प्रभुत्व दिखाने के मोड में फंसी कांग्रेस ने गंवाया बड़ा मौक़ा
नई दिल्ली: एआईसीसी मुख्यालय, रविवार, 3 दिसंबर, 2023 को तेलंगाना, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के चुनाव के नतीजे के दिन का नज़ारा। (पीटीआई फोटो/मानवेंद्र वशिष्ठ लव)
हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथों कांग्रेस की करारी हार से एकमात्र सांत्वना यह मिलती है कि यह संभवतः संघ और उसके परिवार के लिए आगे 2024 में लोकसभा चुनाव में कोई बड़े लाभ का मार्ग नहीं बन सकता है। भाजपा के पास पहले से ही छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान की 65 सीटों में से 61 सीटें हैं, जबकि उसके एक सहयोगी के पास एक सीट है। कांग्रेस के पास महज तीन सीटें हैं।
यह समझने के लिए, कि आखिर 'सेमीफाइनल' से पहले किया गया वादा इतनी शानदार तरीके से कैसे विफल हो गया, किसी को कांग्रेस की विफलताओं की काट-छांट और भाजपा की ताकतों की जांच, यानि दोनों की जांच करने की जरूरत है। लेकिन इन सबसे पहले हमें 2014 से शुरू होने वाले प्रमुख चुनावी आंकड़ों पर नजर डालने की जरूरत है।
2014 में, जब भाजपा को तीन दशकों के खंडित जनादेश के बाद पहली बार भारी बहुमत मिला, तो उसने छत्तीसगढ़ में 48.7 प्रतिशत वोट के साथ 11 में से 10 सीटें जीती थीं; मध्य प्रदेश में 55 प्रतिशत मत के साथ 29 में से 27; और राजस्थान में 55.6 प्रतिशत के साथ सभी 25 सीटें जीती थी। 2019 में, संख्याएँ, इसी क्रम में, नौ और 50.7 प्रतिशत मत; 28 और 58 प्रतिशत मत; और, 24 और 58.5 प्रतिशत मत थीं, केवल एक सीट भाजपा के सहयोगी के पास गई थी।
2014 में, कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में 38.4 प्रतिशत वोट शेयर के साथ सिर्फ एक सीट मिली थी; मध्य प्रदेश में उसे 35 प्रतिशत वोट शेयर के साथ केवल दो सीटें मिलीं; और, राजस्थान में उसे 30.4 वोट के साथ एक भी सीट नहीं मिली थी। 2019 में, फिर से क्रम में, संख्याएँ, दो और 41; एक और 34.5; और, और 34.2 प्रतिशत मत के भी सीट नहीं मिली थी।
2014 में देशभर में बीजेपी को 33 फीसदी वोट के साथ 282 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस को 19.3 फीसदी वोट के साथ 44 सीटें मिली थीं। 2019 में बीजेपी को 37.7 फीसदी वोट के साथ 303 सीटें और कांग्रेस को 19.7 फीसदी वोट के साथ मात्र 52 सीटें मिलीं थीं। यह 10 साल की सत्ता के बाद मुख्य विपक्षी दल के विनाशकारी पतन की कहानी है।
लेकिन इन सबके बीच, 2018 के विधानसभा चुनावों में, भाजपा को छत्तीसगढ़ में 33 प्रतिशत वोट के साथ 90 में से केवल 15 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस को 43 प्रतिशत वोट के साथ 68 सीटें मिलीं; मध्य प्रदेश में, भाजपा को 230 सीटों में से 109 सीटें और 41 प्रतिशत मत मिले, जबकि कांग्रेस को 41 प्रतिशत के साथ 114 सीटें मिलीं; और, राजस्थान में, भाजपा को 38.8 प्रतिशत वोटों के साथ 73 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस ने 39.3 प्रतिशत वोटों के साथ 200 में से 100 सीटें जीतीं थीं।
यह, भारत जोड़ो यात्रा से उत्पन्न आशावाद और कर्नाटक में कांग्रेस की आसान जीत थी कि पार्टी 2024 तक बेहतर स्थिति में आ जाएगी। उल्टा, यह धराशायी हो गई, बीजेपी ने छतीसगढ़ में 46.3 फीसदी वोट शेयर के साथ 54 सीटें और; मध्य प्रदेश में 48.6 प्रतिशत मत के साथ 163 सीटें; और, राजस्थान में 41.7 प्रतिशत के साथ 115 सीट हासिल कर बाज़ी पलट दी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 42.2 वोटों के साथ 35 सीटें मिलीं; मध्य प्रदेश में 42.1 प्रतिशत वोटों के साथ 66 सीटें; और राजस्थान में 39.5 वोट शेयर के साथ 69 सीटें मिली।
कांग्रेस का वोट शेयर बहुत अधिक कम नहीं हुआ – यद्द्पि मध्य प्रदेश और राजस्थान में मामूली वृद्धि हुई है, और छत्तीसगढ़ में मामूली गिरावट आई है। राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर रही, जबकि बाकी दो राज्यों में बीजेपी को भारी बढ़त मिली है।
कांग्रेस शायद वोट-शेयर के आंकड़ों के आधार पर खुद को सांत्वना दे सकती है, खासकर तब जब कर्नाटक में उसकी जीत उन मतदाताओं के कारण हुई जो शाद किसी खेमे में नहीं थे या जिन्हे फ्लोटिंग वोट कहा जाता है। भाजपा का वोट शेयर व्यावहारिक रूप से वही रहा। इसके तुरंत बाद, भाजपा ने अपने अहंकार को दबाते हुए, जनता दल (एस) के साथ गठबंधन कर लिया था।
यदि कांग्रेस अगले साल अपना वोट शेयर बढ़ाने में विफल रहती है, और भाजपा के उच्चतम मत प्रतिशत 30 के मुकाबले 20 प्रतिशत से नीचे रहती है, तो वह सत्तारूढ़ पार्टी को अच्छी संख्या में सीटें लेकर, नुकसान नहीं पहुंचा पाएगी। कुछ क्षेत्रीय दल भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए अपनी सीट बढ़ा सकते हैं (जैसे, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड) या विपक्षी भूमिकाओं वाले राज्य (तमिलनाडु, पंजाब) ऐसा कर सकते हैं। लेकिन अगर कांग्रेस सीधी टक्कर वाले राज्यों में पिछड़ जाती है, तो भाजपा वास्तव में मामूली नुकसान के बारे में चिंतित नहीं होगी, हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि वह आत्मसंतुष्ट हो जाएगी। आख़िरकार, उनके लिए शासन के बजाय चुनाव ही सब कुछ है।
तो फिर, सवाल यह उठता है कि भाजपा अपने पीछे फ्लोटिंग वोट जुटाने में क्यों सफल रही, जबकि कांग्रेस चारों ओर घूम रही आशावाद की हवा के बावजूद डूब गई। मुख्य कारणों में से एक यह था कि विपक्षी एकता और इंडिया के गठन पर उच्च बयानबाजी के बावजूद, कांग्रेस अपनी अंतर्निहित अहंकार को छोड़ने और वास्तविक गठबंधन मानसिकता विकसित करने में सक्षम नहीं हुई है, जो उसे कुछ हद तक करना चाहिए था, इस बता को ध्यान में रखते हुए कि इसने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को दो बार एकजुट किया था। जो अजीब बात है, वह यह कि तब वह फैसले लेने के मामले में कहीं बेहतर स्थिति में थी। अब, भाजपा से बहुत पीछे रहते हुए, कोई भी सोचेगा कि कांग्रेस के लिए गठबंधन बनाना प्राथमिकता होनी चाहिए।
लेकिन तीनों राज्यों में उसने गठबंधन से परहेज किया और 'छोटी' पार्टियों को 'गठबंधन धर्म' के बारे में उपदेश दिया। इस किस्म का चतुर गठबंधन वास्तव में कुछ अस्थायी वोटों को खींचने में मदद कर सकता था और अंतर पैदा कर सकता था, यह देखते हुए कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अंतर छोटा था। लेकिन 2023 अब खोए हुए अवसर की कहानी बन गया है, खासतौर पर इसलिए क्योंकि कांग्रेस ने जाति जनगणना को बढ़ावा देने का विरोधाभासी तरीका अपनाया, और इस वादे के बावजूद उन पार्टियों के साथ गठबंधन नहीं किया जो उसे पिछड़ी जातियों को एकजुट करने में मदद कर सकती थीं – जैसे कि, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल, (यूनाइटेड) और समाजवादी पार्टी।
अध्यक्ष के चुनाव और भारत जोड़ो यात्रा के बाद भी कांग्रेस की संगठनात्मक अव्यवस्था एक गंभीर समस्या रही है। बड़े पैमाने पर आम लोगों तक पहुंचना महत्वपूर्ण है, लेकिन, जैसा कि भाजपा ने बार-बार दिखाया है, अंतिम-मील तक जोड़े रखने के लिए संगठनात्मक ढांचे का होना जरूरी है। आपको उस दिन लोगों को खुद के लिए वोट देने के लिए प्रेरित करना होगा, जिसका अर्थ है दिन निकलने से पहले कड़ी मेहनत करना। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने संगठन को मजबूत करने को लेकर उदासीन बनी हुई है और इस मामले में, जब अंतिम प्रचार अभियान की बारी आई तो ऐसा लग रहा था कि उसने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं। अंदरूनी कलह से कोई मदद नहीं मिली, लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा के भीतर भी गुटीय मुद्दे थे। इसने उन पर काबू पा लिया क्योंकि वह ज़मीन पर थी, ख़ासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने कैडर उपलब्ध कराए थे।
कांग्रेस की चुनावी पिच भी घातक रूप से अस्पष्ट रही। कर्नाटक में, यह रोजी-रोटी के मुद्दों तक ही सीमित रही। लेकिन, इस दौर में, इसने जमीनी स्तर पर बहुसंख्यकवादी संदेश देने का प्रयास किया, जबकि इसके बड़े नेता घरेलू शासन और कल्याण के मुद्दों पर जोर देते रहे। यह कभी काम नहीं करने वाला था। इसमें अपने सिद्धांतों पर टिके रहने का साहस होना चाहिए था और यह अहसास होना चाहिए था कि यह हिंदुत्व की पिच को हथियाने में सक्षम नहीं हो पाएगी।
हालाँकि, जटिल तरीके से ही सही, कांग्रेस इस चुनावी उथल-पुथल से कुछ सकारात्मक चीजें निकाल सकती है। सबसे पहले, इसे सहयोगियों के साथ बात करनी चाहिए, जहां उपयुक्त हो, और जहां वे मौजूद नहीं हैं, वहां नए सहयोगियों को ढूँढना चाहिए। दूसरा, उसे तत्काल अपना ध्यान संगठनात्मक ढांचे के नवीनीकरण या उसे मजबूत करने की ओर लगाना चाहिए।
और, अंततः, इसे कमल नाथ जैसे कुटिल नेताओं को विदाई दे देनी चाहिए, जिनका वक़्त अब निकल गया है और राजनीतिक रूप से हानिकारक हैं।
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।
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