कि क्या गोगोई को जस्टिस नंदराजोग और मेनन की तब उस पृष्ठभूमि के बारे में पता नहीं था, जब कॉलेजियम ने उनके नाम को प्रस्तावित किया था और उन्हें पदोन्नत करने पर सहमत हो गये थे। क्या जस्टिस लोकुर सेवानिवृत्त हो गये? गोगोई ने सिवाय यह कहने के इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि मीडिया को जानकारी लीक करने से उनकी पदोन्नति नामुमिकन हो गयी थी। अगर ऐसा था, तो उन्होंने इस किताब में उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल करने का विकल्प क्यों चुना?
आख़िरकार, गोगोई का कहना है कि जनवरी 2019 में कॉलेजियम जस्टिस दिनेश माहेश्वरी और संजीव खन्ना को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत करने का इच्छुक था। न्यायमूर्ति माहेश्वरी को इसलिए पदोन्नत किया जाना था, क्योंकि उनके कनिष्ठ न्यायमूर्ति रस्तोगी पहले ही पदोन्नत हो चुके थे और न्यायमूर्ति माहेश्वरी की सत्यापन रिपोर्ट, जो कि पहले से ही लंबित थी, तब पूरी हो चुकी थी। इस तथ्य के बावजूद न्यायमूर्ति खन्ना को सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया था कि वह तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों, जस्टिस नंदराजोग, गीता मित्तल और रवींद्र भट को इस आधार पर हटा देंगे और इस तरह, दिल्ली हाई कोर्ट का प्रतिनिधित्व देते हुए जस्टिस खन्ना को 2025 में सीजेआई बनने का मौक़ा मिल सकेगा।
गोगोई की वह स्वीकारोक्ति इस बात का एक साफ़ संकेत है कि कॉलेजियम किस तरह से वरिष्ठता, लिंग और क्षेत्रीय संतुलन जैसे कारकों पर विचार करते हुए विशुद्ध रूप से योग्यता के आधार पर न्यायाधीशों को सुप्रम कोर्ट में पदोन्नत करने के लिहाज़ से पक्षपातपूर्ण रहा है, जो कि समझ में आता है। सीजेआई कौन बन सकता है और कितने समय के लिए बना सकता है (मसलन, जस्टिस खन्ना 2025 में सिर्फ़ छह महीने के लिए यह पद धारण करेंगे) और किस हाई कोर्ट को इस बात का संतोष हो सकता है कि अपने पिछले कार्यकाल के आधार पर सीजेआई से प्रतिनिधित्व किया जा रहा है, ऐसा लगता है कि इस तरह के बाहरी विचारों ने कॉलेजियम के फ़ैसलों को प्रभावित किया है।
सीलबंद कवर प्रक्रिया
गोगोई ने गुरुवार को टाइम्स ऑफ़ इंडिया को दिये अपने साक्षात्कार में कहा है कि सीलबंद कवर प्रक्रिया उनके कार्यकाल से बहुत पहले ही शुरू हो चुकी थी, और राफ़ेल मामले में इसका पालन करने के लिए उन्हें ग़लत तरीक़े से निशाना बनाया गया था। उन्होंने सवाल किया है, “सच्चाई तो यह है कि शाहीन बाग़ मामले मेंसीलबंद कवर प्रक्रिया के आलोचकों में से एक संजय हेगड़े ने ख़ुद ही एक सीलबंद लिफाफ़े में अदालत को एक रिपोर्ट पेश की थी। क्या यह दोहरे मापदंड का मामला नहीं है?”
इस बारे में जब वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े से उनकी प्रतिक्रिया मांगी गयी, तो उन्होंने द लीफ़लेट को बताया, "बेशक श्री गोगोई (चूंकि इस समय वह सत्ता में है) को याद रखना चाहिए कि उनके न्यायिक कामकाज में सीलबंद कवर पर भरोसा करने को लेकर उनकी आलोचना की गयी थी। मैं तो कभी जज नहीं रहा। मध्यस्थता एक न्यायिक प्रक्रिया नहीं है और मध्यस्थ प्रक्रिया के हिस्से के रूप में गोपनीयता को बनाये रखता है। गोगोई का यह बयान संतरे के साथ सेब की तुलना करने वाली एक बेढब तुलना है।”
(वी. वेंकटेशन द लीफ़लेट के संपादक हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)
साभार: द लीफ़लेट
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