सावरकर, एक अलग क़िस्म के ‘भारत रत्न’!
“यह एक रोचक तथ्य है कि जैसे ही हमने 21वीं शदी में प्रवेश किया है, इतिहासकार राजनीति के केंद्र में आ गए हैं। हम इतिहासकार अतीत के एकमात्र आपूर्तिकर्ता हैं। अतीत के बारे में संशोधन करने का एकमात्र रास्ता इतिहासकारों के ज़रिये आज नहीं तो कल गुज़रता ही है।।।।ज्ञान की जगह को पौराणिक कथाएँ भर रही हैं।
21वीं सदी के उषाकाल के दौरान मशहूर विद्वान और इतिहासकार एरिक होब्स्वम ने न्यूयार्क के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने अभिभाषण में “इतिहास के नष्ट” होने की प्रक्रिया से लेकर उसे “संशोधित करने” या किस प्रकार “ज्ञान का स्थान मिथक ले रहे हैं” की प्रक्रिया के बारे में बताया था।
तब से अब तक दुनिया में गंगा, राइन और यांग्तीज़ में काफ़ी पानी बह चुका है और आज हम 21वीं सदी के तीसरे दशक की दहलीज़ पर खड़े होकर अनुभव करते हैं कि कैसे धरती के विभिन्न हिस्सों में शाब्दिक और रूपक दोनों रूपों में यह प्रक्रिया शुरू हुई।
दुनिया के इस हिस्से में राजनीति और समाज में हिंदुत्व वर्चस्व की ताक़तों के उठान से शायद यह प्रक्रिया अपने चरम पर पहुँच गई है, जो इस बात में दिखती है कि हर दूसरे भगवाधारी में इतना आत्मविश्वास भर गया है कि वह कुछ भी अजीबोग़रीब तथ्य की वैधता का दावा पेश करने लगता है। इसे इस आलोक में देखा जाना चाहिए जब हालिया चल रहे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के अपने चुनावी घोषणापत्र में भारतीय जनता पार्टी ने वादा करती है कि अगर वे चुनकर आते हैं तो वह वीडी सावरकर को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित करेंगे।
सत्तारूढ़ दल के हिस्से से उछाला गया यह वादा आश्चर्यचकित नहीं करता।
काफ़ी अरसे से, जब 2014 में पहली बार केंद्र की सत्ता में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का बीजेपी को पहली बार मौक़ा मिला, उसने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए हैं। समीक्षकों ने इस बारे में ठीक से उल्लेख किया है कि इस घोषणा का “प्रमुख कारण बीजेपी के हिंदुत्व की राजनीति पर एकछत्र पकड़ बनाये रखने की इच्छा में दिखता है” और उसकी पूरी कोशिश है कि हिंदुत्व की राजनैतिक विचारधारा को किसी और के साथ साझा न करना पड़े।
सवाल है: क्यों सावरकर आज भी इतने विवादित व्यक्तित्व के रूप में सामने आते हैं कि इस प्रस्ताव पर विभिन्न राजनीतिक हलक़ों से बीजेपी को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है? इस सबके बावजूद कि अपने युवावस्था काल में सावरकर ने ब्रिटिश विरोधी उग्र आंदोलन में हिस्सा लिया था, और यह तब भी जारी रहा जब वे क़ानून की पढाई के लिए इंग्लैंड गए और यहाँ तक कि इस उद्देश्य के लिए किताबें और निबंध लिखे- जिसमें से एक में प्रसिद्ध मराठी शीर्षक के साथ, 1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम शामिल है, जिसमें इस युद्ध के दौरान हिन्दू मुस्लिम एकता का गौरवपूर्ण बखान है। अपनी इन्हीं गतिविधियों के चलते उन्हें दो बार आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई।
वास्तव में, इस बात को भी साथ ही साथ दर्शाने की आवश्यकता है कि जेल में सावरकर ने घोर कायरता का परिचय दिया और अपनी शीघ्र रिहाई के लिए अंग्रेज़ों को 6 क्षमा याचिकाएं लिखीं- जिसमें उन्होंने अपनी यह इच्छा तक ज़ाहिर की कि “जिस प्रकार की भी सेवा सरकार उनसे चाहे, वह देने को तत्पर हैं।”
इस बात को साबित करने के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद है कि सावरकर ने जिन्नाह से दो साल पहले ख़ुद “द्वि-राष्ट्र” के सिद्धांत -“भारत में मुख्य रूप से दो राष्ट्र हैं: हिन्दू और मुस्लिम” के सिद्धांत को प्रतिपादित किया। इसके अलावा किस प्रकार जब व्यापक जनसमूह 1940 के दशक के आरम्भ में कांग्रेस और अन्य गरमपंथी गुटों के नेतृत्व में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ “करो या मरो” (भारत छोड़ो आन्दोलन) के संघर्ष में शामिल थी, उस समय सावरकर बिना किसी शंका के भारत में घूम घूमकर हिन्दू नौजवानों को अंगर्ज़ों की सेना में भर्ती होने का आह्वान कर रहे थे, जिससे इस जनांदोलन की बढ़ती लहर को किसी तरह कुचला जा सके।
इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए कोई भी तटस्थ पर्यवेक्षक किसी ऐसे व्यक्ति का महिमामंडन नहीं कर सकता और उसे स्वतंत्रता आंदोलन के उन महान नेताओं के समकक्ष पद पर आसीन करने के प्रति आगाह करेगा, जो न कभी अपने कर्तव्य पथ से कभी विचलित हुए और न ही अपने कृत्यों के लिए कभी क्षमायाचना की।
यह स्पष्ट है कि बीजेपी इसके बारे में बिलकुल उल्टा सोचती है, जिसका दावा है कि वह हमें एक "नए भारत" में ले जा रही है। और यह कोई संयोग नहीं है कि महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे जिसे आज़ाद भारत के पहले आतंकवादी के रूप में जाना जाता है, का इन दिनों बिना किसी लुकाछिपी के खुलेआम महिमामंडन किया जा रहा है।
सावरकर को सम्मानित करने के मुद्दे पर वापस आते हुए, इस बात पर और ज़ोर देने की आवश्यकता है कि उनके व्यक्तित्व के कई अन्य भयावह पहलू हैं, जिन पर अभी तक ध्यान नहीं दिया गया है।
उदहारण के लिए, गाँधी की हत्या में अहम किरदार के रूप में सावरकर की भूमिका।
आप वल्लभभाई पटेल को याद करें, जिन्होंने 27 फ़रवरी 1948 में नेहरू को इसके बारे में लिखा था: "मैंने बापू की हत्या के मामले की जांच की प्रगति के साथ ख़ुद को लगभग दैनिक संपर्क में रखा है" उनका निष्कर्ष था: "यह कृत्य सीधे सावरकर के अधीन हिन्दू महासभा के कट्टरपंथी धड़े का है जिसने यह साज़िश रची और इसे अंजाम तक पहुँचाया।"
महात्मा गाँधी हत्याकाण्ड जांच आयोग की रिपोर्ट 1965-1969 को धन्यवाद, जिसे 1970 में भारत के गृह मंत्रालय द्वारा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है, जिसे कपूर कमीशन के रूप में जाना जाता है, जिसने पटेल के निष्कर्षों की पुष्टि की। रिपोर्ट के अनुसार: “सावरकर और उसके सहयोगियों द्वारा हत्या की साज़िश के सिवाय अन्य किसी सिद्धांत के दावे को यह नष्ट करता है।”
दूसरा, जब नए नए आज़ाद हुए भारत देश में समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों के आधार पर एक संविधान को विकसित करने की कोशिश चल रही थी, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की तरह, सावरकर को भी भारत को एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्वीकार करने में बहुत कठिनाई हो रही थी, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वह किसी भी जाति, लिंग, धर्म इत्यादि का हो। यह वह दौर था जब उन्होंने मनुस्मृति के प्रति अपने गहरे लगाव को प्रदर्शित किया।
“मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बना हुआ है। सदियों से चली आ रही इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और अलौकिक यात्रा को सूचीबद्ध किया है। आज भी, करोड़ों हिन्दू मनुस्मृति के आधार पर ही अपने जीवन में इसके नियम को अपने जीवन और व्यवहार पालन करते हैं। आज मनुस्मृति हिंदू क़ानून है।"
तीसरा, जिस तरह सावरकर ने आम तौर पर बदले की राजनीति का प्रचार किया और यहाँ तक कि हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की ख़ातिर बलात्कार तक को राजनीतिक हथियार के रूप में प्रचारित किया वह अपने आप में घोर निंदनीय है। उनके 'मैग्नम ओपस' भारतीय इतिहासतिल साहा सोनेरी पाने ('सिक्स गोल्डन एपोचेज़ इन इंडियन हिस्ट्री)' को उनके नए वेल्टानशांग के प्रतिनिधि के रूप में माना जा सकता है, जहाँ वे बड़ी सावधानी से अपने पूर्व के राष्ट्रवादी दर्शन से ध्यान हटाते हैं और अपने हिन्दू राष्ट्र के प्रोजेक्ट पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
अजीत कार्णिक ने अपनी टिप्पणी में, "सावरकर का हिंदुत्व" लेख ईपीडबल्यू (इकोनोमिक & पोलिटिकल वीकली, 12 अप्रैल, 2003) में लिखा है कि किस प्रकार सावरकर ने मुसलमानों से बदला नहीं लेने पर मराठों की आलोचना की है। उनके अनुसार:
“।।।उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ 390-391 पर, सावरकर ने मराठों को अब्दाली द्वारा वर्ष 1757 के आसपास किए गए अत्याचारों के जवाब में मुसलमानों से बदला नहीं लेने पर जम कर कोसा है। सावरकर सिर्फ़ मराठों से बदला लेने पर ही संतुष्ट नहीं हो जाते, बल्कि मुस्लिम धर्म (मुसलमानी) को ख़त्म करने और मुस्लिम अवाम को खदेड़ देने और भारत को “मुस्लिम-मुक्त” कर देने पर ख़ुश होते।"
सावरकर अपने सिद्धांत को बड़े अनुमोदन के साथ प्रस्तुत करते हैं कि किस तरह स्पेन, पुर्तगाल, ग्रीस और बुल्गारिया ने अतीत में ईसाई धर्म की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए यही मार्ग अपनाया था।
यह पहलू ग़ौर करने लायक है कि इस बहुचर्चित पुस्तक में, सावरकर ने "मुसलमानों के सामूहिक अपराध" के सिद्धांत को प्रस्तावित किया। यह इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि मुसलमानों को न केवल उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए दंडित करने की ज़रूरत है, बल्कि उनके सह-धर्मवादियों ने क्या किया है, इसका दंड भी उन्हें मिलना चाहिए।
एक तरह से, सावरकर ने खुद को प्रतिशोध, प्रतिकार (बदला लेने, प्रतिशोध और प्रतिशोध के लिए सभी पर्यायवाची शब्द) की भाषा के पितामह के रूप में प्रस्तुत किया है, और वे एक ऐसे प्रखर विचारक के रूप में सामने आते हैं जिनसे व्यापक स्तर पर कट्टरपंथी व्यक्तियों और हिंसक संगठनों को प्रेरणा मिली।
कार्निक आगे कहते हैं:
आगे (पेज 392), सावरकर बिना किसी रुकावट के मराठों की आलोचना में उनपर आरोप मढ़ते हुए कहते हैं कि वे न सिर्फ़ अब्दाली और उसकी सेना द्वारा हिन्दू समुदाय पर अत्याचार का बदला लेने में असफल रहे, बल्कि उन्होंने उन आम मुसलमानों से भी इस अपमान का बदला नहीं लिया जो मथुरा, गोकुल आदि स्थानों में बसे हुए थे। सावरकर के अनुसार, मराठा सेना को इन आम मुसलमानों (सैनिक नहीं) की हत्या कर देनी चाहिए थी, उनकी मस्जिदों को ढाह देना था और मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार करना चाहिए था। यह बदला पूर्व में किये किसी अत्याचारी से नहीं बल्कि उनसे लेना था जिनका पूर्व की घटनाओं से कोई लेना देना नहीं था, यह बदला उन साधारण नागरिकों से जो इन इलाक़ों में रहते थे, और उनका एकमात्र अपराध यह था कि वे उस धर्म से वास्ता रखते थे जिससे पूर्व में किये गए अत्याचारों वाले आततायी आते थे।
नस्लीय साफ़ाये के कृत्य के प्रति सभ्य दुनिया ने हाल के दिनों में आलोचनात्मक रुख़ अपनाया है। यह देखना मुश्किल नहीं है कि सावरकर इस तरह की घटनाओं पर कैसी प्रतिक्रिया देते, अगर कोई तुलना करे कि इतिहास में इसी तरह की घटनाओं पर उनका नज़रिया क्या होता।
लेकिन सावरकर की ज़िन्दगी का सबसे निंदनीय और सबसे कम ज्ञात पहलू है शिवाजी की निंदा का, जब शिवाजी ने कल्याण के नवाब की पुत्र-वधु, जिसे उनकी सेना ने क़ब्ज़े में लेकर उनके सामने प्रस्तुत किया था, के समय विशाल उदारता का परिचय दिया था। सावरकर ने शिवाजी के इस निर्णय को विकृत गुण बताया है। (भारतीय इतिहासतिल साहा सोनेरी पाने, अध्याय 4 और 5, पृष्ठ 147-74)।
किंवदंती यह है कि जब शिवाजी के उत्साही सहायकों में से एक ने नवाब की बहू को उनके सामने पेश किया, तो उसे उम्मीद थी कि उसे इसके बदले में कुछ विशेष उपहार या सम्मान मिलेगा, लेकिन शिवाजी ने न सिर्फ़ उसे इस तरह के कृत्य के लिए फटकार लगाई, बल्कि उसे दंडित भी किया और पूरे सम्मान के साथ महिला को उनके स्थान पर वापस भेज दिया।
आज भी हम गर्व के साथ छत्रपति शिवाजी और चिमाजी अप्पा के उस फ़ैसले का उल्लेख करते हैं, जब उन्होंने सम्मानपूर्वक कल्याण के मुस्लिम गवर्नर की पुत्रवधु और बस्सें के पुर्तगाली गवर्नर की पत्नी को वापस भिजवा दिया। लेकिन क्या यह विचित्र नहीं है कि जब वे ऐसा कर रहे थे, तो न तो शिवाजी और न ही चिमाजी अप्पा को एक बार भी यह ख़याल आया कि किस प्रकार महमूद ग़ज़नी, मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन ख़िलजी और दूसरों ने हज़ारों हिन्दू महिलाओं और बच्चियों जैसे दाहिर की राजकुमार कमलादेवी, कर्णराज की पत्नी या कर्णावती और उसकी बेहद ख़ूबसूरत बेटी, देवलादेवी।।।।।
लेकिन तब के प्रचलित विकृत धार्मिक मान्यताओं में महिलाओं के प्रति सम्मान की धारणा के चलते, जो अंततः हिन्दू समुदाय के लिए अत्यंत हानिकारक साबित हुए, के कारण न तो शिवाजी महाराज और न ही चिमाजी अप्पा मुस्लिम महिलाओं के साथ ऐसा कोई ग़लत व्यवहार कर सकते थे।
• (भारतीय इतिहास के छह शानदार युग, पेज 461, दिल्ली, राजधानी ग्रंथागार, 1971)
सावरकर ने शिवाजी के इस कृत्य की आलोचना की है और कहा है कि वे ग़लत थे, क्योंकि इस प्रकार का सभ्य और मानवीय व्यवहार उन कट्टरपंथियों के मन में हिन्दू महिलाओं के प्रति भी समान भाव पैदा नहीं कर सका। यह बात काफ़ी चौंकाने वाली है कि इस प्रकार सावरकर हिंदुत्व ब्रिगेड के कट्टरपंथियों को 'अन्य' महिलाओं के साथ असंख्य बलात्कारों के लिए सैद्धांतिक औचित्य प्रदान करते हैं, जिन्हें बाद में सांप्रदायिक दंगों/सामूहिक हत्याकाण्ड में पालन किया जाता रहा।
निकट भविष्य में चीज़ें किस तरह उद्घाटित करती हैं यह देखना अभी शेष है, लेकिन बीजेपी और वृहद हिन्दू परिवार को यह बताना होगा कि 'भारत के रत्न' के रूप में उनकी पसंद और उनकी तड़प आज़ादी के ज्ञात-अज्ञात नेताओं की स्मृति के प्रति एक अपमान से कम नहीं है, उनके चाहे जो भी दावे हों, यह सिर्फ़ उनके अभियान के नैतिक ख़ालीपन को साबित करता है, जो नफ़रत और बहिष्कार पर आधारित है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके व्यक्तिगर विचार हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल लेख आप नीचे लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
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