शहीदे-आज़म भगत सिंह की स्पिरिट आज ज़िंदा हो उठी है किसान आंदोलन में
23 मार्च, शहीदे-आज़म भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु का शहादत दिवस है। भगत सिंह हमारे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के अप्रतिम हीरो हैं, युवाओं के सार्वकालिक सबसे चहेते Icon हैं और 23 मार्च न सिर्फ भारत में, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में (पाकिस्तान समेत) पिछले 90 वर्षों से हर साल उनके चाहने वालों द्वारा इंकलाबी जोश-खरोश के साथ मनाया जाता रहा है, पर इस बार का 23 मार्च जरा अलग हटकर है।
इस बार भगत सिंह का किसानों-मेहनतकशों की दावेदारी का सपना, भ्रूण-रूप में ही सही, इतिहास और रूमान की दुनिया से हकीकत की दुनिया में उतर रहा है। भगत सिंह के असली वारिस उनके सपनों का हिंदुस्तान-किसानों और मेहनतकशों की आज़ादी और खुशहाली का हिंदुस्तान- बनाने के लिए खेत-खलिहानों से निकलकर देश की राजधानी के बॉर्डर पर पिछले 4 महीने से घेरा डाले हुए हैं।
कल-कारखानों-कार्यालयों-कैम्पसों से निकलकर मजदूर-कर्मचारी-छात्र-युवा उनके साथ खड़े हो रहे हैं। वे कारपोरेट पूंजीपतियों और उनकी पैरोकार सरकार के खिलाफ अकूत बलिदान देते डटे हुए हैं। इस बार 23 मार्च को शहीदों को श्रद्धांजलि के सरकारी पाखंड का भंडाफोड़ करता, दिल्ली के बॉर्डरों पर पूरे देश से चल कर आये आम जन का देश को नए कम्पनी राज से बचाने और जनता का राज बनाने का संकल्प गूंजेगा।
23 मार्च को संयुक्त किसान मोर्चा ने किसानों, मेहनतकशों, छात्र-युवाओं सबसे शहीद दिवस मनाने का आह्वान किया है। शहीदे-आज़म भगत सिंह के पैतृक गांव पंजाब के खटकड़कलां में विशाल जलसा होगा जिसमें संयुक्त मोर्चे के नेता भाग लेंगे।
इस अवसर पर हरियाणा, यू.पी व पंजाब से किसान मजदूर पदयात्राओं का आयोजन किया गया है।
एक पदयात्रा 18 मार्च को लाल सड़क हांसी से शुरू होकर 23 मार्च को टीकरी बार्डर पहुंचेगी, जिसे भगत सिंह की भांजी गुरजीत कौर ने झण्डी दिखाकर यात्रा को रवाना किया। लाल सड़क से शुरू होने वाली यह पदयात्रा ऐतिहासिक है क्योंकि बताया जाता है इसी सड़क पर अंग्रेज़ों ने 1857 में सैकड़ों देशभक्तों को रोड-रोलर से कुचलवा दिया था।
दूसरी भगत सिंह के पैतृक गांव पंजाब के खटकड़ कलां से शुरू हो कर पानीपत आएगी और हरियाणा के जत्थे से मिलकर पैदल 23 मार्च को सिंघू बार्डर पहुंचेगी। तीसरी मथुरा से शुरू होकर पलवल पड़ाव पर पहुंचेगी, जिसे शीर्ष किसान नेता व वरिष्ठ वामपंथी नेता कामरेड हन्नान मौला ने झंडी दिखाकर विदा किया।
इसके पहले 19 मार्च को आज़ादी की लड़ाई के दौर के पंजाब के बंटाईदार किसानों के ऐतिहासिक मुजारा लहर (आंदोलन ) की याद में शहादत दिवस मनाया गया।
यह याद करना रोचक है कि अभी हाल ही में किसानों ने 1907 में हुए जिस पगड़ी सम्भाल जट्टा आंदोलन को याद किया था, वह 20वीं सदी में हमारे देश का सम्भवतः पहला किसान आंदोलन था, और इस आंदोलन के नेता शहीदे-आज़म भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह थे। उस समय भी अंग्रेजों ने ऐसे ही दमनकारी तीन कानून किसानों पर थोपे थे, जिन्हें अंततः इस आंदोलन के दबाव में वापस लेना पड़ा था।
बाद में गांधी जी के नेतृत्व में चंपारण का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ, खेड़ा बारडोली, अवध का किसान आंदोलन, स्वामी सहजानन्द के नेतृत्व में बिहार किसान आंदोलन, बंगाल में तेभागा और तेलंगाना किसान संघर्ष हुए।
हम देखते हैं कि आज़ादी की लड़ाई के समान्तर किसान आंदोलनों की सतत श्रृंखला चलती रही, जो स्वतंत्रता आंदोलन से अनुप्राणित होती रही और उसकी दिशा और मूल्यों को प्रभावित और परिभाषित करती रही।
वैसे तो भगत सिंह ने जब होश संभाला, चाचा अजित सिंह विदेश में रहकर अपनी गतिविधियाँ संचालित करने लगे थे और उनकी शहादत के बाद ही देश में वापस लौट पाए थे, पर यह माना जाता है कि चाचा अजित सिंह के जीवन का गहरा असर भगत सिंह के ऊपर था। किसान योद्धाओं की पारिवारिक विरासत ने भगत सिंह के जीवन और सोच को रेडिकल दिशा में मोड़ने में निर्णायक भूमिका निभाई। भगत सिंह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वोत्तम प्रोडक्ट्स में थे, कालांतर में भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों ने और उनके शौर्यपूर्ण बलिदान ने पूरे स्वतंत्रता आंदोलन को रैडिकल दिशा देने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। अंततः कांग्रेस ने भी डोमिनियन स्टेटस की मांग से आगे बढ़ते हुए इंकलाबियों, कम्युनिस्टों द्वारा उठायी गयी पूर्ण आज़ादी की मांग को अंगीकार किया और रैडिकल भूमि- सुधार को अपने चार्टर में शामिल किया।
आज किसान अपने आंदोलन को दूसरी आज़ादी की लड़ाई बता रहे हैं। स्वाभाविक रूप से पहली आज़ादी की लड़ाई के प्रतीक, उसके विचार, उसके नायक, उनका शौर्य और बलिदान उनकी इस दूसरी आज़ादी की लड़ाई के लिए सबसे बड़ा प्रेरणा स्रोत बन रहे हैं। आज जैसे हमारे साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष का पूरा इतिहास फिर से जीवन्त हो उठा है।
बेशक, इस आंदोलन की अन्तर्वस्तु और इसकी परिस्थितियां, इसका राजनैतिक-ऐतिहासिक सन्दर्भ बिल्कुल भिन्न हैं। परन्तु, बेहद crucial समानता के बिंदु भी मौजूद हैं- मौजूदा हुक्मरानों की किसानों के प्रति अंग्रेजों जैसी ही क्रूर संवेदनहीनता, वैसा ही दमन, साजिशें, बाँटो और राज करो की वही विभाजनकारी नीति, कम्पनी राज की वापसी और जमीन छिनने का खतरा !
संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है, "किसान, मजदूर व खेत मजदूर संगठनों की ओर से 23 मार्च के बड़े आयोजन का मक़सद हमारे शहीदों की महान साम्राज्यवाद विरोधी विरासत को किसान आंदोलन के मौजूदा परिवेश के साथ जोड़ते हुए इस आंदोलन को बुलंदियों की ओर ले जाना है." इसके culmination में 26 मार्च को पूरा भारत बंद रहेगा।
सचमुच, भगत सिंह की विरासत के जो मूल तत्व हैं, आज किसान आंदोलन ने उनको जीवन्त कर दिया है। किसान आंदोलन में भगत सिंह की स्पिरिट जिंदा हो उठी है।
असेम्बली बम कांड में कोर्ट में बयान देते हुए उन्होंने कहा था, " उत्पादक और मेहनतकश हमारे समाज के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन शोषक वर्ग उनकी मेहनत की कमाई लूट लेता है और उन्हें बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित रखता है। किसान जो सबके लिए अन्न पैदा करते हैं, अपने परिवार के साथ भूख से मर जाते हैं, बुनकर जो दुनिया के लिए कपड़ा बनाते हैं, उनके पास अपने बच्चों का तन ढकने के लिए भी नहीं होता, बढई, लोहार, मिस्त्री जो आलीशान महल बनाते हैं, झोंपड़ी में रहने को मजबूर होते हैं। पूंजीपति, उनका शोषण करने वाले जोंक की तरह उन्हें चूसकर स्वयं ऐश-आराम की जिंदगी जीते हैं। "
भगत सिंह का यह वर्णन 90 साल बाद भी कितना समकालीन लगता है। बिल्कुल अंग्रेजों जैसे ही किसानों और मेहनतकशों के खिलाफ तमाम काले कानून बनाते हुए आज भी सरकार कारपोरेट मुनाफाखोरों के पक्ष मे खड़ी है।
अपनी फांसी के डेढ़ माह पूर्व 2 फरवरी 1931 को युवा राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपने संदेश में भगत सिंह ने कहा था," असली इंकलाबी ताकतें गांवों और कल-कारखानों में हैं, अर्थात किसान और मजदूर। पूंजीवादी नेता उन्हें कभी संगठित नहीं करेंगे। एक बार ये सोए शेर जाग गए तो वे पूंजीवादी नेताओं द्वारा तय सीमाओं का अतिक्रमण करके उसके पार निकल जाएंगे। ...बेशक, शुरू में हमें इनकी आर्थिक मांगे उठानी होंगी और बाद में उन्हें प्रेरित करना होगा कि वे राजनीतिक सत्ता का नियंत्रण अपने हाथ में ले लें।"
मौजूदा किसान-आंदोलन आर्थिक सवालों से आगे निकलते हुए आज जब 'राजनीतिक' दिशा की ओर बढ़ रहा है तो इस पर चिल्ल-पों करने वालों को भगत सिंह की "किसानों की राजनीतिक सत्ता" की बात पर गौर करना चाहिए।
आज, पूंजीवादी नेताओं का सत्ताधारी हिस्सा किसानों की लूट और दमन में लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं की धज्जियां उड़ा रहा है, तो वहीं विपक्ष के पूंजीवादी नेता ऊपर से तो किसान आंदोलन का समर्थन कर राजनैतिक लाभ कमाने की फिराक में हैं, लेकिन संसदीय समितियों में बैठकर वे चुपके चुपके कृषि कानूनों को लागू करने की संस्तुति कर रहे हैं। Indian Express में 20 मार्च को छपी खबर के अनुसार संसद की स्थायी समिति (Standing Committee on Food, Consumer Affairs and Public Distribution) ने चार दिन पहले 18 मार्च को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में संस्तुति की है कि 3 कृषि कानूनों में से आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम को अक्षरशः (In letter and spirit ) लागू किया जाय। इस समिति में भाजपा, जद-यू ही नहीं गैर-वाम विपक्ष के अनेक प्रमुख दलों कांग्रेस, AAP पार्टी, NCP, TMC, सपा आदि दलों के दोनों सदनों के कुल 30 सांसद हैं।
यह दिखाता है कि किसान-मेहनतकश विरोधी नव-उदारवादी अर्थनीति पर सारी कारपोरेटपरस्त पार्टियां एक हैं।
ऐसी स्थिति में किसानों के पास अपनी जमीन और आज़ादी के लिए अंत तक खुद लड़ने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचा है।
अकूत बलिदान के बावजूद आज किसान इसीलिए अपनी मांगों पर अडिग हैं और अपने दम पर 4 महीने से बिना थके लड़ रहे हैं ।
दरअसल, भगत सिंह के लिए किसानों-मेहनतकशों के राज की बात केवल इन उत्पादक वर्गों के प्रति सहानुभूति का परिणाम नहीं थी, बल्कि वे इस बात को समझते थे कि देश को सच्ची राष्ट्रीय मुक्ति भी तब तक नहीं मिल सकती, जब तक वह किसानों-मजदूरों पर आधारित न हो।
उन्होंने अपने चर्चित लेख ' क्रन्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा ' में स्पष्ट घोषणा की, " हम समाजवादी क्रांति चाहते हैं, जिसके लिए बुनियादी जरूरत राजनैतिक क्रांति की है.... लेकिन यदि आप कहते हैं कि आप राष्ट्रीय क्रांति चाहते हैं जिसका लक्ष्य भारतीय गणतंत्र की स्थापना है, तो मेरा प्रश्न यह है कि इसके लिए आप किन शक्तियों पर निर्भर करते हैं ? क्रांति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं मजदूर और किसान!"
औपनिवेशिक दायरे में विकसित हुआ भारतीय पूंजीवाद वैश्विक वित्तीय पूँजी के साथ नाभि-नालबद्ध है और उस पर निर्भरशील है। इसी का नतीजा है कि हमारी सरकारों में यह साहस नहीं है कि वे विदेशी पूँजीशाहों और WTO, IMF, WB जैसी साम्राज्यवादी एजेंसियों के दबाव को नकार कर अपनी स्वतन्त्र आर्थिक नीतियां बना सकें तथा अन्य देशों से रणनीतिक रिश्ते बना सकें। हमारी सरकार उनकी मर्जी के बिना न किसानों को सब्सिडी दे सकती है, न सार्वजनिक निवेश जरूरी होने पर भी वित्तीय घाटा की उनके द्वारा तय सीमा का अतिक्रमण कर सकती, न उनकी मर्जी के बिना ईरान से सस्ता तेल खरीद सकती है!
सबसे ताजा उदाहरण है करोड़ों किसानों के हितों को रौंदते हुए लाये गए कृषि कानून जो भारतीय कृषि को साम्राज्यवादी देशों की जरूरतों के अनुरूप ढालने, कारपोरेटीकरण तथा नए कंपनी-राज की ओर ले जाएंगे।
भगत सिंह की यह समझ सही साबित हुई है कि किसानों-मेहनतकशों पर निर्भर राष्ट्रीय क्रांति द्वारा साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के चक्र से बाहर निकले बिना, उसके कुचक्र को तोड़े बिना हमारे जैसे देशों की वास्तविक मुक्ति -आर्थिक व राजनैतिक सम्प्रभुता- तथा प्रगति संभव नहीं।
भगत सिंह के लिए बेहद अहम थी साम्प्रदायिकता से देश को बचाने की चिंता! साम्प्रदायिकता द्वारा राष्ट्र तथा राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उपस्थित खतरे को अपने तमाम समकालीनों की तुलना में अधिक स्पष्टता से उन्होंने समझा था ।
26 जनवरी के तिरंगा प्रकरण के माध्यम से सरकार ने अंधराष्ट्रवादी साम्प्रदायिक उन्माद पैदा कर आंदोलन को कुचल देने का जो षड़यंत्र रचा था, उसका किसान-आंदोलन ने जिस तरह मुकाबला किया और बेहद नाजुक परिस्थिति में किसान एकता को बुलंद किया, उसने भगत सिंह के संप्रदायिकता-विरोधी समझौता-विहीन संघर्ष की याद ताजा कर दी।
हमारे तमाम राष्ट्रीय नेताओं ने, आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी और स्वातंत्र्योत्तर भारत में भी, साम्प्रदयिकता के खतरे को कम करके आंका, उसकी मुख्य वाहक RSS, जनसंघ -भाजपा को अपने तमाम राजनीतिक कदमों से जिस तरह वैधता प्रदान की तथा सरकारों में पहुंचकर शक्ति अर्जित करने का अवसर दिया, उसके फलस्वरूप वह आज हमारे सम्पूर्ण लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ही खतरा बन कर खड़ा हो गयी है।
जहां अनेक नेता उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष में साम्प्रदायिक ताक़तों से हाथ मिलाने में परहेज नहीं करते थे अथवा उससे पैदा खतरे को नजरअंदाज करते थे, वहीं भगत सिंह ने साफ कहा था कि साम्प्रदायिकता उतना ही बड़ा खतरा है जितना बड़ा उपनिवेशवाद!
उन्होंने धार्मिक-सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े लोगों को नौजवान सभा में शामिल करने से इंकार कर दिया, क्योंकि उनका स्पष्ठ विचार था कि धर्म सबका निजी मामला है और साम्प्रदायिकता तो दुश्मन ही है, जिसके खिलाफ लड़ना है ।
साम्प्रदायिकता को वह कितना बड़ा खतरा मानते थे और उसके प्रति उनका रुख कितना सख्त और समझौताविहीन था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस लाला लाजपत राय के लिए उनके मन में अपार सम्मान था, जिनके अपमान के खिलाफ सांडर्स की हत्या के आरोप में उन्हें फांसी तक हुई, वही लाजपत राय जब जीवन के अंतिम दिनों में साम्प्रदायिकता की ओर झुकते दिखे तो भगत सिंह ने उनके लिए लिखा " The lost leader " ! बकौल प्रो. बिपन चंद्र उन्होंने एक परचा निकाला जिस पर लालाजी के प्रति असम्मान का एक भी शब्द लिखे बिना रॉबर्ट ब्रावनिंग की कविता " The lost leader" छाप दी जो उन्होंने Wordsworth के लिए तब लिखी थी जब वे Liberty अर्थात स्वतंत्रता के खिलाफ खड़े होने लगे थे! और उसके कवर पर लालाजी की फोटो छाप दी!
वे वर्ग-चेतना के विकास को सांप्रदायिकता से लड़ने का सबसे कारगर हथियार मानते थे ।
26 जनवरी के सरकार प्रायोजित साम्प्रदायिक उन्माद से निपटने में तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के दंगों से पैदा खाईं को पाटने में किसान आंदोलन से पैदा वर्गीय किसान एकता की महान भूमिका ने भगत सिंह को सच साबित किया है।
आज जरूरत है कि हमारा समाज, विशेषकर युवा पीढी, अपने सबसे "चहेते" नेताओं के खिलाफ उसी तरह खड़े होने का साहस दिखाए जैसे भगत सिंह लाजपत राय के खिलाफ खड़े हुए थे!
भगत सिंह जाति-आधारित असमानता और अन्याय, छुआछूत जिसकी सबसे बर्बर अभिव्यक्ति थी, का खात्मा कर, लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण करना चाहते थे !!!
उन्होंने इसे भारतीय समाज का बेहद अहम सवाल माना था और इसे मानव-गरिमा पर आघात माना था। उन्होंने साफ़ देखा कि इससे भारतीय समाज में श्रम के प्रति घृणा का भाव पैदा हुआ जिसने पूरे समाज की प्रगति को अवरुद्ध कर दिया!
दलितों से संगठित होकर संघर्ष की अपील करते हुए उन्होंने पूंजीवादी नौकरशाही के झांसे में आने से उन्हें सचेत किया। उन्होंने कहा "तुम असली सर्वहारा हो.....उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं होगा। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनैतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो । तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो! सोये हुए शेरों, उठो और बगावत खड़ी कर दो !!"
किसान आंदोलन में जिस तरह किसानों, खेत मजदूरों और सभी मेहनतकशों की एकता कायम हो रही है, हर घर में एक साथ किसान नेता छोटू राम और दलित मुक्ति के प्रतीक डॉ. आंबेडकर की फोटो लगाने का किसान नेता आह्वान कर रहे हैं और आंदोलन में हर स्तर पर लोकतांत्रिक मूल्यबोध मजबूत हो रहा है, आशा की जानी चाहिए कि सामाजिक अन्याय के अंत और जाति विनाश की दिशा में यह आंदोलन मील का पत्थर साबित होगा। महिलाओं की अभूतपूर्व भागेदारी भी इस आंदोलन में व्याप्त सामाजिक बराबरी की भावना और लोकतांत्रिकता का अभिन्न अंग है, जिसे Time ने भी अपने कवर पर छापकर recognise किया ।
भगत सिंह के विचारों को अपनी मशाल बनाये किसान-मेहनतकश-नौजवान उनके सपनों का हिंदुस्तान बनाने के लिए निर्णायक संघर्ष की राह पर निकल पड़े हैं, यही आज कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से वीर शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि है ।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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