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स्मृति शेष : अपने विचार और व्यवहार से अमर हो गए कुमार शिरालकर

कुमार शिरालकर को एक ऐसे नौजवान के तौर पर समझा जा सकता है जो आईआईटी का टॉपर था, जो अपनी इंजीनीरिंग की नौकरी छोड़ मार्क्सवाद का रास्ता चुनकर आदिवासियों में आया और यहां के हर घर का सदस्य हो गया।
Comrade Kumar Shiralkar

3 अक्टूबर 2022 को महाराष्ट्र के दूर दराज, मुंबई से लगभग 450 किलोमीटर दूर, मध्य प्रदेश और गुजरात के बॉर्डर पर मौजूद एक जनजातीय जिले नंदुरबार के बीटीआर स्कूल के प्रांगण में सैंकड़ों की संख्या में आदिवासी व्यथित और शोक संतप्त थे। उनके आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उनके दुःख और कुमार शिरालकर के लिए उनके प्यार को बयां करने लिए शब्द ढूंढना असंभव लगता है। कोई भी शब्द उनके अगाढ़ प्रेम का वर्णन करने के लिए कम पड़ जाए। 

कुमार शिरालकर एक पक्के मार्क्सवादी, खेत मज़दूरों और आदिवासियों के अद्वितीय नेता, लेखक, चिंतक, एक पर्यावरणविद्, CPIM के सच्चे सिपाही जानलेवा बीमारी कैंसर से लम्बी जंग लड़ने के बाद 2 अक्टूबर को हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए और अपने पीछे छोड़ गए एक विरासत और एक प्रेरणा दायक जीवन की मिसाल जो उनके प्रिय साथियों का मार्गदर्शन तो करेंगी ही लेकिन दूसरे अनेको लोगो को शोषण और जुलम के खिलाफ और बराबरी के समाज के लिए आमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के लिए प्रेरित करेंगी।  

ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए, मार्क्सवादी नास्तिक बने और आदिवासी होकर मरे

एक नौजवान, आईआईटी का टॉपर, अपनी इंजीनीरिंग की नौकरी छोड़ मार्क्सवाद का रास्ता चुनकर आदिवासियों में आया और यहां के हर घर का सदस्य हो गया।   कुमार का जन्म ब्राह्मण परिवार में में हुआ पर उनकी मृत्यु आदिवासी परिवारों में हुई। एक कट्टर नास्तिक और मार्क्सवादी के अंतिम संस्कार के लिए उनके चाहने वालों को आदिवासी परंपरा से करने की जिद्द करते देखा। पता है कुमार शिरालकर को इससे फर्क नही पड़ता कि उनका अंतिम संस्कार कैसे हो, परंतु जब उनके शरीर को आदिवासी परंपरा के अनुसार दफनाया गया तो मानो ऐसा लग रहा था कि जैसे यह आदिवासी कह रहे हो कि कुमार पर सबसे ज्यादा हक उनका है। मानो उनका नेता नहीं उनके परिवार का अपना सदस्य उन्हें छोड़ गया हो। सही है आदिवासी आसानी से किसी को अपनाते नही और अगर अपना ले तो फिर जिंदगी के बाद भी छोड़ते नहीं। वर्ष 1971 में नंदुरबार (तब के धुले जिले का हिस्सा) में जब कुमार शिरालकर काम करने आये तो नारायण ठाकरे के घर में ठिकाना किया।  यह घर ही उनकी पहचान और स्थाई पता हो गया।  यही पर उनका आधार कार्ड बना, ठाकरे परिवार में राशन कार्ड में उनका नाम दर्ज हुआ, और यही पर उनका मतदाता पहचान पत्र बना। जब कुमार आये थे तो  नारायण ठाकरे कुछ सत्रह वर्ष के रहे होंगे।  वह कुमार के साथी बन गए और आंदोलन के नेता भी।  तीन अक्टूबर को जब सब कामरेड कुमार के पार्थिव शरीर के पास अपने शोक सन्देश दे रहे थे तो लगभग सत्तर वर्ष के कामरेड नारायण ठाकरे अपने साथी कुमार के पार्थिव शरीर को शांति से देख रहे थे।  अगले दिन सुबह दुखद खबर आई कि नारायण ठाकरे जी का हृदय गति रुक जाने से देहांत हो गया। 

मार्क्सवाद से प्रेरित होकर छोड़ी नौकरी

वैसे तो कुमार अपने बारे में बहुत कम बात करते थे फिर भी एक बार बताया था कि उन्होंने छात्र जीवन में ही तय कर लिया था कि वह ग्रामीण भारत में जाकर शोषितों और उत्पीड़तों के लिए कुछ करेंगे परन्तु कैसे और क्या करेंगे यह साफ नहीं था। लक्ष्य साफ़ हुआ जीवन के अनुभवों से। वह अपने आईआईटी के दोस्तों के साथ मुंबई के माटुंगा लेबर कैंप में जाते थे और वहीं मलिन बस्तियों (झुग्गियों) में रहकर मिल मज़दूरों के बच्चो को पढ़ाते थे ।मिल मज़दूरों में रहते हुए समझ काफी स्पष्ट होती गई । इसी बीच मराठी कवि बाबूराव बागुल से कई विषयों पर उनकी चर्चा शुरू हुई । उनकी चर्चाओं में मार्क्सवादी और नक्सलवादी आंदोलन का भी जिक्र आया। नौजवान कुमार व्याकुल हो उठे। फिर शुरू हुआ मार्क्सवादी साहित्य के अध्ययन की प्रक्रिया।  इसके बाद वह बाबा आमटे द्वारा स्थापित श्रमिक कार्यकर्त्ता विद्या पीठ में काम करने चले गए जहाँ उन्होंने कृषि क्षेत्र से जुड़े कुष्ठ रोगियों के बीच काम शुरू कर दिया।बाबा आमटे ने कुमार और उनके साथियों को सामाज को समझने और ग्रामीण भारत को देखने के लिए प्रेरित किया।  उन्होंने कुमार को  धुले जिले (अभी नंदुरबार) के शहादा में जाकर आदिवासियों में काम करने को कहा।  कुमार 1971 में यहाँ आये।  नंदुरबार में खेत मज़दूरों, गन्ना मज़दूरों और ईंट के भट्टे में काम करने वाले मज़दूरों की दशा देख कर उनके जीवन का मकसद तय हो गया ।  

नंदुरबार में रहने के शुरुआती दौर में ही कुछ घटनाओं ने कुमार के जीवन को बहुत प्रभावित किया।  कुमार बताते थे कि नंदुरबार के अम्लाड गांव से एक खेत मज़दूर महिला और उसका बच्चा सौराष्ट्र में गन्ने के खेत में काम करने गए थे।  जैसा कि खेत मज़दूरों के लिए आम है दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद रात को इन खेत मज़दूरों को खेतों में खुले आसमान के निचे ही सोना पड़ता था।  एक रात शेर आया और महिला खेत मज़दूर को खींच कर ले गया। शेर ने उसे खा लिए और उसका बच्चा पीछे असहाय रह गया।  बताते हुए कुमार भाऊ भावुक हो जाते कि यह घटना उनसे केवल 30 किलोमीटर दूर हुई।  वह और उनके साथी वहां गए।  प्रयासों के बाद बच्चे को कुछ मुआवजा मिला। परन्तु ऐसी घटनाएं तो खेत मज़दूरों के जीवन की आम बात थी।  ऐसी ही अन्य घटनाये देखने के बाद तय हो गया कि खेत मज़दूरों की मुक्ति संगठित आंदोलन से ही होगी।  और वह जान गए कि सामाजिक बदलाव के लिए मार्क्सवाद ही एक मात्र रास्ता है।  उन्होंने ग्रामीण भारत में सर्वहारा-खेत मज़दूरों विशेष तौर पर आदिवासियों को संगठित करना जीवन का लक्ष्य बना लिया।

वैचारिक दृढ़ता और अनुकरणीय सादा जीवन

कुमार शिरालकर वैचारिक रूप से बहुत ही स्पष्ट थे।  उन्हें सामाजिक बदलाव का इंक़लाबी का रास्ता बिलकुल स्पष्ट दीखता था। सामाजिक बदलाव में खेत मज़दूरों का महत्व वह खूब समझते थे।  वह कोई अति उत्साही मानवतावादी नौजवान नहीं थे बल्कि एक गम्भीत मार्क्सवादी चिंतक थे जो शोषण, शोषण की प्रक्रिया और इसे बदलने के रास्ते पर गंभीरता से विचार कर रहे थे। इसी समझ के साथ वह भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने और ताउम्र इसके सच्चे सिपाही व जनता की जनवादी क्रांति के प्रणेता रहे। महाराष्ट्र शेत मज़दूर यूनियन के राज्य महासचिव रहे और अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव के तौर पर आंदोलन का नेतृत्व किया।

मार्क्सवाद के विचार को आत्मसाद करते हुए, शोषितों की लड़ाई में उन्होंने अपना जीवन भी बदल दिया।  मानों उनकी अपनी कोई पहचान नहीं जो कुछ है वह लाल झंडे का।  इतना साधारण जीवन कि कोई सन्यासी भी रश्क करने पर मज़बूर हो जाये । सर्वहारा की लड़ाई में अपने को उनका हिस्सा बना दिया।  जमा पूँजी के नाम पर बौद्विक सम्पदा और बलिदानों के खजाने के सिवाय कुछ भी नहीं। एक संप्रभात परिवार से आने के वावजूद सर्वहारा में उनकी तरह रहना, केवल दिखने के लिए नहीं बल्कि वैसा जीवन जीना- आप प्रेरित हो सकते है, किस्से सुना सकते है परन्तु इसे जीना आसान नहीं है।  और इसी मुश्किल को अपना जीवन बनाने का नाम ही कुमार शिरालकर है।  शादी की परन्तु बहुत कम समय के लिए साथ रहना हुआ। कुमार का तो परिवार ही समाज हो गया था। अच्छा  पैतृक घर बेच कर अपनी माँ के लिए एक फ्लैट खरीद लिए और वहीँ उनके रहने की व्यवस्था कर दी।   

घोर व्यक्तिवाद के इस युग में कुमार की पहचान लाल झंडा ही थी। उनके काम बलिदानो और बौद्धिक स्तर के कारण वह महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में समाज के सभी हिस्सों में काफी लोकप्रिय थे। सामान्यता प्रशासनिक अधिकारी और राजनेता उनके नाम और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे।  जो उनसे नहीं मिले थे वह भी उनकी ख्याति से अछूते नहीं रहे थे।  पर कुमार तो मानो इस सब से परे थे।  कभी भी अपनी पहचान का फायदा नहीं उठाया।  यहाँ तक कि मज़दूरों की लड़ाई लड़ते हुए मज़दूरों के अधिकारों को तर्कों और आंदोलन की ताकत पर जीता।  कई संघर्षों में जीत के बाद पता चलता था कि इसका नेतृत्व कुमार कर रहे थे। एक बार जालना जिले में खेत मज़दूरों के आंदोलन में अधिकारीयों से वार्ता चल रही थी। कुमार हमेशा की तरह नेतृत्व कर रहे थे।  अधिकारी तो अपनी सामंती अकड़ में रहते है और वह वर्ताव में झलकता है।  इतने में कोई वरिष्ठ अधिकारी कुमार को पहचान लिए और कनिष्ट अधिकारी के कान में धीरे से बता भर दिया कि जिनसे वह बात कर रहे है वह कुमार है। वह अधिकारी तो मानने को तैयार ही नहीं। समझ ही नहीं पा रहा है जिस इंसान के बारे में उन्होंने इतना सुना है वह उनसे मज़दूरों के साथ जिरह कर रहा है। वह थे हमेशा लोगो में पर बिना अपने नाम का डिंडोरा पिटे। एक सच्चे मार्क्सवादी की तरह, मार्क्सवाद को लागू करते हुए।

हर किसी के पास कुमार की सादगी की कई कहानियां है। एक महिला नेता ने बताया कि कैसे   कुमार एक बार उनके जिले में एसएफआई की क्लास लेने आए। रात को देर से पहुंचे तो किसी को परेशान न करने के मकसद से बस अड्डे में ही सो गए। कपड़े जो पहने थे हमेशा की तरह साधारण। रात को पुलिस उठा कर थाने में ले गई कि सार्वजनिक जगह पर क्यों सो रहें है। बिना अपनी पहचान बताए चुप चाप रात पुलिस स्टेशन में गुजारी। सुबह जब एसएफआई के नेताओं ने खोज कि तो पुलिस थाने में पहुंचे। पुलिस वालो को जब पता चला कि रात भर कुमार को थाने में जमीन पर सुलाया तो बहुत शर्मिंदा हुए। माफी मांग बड़े आदर से कुमार को छोड़ कर आए। ऐसे थे   कुमार ।

प्यार और भावनाओं से भरे थे

कुमार अपने जीवन में कठोर अनुसाशन का पालन करते थे और मज़बूती से विचार के साथ खड़े रहते थे पर इसका यह मतलब नहीं कि वह कठोर थे। अपने साथियों के जीवन और उनकी जरूरतों का विशेष ध्यान रखते थे। बिना कहे समझ जाते थे दूसरो की तकलीफ और समाधान भी हो जाता, बिना उनका नाम आए। अपनी माँ से बहुत प्रेम करते थे और अंतिम दिनों में पार्टी से वाकायदा छुट्टी लेकर उनकी सेवा की। अपनी बहन से उनका गहरा रिश्ता था।  उनकी तीमारदारी के लिए उन्होंने फिर पार्टी से अवकाश लिए और पूरे मन से उनकी देखभाल की।

कुमार शिरालकर ने यहाँ खेत मज़दूर यूनियन का राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व किया वही प्राथमिक स्तर पर कमेटियों को भी चलाया।  यह उनकी खासियत थी कि ज़मीनी स्तर पर लोगो से जुड़ना और उनको लामबंद करना। नंदुरबार और बीड जिले में कई पंचायतो में खुद रह कर उन्होंने संगठन का निर्माण किया। एक तरह से कहें तो मॉडल तैयार किये। उन्होंने नंदुरबार में सामंतो के खिलाफ आदिवासियों की ज़मीन के लिए तीखे आंदोलन लड़े। आदिवासियों के नेतृत्व ही नहीं किया बल्कि उनको एक ताकत के रूप में संगठित किया जो अपनी लड़ाई खुद लड़ सके। पुलिस और सामंतो के दमन का बहादुरी से सामना किया । वह केवल आंदोलनकारी नहीं थे बल्कि कृषि व्यवस्था की समस्याओ और वैकल्पिक कृषि नीति की गहरी समझ रखते थे। पर्यावरण से उन्हें सहज प्रेम थे।  वह जैविक खेती, वैज्ञानिक तौर तरीकों से कृषि की केवल बात ही नहीं करते बल्कि इस पर खुद अमल भी करते थे।  जो बाकियो को बताते उसे लागू करके दिखाते। सूखे के संकट से निपटने के लिए जल सरक्षण और प्रबंधन का उनका मॉडल मराठवाड़ा के क्षेत्र में काफी लोकप्रिय है।

थ्योरी एंड प्रैक्टिस की मिसाल

सारांश में कहें तो कुमार थ्योरी एंड प्रैक्टिस के मिसाल थे।  जिस सिद्धांत को मानते थे, आत्मसात करते थे, उसे लागू भी करते थे चाहे वह समाज को समझने का मार्क्सवादी विचार हो, संगठन को बनाने को लाकतांत्रिक व्यव्हार या एक कम्युनिस्ट का जीवन।  इतना ही है कि अगर किसी को सच्चा कम्युनिस्ट बनने के लिए किसी मैन्यूल या किताब की खोज है तो कुमार शिरालकर के जीवन की किताब सबसे बेहतर किताब है।

(व्यक्त विचार निजी हैं।)

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