बिहार के केदारदास श्रम और समाज संस्थान के नौवें राज्य सम्मेलन की कुछ अहम बातें
केदारदास श्रम और समाज अध्ययन संस्थान के नौवें राज्य सम्मेलन पटना के 'केदार भवन' में किया गया। इस अवसर पर बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, रँगकर्मी, छात्र-युवा संगठन, ट्रेड यूनियन, किसान सँगठन के प्रतिनधि मौजूद थे।
ज्ञातव्य हो कि केदारदास (1914-8 ) भारत के मज़दूर आंदोलन के प्रमुख शख्सियत थे। जमेशदपुर में 1958 में टाटा में हड़ताल कराने वाले दुर्लभ नेता थे। टाटा में हड़ताल कराने के कारण उस हड़ताल पर बर्बर दमन किया गया। केदारदास को 4 सालों तक जेल में रहना पड़ा। केदारदास मज़दूरों में इतने लोकप्रिय थे कि तीन बार सीपीआइ के टिकट पर बिहार विधान सभा के लिए चुने गए थे। 1981 में पुलिस की मार के कारण उनकी मौत हुई।
विश्वविद्यालय और महाविद्यालय कर्मचारियों ( AIFUCTO) के नेता प्रो अरुण कुमार की शिक्षा व्यवस्था पर लिखी पुस्तिका का लोकार्पण अतिथियों द्वारा किया गया। नौवें राज्य सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए मग्ध विश्विद्यालय के प्रति कुलपति प्रो कार्यानन्द पासवान ने कहा " सभ्यता के विकास के साथ- साथ मज़दूरों का शोषण भी बढ़ा है। अधिक विकास मतलब, अधिक शोषण। हम आज हल के बदले ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं, कटाई के लिए हार्वेस्टर का उपयोग कर रहे हैं। विज्ञान के विकास का लाभ सबको मिलना चाहिए पर उसका फायदा सिर्फ पूंजीवादी उठाते हैं। मज़दूरों का विभाजन कुछ तो लाभ-लोभ के कारण तो कुछ जातिवादी और धार्मिक शक्तियों के कारण हुआ है।"
उद्घाटन सत्र के बाद 'वर्तमान परिदृश्य में बदलाव की राजनीति' विषय पर विमर्श शुरू हुआ। विमर्श की शुरुआत करते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर सुबोध नारायण मालाकर ने कहा " पूंजीवाद बेरोजगारी के बगैर जिंदा नहीं रह सकता, पूंजीवाद उसका अविभाज्य हिस्सा है। वामपंथ के नारों को आज दूसरे लोग ले कर चल रहे हैं। पहले जो सामाजिक न्याय और आरक्षण का नारा था, वे भी आजकल बेरोजगारी का नाम ले रहे हैं। इसका मतलब यह हमारे मुद्दों की जीत है। सामाजिक न्याय की शक्तियों में वर्गीय चेतना नहीं थी,वह आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाया। दलित आंदोलन लगभग साफ हो गया है। वहीं वामपन्थी आंदोलन में अंबेडकर, पेरियार, फुले को शामिल नहीं करेंगे तो आगे नहीं बढ़ सकते। यदि जमीन का सवाल नहीं जुड़ेगा तो आरक्षण आंदोलन आगे नहीं बढ़ेगा। बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन ने भूमि के सवाल को जोड़ा है, जिससे दलित आंदोलन डरता है। उसे लगता है दलितों में भूमि की चेतना आएगी तो हमारे हाथ से निकल जायेगी। इसके प्रति हमलोगों को कड़वी भावना नहीं रखना है। वामपन्थ धैर्य से इंतज़ार कर रहा है। हम बदलाव की रणनीति में दोस्त और दुश्मन कौन हैं ? जिन्हें देखना है। पिछड़े-दलित हमारे वर्गीय दोस्त हैं, यह सद्भावना रखकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। पिछड़ा वर्ग, अतिपिछड़ा वर्ग आयोग, दलित आयोग की रिपोर्ट कहां है? इसकी हमें मांग करनी है। "
दिल्ली से आये मार्क्सवादी चिंतक अनिल राजिमवाले ने विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा " मज़दूर-किसान नेताओं के वैसे संघर्षशील नेताओं को सामने लाएं जिनको शासकवर्ग द्वारा भुला दिया जा रहा है। केदारदास संस्थान के अंदर यह भूमिका साफ़ होनी चाहिए। लेनिन की पसंदीदा कृति थी - मार्क्स की लिखी पूंजी। लेनिन को मजदूरों के बीच उस मुश्किल समझी जाने वाले कृति को समझना अच्छा लगता है।
समाज को बदलने की इच्छा और सरोकार रखने वाले सैद्धांतिक प्रयास नहीं करेंगे तो बदलाव कैसे होगा? बदलाव की राजनीति तभी सम्भव होगी जब सामाजिक परिवर्तन और समाजवाद की लड़ाई लड़ने वाले बदलाव की प्रकृति को समझेंगे अन्यथा आंदोलन आगे नहीं बढ़ेगा। कुछ देशों में दुनिया दक्षिणपन्थ की ओर जा रही है, जबकि लैटिन अमेरिका के 14 देशों में पिछले 20 सालों में संसदीय प्रणाली से वाम जनवादी सत्ताएं आकर साम्राज्यवाद को रोक रही हैं।
हम वैज्ञानिक और संचार क्रांति से गुजर रहे हैं, जिसका असर भारत के सामाजिक व वर्गीय ढांचे पर पड़ रहा है। मध्यवर्ग की भूमिका बढ़ी है। आधे लोग शहरों में रहते हैं, इन्हीं लोगों के बीच , जिनमें महिलाओं, नौजवानों की संख्या अधिक है, वामपन्थ ने प्रभाव आगे बढ़ाया है। नया विश्लेषण करना वक्त की जरूरत है। फासिस्ट शक्तियां सत्ता पर कब्जा करने के बाद राज्य के विभिन्न अंगों में घुसपैठ करती हैं। नए तरह का वित्तीय इजारेदार पूंजीवाद का विकास हो रहा है जो उत्पादन में न लग कर सट्टेबाजी में जा रही है, सेवा क्षेत्रो तथा बिल्डिंग बनाने में जा रही है। वामपन्थ को देश के सामने यह लाना पड़ेगा। मध्यवर्ग को कैसे संगठित किया जाए यह समझना पड़ेगा। जातीय और वर्गीय ढांचे अलग-अलग नहीं बल्कि एक दूसरे में घुले-मील हैं। हमें इनके बीच काम करना है। यह हमें देखना है। वर्ग पब्लिक सेक्टर में ही मिलता है। एक ओर औद्योगिक मज़दूर वर्ग तो दूसरी ओर पब्लिक सेक्टर को खत्म करने का काम अंबानी-अडानी कर रही है। ग्राम्शी कहा करते थे कि मानस पर असर शक्ति संतुलन से पड़ता है। "
पटना विश्विद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो तरुण कुमार ने कहा " सत्ता की विचारधारा को जनता के कॉमनसेंस बनने से बचना है, साथ ही खुद भी बचना है। उथल-पुथल को सच्ची निगाह से देखना है।एजेंडा वह करता है, हम प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अखाड़ा उसका है, पहलवानी हम करते हैं। विचारधारा के भीतर वैज्ञानिक दृष्टि को लेकर सवाल है। क्या मनुष्य को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित किया जा सकता है? एक आदमी जाति भी है, वर्ग भी है। एक आदमी उन्मादी है लेकिन उसे घर-परिवार को भी बचाने की भी चिंता है। अमीर वर्ग को सोचने की जरूरत नहीं भाई पैसा देकर कुछ भी खरीद सकता है। गरीब आदमी रोटी कमाने में रहता है। मध्यवर्ग सोचने का काम करता है लेकिन उपभोक्तावाद ने मध्यवर्ग को नपुंसक बना दिया है। "
पटना विश्वद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर रहे अवधकिशोर जी ने कहा " आजकल कुछ लोग राष्ट्रवाद साबित करने वाले लोग हैं जो किसी को भी राष्ट्रवद्रोही सिद्ध करते हैं। बुद्ध व महावीर ने पुरोहित वर्ग जैसे बिचौलियों को समाप्त कर दिया इस कारण विरोध हुआ। विरोध के साथ होशियार वर्ग विकल्प के तलाश करता है। उत्तर वैदिक काल मे श्राद्ध का विकल्प दिया जो आजतक हमारा पीछा करता जा रहा है। बदलवा की प्रक्रिया में प्रो चेंजर, स्लो चेंजर तथा नो चेंजर हमेशा रहते हैं।"
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